भागसूचना
त्रयोविंशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अर्जुनके द्वारा दुर्गादेवीकी स्तुति, वरप्राप्ति और अर्जुनकृत दुर्गास्तवनके पाठकी महिमा
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
धार्तराष्ट्रबलं दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्।
अर्जुनस्य हितार्थाय कृष्णो वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥
मूलम्
धार्तराष्ट्रबलं दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम्।
अर्जुनस्य हितार्थाय कृष्णो वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— दुर्योधनकी सेनाको युद्धके लिये उपस्थित देख श्रीकृष्णने अर्जुनके हितके लिये इस प्रकार कहा॥१॥
मूलम् (वचनम्)
श्रीभगवानुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुचिर्भूत्वा महाबाहो संग्रामाभिमुखे स्थितः।
पराजयाय शत्रूणां दुर्गास्तोत्रमुदीरय ॥ २ ॥
मूलम्
शुचिर्भूत्वा महाबाहो संग्रामाभिमुखे स्थितः।
पराजयाय शत्रूणां दुर्गास्तोत्रमुदीरय ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीभगवान् बोले— महाबाहो! तुम युद्धके सम्मुख खड़े हो। पवित्र होकर शत्रुओंको पराजित करनेके लिये दुर्गा देवीकी स्तुति करो॥२॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तोऽर्जुनः संख्ये वासुदेवेन धीमता।
अवतीर्य रथात् पार्थः स्तोत्रमाह कृताञ्जलिः ॥ ३ ॥
मूलम्
एवमुक्तोऽर्जुनः संख्ये वासुदेवेन धीमता।
अवतीर्य रथात् पार्थः स्तोत्रमाह कृताञ्जलिः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— परम बुद्धिमान् भगवान् वासुदेवके द्वारा रणक्षेत्रमें इस प्रकार आदेश प्राप्त होनेपर कुन्तीकुमार अर्जुन रथसे नीचे उतरकर दुर्गादेवीकी स्तुति करने लगे॥३॥
मूलम् (वचनम्)
अर्जुन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमस्ते सिद्धसेनानि आर्ये मन्दरवासिनि।
कुमारि कालि कापालि कपिले कृष्णपिङ्गले ॥ ४ ॥
भद्रकालि नमस्तुभ्यं महाकालि नमोऽस्तु ते।
चण्डि चण्डे नमस्तुभ्यं तारिणि वरवर्णिनि ॥ ५ ॥
मूलम्
नमस्ते सिद्धसेनानि आर्ये मन्दरवासिनि।
कुमारि कालि कापालि कपिले कृष्णपिङ्गले ॥ ४ ॥
भद्रकालि नमस्तुभ्यं महाकालि नमोऽस्तु ते।
चण्डि चण्डे नमस्तुभ्यं तारिणि वरवर्णिनि ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुन बोले— मन्दराचलपर निवास करनेवाली सिद्धोंकी सेनानेत्री आर्ये! तुम्हें बारंबार नमस्कार है। तुम्हीं कुमारी, काली, कपाली, कपिला, कृष्णपिंगला, भद्रकाली और महाकाली आदि नामोंसे प्रसिद्ध हो; तुम्हें बारंबार प्रणाम है। दुष्टोंपर प्रचण्ड कोप करनेके कारण तुम चण्डी कहलाती हो, भक्तोंको संकटसे तारनेके कारण तारिणी हो, तुम्हारे शरीरका दिव्य वर्ण बहुत ही सुन्दर है; मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कात्यायनि महाभागे करालि विजये जये।
शिखिपिच्छध्वजधरे नानाभरणभूषिते ॥ ६ ॥
मूलम्
कात्यायनि महाभागे करालि विजये जये।
शिखिपिच्छध्वजधरे नानाभरणभूषिते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाभागे! तुम्हीं (सौम्य और सुन्दर रूपवाली) पूजनीया कात्यायनी हो और तुम्हीं विकराल रूपधारिणी काली हो। तुम्हीं विजया और जयाके नामसे विख्यात हो। मोरपंखकी तुम्हारी ध्वजा है। नाना प्रकारके आभूषण तुम्हारे अंगोंकी शोभा बढ़ाते हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अट्टशूलप्रहरणे खड्गखेटकधारिणि ।
गोपेन्द्रस्यानुजे ज्येष्ठे नन्दगोपकुलोद्भवे ॥ ७ ॥
मूलम्
अट्टशूलप्रहरणे खड्गखेटकधारिणि ।
गोपेन्द्रस्यानुजे ज्येष्ठे नन्दगोपकुलोद्भवे ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम भयंकर त्रिशूल, खड्ग और खेटक आदि आयुधोंको धारण करती हो। नन्दगोपके वंशमें तुमने अवतार लिया था, इसलिये गोपेश्वर श्रीकृष्णकी तुम छोटी बहिन हो; परंतु गुण और प्रभावमें सर्वश्रेष्ठ हो॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महिषासृक्प्रिये नित्यं कौशिकि पीतवासिनि।
अट्टहासे कोकमुखे नमस्तेऽस्तु रणप्रिये ॥ ८ ॥
मूलम्
महिषासृक्प्रिये नित्यं कौशिकि पीतवासिनि।
अट्टहासे कोकमुखे नमस्तेऽस्तु रणप्रिये ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महिषासुरका रक्त बहाकर तुम्हें बड़ी प्रसन्नता हुई थी। तुम कुशिकगोत्रमें अवतार लेनेके कारण कौशिकी नामसे भी प्रसिद्ध हो। तुम पीताम्बर धारण करती हो। जब तुम शत्रुओंको देखकर अट्टहास करती हो, उस समय तुम्हारा मुख चक्रवाकके समान उद्दीप्त हो उठता है। युद्ध तुम्हें बहुत ही प्रिय है। मैं तुम्हें बारंबार प्रणाम करता हूँ॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उमे शाकम्भरि श्वेते कृष्णे कैटभनाशिनि।
हिरण्याक्षि विरूपाक्षि सुधूम्राक्षि नमोऽस्तु ते ॥ ९ ॥
मूलम्
उमे शाकम्भरि श्वेते कृष्णे कैटभनाशिनि।
हिरण्याक्षि विरूपाक्षि सुधूम्राक्षि नमोऽस्तु ते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उमा, शाकम्भरी, श्वेता, कृष्णा, कैटभनाशिनी, हिरण्याक्षी, विरूपाक्षी और सुधूम्राक्षी आदि नाम धारण करनेवाली देवि! तुम्हें अनेकों बार नमस्कार है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वेदश्रुति महापुण्ये ब्रह्मण्ये जातवेदसि।
जम्बूकटकचैत्येषु नित्यं सन्निहितालये ॥ १० ॥
मूलम्
वेदश्रुति महापुण्ये ब्रह्मण्ये जातवेदसि।
जम्बूकटकचैत्येषु नित्यं सन्निहितालये ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम वेदोंकी श्रुति हो, तुम्हारा स्वरूप अत्यन्त पवित्र है; वेद और ब्राह्मण तुम्हें प्रिय हैं। तुम्हीं जातवेदा अग्निकी शक्ति हो; जम्बू, कटक और चैत्यवृक्षोंमें तुम्हारा नित्य निवास है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं ब्रह्मविद्या विद्यानां महानिद्रा च देहिनाम्।
स्कन्दमातर्भगवति दुर्गे कान्तारवासिनि ॥ ११ ॥
मूलम्
त्वं ब्रह्मविद्या विद्यानां महानिद्रा च देहिनाम्।
स्कन्दमातर्भगवति दुर्गे कान्तारवासिनि ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम समस्त विद्याओंमें ब्रह्मविद्या और देहधारियों-की महानिद्रा हो। भगवति! तुम कार्तिकेयकी माता हो, दुर्गम स्थानोंमें वास करनेवाली दुर्गा हो॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वाहाकारः स्वधा चैव कला काष्ठा सरस्वती।
सावित्रि वेदमाता च तथा वेदान्त उच्यते ॥ १२ ॥
मूलम्
स्वाहाकारः स्वधा चैव कला काष्ठा सरस्वती।
सावित्रि वेदमाता च तथा वेदान्त उच्यते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सावित्रि! स्वाहा, स्वधा, कला, काष्ठा, सरस्वती, वेदमाता तथा वेदान्त—ये सब तुम्हारे ही नाम हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्तुतासि त्वं महादेवि विशुद्धेनान्तरात्मना।
जयो भवतु मे नित्यं त्वत्प्रसादाद् रणाजिरे ॥ १३ ॥
मूलम्
स्तुतासि त्वं महादेवि विशुद्धेनान्तरात्मना।
जयो भवतु मे नित्यं त्वत्प्रसादाद् रणाजिरे ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महादेवि! मैंने विशुद्ध हृदयसे तुम्हारा स्तवन किया है। तुम्हारी कृपासे इस रणांगणमें मेरी सदा ही जय हो॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कान्तारभयदुर्गेषु भक्तानां चालयेषु च।
नित्यं वससि पाताले युद्धे जयसि दानवान् ॥ १४ ॥
मूलम्
कान्तारभयदुर्गेषु भक्तानां चालयेषु च।
नित्यं वससि पाताले युद्धे जयसि दानवान् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माँ! तुम घोर जंगलमें, भयपूर्ण दुर्गम स्थानोंमें, भक्तोंके घरोंमें तथा पातालमें भी नित्य निवास करती हो। युद्धमें दानवोंको हराती हो॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं जम्भनी मोहिनी च माया ह्रीः श्रीस्तथैव च।
संध्या प्रभावती चैव सावित्री जननी तथा ॥ १५ ॥
मूलम्
त्वं जम्भनी मोहिनी च माया ह्रीः श्रीस्तथैव च।
संध्या प्रभावती चैव सावित्री जननी तथा ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम्हीं जम्भनी, मोहिनी, माया, ह्री, श्री, संध्या, प्रभावती, सावित्री और जननी हो॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुष्टिः पुष्टिर्धृतिर्दीप्तिश्चन्द्रादित्यविवर्धिनी ।
भूतिर्भूतिमतां सङ्ख्ये वीक्ष्यसे सिद्धचारणैः ॥ १६ ॥
मूलम्
तुष्टिः पुष्टिर्धृतिर्दीप्तिश्चन्द्रादित्यविवर्धिनी ।
भूतिर्भूतिमतां सङ्ख्ये वीक्ष्यसे सिद्धचारणैः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुष्टि, पुष्टि, धृति तथा सूर्य-चन्द्रमाको बढ़ानेवाली दीप्ति भी तुम्हीं हो। तुम्हीं ऐश्वर्यवानोंकी विभूति हो। युद्धभूमिमें सिद्ध और चारण तुम्हारा दर्शन करते हैं॥१६॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः पार्थस्य विज्ञाय भक्तिं मानववत्सला।
अन्तरिक्षगतोवाच गोविन्दस्याग्रतः स्थिता ॥ १७ ॥
मूलम्
ततः पार्थस्य विज्ञाय भक्तिं मानववत्सला।
अन्तरिक्षगतोवाच गोविन्दस्याग्रतः स्थिता ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं— राजन्! अर्जुनके इस भक्तिभावका अनुभव करके मनुष्योंपर वात्सल्य-भाव रखनेवाली माता दुर्गा अन्तरिक्षमें भगवान् श्रीकृष्णके सामने आकर खड़ी हो गयीं और इस प्रकार बोलीं॥१७॥
मूलम् (वचनम्)
देव्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वल्पेनैव तु कालेन शत्रूञ्जेष्यसि पाण्डव।
नरस्त्वमसि दुर्धर्ष नारायणसहायवान् ॥ १८ ॥
अजेयस्त्वं रणेऽरीणामपि वज्रभृतः स्वयम्।
मूलम्
स्वल्पेनैव तु कालेन शत्रूञ्जेष्यसि पाण्डव।
नरस्त्वमसि दुर्धर्ष नारायणसहायवान् ॥ १८ ॥
अजेयस्त्वं रणेऽरीणामपि वज्रभृतः स्वयम्।
अनुवाद (हिन्दी)
देवीने कहा— पाण्डुनन्दन! तुम थोड़े ही समयमें शत्रुओंपर विजय प्राप्त करोगे। दुर्धर्ष वीर! तुम तो साक्षात् नर हो। ये साक्षात् नारायण तुम्हारे सहायक हैं। तुम रणक्षेत्रमें शत्रुओंके लिये अजेय हो। साक्षात् इन्द्र भी तुम्हें पराजित नहीं कर सकते॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्येवमुक्त्वा वरदा क्षणेनान्तरधीयत ॥ १९ ॥
लब्ध्वा वरं तु कौन्तेयो मेने विजयमात्मनः।
आरुरोह ततः पार्थो रथं परमसम्मतम् ॥ २० ॥
मूलम्
इत्येवमुक्त्वा वरदा क्षणेनान्तरधीयत ॥ १९ ॥
लब्ध्वा वरं तु कौन्तेयो मेने विजयमात्मनः।
आरुरोह ततः पार्थो रथं परमसम्मतम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऐसा कहकर वरदायिनी देवी दुर्गा वहाँसे क्षणभरमें अन्तर्धान हो गयीं। वह वरदान पाकर कुन्तीकुमार अर्जुनको अपनी विजयका विश्वास हो गया। फिर वे अपने परम सुन्दर रथपर आरूढ़ हुए॥१९-२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृष्णार्जुनावेकरथौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः।
मूलम्
कृष्णार्जुनावेकरथौ दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः।
अनुवाद (हिन्दी)
फिर एक रथपर बैठे हुए श्रीकृष्ण और अर्जुनने अपने दिव्य शंख बजाये॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
य इदं पठते स्तोत्रं कल्य उत्थाय मानवः ॥ २१ ॥
यक्षरक्षःपिशाचेभ्यो न भयं विद्यते सदा।
मूलम्
य इदं पठते स्तोत्रं कल्य उत्थाय मानवः ॥ २१ ॥
यक्षरक्षःपिशाचेभ्यो न भयं विद्यते सदा।
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य सबेरे उठकर इस स्तोत्रका पाठ करता है, उसे यक्ष, राक्षस और पिशाचोंसे कभी भय नहीं होता॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चापि रिपवस्तेभ्यः सर्पाद्या ये च दंष्ट्रिणः ॥ २२ ॥
न भयं विद्यते तस्य सदा राजकुलादपि।
विवादे जयमाप्नोति बद्धो मुच्येत बन्धनात् ॥ २३ ॥
मूलम्
न चापि रिपवस्तेभ्यः सर्पाद्या ये च दंष्ट्रिणः ॥ २२ ॥
न भयं विद्यते तस्य सदा राजकुलादपि।
विवादे जयमाप्नोति बद्धो मुच्येत बन्धनात् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रु तथा सर्प आदि विषैले दाँतोंवाले जीव भी उनको कोई हानि नहीं पहुँचा सकते। राजकुलसे भी उन्हें कोई भय नहीं होता है। इसका पाठ करनेसे विवादमें विजय प्राप्त होती है और बंदी बन्धनसे मुक्त हो जाता है॥२२-२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दुर्गं तरति चावश्यं तथा चौरैर्विमुच्यते।
संग्रामे विजयेन्नित्यं लक्ष्मीं प्राप्नोति केवलाम् ॥ २४ ॥
मूलम्
दुर्गं तरति चावश्यं तथा चौरैर्विमुच्यते।
संग्रामे विजयेन्नित्यं लक्ष्मीं प्राप्नोति केवलाम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह दुर्गम संकटसे अवश्य पार हो जाता है। चोर भी उसे छोड़ देते हैं। वह संग्राममें सदा विजयी होता और विशुद्ध लक्ष्मी प्राप्त करता है॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आरोग्यबलसम्पन्नो जीवेद् वर्षशतं तथा।
एतद् दृष्टं प्रसादात् तु मया व्यासस्य धीमतः ॥ २५ ॥
मूलम्
आरोग्यबलसम्पन्नो जीवेद् वर्षशतं तथा।
एतद् दृष्टं प्रसादात् तु मया व्यासस्य धीमतः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इतना ही नहीं, इसका पाठ करनेवाला पुरुष आरोग्य और बलसे सम्पन्न हो सौ वर्षोंकी आयुतक जीवित रहता है। यह सब परम बुद्धिमान् भगवान् व्यासजीके कृपा-प्रसादसे मैंने प्रत्यक्ष देखा है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मोहादेतौ न जानन्ति नरनारायणावृषी।
तव पुत्रा दुरात्मानः सर्वे मन्युवशानुगाः ॥ २६ ॥
मूलम्
मोहादेतौ न जानन्ति नरनारायणावृषी।
तव पुत्रा दुरात्मानः सर्वे मन्युवशानुगाः ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! आपके सभी दुरात्मा पुत्र क्रोधके वशीभूत हो मोहवश यह नहीं जानते हैं कि ये श्रीकृष्ण और अर्जुन ही साक्षात् नर-नारायण ऋषि हैं॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राप्तकालमिदं वाक्यं कालपाशेन गुण्ठिताः।
द्वैपायनो नारदश्च कण्वो रामस्तथानघः।
अवारयंस्तव सुतं न चासौ तद् गृहीतवान् ॥ २७ ॥
मूलम्
प्राप्तकालमिदं वाक्यं कालपाशेन गुण्ठिताः।
द्वैपायनो नारदश्च कण्वो रामस्तथानघः।
अवारयंस्तव सुतं न चासौ तद् गृहीतवान् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे कालपाशसे बद्ध होनेके कारण इस समयोचित बातको बतानेपर भी नहीं सुनते। द्वैपायन व्यास, नारद, कण्व तथा पापशून्य परशुरामने तुम्हारे पुत्रको बहुत रोका था; परंतु उसने उनकी बात नहीं मानी॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र धर्मो द्युतिः कान्तिर्यत्र ह्रीः श्रीस्तथा मतिः।
यतो धर्मस्ततः कृष्णो यतः कृष्णस्ततो जयः ॥ २८ ॥
मूलम्
यत्र धर्मो द्युतिः कान्तिर्यत्र ह्रीः श्रीस्तथा मतिः।
यतो धर्मस्ततः कृष्णो यतः कृष्णस्ततो जयः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जहाँ न्यायोचित बर्ताव, तेज और कान्ति है, जहाँ ह्री, श्री और बुद्धि है तथा जहाँ धर्म विद्यमान है, वहीं श्रीकृष्ण हैं और जहाँ श्रीकृष्ण हैं, वहीं विजय है॥२८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि श्रीमद्भगवद्गीतापर्वणि दुर्गास्तोत्रे त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत श्रीमद्भगवद्गीतापर्वमें दुर्गास्तोत्रविषयक तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥२३॥