भागसूचना
(श्रीमद्भगवद्गीतापर्व)
त्रयोदशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
संजयका युद्धभूमिसे लौटकर धृतराष्ट्रको भीष्मकी मृत्युका समाचार सुनाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथ गावल्गणिर्विद्वान् संयुगादेत्य भारत।
प्रत्यक्षदर्शी सर्वस्य भूतभव्यभविष्यवित् ॥ १ ॥
ध्यायते धृतराष्ट्राय सहसोत्पत्य दुःखितः।
आचष्ट निहतं भीष्मं भरतानां पितामहम् ॥ २ ॥
मूलम्
अथ गावल्गणिर्विद्वान् संयुगादेत्य भारत।
प्रत्यक्षदर्शी सर्वस्य भूतभव्यभविष्यवित् ॥ १ ॥
ध्यायते धृतराष्ट्राय सहसोत्पत्य दुःखितः।
आचष्ट निहतं भीष्मं भरतानां पितामहम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— भरतनन्दन! तदनन्तर एक दिनकी बात है कि भूत, वर्तमान और भविष्यके ज्ञाता एवं सब घटनाओंको प्रत्यक्ष देखनेवाले गवल्गणपुत्र विद्वान् संजयने युद्धभूमिसे लौटकर सहसा चिन्तामग्न धृतराष्ट्रके पास जा अत्यन्त दुःखी होकर भरतवंशियोंके पितामह भीष्मके युद्धभूमिमें मारे जानेका समाचार बताया॥१-२॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
संजयोऽहं महाराज नमस्ते भरतर्षभ।
हतो भीष्मः शान्तनवो भरतानां पितामहः ॥ ३ ॥
मूलम्
संजयोऽहं महाराज नमस्ते भरतर्षभ।
हतो भीष्मः शान्तनवो भरतानां पितामहः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय बोले— महाराज! भरतश्रेष्ठ! आपको नमस्कार है। मैं संजय आपकी सेवामें उपस्थित हूँ। भरतवंशियोंके पितामह और महाराज शान्तनुके पुत्र भीष्मजी आज युद्धमें मारे गये॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ककुदं सर्वयोधानां धाम सर्वधनुष्मताम्।
शरतल्पगतः सोऽद्य शेते कुरुपितामहः ॥ ४ ॥
मूलम्
ककुदं सर्वयोधानां धाम सर्वधनुष्मताम्।
शरतल्पगतः सोऽद्य शेते कुरुपितामहः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो समस्त योद्धाओंके ध्वजस्वरूप और सम्पूर्ण धनुर्धरोंके आश्रय थे, वे ही कुरुकुलपितामह भीष्म आज बाणशय्यापर सो रहे हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य वीर्यं समाश्रित्य द्यूतं पुत्रस्तवाकरोत्।
स शेते निहतो राजन् संख्ये भीष्मः शिखण्डिना ॥ ५ ॥
मूलम्
यस्य वीर्यं समाश्रित्य द्यूतं पुत्रस्तवाकरोत्।
स शेते निहतो राजन् संख्ये भीष्मः शिखण्डिना ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! आपके पुत्र दुर्योधनने जिनके बाहुबलका भरोसा करके जूएका खेल किया था, वे भीष्म शिखण्डीके हाथों मारे जाकर रणभूमिमें शयन करते हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः सर्वान् पृथिवीपालान् समवेतान् महामृधे।
जिगायैकरथेनैव काशिपूर्यां महारथः ॥ ६ ॥
जामदग्न्यं रणे रामं योऽयुध्यदपसम्भ्रमः।
न हतो जामदग्न्येन स हतोऽद्य शिखण्डिना ॥ ७ ॥
मूलम्
यः सर्वान् पृथिवीपालान् समवेतान् महामृधे।
जिगायैकरथेनैव काशिपूर्यां महारथः ॥ ६ ॥
जामदग्न्यं रणे रामं योऽयुध्यदपसम्भ्रमः।
न हतो जामदग्न्येन स हतोऽद्य शिखण्डिना ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन महारथी वीर भीष्मने काशिराजकी नगरीमें एकत्र हुए समस्त भूपालोंको अकेला ही रथपर बैठकर महान् युद्धमें पराजित कर दिया था, जिन्होंने रणभूमिमें जमदग्निनन्दन परशुरामजीके साथ निर्भय होकर युद्ध किया था और जिन्हें परशुरामजी भी मार न सके, वे ही भीष्म आज शिखण्डीके हाथसे मारे गये॥६-७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महेन्द्रसदृशः शौर्ये स्थैर्ये च हिमवानिव।
समुद्र इव गाम्भीर्ये सहिष्णुत्वे धरासमः ॥ ८ ॥
मूलम्
महेन्द्रसदृशः शौर्ये स्थैर्ये च हिमवानिव।
समुद्र इव गाम्भीर्ये सहिष्णुत्वे धरासमः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो शौर्यमें देवराज इन्द्रके समान, स्थिरतामें हिमालयके समान, गम्भीरतामें समुद्रके समान और सहनशीलतामें पृथ्वीके समान थे॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरदंष्ट्रो धनुर्वक्त्रः खड्गजिह्वो दुरासदः।
नरसिंहः पिता तेऽद्य पाञ्चाल्येन निपातितः ॥ ९ ॥
मूलम्
शरदंष्ट्रो धनुर्वक्त्रः खड्गजिह्वो दुरासदः।
नरसिंहः पिता तेऽद्य पाञ्चाल्येन निपातितः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्योंमें सिंह थे, बाण ही जिनकी दाढ़ें थीं, धनुष जिनका फैला हुआ मुख था, तलवार ही जिनकी जिह्वा थी और इसीलिये जिनके पास पहुँचना किसीके लिये भी अत्यन्त कठिन था, वे ही आपके पिता भीष्म आज पांचालराजकुमार शिखण्डीके द्वारा मार गिराये गये॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवानां महासैन्यं यं दृष्ट्वोद्यतमाहवे।
प्रावेपत भयोद्विग्नं सिंहं दृष्ट्वेव गोगणः ॥ १० ॥
परिरक्ष्य स सेनां ते दशरात्रमनीकहा।
जगामास्तमिवादित्यः कृत्वा कर्म सुदुष्करम् ॥ ११ ॥
मूलम्
पाण्डवानां महासैन्यं यं दृष्ट्वोद्यतमाहवे।
प्रावेपत भयोद्विग्नं सिंहं दृष्ट्वेव गोगणः ॥ १० ॥
परिरक्ष्य स सेनां ते दशरात्रमनीकहा।
जगामास्तमिवादित्यः कृत्वा कर्म सुदुष्करम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे गौओंका झुंड सिंहके देखते ही भयसे व्याकुल हो उठता है, उसी प्रकार जिन्हें युद्धमें हथियार उठाये देख पाण्डवोंकी विशाल वाहिनी भयसे उद्विग्न होकर थरथर काँपने लगती थी, वे ही शत्रुसैन्यसंहारक भीष्म दस दिनोंतक आपकी सेनाका संरक्षण करके अत्यन्त दुष्कर पराक्रम प्रकट करते हुए अन्तमें सूर्यकी भाँति अस्ताचलको चले गये॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यः स शक्र इवाक्षोभ्यो वर्षन् बाणान् सहस्रशः।
जघान युधि योधानामर्बुदं दशभिर्दिनैः ॥ १२ ॥
स शेते निहतो भूमौ वातभग्न इव द्रुमः।
तव दुर्मन्त्रिते राजन् यथा नार्हः स भारत ॥ १३ ॥
मूलम्
यः स शक्र इवाक्षोभ्यो वर्षन् बाणान् सहस्रशः।
जघान युधि योधानामर्बुदं दशभिर्दिनैः ॥ १२ ॥
स शेते निहतो भूमौ वातभग्न इव द्रुमः।
तव दुर्मन्त्रिते राजन् यथा नार्हः स भारत ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिन्होंने इन्द्रकी भाँति क्षोभरहित होकर हजारों बाणोंकी वर्षा करते हुए दस दिनोंमें शत्रुपक्षके दस करोड़ योद्धाओंका संहार कर डाला, वे ही आज आँधीके उखाड़े हुए वृक्षकी भाँति मारे जाकर युद्धभूमिमें सो रहे हैं। भरतवंशी नरेश! यह सब आपकी कुमन्त्रणाका फल है; नहीं तो भीष्मजी इस दुर्दशाके योग्य नहीं थे॥१२-१३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि श्रीमद्भगवद्गीतापर्वणि भीष्ममृत्युश्रवणे त्रयोदशोऽध्यायः ॥ १३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत श्रीमद्भगवद्गीतापर्वमें भीष्ममृत्युश्रवणविषयक तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३॥