०१४ धृतराष्ट्रप्रश्ने

भागसूचना

चतुर्दशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

धृतराष्ट्रका विलाप करते हुए भीष्मजीके मारे जानेकी घटनाको विस्तारपूर्वक जाननेके लिये संजयसे प्रश्न करना

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं कुरूणामृषभो हतो भीष्मः शिखण्डिना।
कथं रथात् स न्यपतत् पिता मे वासवोपमः ॥ १ ॥

मूलम्

कथं कुरूणामृषभो हतो भीष्मः शिखण्डिना।
कथं रथात् स न्यपतत् पिता मे वासवोपमः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— संजय! कुरुकुलके श्रेष्ठतम पुरुष मेरे पितृतुल्य भीष्म शिखण्डीके हाथसे कैसे मारे गये? वे इन्द्रके समान पराक्रमी थे, वे रथसे कैसे गिरे?॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथमाचक्ष्व मे योधा हीना भीष्मेण संजय।
बलिना देवकल्पेन गुर्वर्थे ब्रह्मचारिणा ॥ २ ॥

मूलम्

कथमाचक्ष्व मे योधा हीना भीष्मेण संजय।
बलिना देवकल्पेन गुर्वर्थे ब्रह्मचारिणा ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! जिन्होंने अपने पिताके संतोषके लिये आजीवन ब्रह्मचर्यका पालन किया और जो देवताओंके समान बलवान् थे, उन्हीं भीष्मसे रहित होकर आज हमारे सैनिकोंकी कैसी अवस्था हुई है? यह बताओ॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन् हते महाप्राज्ञे महेचासे महाबले।
महासत्त्वे नरव्याघ्रे किमु आसीन्मनस्तव ॥ ३ ॥

मूलम्

तस्मिन् हते महाप्राज्ञे महेचासे महाबले।
महासत्त्वे नरव्याघ्रे किमु आसीन्मनस्तव ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाज्ञानी, महाधनुर्धर, महाबली और महान् धैर्यशाली नरश्रेष्ठ भीष्मजीके मारे जानेपर तुम्हारे मनकी कैसी अवस्था हुई?॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आर्तिं परामाविशति मनः शंससि मे हतम्।
कुरूणामृषभं वीरमकम्पं पुरुषर्षभम् ॥ ४ ॥

मूलम्

आर्तिं परामाविशति मनः शंससि मे हतम्।
कुरूणामृषभं वीरमकम्पं पुरुषर्षभम् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! तुम कहते हो, अकम्प्य वीर पुरुषसिंह, कुरुकुलशिरोमणि भीष्मजी मारे गये—इसे सुनकर मेरे हृदयमें बड़ी पीड़ा हो रही है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

के तं यान्तमनुप्राप्ताः के वास्यासन् पुरोगमाः।
केऽतिष्ठन् के न्यवर्तन्त केऽन्ववर्तन्त संजय ॥ ५ ॥

मूलम्

के तं यान्तमनुप्राप्ताः के वास्यासन् पुरोगमाः।
केऽतिष्ठन् के न्यवर्तन्त केऽन्ववर्तन्त संजय ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! जिस समय वे युद्धके लिये अग्रसर हुए थे, उस समय इनके पीछे कौन गये थे अथवा उनके आगे कौन-कौन वीर थे? कौन उनके साथ युद्धमें डटे रहे? कौन युद्ध छोड़कर भाग गये? और किन लोगोंने सर्वथा उनका अनुसरण किया था?॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

के शूरा रथशार्दूलमद्भुतं क्षत्रियर्षभम्।
तथानीकं गाहमानं सहसा पृष्ठतोऽन्वयुः ॥ ६ ॥

मूलम्

के शूरा रथशार्दूलमद्भुतं क्षत्रियर्षभम्।
तथानीकं गाहमानं सहसा पृष्ठतोऽन्वयुः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किन शूरवीरोंने शत्रुसेनामें प्रवेश करते समय रथियोंमें सिंहके समान अद्भुत पराक्रमी, क्षत्रियशिरोमणि भीष्मजीके पास सहसा पहुँचकर सदा उनके पृष्ठभागका अनुसरण किया?॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तमोऽर्क इवापोहन् परसैन्यममित्रहा ।
सहस्ररश्मिप्रतिमः परेषां भयमादधत् ॥ ७ ॥

मूलम्

यस्तमोऽर्क इवापोहन् परसैन्यममित्रहा ।
सहस्ररश्मिप्रतिमः परेषां भयमादधत् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे सूर्य अन्धकारको नष्ट कर देता है, उसी प्रकार शत्रुसूदन भीष्म शत्रुसेनाका नाश करते थे। जिनका तेज सहस्र किरणोंवाले सूर्यके समान था, जिन्होंने शत्रुओंको भयभीत कर रखा था॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकरोद् दुष्करं कर्म रणे पाण्डुसुतेषु यः।
ग्रसमानमनीकानि य एनं पर्यवारयन् ॥ ८ ॥
कृतिनं तं दुराधर्षं संजयास्य त्वमन्तिके।
कथं शान्तनवं युद्धे पाण्डवाः प्रत्यवारयन् ॥ ९ ॥

मूलम्

अकरोद् दुष्करं कर्म रणे पाण्डुसुतेषु यः।
ग्रसमानमनीकानि य एनं पर्यवारयन् ॥ ८ ॥
कृतिनं तं दुराधर्षं संजयास्य त्वमन्तिके।
कथं शान्तनवं युद्धे पाण्डवाः प्रत्यवारयन् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्होंने युद्धमें पाण्डवोंपर दुष्कर पराक्रम किया था तथा जो उनकी सेनाका निरन्तर संहार कर रहे थे, उन अस्त्रविद्याके ज्ञाता दुर्जय वीर भीष्मजीको जिन्होंने रोका है, वे कौन हैं? संजय! तुम तो उनके पास ही थे, पाण्डवोंने युद्धमें शान्तनुनन्दन भीष्मको किस प्रकार आगे बढ़नेसे रोका?॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निकृन्तन्तमनीकानि शरदंष्ट्रं मनस्विनम् ।
चापव्यात्ताननं घोरमसिजिह्वं दुरासदम् ॥ १० ॥
अनर्हं पुरुषव्याघ्रं ह्रीमन्तमपराजितम् ।
पातयामास कौन्तेयः कथं तमजितं युधि ॥ ११ ॥

मूलम्

निकृन्तन्तमनीकानि शरदंष्ट्रं मनस्विनम् ।
चापव्यात्ताननं घोरमसिजिह्वं दुरासदम् ॥ १० ॥
अनर्हं पुरुषव्याघ्रं ह्रीमन्तमपराजितम् ।
पातयामास कौन्तेयः कथं तमजितं युधि ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो शत्रुपक्षकी सेनाओंका निरन्तर उच्छेद करते थे, बाण ही जिनकी दाढ़ें थीं, धनुष ही खुला हुआ मुख था, तलवार ही जिनकी जिह्वा थी, उन भयंकर एवं दुर्धर्ष पुरुषसिंह भीष्मको कुन्तीनन्दन अर्जुनने युद्धमें कैसे मार गिराया? मनस्वी भीष्म इस प्रकार पराजयके योग्य नहीं थे। वे लज्जाशील और पराजय-शून्य थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उग्रधन्वानमुग्रेषुं वर्तमानं रथोत्तमे ।
परेषामुत्तमाङ्गानि प्रचिन्वन्तमथेषुभिः ॥ १२ ॥

मूलम्

उग्रधन्वानमुग्रेषुं वर्तमानं रथोत्तमे ।
परेषामुत्तमाङ्गानि प्रचिन्वन्तमथेषुभिः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो उत्तम रथपर बैठकर भयंकर धनुष और भयानक बाण लिये शत्रुओंके मस्तकोंको सायकोंद्वारा काट-काटकर उनके ढेर लगा रहे थे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवानां महत् सैन्यं यं दृष्ट्वोद्यतमाहवे।
कालाग्निमिव दुर्धर्षं समचेष्टत नित्यशः ॥ १३ ॥

मूलम्

पाण्डवानां महत् सैन्यं यं दृष्ट्वोद्यतमाहवे।
कालाग्निमिव दुर्धर्षं समचेष्टत नित्यशः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवोंकी विशाल सेना दुर्धर्ष कालाग्निके समान जिन्हें युद्धके लिये उद्यत देख सदा काँपने लगती थी॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परिकृष्य स सेनां तु दशरात्रमनीकहा।
जगामास्तमिवादित्यः कृत्वा कर्म सुदुष्करम् ॥ १४ ॥

मूलम्

परिकृष्य स सेनां तु दशरात्रमनीकहा।
जगामास्तमिवादित्यः कृत्वा कर्म सुदुष्करम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे ही शत्रुसूदन भीष्म दस दिनोंतक शत्रुओंकी सेनाका संहार करते हुए अत्यन्त दुष्कर पराक्रम दिखाकर सूर्यकी भाँति अस्त हो गये॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः स शक्र इवाक्षय्यं वर्षं शरमयं क्षिपन्।
जघान युधि योधानामर्बुदं दशभिर्दिनैः ॥ १५ ॥
स शेते निहतो भूमौ वातभग्न इव द्रुमः।
मम दुर्मन्त्रितेनाजौ यथा नार्हति भारत ॥ १६ ॥

मूलम्

यः स शक्र इवाक्षय्यं वर्षं शरमयं क्षिपन्।
जघान युधि योधानामर्बुदं दशभिर्दिनैः ॥ १५ ॥
स शेते निहतो भूमौ वातभग्न इव द्रुमः।
मम दुर्मन्त्रितेनाजौ यथा नार्हति भारत ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्होंने इन्द्रके समान युद्धमें दस दिनोंतक अक्षय बाणोंकी वर्षा करके दस करोड़ विपक्षी सेनाओंका संहार कर डाला, वे ही भरतवंशी वीर भीष्म मेरी कुमन्त्रणाके कारण आँधीसे उखाड़े गये वृक्षकी भाँति युद्धमें मारे जाकर पृथ्वीपर शयन कर रहे हैं, वे कदापि इसके योग्य नहीं थे॥१५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं शान्तनवं दृष्ट्वा पाण्डवानामनीकिनी।
प्रहर्तुमशकत् तत्र भीष्मं भीमपराक्रमम् ॥ १७ ॥

मूलम्

कथं शान्तनवं दृष्ट्वा पाण्डवानामनीकिनी।
प्रहर्तुमशकत् तत्र भीष्मं भीमपराक्रमम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शान्तनुनन्दन भीष्म तो बड़े भयंकर पराक्रमी थे, उन्हें सामने देखकर पाण्डवसेना उनपर प्रहार कैसे कर सकी?॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं भीष्मेण संग्रामं प्राकुर्वन् पाण्डुनन्दनाः।
कथं च नाजयद् भीष्मो द्रोणे जीवति संजय ॥ १८ ॥

मूलम्

कथं भीष्मेण संग्रामं प्राकुर्वन् पाण्डुनन्दनाः।
कथं च नाजयद् भीष्मो द्रोणे जीवति संजय ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! पाण्डवोंने भीष्मके साथ संग्राम कैसे किया? द्रोणाचार्यके जीते-जी भीष्म विजयी कैसे नहीं हो सके?॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृपे संनिहिते तत्र भरद्वाजात्मजे तथा।
भीष्मः प्रहरतां श्रेष्ठः कथं स निधनं गतः ॥ १९ ॥

मूलम्

कृपे संनिहिते तत्र भरद्वाजात्मजे तथा।
भीष्मः प्रहरतां श्रेष्ठः कथं स निधनं गतः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस युद्धमें कृपाचार्य तथा भरद्वाजपुत्र द्रोणाचार्य दोनों ही उनके निकट थे, तो भी योद्धाओंमें श्रेष्ठ भीष्म कैसे मारे गये?॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं चातिरथस्तेन पाञ्चाल्येन शिखण्डिना।
भीष्मो विनिहतो युद्धे देवैरपि दुरासदः ॥ २० ॥

मूलम्

कथं चातिरथस्तेन पाञ्चाल्येन शिखण्डिना।
भीष्मो विनिहतो युद्धे देवैरपि दुरासदः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्म तो युद्धमें देवताओंके लिये भी दुर्जय एवं अतिरथी थे, फिर पांचालराजकुमार शिखण्डीके हाथसे वे किस प्रकार मारे गये?॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः स्पर्धते रणे नित्यं जामदग्न्यं महाबलम्।
अजितं जामदग्न्येन शक्रतुल्यपराक्रमम् ॥ २१ ॥
तं हतं समरे भीष्मं महारथकुलोदितम्।
संजयाचक्ष्व मे वीरं येन शर्म न विद्महे ॥ २२ ॥

मूलम्

यः स्पर्धते रणे नित्यं जामदग्न्यं महाबलम्।
अजितं जामदग्न्येन शक्रतुल्यपराक्रमम् ॥ २१ ॥
तं हतं समरे भीष्मं महारथकुलोदितम्।
संजयाचक्ष्व मे वीरं येन शर्म न विद्महे ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो रणभूमिमें महाबली जमदग्निनन्दन परशुरामसे भी टक्कर लेनेकी सदा इच्छा रखते थे, जिनका पराक्रम इन्द्रके समान था और परशुरामजी भी जिन्हें पराजित न कर सके थे; संजय! महारथियोंके कुलमें प्रकट हुए वे महावीर भीष्म समरभूमिमें किस प्रकार मारे गये, यह मुझे बताओ; क्योंकि मुझे शान्ति नहीं मिल रही है॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मामकाः के महेष्वासा नाजहुः संजयाच्युतम्।
दुर्योधनसमादिष्टाः के वीराः पर्यवारयन् ॥ २३ ॥

मूलम्

मामकाः के महेष्वासा नाजहुः संजयाच्युतम्।
दुर्योधनसमादिष्टाः के वीराः पर्यवारयन् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! कभी युद्धसे पीछे न हटनेवाले भीष्मजीका मेरे पक्षके किन महाधनुर्धरोंने साथ नहीं छोड़ा? दुर्योधनकी आज्ञा पाकर किन-किन वीरोंने उन्हें सब ओरसे घेर रखा था?॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्छिखण्डिमुखाः सर्वे पाण्डवा भीष्ममभ्ययुः।
कच्चित् ते कुरवः सर्वे नाजहुः संजयाच्युतम् ॥ २४ ॥

मूलम्

यच्छिखण्डिमुखाः सर्वे पाण्डवा भीष्ममभ्ययुः।
कच्चित् ते कुरवः सर्वे नाजहुः संजयाच्युतम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! जब शिखण्डी आदि समस्त पाण्डव वीरोंने भीष्मपर आक्रमण किया, उस समय समस्त कौरवोंने कहीं अच्युत भीष्मका साथ छोड़ तो नहीं दिया था?॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्मसारमयं नूनं हृदयं सुदृढं मम।
यच्छ्रुत्वा पुरुषव्याघ्रं हतं भीष्मं न दीर्यते ॥ २५ ॥

मूलम्

अश्मसारमयं नूनं हृदयं सुदृढं मम।
यच्छ्रुत्वा पुरुषव्याघ्रं हतं भीष्मं न दीर्यते ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अवश्य ही मेरा यह हृदय लोहेके समान सुदृढ़ है, तभी तो पुरुषसिंह भीष्मको मारा गया सुनकर विदीर्ण नहीं होता है!॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मिन् सत्यं च मेधा च नीतिश्च भरतर्षभे।
अप्रमेयाणि दुर्धर्षे कथं स निहतो युधि ॥ २६ ॥

मूलम्

यस्मिन् सत्यं च मेधा च नीतिश्च भरतर्षभे।
अप्रमेयाणि दुर्धर्षे कथं स निहतो युधि ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन दुर्जय वीर भरतभूषण भीष्ममें सत्य, मेधा और नीति—ये तीन अप्रमेय शक्तियाँ थीं, वे युद्धमें कैसे मारे गये?॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मौर्वीघोषस्तनयित्नुः पृषत्कपृषतो महान् ।
धनुर्ह्रादमहाशब्दो महामेघ इवोन्नतः ॥ २७ ॥

मूलम्

मौर्वीघोषस्तनयित्नुः पृषत्कपृषतो महान् ।
धनुर्ह्रादमहाशब्दो महामेघ इवोन्नतः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे युद्धमें महान् मेघके समान ऊँचे उठे हुए थे। धनुषकी टंकार ही उनकी गर्जना थी, बाण ही उनके लिये वर्षाकी बूँदें थीं और धनुषका महान् शब्द ही बिजलीकी गड़गड़ाहटका भयंकर शब्द था॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽभ्यवर्षत कौन्तेयान् सपाञ्चालान्‌ ससृंजयान्।
निघ्नन् पररथान् वीरो दानवानिव वज्रभृत् ॥ २८ ॥

मूलम्

योऽभ्यवर्षत कौन्तेयान् सपाञ्चालान्‌ ससृंजयान्।
निघ्नन् पररथान् वीरो दानवानिव वज्रभृत् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीरवर भीष्मने शत्रुपक्षके रथियों—कुन्तीकुमारों, पांचालों तथा सृंजयोंको मारते हुए उनके ऊपर उसी प्रकार बाणोंकी बौछार की, जैसे वज्रधारी इन्द्र दानवोंपर बाणवर्षा करते हैं॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इष्वस्त्रसागरं घोरं बाणग्राहं दुरासदम्।
कार्मुकोर्मिणमक्षय्यमद्वीपं चलमप्लवम् ॥ २९ ॥

मूलम्

इष्वस्त्रसागरं घोरं बाणग्राहं दुरासदम्।
कार्मुकोर्मिणमक्षय्यमद्वीपं चलमप्लवम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनका धनुष-बाण आदि अस्त्रसमूह भयंकर एवं दुर्गम समुद्रके समान था, बाण ही उसमें ग्राह थे, धनुष लहरोंके समान जान पड़ता था, वह अक्षय, द्वीपरहित, चंचल तथा नौका आदि तैरनेके साधनोंसे शून्य था॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गदासिमकरावासं हयावर्तं गजाकुलम् ।
पदातिमत्स्यकलिलं शङ्खदुन्दुभिनिःस्वनम् ॥ ३० ॥

मूलम्

गदासिमकरावासं हयावर्तं गजाकुलम् ।
पदातिमत्स्यकलिलं शङ्खदुन्दुभिनिःस्वनम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गदा और खड्ग आदि ही उसमें मगरके समान थे। वह अश्वरूपी भँवरोंसे भयावह प्रतीत होता था, उसमें हाथी जलहस्तीके समान प्रतीत होते थे, पैदल सेना उसमें भरे हुए मत्स्योंके समान जान पड़ती थी तथा शंख और दुन्दुभियोंकी ध्वनि ही उस समुद्रकी गर्जना थी॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हयान् गजपदातींश्च रथांश्च तरसा बहून्।
निमज्जयन्तं समरे परवीरापहारिणम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

हयान् गजपदातींश्च रथांश्च तरसा बहून्।
निमज्जयन्तं समरे परवीरापहारिणम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी उस समुद्रमें शत्रुपक्षके हाथियों, घोड़ों, पैदलों तथा बहुसंख्यक रथोंको वेगपूर्वक डुबो रहे थे। वे समरभूमिमें शत्रुवीरोंके प्राणोंका अपहरण करनेवाले थे॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विदह्यमानं कोपेन तेजसा च परंतपम्।
वेलेव मकरावासं के वीराः पर्यवारयन् ॥ ३२ ॥

मूलम्

विदह्यमानं कोपेन तेजसा च परंतपम्।
वेलेव मकरावासं के वीराः पर्यवारयन् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने क्रोध और तेजसे दग्ध एवं प्रज्वलित-से होते हुए शत्रुसंतापी भीष्मको जैसे तट समुद्रको रोक देता है उसी प्रकार किन वीरोंने आगे बढ़नेसे रोका था॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मो यदकरोत् कर्म समरे संजयारिहा।
दुर्योधनहितार्थाय के तस्यास्य पुरोऽभवन् ॥ ३३ ॥
केऽरक्षन् दक्षिण चक्रं भीष्मस्यामिततेजसः।
पृष्ठतः के परान् वीरानपासेधन् यतव्रताः ॥ ३४ ॥

मूलम्

भीष्मो यदकरोत् कर्म समरे संजयारिहा।
दुर्योधनहितार्थाय के तस्यास्य पुरोऽभवन् ॥ ३३ ॥
केऽरक्षन् दक्षिण चक्रं भीष्मस्यामिततेजसः।
पृष्ठतः के परान् वीरानपासेधन् यतव्रताः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुहन्ता भीष्मने दुर्योधनके हितके लिये समरभूमिमें जो पराक्रम किया था, वह अनुपम है। उस समय कौन-कौनसे योद्धा उनके आगे थे? किन-किन वीरोंने अमिततेजस्वी भीष्मके रथके दाहिने पहियेकी रक्षा की थी? किन लोगोंने दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करते हुए उनके पीछेकी ओर रहकर शत्रुपक्षके वीरोंको आगे बढ़नेसे रोका था?॥३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

के पुरस्तादवर्तन्त रक्षन्तो भीष्ममन्तिके।
केऽरक्षन्नुत्तरं चक्रं वीरा वीरस्य युध्यतः ॥ ३५ ॥

मूलम्

के पुरस्तादवर्तन्त रक्षन्तो भीष्ममन्तिके।
केऽरक्षन्नुत्तरं चक्रं वीरा वीरस्य युध्यतः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौन-कौनसे वीर निकटसे भीष्मकी रक्षा करते हुए उनके आगे खड़े थे? और किन वीरोंने युद्धमें लगे हुए शूरशिरोमणि भीष्मके बायें पहियेकी रक्षा की थी?॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वामे चक्रे वर्तमानाः केऽघ्नन् संजय सृंजयान्।
अग्रतोऽग्र्यमनीकेषु केऽभ्यरक्षन् दुरासदम् ॥ ३६ ॥

मूलम्

वामे चक्रे वर्तमानाः केऽघ्नन् संजय सृंजयान्।
अग्रतोऽग्र्यमनीकेषु केऽभ्यरक्षन् दुरासदम् ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! उनके बायें चक्रकी रक्षामें तत्पर होकर किन-किन योद्धाओंने सृंजयवंशियोंका विनाश किया था? तथा किन्होंने आगे रहकर सेनाके अग्रणी दुर्जय वीर भीष्मकी सब ओरसे रक्षा की थी?॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पार्श्वतः केऽभ्यरक्षन्त गच्छन्तो दुर्गमां गतिम्।
समूहे के परान् वीरान् प्रत्ययुध्यन्त संजय ॥ ३७ ॥

मूलम्

पार्श्वतः केऽभ्यरक्षन्त गच्छन्तो दुर्गमां गतिम्।
समूहे के परान् वीरान् प्रत्ययुध्यन्त संजय ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! किन लोगोंने दुर्गम संग्राममें आगे बढ़ते हुए उनके पार्श्वभागका संरक्षण किया था? और किन्होंने उस सैन्यसमूहमें आगे रहकर वीरतापूर्वक शत्रुयोद्धाओंका डटकर सामना किया था?॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्ष्यमाणः कथं वीरैर्गोप्यमानाश्च तेन ते।
दुर्जयानामनीकानि नाजयंस्तरसा युधि ॥ ३८ ॥

मूलम्

रक्ष्यमाणः कथं वीरैर्गोप्यमानाश्च तेन ते।
दुर्जयानामनीकानि नाजयंस्तरसा युधि ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब मेरे पक्षके बहुत-से वीर उनकी रक्षा करते थे और वे भी उन वीरोंकी रक्षामें दत्तचित्त थे, तब भी उन सब लोगोंने मिलकर शत्रुपक्षकी दुर्जय सेनाओंको कैसे वेगपूर्वक परास्त नहीं कर दिया?॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वलोकेश्वरस्येव परमेष्ठिप्रजापतेः ।
कथं प्रहर्तुमपि ते शेकुः संजय पाण्डवाः ॥ ३९ ॥

मूलम्

सर्वलोकेश्वरस्येव परमेष्ठिप्रजापतेः ।
कथं प्रहर्तुमपि ते शेकुः संजय पाण्डवाः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! भीष्मजी सम्पूर्ण लोकोंके स्वामी परमेष्ठी प्रजापति ब्रह्माजीके समान अजेय थे; फिर पाण्डव उनके ऊपर कैसे प्रहार कर सके?॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मिन् द्वीपे समाश्वस्य युध्यन्ते कुरवः परैः।
तं निमग्नं नरव्याघ्रं भीष्मं शंससि संजय ॥ ४० ॥

मूलम्

यस्मिन् द्वीपे समाश्वस्य युध्यन्ते कुरवः परैः।
तं निमग्नं नरव्याघ्रं भीष्मं शंससि संजय ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! जिन द्वीपस्वरूप भीष्मजीके आश्रयमें निर्भय एवं निश्चिन्त होकर समस्त कौरव शत्रुओंके साथ युद्ध करते थे, उन्हीं नरश्रेष्ठ भीष्मको तुम मारा गया बता रहे हो, यह कितने दुःखकी बात है?॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य वीर्यं समाश्रित्य मम पुत्रो बृहद्बलः।
न पाण्डवानगणयत् कथं स निहतः परैः ॥ ४१ ॥

मूलम्

यस्य वीर्यं समाश्रित्य मम पुत्रो बृहद्बलः।
न पाण्डवानगणयत् कथं स निहतः परैः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके पराक्रमका आश्रय लेकर विशाल सेनाओंसे सम्पन्न मेरा पुत्र पाण्डवोंको कुछ नहीं गिनता था, वे शत्रुओंद्वारा किस प्रकार मारे गये?॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः पुरा विबुधैः सर्वैः सहाये युद्धदुर्मदः।
काङ्क्षितो दानवान् घ्नद्भिः पिता मम महाव्रतः ॥ ४२ ॥
यस्मिञ्जाते महावीर्ये शान्तनुलोकविश्रुतः ।
शोकं दैन्यं च दुःखं च प्राजहात् पुत्रलक्ष्मणि ॥ ४३ ॥
प्रोक्तं परायणं प्राज्ञं स्वधर्मनिरतं शुचिम्।
वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञं कथं शंससि मे हतम् ॥ ४४ ॥

मूलम्

यः पुरा विबुधैः सर्वैः सहाये युद्धदुर्मदः।
काङ्क्षितो दानवान् घ्नद्भिः पिता मम महाव्रतः ॥ ४२ ॥
यस्मिञ्जाते महावीर्ये शान्तनुलोकविश्रुतः ।
शोकं दैन्यं च दुःखं च प्राजहात् पुत्रलक्ष्मणि ॥ ४३ ॥
प्रोक्तं परायणं प्राज्ञं स्वधर्मनिरतं शुचिम्।
वेदवेदाङ्गतत्त्वज्ञं कथं शंससि मे हतम् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पहलेकी बात है, दानवोंका संहार करनेवाले सम्पूर्ण देवताओंने जिन मेरे महान् व्रतधारी पिता रणदुर्मद भीष्मजीको अपना सहायक बनानेकी अभिलाषा की थी, जिन महापराक्रमी पुत्ररत्नके जन्म लेनेपर लोकविख्यात महाराज शान्तनुने शोक, दीनता और दुःखका सदाके लिये त्याग कर दिया था, जो सबके आश्रयदाता, बुद्धिमान्, स्वधर्मपरायण, पवित्र और वेदवेदांगोंके तत्त्वज्ञ बताये गये हैं, उन्हीं भीष्मको तुम मारा गया कैसे बता रहे हो?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वास्त्रविनयोपेतं शान्तं दान्तं मनस्विनम्।
हतं शान्तनवं श्रुत्वा मन्ये शेषं हतं बलम् ॥ ४५ ॥

मूलम्

सर्वास्त्रविनयोपेतं शान्तं दान्तं मनस्विनम्।
हतं शान्तनवं श्रुत्वा मन्ये शेषं हतं बलम् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सम्पूर्ण अस्त्र-शस्त्रोंकी शिक्षासे सम्पन्न, शान्त, जितेन्द्रिय और मनस्वी थे, उन शान्तनुनन्दन भीष्मको मारा गया सुनकर मुझे यह विश्वास हो गया कि अब हमारी सारी सेना मार दी गयी॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मादधर्मो बलवान् सम्प्राप्त इति मे मतिः।
यत्र वृद्धं गुरुं हत्वा राज्यमिच्छन्ति पाण्डवाः ॥ ४६ ॥

मूलम्

धर्मादधर्मो बलवान् सम्प्राप्त इति मे मतिः।
यत्र वृद्धं गुरुं हत्वा राज्यमिच्छन्ति पाण्डवाः ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आज मुझे निश्चितरूपसे ज्ञात हुआ कि धर्मसे अधर्म ही बलवान् है; क्योंकि पाण्डव अपने वृद्ध गुरुजनकी हत्या करके राज्य लेना चाहते हैं॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जामदग्न्यः पुरा रामः सर्वास्त्रविदनुत्तमः।
अम्बार्थमुद्यतः संख्ये भीष्मेण युधि निर्जितः ॥ ४७ ॥
तमिन्द्रसमकर्माणं ककुदं सर्वधन्विनाम् ।
हतं शंससि मे भीष्मं किं नु दुःखमतः परम्॥४८॥

मूलम्

जामदग्न्यः पुरा रामः सर्वास्त्रविदनुत्तमः।
अम्बार्थमुद्यतः संख्ये भीष्मेण युधि निर्जितः ॥ ४७ ॥
तमिन्द्रसमकर्माणं ककुदं सर्वधन्विनाम् ।
हतं शंससि मे भीष्मं किं नु दुःखमतः परम्॥४८॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें अम्बाके लिये उद्यत होकर सम्पूर्ण अस्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ जमदग्निनन्दन परशुराम युद्ध करनेके लिये आये थे, परंतु भीष्मने उन्हें परास्त कर दिया, उन्हीं इन्द्रके समान पराक्रमी तथा सम्पूर्ण धनुर्धरोंमें श्रेष्ठ भीष्मको तुम मारा गया कह रहे हो, इससे बढ़कर दुःखकी बात और क्या हो सकती है?॥४७-४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असकृत् क्षत्रियव्राताः संख्ये येन विनिर्जिताः।
जामदग्न्येन वीरेण परवीरनिघातिना ॥ ४९ ॥
न हतो यो महाबुद्धिः स हतोऽद्य शिखण्डिना।

मूलम्

असकृत् क्षत्रियव्राताः संख्ये येन विनिर्जिताः।
जामदग्न्येन वीरेण परवीरनिघातिना ॥ ४९ ॥
न हतो यो महाबुद्धिः स हतोऽद्य शिखण्डिना।

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले जिन वीरवर परशुरामजीने अनेक बार समस्त क्षत्रियोंको युद्धमें परास्त किया था, उनसे भी जो मारे न जा सके, वे ही परम बुद्धिमान् उनसे भीष्म आज शिखण्डीके हाथसे मार दिये गये!॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मान्नूनं महावीर्याद्भार्गवाद् युद्धदुर्मदात् ॥ ५० ॥
तेजोवीर्यबलैर्भूयान् शिखण्डी द्रुपदात्मजः ।
यः शूरं कृतिनं युद्धे सर्वशास्त्रविशारदम् ॥ ५१ ॥
परमास्त्रविदं वीरं जघान भरतर्षभम्।

मूलम्

तस्मान्नूनं महावीर्याद्भार्गवाद् युद्धदुर्मदात् ॥ ५० ॥
तेजोवीर्यबलैर्भूयान् शिखण्डी द्रुपदात्मजः ।
यः शूरं कृतिनं युद्धे सर्वशास्त्रविशारदम् ॥ ५१ ॥
परमास्त्रविदं वीरं जघान भरतर्षभम्।

अनुवाद (हिन्दी)

इससे जान पड़ता है कि महापराक्रमी युद्धदुर्मद परशुरामजीकी अपेक्षा भी तेज, पराक्रम और बलमें द्रुपदकुमार शिखण्डी निश्चय ही बहुत बढ़ा-चढ़ा है, जिसने सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञानमें निपुण, परमास्त्रवेत्ता और शूरवीर विद्वान् भरतकुलभूषण भीष्मजीका वध कर डाला है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

के वीरास्तममित्रघ्नमन्वयुः शस्त्रसंसदि ॥ ५२ ॥
शंस मे तद् तथा चासीद् युद्धं भीष्मस्य पाण्डवैः।
योषेव हतवीरा मे सेना पुत्रस्य संजय ॥ ५३ ॥

मूलम्

के वीरास्तममित्रघ्नमन्वयुः शस्त्रसंसदि ॥ ५२ ॥
शंस मे तद् तथा चासीद् युद्धं भीष्मस्य पाण्डवैः।
योषेव हतवीरा मे सेना पुत्रस्य संजय ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय युद्धमें शत्रुहन्ता भीष्मजीके साथ कौन-कौनसे वीर थे? संजय! पाण्डवोंके साथ भीष्मका किस प्रकार युद्ध हुआ? यह मुझे बताओ। उन वीर सेनापतिके मारे जानेपर मेरे पुत्रकी सेना विधवा स्त्रीके समान असहाय हो गयी है॥५२-५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अगोपमिव चोद्भ्रान्तं गोकुलं तद् बलं मम।
पौरुषं सर्वलोकस्य परं यस्मिन् महाहवे ॥ ५४ ॥
परासक्ते च वस्तस्मिन् कथमासीन्मनस्तदा।

मूलम्

अगोपमिव चोद्भ्रान्तं गोकुलं तद् बलं मम।
पौरुषं सर्वलोकस्य परं यस्मिन् महाहवे ॥ ५४ ॥
परासक्ते च वस्तस्मिन् कथमासीन्मनस्तदा।

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे ग्वालेके बिना गौओंका समुदाय इधर-उधर भटकता फिरता है, उसी प्रकार अब मेरी सेना उद्भ्रान्त हो रही होगी। महान् युद्धके समय जिनमें सम्पूर्ण जगत्‌का परम पुरुषार्थ प्रकट दिखायी देता था, वे ही भीष्म जब परलोकके पथिक हो गये? उस समय तुम लोगोंके मनकी अवस्था कैसी हुई थी॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवितेऽप्यद्य सामर्थ्यं किमिवास्मासु संजय ॥ ५५ ॥
घातयित्वा महावीर्यं पितरं लोकधार्मिकम्।
अगाधे सलिले मग्नां नावं दृष्ट्वेव पारगाः ॥ ५६ ॥

मूलम्

जीवितेऽप्यद्य सामर्थ्यं किमिवास्मासु संजय ॥ ५५ ॥
घातयित्वा महावीर्यं पितरं लोकधार्मिकम्।
अगाधे सलिले मग्नां नावं दृष्ट्वेव पारगाः ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! आज जीवित रहनेपर भी हमलोगोंमें क्या सामर्थ्य है? जगत्‌के विख्यात धर्मात्मा महापराक्रमी पिता भीष्मको युद्धमें मरवाकर हम उसी प्रकार शोकमें डूब गये हैं, जैसे पार जानेकी इच्छावाले पथिक नावको अगाध जलमें डूबी हुई देखकर दुःखी होते हैं॥५५-५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मे हते भृशं दुःखान्मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः।
अद्रिसारमयं नूनं हृदयं मम संजय ॥ ५७ ॥
यच्छ्रुत्वा पुरुषव्याघ्रं हतं भीष्मं न दीर्यते।

मूलम्

भीष्मे हते भृशं दुःखान्मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः।
अद्रिसारमयं नूनं हृदयं मम संजय ॥ ५७ ॥
यच्छ्रुत्वा पुरुषव्याघ्रं हतं भीष्मं न दीर्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

मैं समझता हूँ कि भीष्मजीके मारे जानेपर मेरे बेटे दुःखके कारण अत्यन्त शोकमग्न हो गये होंगे। संजय! मेरा हृदय निश्चय ही लोहेका बना हुआ है, जो पुरुषसिंह भीष्मको मारा गया सुनकर भी विदीर्ण नहीं हो रहा है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मिन्नस्त्राणि मेधा च नीतिश्च पुरुषर्षभे ॥ ५८ ॥
अप्रमेयाणि दुर्धर्षे कथं स निहतो युधि।

मूलम्

यस्मिन्नस्त्राणि मेधा च नीतिश्च पुरुषर्षभे ॥ ५८ ॥
अप्रमेयाणि दुर्धर्षे कथं स निहतो युधि।

अनुवाद (हिन्दी)

जिन पुरुषरत्न तथा दुर्धर्ष वीरशिरोमणिमें अस्त्र, बुद्धि और नीति तीन अप्रमेय शक्तियाँ थीं, वे युद्धमें कैसे मारे गये?॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चास्त्रेण न शौर्येण तपसा मेधया न च॥५९॥
न धृत्या न पुनस्त्यागान्मृत्योः कश्चिद्‌ विमुच्यते।

मूलम्

न चास्त्रेण न शौर्येण तपसा मेधया न च॥५९॥
न धृत्या न पुनस्त्यागान्मृत्योः कश्चिद्‌ विमुच्यते।

अनुवाद (हिन्दी)

जान पड़ता है कि अस्त्रसे, शौर्यसे, तपस्यासे, बुद्धिसे, धैर्यसे तथा त्यागके द्वारा भी कोई मृत्युसे छूट नहीं सकता है॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालो नूनं महावीर्यः सर्वलोकदुरत्ययः ॥ ६० ॥
यत्र शान्तनवं भीष्मं हतं शंससि संजय।

मूलम्

कालो नूनं महावीर्यः सर्वलोकदुरत्ययः ॥ ६० ॥
यत्र शान्तनवं भीष्मं हतं शंससि संजय।

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! निश्चय ही कालकी शक्ति बहुत बड़ी है, सम्पूर्ण जगत्‌के लिये वह दुर्लङ्घ्य है, जिसके अधीन होनेके कारण तुम शान्तनुनन्दन भीष्मको मारा गया बता रहे हो॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्रशोकाभिसंतप्तो महद् दुःखमचिन्तयम् ॥ ६१ ॥
आशंसेऽहं परं त्राणं भीष्माच्छान्तनुनन्दनात्।

मूलम्

पुत्रशोकाभिसंतप्तो महद् दुःखमचिन्तयम् ॥ ६१ ॥
आशंसेऽहं परं त्राणं भीष्माच्छान्तनुनन्दनात्।

अनुवाद (हिन्दी)

मुझे शान्तनुनन्दन भीष्मसे अपने पक्षके परित्राणकी बड़ी आशा थी। इस समय अपने पुत्रके शोकसे संतप्त होकर मैं महान् दुःखसे चिन्तित हो उठा हूँ॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदाऽऽदित्यमिवापश्यत् पतितं भुवि संजय ॥ ६२ ॥
दुर्योधनः शान्तनवं किं तदा प्रत्यपद्यत।

मूलम्

यदाऽऽदित्यमिवापश्यत् पतितं भुवि संजय ॥ ६२ ॥
दुर्योधनः शान्तनवं किं तदा प्रत्यपद्यत।

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! जब दुर्योधनने शान्तनुनन्दन भीष्मको अस्ताचलगामी सूर्यकी भाँति पृथ्वीपर पड़ा देखा, तब उसने क्या सोचा?॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं स्वेषां परेषां वा बुद्ध्या संजय चिन्तयन् ॥ ६३ ॥
शेषं किंचित् प्रपश्यामि प्रत्यनीके महीक्षिताम्।

मूलम्

नाहं स्वेषां परेषां वा बुद्ध्या संजय चिन्तयन् ॥ ६३ ॥
शेषं किंचित् प्रपश्यामि प्रत्यनीके महीक्षिताम्।

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! जब मैं अपनी बुद्धिसे विचार करके देखता हूँ तो अपने अथवा शत्रुपक्षके राजाओंमेंसे किसीका भी जीवन इस युद्धमें शेष रहता नहीं दिखायी देता है॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दारुणः क्षत्रधर्मोऽयमृषिभिः सम्प्रदर्शितः ॥ ६४ ॥
यत्र शान्तनवं हत्वा राज्यमिच्छन्ति पाण्डवाः।

मूलम्

दारुणः क्षत्रधर्मोऽयमृषिभिः सम्प्रदर्शितः ॥ ६४ ॥
यत्र शान्तनवं हत्वा राज्यमिच्छन्ति पाण्डवाः।

अनुवाद (हिन्दी)

ऋषियोंने क्षत्रियोंका यह धर्म अत्यन्त कठोर निश्चित किया है, जिसमें रहते हुए पाण्डव शान्तनुनन्दन भीष्मको मारकर राज्य लेना चाहते हैं॥६४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयं वा राज्यमिच्छामो घातयित्वा महाव्रतम् ॥ ६५ ॥
क्षत्रधर्मे स्थिताः पार्था नापराध्यन्ति पुत्रकाः।
एतदार्येण कर्तव्यं कृच्छ्रास्वापत्सु संजय ॥ ६६ ॥
पराक्रमः परं शक्त्या तत्‌ तु तस्मिन् प्रतिष्ठितम्।

मूलम्

वयं वा राज्यमिच्छामो घातयित्वा महाव्रतम् ॥ ६५ ॥
क्षत्रधर्मे स्थिताः पार्था नापराध्यन्ति पुत्रकाः।
एतदार्येण कर्तव्यं कृच्छ्रास्वापत्सु संजय ॥ ६६ ॥
पराक्रमः परं शक्त्या तत्‌ तु तस्मिन् प्रतिष्ठितम्।

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा हम भी तो उन महारथी भीष्मको मरवाकर ही राज्य लेना चाहते हैं। क्षत्रियधर्ममें स्थित हुए मेरे बच्चे कुन्तीकुमारोंका कोई अपराध नहीं है। संजय! दुस्तर आपत्तिके समय श्रेष्ठ पुरुषको यही करना चाहिये, जो भीष्मजीने किया है, कि वह शक्तिके अनुसार अधिक-से-अधिक पराक्रम करे। यह गुण भीष्मजीमें पूर्णरूपसे प्रतिष्ठित था॥६५-६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनीकानि विनिघ्नन्तं ह्रीमन्तमपराजितम् ॥ ६७ ॥
कथं शान्तनवं तातं पाण्डुपुत्रा न्यवारयन्।
कथं युक्तान्यनीकानि कथं युद्धं महात्मभिः ॥ ६८ ॥

मूलम्

अनीकानि विनिघ्नन्तं ह्रीमन्तमपराजितम् ॥ ६७ ॥
कथं शान्तनवं तातं पाण्डुपुत्रा न्यवारयन्।
कथं युक्तान्यनीकानि कथं युद्धं महात्मभिः ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी किसीसे पराजित न होनेवाले और लज्जाशील थे। विपक्षी सेनाओंका संहार करते हुए उन मेरे ताऊ भीष्मजीको पाण्डवोंने कैसे रोका? उन महामनस्वी वीरोंने किस प्रकार सेनाएँ संगठित कीं और किस प्रकार युद्ध किया?॥६७-६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं वा निहतो भीष्मः पिता संजय मे परैः।
दुर्योधनश्च कर्णश्च शकुनिश्चापि सौबलः ॥ ६९ ॥
दुःशासनश्च कितवो हते भीष्मे किमब्रुवन्।

मूलम्

कथं वा निहतो भीष्मः पिता संजय मे परैः।
दुर्योधनश्च कर्णश्च शकुनिश्चापि सौबलः ॥ ६९ ॥
दुःशासनश्च कितवो हते भीष्मे किमब्रुवन्।

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! शत्रुओंने मेरे आदरणीय पिता भीष्मका किस प्रकार वध किया? दुर्योधन, कर्ण, दुःशासन तथा सुबलपुत्र जुआरी शकुनिने भीष्मजीके मारे जानेपर क्या-क्या बातें कहीं?॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्छरीरैरुपास्तीर्णां नरवारणवाजिनाम् ॥ ७० ॥
शरशक्तिमहाखड्गतोमराक्षां महाभयाम् ।
प्राविशन् कितवा मन्दाः सभां युद्धदुरासदाम् ॥ ७१ ॥
प्राणद्यूते प्रतिभये केऽदीव्यन्त नरर्षभाः।

मूलम्

यच्छरीरैरुपास्तीर्णां नरवारणवाजिनाम् ॥ ७० ॥
शरशक्तिमहाखड्गतोमराक्षां महाभयाम् ।
प्राविशन् कितवा मन्दाः सभां युद्धदुरासदाम् ॥ ७१ ॥
प्राणद्यूते प्रतिभये केऽदीव्यन्त नरर्षभाः।

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! जहाँ मनुष्य, हाथी और घोड़ोंके शरीर बिछे हुए थे, जहाँ बाण, शक्ति, महान् खड्ग और तोमररूपी पासे फेंके जाते थे, जो युद्धके कारण दुर्गम एवं महान् भय देनेवाली थी, उस रणक्षेत्ररूपी द्यूतसभामें किन-किन मन्दबुद्धि जुआरियोंने प्रवेश किया था? जहाँ प्राणोंकी बाजी लगायी जाती थी, वह भयंकर जूएका खेल किन-किन नरश्रेष्ठ वीरोंने खेला था?॥७०-७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

के जीयन्ते जितास्तत्र कृतलक्ष्या निपातिताः ॥ ७२ ॥
अन्ये भीष्माच्छान्तनवात् तन्ममाचक्ष्व संजय।

मूलम्

के जीयन्ते जितास्तत्र कृतलक्ष्या निपातिताः ॥ ७२ ॥
अन्ये भीष्माच्छान्तनवात् तन्ममाचक्ष्व संजय।

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! शान्तनुनन्दन भीष्मके सिवा, उस युद्धमें कौन-कौन-से हार रहे थे, किन-किन लोगोंकी पराजय हुई तथा कौन-कौन वीर बाणोंके लक्ष्य बनकर मार गिराये गये? यह सब मुझे बताओ॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि मे शान्तिरस्तीह श्रुत्वा देवव्रतं हतम् ॥ ७३ ॥
पितरं भीमकर्माणं भीष्ममाहवशोभिनम् ।
आर्तिं मे हृदये रूढां महतीं पुत्रहानिजाम् ॥ ७४ ॥
त्वं हि मे सर्पिषेवाग्निमुद्दीपयसि संजय।

मूलम्

न हि मे शान्तिरस्तीह श्रुत्वा देवव्रतं हतम् ॥ ७३ ॥
पितरं भीमकर्माणं भीष्ममाहवशोभिनम् ।
आर्तिं मे हृदये रूढां महतीं पुत्रहानिजाम् ॥ ७४ ॥
त्वं हि मे सर्पिषेवाग्निमुद्दीपयसि संजय।

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धभूमिमें शोभा पानेवाले भयंकर पराक्रमी अपने ताऊ देवव्रत भीष्मको मारा गया सुनकर मेरे हृदयमें शान्ति नहीं रह गयी है। उनके मारे जानेसे मेरे पुत्रोंकी जो हानि होनेवाली है, उसके कारण मेरे मनमें भारी व्यथा जाग उठी है। संजय! तुम अपने वचनरूपी घृतकी आहुति डालकर मेरी उस चिन्ता एवं व्यथारूपी अग्निको और भी उद्दीप्त कर रहे हो॥७३-७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महान्तं भारमुद्यम्य विश्रुतं सार्वलौकिकम् ॥ ७५ ॥
दृष्ट्वा विनिहतं भीष्मं मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः।
श्रोष्यामि तानि दुःखानि दुर्योधनकृतान्यहम् ॥ ७६ ॥

मूलम्

महान्तं भारमुद्यम्य विश्रुतं सार्वलौकिकम् ॥ ७५ ॥
दृष्ट्वा विनिहतं भीष्मं मन्ये शोचन्ति पुत्रकाः।
श्रोष्यामि तानि दुःखानि दुर्योधनकृतान्यहम् ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिन्होंने सम्पूर्ण जगत्‌में विख्यात इस युद्धके महान् भारको अपनी भुजाओंपर उठा रखा था, उन्हीं भीष्मजीको मारा गया देख मेरे पुत्र भारी शोकमें पड़ गये होंगे, ऐसा मेरा विश्वास है। मैं दुर्योधनके द्वारा प्रकट किये हुए उन दुःखोंको सुनूँगा॥७५-७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मान्मे सर्वमाचक्ष्व यद् वृत्तं तत्र संजय।
यद् वृत्तं तत्र संग्रामे मन्दस्याबुद्धिसम्भवम् ॥ ७७ ॥
अपनीतं सुनीतं यत् तन्ममाचक्ष्व संजय।

मूलम्

तस्मान्मे सर्वमाचक्ष्व यद् वृत्तं तत्र संजय।
यद् वृत्तं तत्र संग्रामे मन्दस्याबुद्धिसम्भवम् ॥ ७७ ॥
अपनीतं सुनीतं यत् तन्ममाचक्ष्व संजय।

अनुवाद (हिन्दी)

इसलिये संजय! मुझसे वहाँका सारा वृत्तान्त कहो। मूर्ख दुर्योधनके अज्ञानके कारण उस युद्धमें अन्याय और न्यायकी जो-जो बातें संघटित हुई हों, उन सबका वर्णन करो॥७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् कृतं तत्र संग्रामे भीष्मेण जयमिच्छता ॥ ७८ ॥
तेजोयुक्तं कृतास्त्रेण शंस तच्चाप्यशेषतः।

मूलम्

यत् कृतं तत्र संग्रामे भीष्मेण जयमिच्छता ॥ ७८ ॥
तेजोयुक्तं कृतास्त्रेण शंस तच्चाप्यशेषतः।

अनुवाद (हिन्दी)

विजयकी इच्छा रखनेवाले अस्त्रवेत्ता भीष्मजीने उस युद्धमें अपनी तेजस्विताके अनुरूप जो-जो कार्य किया हो, वह सभी पूर्णरूपसे मुझे बताओ॥७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा तदभवद् युद्धं कुरुपाण्डवसेनयोः ॥ ७९ ॥
क्रमेण येन यस्मिंश्च काले यच्च यथाभवत् ॥ ८० ॥

मूलम्

तथा तदभवद् युद्धं कुरुपाण्डवसेनयोः ॥ ७९ ॥
क्रमेण येन यस्मिंश्च काले यच्च यथाभवत् ॥ ८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौरवों और पाण्डवोंकी सेनाओंका वह युद्ध जिस समय, जिस क्रमसे और जिस रूपमें हुआ था, वह सब कहो॥७९-८०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि श्रीमद्भगवद्‌गीतापर्वणि धृतराष्ट्रप्रश्ने चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत श्रीमद्भगवद्‌गीतापर्वमें धृतराष्ट्रका प्रश्नविषयक चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४॥