०१२ उत्तरद्वीपादिसंस्थानवर्णने

भागसूचना

द्वादशोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कुश, क्रौंच और पुष्कर आदि द्वीपोंका तथा राहु, सूर्य एवं चन्द्रमाके प्रमाणका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तरेषु च कौरव्य द्वीपेषु श्रूयते कथा।
एवं तत्र महाराज ब्रुवतश्च निबोध मे ॥ १ ॥

मूलम्

उत्तरेषु च कौरव्य द्वीपेषु श्रूयते कथा।
एवं तत्र महाराज ब्रुवतश्च निबोध मे ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय बोले— महाराज! कुरुनन्दन! इसके बादवाले द्वीपोंके विषयमें जो बातें सुनी जाती हैं, वे इस प्रकार हैं; उन्हें आप मुझसे सुनिये॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

घृततोयः समुद्रोऽत्र दधिमण्डोदकोऽपरः ।
सुरोदः सागरश्चैव तथान्यो जलसागरः ॥ २ ॥

मूलम्

घृततोयः समुद्रोऽत्र दधिमण्डोदकोऽपरः ।
सुरोदः सागरश्चैव तथान्यो जलसागरः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षीरोद समुद्रके बाद घृतोद समुद्र है। फिर दधिमण्डोदक समुद्र है। इनके बाद सुरोद समुद्र है, फिर मीठे पानीका सागर है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परस्परेण द्विगुणाः सर्वे द्वीपा नराधिप।
पर्वताश्च महाराज समुद्रैः परिवारिताः ॥ ३ ॥

मूलम्

परस्परेण द्विगुणाः सर्वे द्वीपा नराधिप।
पर्वताश्च महाराज समुद्रैः परिवारिताः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! इन समुद्रोंसे घिरे हुए सभी द्वीप और पर्वत उत्तरोत्तर दुगुने विस्तारवाले हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गौरस्तु मध्यमे द्वीपे गिरिर्मानःशिलो महान्।
पर्वतः पश्चिमे कृष्णो नारायणसखो नृप ॥ ४ ॥

मूलम्

गौरस्तु मध्यमे द्वीपे गिरिर्मानःशिलो महान्।
पर्वतः पश्चिमे कृष्णो नारायणसखो नृप ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! इनमेंसे मध्यम द्वीपमें मनःशिला (मैनसिल)-का एक बहुत बड़ा पर्वत है; जो ‘गौर’ नामसे विख्यात है। उसके पश्चिममें ‘कृष्ण’ पर्वत है, जो नारायणको विशेष प्रिय है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र रत्नानि दिव्यानि स्वयं रक्षति केशवः।
प्रसन्नश्चाभवत् तत्र प्रजानां व्यदधत् सुखम् ॥ ५ ॥

मूलम्

तत्र रत्नानि दिव्यानि स्वयं रक्षति केशवः।
प्रसन्नश्चाभवत् तत्र प्रजानां व्यदधत् सुखम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वयं भगवान् केशव ही वहाँ दिव्य रत्नोंको रखते और उनकी रक्षा करते हैं। वे वहाँकी प्रजापर प्रसन्न हुए थे, इसलिये उनको सुख पहुँचानेकी व्यवस्था उन्होंने स्वयं की है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुशस्तम्बः कुशद्वीपे मध्ये जनपदैः सह।
सम्पूज्यते शाल्मलिश्च द्वीपे शाल्मलिके नृप ॥ ६ ॥

मूलम्

कुशस्तम्बः कुशद्वीपे मध्ये जनपदैः सह।
सम्पूज्यते शाल्मलिश्च द्वीपे शाल्मलिके नृप ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! कुशद्वीपमें कुशोंका एक बहुत बड़ा झाड़ है, जिसकी वहाँके जनपदोंमें रहनेवाले लोग पूजा करते हैं। उसी प्रकार शाल्मलिद्वीपमें शाल्मलि (सेंमर) वृक्षकी पूजा की जाती है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रौञ्चद्वीपे महाक्रौञ्चो गिरी रत्नचयाकरः।
सम्पूज्यते महाराज चातुर्वर्ण्येन नित्यदा ॥ ७ ॥

मूलम्

क्रौञ्चद्वीपे महाक्रौञ्चो गिरी रत्नचयाकरः।
सम्पूज्यते महाराज चातुर्वर्ण्येन नित्यदा ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रौंचद्वीपमें महाक्रौंच नामक एक महान् पर्वत है, जो रत्नराशिकी खान है। महाराज! वहाँ चारों वर्णोंके लोग सदा उसीकी पूजा करते हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोमन्तः पर्वतो राजन् सुमहान् सर्वधातुकः।
यत्र नित्यं निवसति श्रीमान् कमललोचनः ॥ ८ ॥
मोक्षिभिः संस्तुतो नित्यं प्रभुर्नारायणो हरिः।

मूलम्

गोमन्तः पर्वतो राजन् सुमहान् सर्वधातुकः।
यत्र नित्यं निवसति श्रीमान् कमललोचनः ॥ ८ ॥
मोक्षिभिः संस्तुतो नित्यं प्रभुर्नारायणो हरिः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वहीं गोमन्त नामक विशाल पर्वत है, जो सम्पूर्ण धातुओंसे सम्पन्न है। वहाँ मोक्षकी इच्छा रखनेवाले उपासकोंके मुखसे अपनी स्तुति सुनते हुए सबके स्वामी श्रीमान् कमलनयन भगवान् नारायण नित्य निवास करते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुशद्वीपे तु राजेन्द्र पर्वतो विद्रुमैश्चितः ॥ ९ ॥
सुधामा नाम दुर्धर्षो द्वितीयो हेमपर्वतः।

मूलम्

कुशद्वीपे तु राजेन्द्र पर्वतो विद्रुमैश्चितः ॥ ९ ॥
सुधामा नाम दुर्धर्षो द्वितीयो हेमपर्वतः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! कुशद्वीपमें सुधामा नामसे प्रसिद्ध दूसरा सुवर्णमय पर्वत है, जो मूँगोंसे भरा हुआ और दुर्गम है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्युतिमान् नाम कौरव्य तृतीयः कुमुदो गिरिः ॥ १० ॥
चतुर्थः पुष्पवान् नाम पञ्चमस्तु कुशेशयः।
षष्ठो हरिगिरिर्नाम षडेते पर्वतोत्तमाः ॥ ११ ॥

मूलम्

द्युतिमान् नाम कौरव्य तृतीयः कुमुदो गिरिः ॥ १० ॥
चतुर्थः पुष्पवान् नाम पञ्चमस्तु कुशेशयः।
षष्ठो हरिगिरिर्नाम षडेते पर्वतोत्तमाः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कौरव्य! वहीं परम कान्तिमान् कुमुद नामक तीसरा पर्वत है। चौथा पुष्पवान्, पाँचवाँ कुशेशय और छठा हरिगिरि है। ये छः कुशद्वीपके श्रेष्ठ पर्वत हैं॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषामन्तरविष्कम्भो द्विगुणः सर्वभागशः ।
औद्भिदं प्रथमं वर्षं द्वितीयं वेणुमण्डलम् ॥ १२ ॥

मूलम्

तेषामन्तरविष्कम्भो द्विगुणः सर्वभागशः ।
औद्भिदं प्रथमं वर्षं द्वितीयं वेणुमण्डलम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन पर्वतोंके बीचका विस्तार सब ओरसे उत्तरोत्तर दूना होता गया है। कुशद्वीपके पहले वर्षका नाम उद्भिद् है। दूसरेका नाम वेणुमण्डल है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तृतीयं सुरथाकारं चतुर्थं कम्बलं स्मृतम्।
धृतिमत् पञ्चमं वर्षं षष्ठं वर्षं प्रभाकरम् ॥ १३ ॥

मूलम्

तृतीयं सुरथाकारं चतुर्थं कम्बलं स्मृतम्।
धृतिमत् पञ्चमं वर्षं षष्ठं वर्षं प्रभाकरम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तीसरेका नाम सुरथाकार, चौथेका कम्बल, पाँचवेंका धृतिमान् और छठे वर्षका नाम प्रभाकर है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सप्तमं कापिलं वर्षं सप्तैते वर्षलम्भकाः।
एतेषु देवगन्धर्वाः प्रजाश्च जगतीश्वर ॥ १४ ॥
विहरन्ते रमन्ते च न तेषु म्रियते जनः।
न तेषु दस्यवः सन्ति म्लेच्छजात्योऽपि वा नृप ॥ १५ ॥

मूलम्

सप्तमं कापिलं वर्षं सप्तैते वर्षलम्भकाः।
एतेषु देवगन्धर्वाः प्रजाश्च जगतीश्वर ॥ १४ ॥
विहरन्ते रमन्ते च न तेषु म्रियते जनः।
न तेषु दस्यवः सन्ति म्लेच्छजात्योऽपि वा नृप ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सातवाँ वर्ष कापिल कहलाता है। ये सात वर्षसमुदाय हैं। पृथ्वीपते! इन सबमें देवता, गन्धर्व तथा मनुष्य सानन्द विहार करते हैं। उनमेंसे किसीकी मृत्यु नहीं होती है। नरेश्वर! वहाँ लुटेरे अथवा म्लेच्छ-जातिके लोग नहीं हैं॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गौरप्रायो जनः सर्वः सुकुमारश्च पार्थिव।
अवशिष्टेषु सर्वेषु वक्ष्यामि मनुजेश्वर ॥ १६ ॥

मूलम्

गौरप्रायो जनः सर्वः सुकुमारश्च पार्थिव।
अवशिष्टेषु सर्वेषु वक्ष्यामि मनुजेश्वर ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मनुजेश्वर! इन वर्षोंके सभी लोग प्रायः गोरे और सुकुमार होते हैं। अब मैं शेष सम्पूर्ण द्वीपोंके विषयमें बताता हूँ॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाश्रुतं महाराज तदव्यग्रमनाः शृणु।
क्रौञ्चद्वीपे महाराज क्रौञ्चो नाम महागिरिः ॥ १७ ॥

मूलम्

यथाश्रुतं महाराज तदव्यग्रमनाः शृणु।
क्रौञ्चद्वीपे महाराज क्रौञ्चो नाम महागिरिः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! मैंने जैसा सुन रखा है, वैसा ही सुनाऊँगा। आप शान्तचित्त होकर सुनिये। क्रौंचद्वीपमें क्रौंच नामक विशाल पर्वत है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रौञ्चात् परो वामनको वामनादन्धकारकः।
अन्धकारात् परो राजन् मैनाकः पर्वतोत्तमः ॥ १८ ॥
मैनाकात् परतो राजन् गोविन्दो गिरिरुत्तमः।
गोविन्दात् परतो राजन् निबिडो नाम पर्वतः ॥ १९ ॥

मूलम्

क्रौञ्चात् परो वामनको वामनादन्धकारकः।
अन्धकारात् परो राजन् मैनाकः पर्वतोत्तमः ॥ १८ ॥
मैनाकात् परतो राजन् गोविन्दो गिरिरुत्तमः।
गोविन्दात् परतो राजन् निबिडो नाम पर्वतः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! क्रौंचके बाद वामन पर्वत है, वामनके बाद अन्धकार और अन्धकारके बाद मैनाक नामक श्रेष्ठ पर्वत है। प्रभो! मैनाकके बाद उत्तम गोविन्द गिरि है। गोविन्दके बाद निबिड नामक पर्वत है॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

परस्तु द्विगुणस्तेषां विष्कम्भो वंशवर्धन।
देशांस्तत्र प्रवक्ष्यामि तन्मे निगदतः शृणु ॥ २० ॥

मूलम्

परस्तु द्विगुणस्तेषां विष्कम्भो वंशवर्धन।
देशांस्तत्र प्रवक्ष्यामि तन्मे निगदतः शृणु ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुवंशकी वृद्धि करनेवाले महाराज! इन पर्वतोंके बीचका विस्तार उत्तरोत्तर दूना होता गया है। उनमें जो देश बसे हुए हैं, उनका परिचय देता हूँ; सुनिये॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रौञ्चस्य कुशलो देशो वामनस्य मनोनुगः।
मनोनुगात् परश्चोष्णो देशः कुरुकुलोद्वह ॥ २१ ॥

मूलम्

क्रौञ्चस्य कुशलो देशो वामनस्य मनोनुगः।
मनोनुगात् परश्चोष्णो देशः कुरुकुलोद्वह ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रौंचपर्वतके निकट कुशल नामक देश है। वामन-पर्वतके पास मनोनुग देश है। कुरुकुलश्रेष्ठ! मनोनुगके बाद उष्ण देश आता है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उष्णात् परः प्रावरकः प्रावारादन्धकारकः।
अन्धकारकदेशात् तु मुनिदेशः परः स्मृतः ॥ २२ ॥

मूलम्

उष्णात् परः प्रावरकः प्रावारादन्धकारकः।
अन्धकारकदेशात् तु मुनिदेशः परः स्मृतः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उष्णके बाद प्रावरक, प्रावरकके बाद अन्धकारक और अन्धकारकके बाद उत्तम मुनिदेश बताया गया है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुनिदेशात् परश्चैव प्रोच्यते दुन्दुभिस्वनः।
सिद्धचारणसंकीर्णो गौरप्रायो जनाधिप ॥ २३ ॥
एते देशा महाराज देवगन्धर्वसेविताः।

मूलम्

मुनिदेशात् परश्चैव प्रोच्यते दुन्दुभिस्वनः।
सिद्धचारणसंकीर्णो गौरप्रायो जनाधिप ॥ २३ ॥
एते देशा महाराज देवगन्धर्वसेविताः।

अनुवाद (हिन्दी)

मुनिदेशके बाद जो देश है, उसे दुन्दुभिस्वन कहते हैं। वह सिद्धों और चारणोंसे भरा हुआ है। जनेश्वर! वहाँके लोग प्रायः गोरे होते हैं। महाराज! इन सभी देशोंमें देवता और गन्धर्व निवास करते हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुष्करे पुष्करो नाम पर्वतो मणिरत्नवान् ॥ २४ ॥

मूलम्

पुष्करे पुष्करो नाम पर्वतो मणिरत्नवान् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुष्करद्वीपमें पुष्कर नामक पर्वत है, जो मणियों तथा रत्नोंसे भरा हुआ है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र नित्यं प्रभवति स्वयं देवः प्रजापतिः।
तं पर्युपासते नित्यं देवाः सर्वे महर्षयः ॥ २५ ॥
वाग्भिर्मनोऽनुकूलाभिः पूजयन्तो जनाधिप ।

मूलम्

तत्र नित्यं प्रभवति स्वयं देवः प्रजापतिः।
तं पर्युपासते नित्यं देवाः सर्वे महर्षयः ॥ २५ ॥
वाग्भिर्मनोऽनुकूलाभिः पूजयन्तो जनाधिप ।

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ स्वयं प्रजापति भगवान् ब्रह्मा नित्य निवास करते हैं। जनेश्वर! सम्पूर्ण देवता और महर्षि मनोनुकूल वचनोंद्वारा प्रतिदिन उनकी पूजा करते हुए सदा उन्हींकी उपासनामें लगे रहते हैं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जम्बूद्वीपात् प्रवर्तन्ते रत्नानि विविधान्युत ॥ २६ ॥
द्वीपेषु तेषु सर्वेषु प्रजानां कुरुसत्तम।
ब्रह्मचर्येण सत्येन प्रजानां हि दमेन च ॥ २७ ॥
आरोग्यायुःप्रमाणाभ्यां द्विगुणं द्विगुणं ततः।

मूलम्

जम्बूद्वीपात् प्रवर्तन्ते रत्नानि विविधान्युत ॥ २६ ॥
द्वीपेषु तेषु सर्वेषु प्रजानां कुरुसत्तम।
ब्रह्मचर्येण सत्येन प्रजानां हि दमेन च ॥ २७ ॥
आरोग्यायुःप्रमाणाभ्यां द्विगुणं द्विगुणं ततः।

अनुवाद (हिन्दी)

जम्बूद्वीपसे अनेक प्रकारके रत्न अन्यान्य सब द्वीपोंमें वहाँकी प्रजाओंके उपयोगके लिये भेजे जाते हैं। कुरुश्रेष्ठ! ब्रह्मचर्य, सत्य और इन्द्रियसंयमके प्रभावसे उन सब द्वीपोंकी प्रजाओंके आरोग्य और आयुका प्रमाण जम्बूद्वीपकी अपेक्षा उत्तरोत्तर दूना माना गया है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एको जनपदो राजन् द्वीपेष्वेतेषु भारत।
उक्ता जनपदा येषु धर्मश्चैकः प्रदृश्यते ॥ २८ ॥

मूलम्

एको जनपदो राजन् द्वीपेष्वेतेषु भारत।
उक्ता जनपदा येषु धर्मश्चैकः प्रदृश्यते ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतवंशी नरेश! वास्तवमें इन देशोंमें एक ही जनपद है। जिन द्वीपोंमें अनेक जनपद बताये गये हैं, उनमें भी एक प्रकारका ही धर्म देखा जाता है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईश्वरो दण्डमुद्यम्य स्वयमेव प्रजापतिः।
द्वीपानेतान् महाराज रक्षंस्तिष्ठति नित्यदा ॥ २९ ॥

मूलम्

ईश्वरो दण्डमुद्यम्य स्वयमेव प्रजापतिः।
द्वीपानेतान् महाराज रक्षंस्तिष्ठति नित्यदा ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! सबके ईश्वर प्रजापति ब्रह्मा स्वयं ही दण्ड लेकर इन द्वीपोंकी रक्षा करते हुए इनमें नित्य निवास करते हैं॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स राजा स शिवो राजन् स पिता प्रपितामहः।
गोपायति नरश्रेष्ठ प्रजाः सजडपण्डिताः ॥ ३० ॥

मूलम्

स राजा स शिवो राजन् स पिता प्रपितामहः।
गोपायति नरश्रेष्ठ प्रजाः सजडपण्डिताः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! प्रजापति ही वहाँके राजा हैं। वे कल्याणस्वरूप होकर सबका कल्याण करते हैं। राजन्! वे ही पिता और प्रपितामह हैं। जडसे लेकर चेतनतक समस्त प्रजाकी वे ही रक्षा करते हैं॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भोजनं चात्र कौरव्य प्रजाः स्वयमुपस्थितम्।
सिद्धमेव महाबाहो तद्धि भुञ्जन्ति नित्यदा ॥ ३१ ॥

मूलम्

भोजनं चात्र कौरव्य प्रजाः स्वयमुपस्थितम्।
सिद्धमेव महाबाहो तद्धि भुञ्जन्ति नित्यदा ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहु कुरुनन्दन! यहाँकी प्रजाओंके पास सदा पका-पकाया भोजन स्वयं उपस्थित हो जाता है और उसीको खाकर वे लोग रहते हैं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः परं समा नाम दृश्यते लोकसंस्थितिः।
चतुरस्रं महाराज त्रयस्त्रिंशत् तु मण्डलम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

ततः परं समा नाम दृश्यते लोकसंस्थितिः।
चतुरस्रं महाराज त्रयस्त्रिंशत् तु मण्डलम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके बाद समानामवाली लोगोंकी बस्ती देखी जाती है। महाराज! वह चौकोर बसी हुई है। उसमें तैंतीस मण्डल हैं॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र तिष्ठन्ति कौरव्य चत्वारो लोकसम्मताः।
दिग्गजा भरतश्रेष्ठ वामनैरावतादयः ॥ ३३ ॥

मूलम्

तत्र तिष्ठन्ति कौरव्य चत्वारो लोकसम्मताः।
दिग्गजा भरतश्रेष्ठ वामनैरावतादयः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! भरतश्रेष्ठ! वहाँ लोकविख्यात वामन, ऐरावत, सुप्रतीक और अंजन—ये चार दिग्गज रहते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुप्रतीकस्तथा राजन् प्रभिन्नकरटामुखः ।
तस्याहं परिमाणं तु न संख्यातुमिहोत्सहे ॥ ३४ ॥
असंख्यातः स नित्यं हि तिर्यगूर्ध्वमधस्तथा।

मूलम्

सुप्रतीकस्तथा राजन् प्रभिन्नकरटामुखः ।
तस्याहं परिमाणं तु न संख्यातुमिहोत्सहे ॥ ३४ ॥
असंख्यातः स नित्यं हि तिर्यगूर्ध्वमधस्तथा।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इनमेंसे सुप्रतीक नामक गजराज, जिसके गण्डस्थलसे मदकी धारा बहती रहती है, उसका परिमाण कैसा और कितना है, यह मैं नहीं बता सकता। वह नीचे-ऊपर तथा अगल-बगलमें सब ओर फैला हुआ है। वह अपरिमित है॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र वै वायवो वान्ति दिग्भ्यः सर्वाभ्य एव हि॥३५॥
असम्बद्धा महाराज तान् निगृह्णन्ति ते गजाः।
पुष्करैः पद्मसंकाशैर्विकसद्भिर्महाप्रभैः ॥ ३६ ॥
शतधा पुनरेवाशु ते तान् मुञ्चन्ति नित्यशः।
श्वसद्भिर्मुच्यमानास्तु दिग्गजैरिह मारुताः ॥ ३७ ॥
आगच्छन्ति महाराज ततस्तिष्ठन्ति वै प्रजाः।

मूलम्

तत्र वै वायवो वान्ति दिग्भ्यः सर्वाभ्य एव हि॥३५॥
असम्बद्धा महाराज तान् निगृह्णन्ति ते गजाः।
पुष्करैः पद्मसंकाशैर्विकसद्भिर्महाप्रभैः ॥ ३६ ॥
शतधा पुनरेवाशु ते तान् मुञ्चन्ति नित्यशः।
श्वसद्भिर्मुच्यमानास्तु दिग्गजैरिह मारुताः ॥ ३७ ॥
आगच्छन्ति महाराज ततस्तिष्ठन्ति वै प्रजाः।

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ सब दिशाओंसे खुली हुई हवा आती है। उसे वे चारों दिग्गज ग्रहण करके रोक रखते हैं। फिर वे विकसित कमलसदृश परम कान्तिमान् शुण्डदण्डके अग्रभागसे उस हवाको सैकड़ों भागोंमें करके तुरंत ही सब ओर छोड़ते हैं, यह उनका नित्यका काम है। महाराज! साँस लेते हुए उन दिग्गजोंके मुखसे मुक्त होकर जो वायु यहाँ आती है, उसीसे सारी प्रजा जीवन धारण करती है॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

परो वै विस्तरोऽत्यर्थं त्वया संजय कीर्तितः ॥ ३८ ॥
दर्शितं द्वीपसंस्थानमुत्तरं ब्रूहि संजय।

मूलम्

परो वै विस्तरोऽत्यर्थं त्वया संजय कीर्तितः ॥ ३८ ॥
दर्शितं द्वीपसंस्थानमुत्तरं ब्रूहि संजय।

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— संजय! तुमने द्वीपोंकी स्थितिके विषयमें तो बड़े विस्तारके साथ वर्णन किया है। अब जो अन्तिम विषय—सूर्य, चन्द्रमा तथा राहुका प्रमाण बताना शेष रह गया है, उसका वर्णन करो॥३८॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

उक्ता द्वीपा महाराज ग्रहं वै शृणु तत्त्वतः ॥ ३९ ॥
स्वर्भानोः कौरवश्रेष्ठ यावदेव प्रमाणतः।
परिमण्डलो महाराज स्वर्भानुः श्रूयते ग्रहः ॥ ४० ॥

मूलम्

उक्ता द्वीपा महाराज ग्रहं वै शृणु तत्त्वतः ॥ ३९ ॥
स्वर्भानोः कौरवश्रेष्ठ यावदेव प्रमाणतः।
परिमण्डलो महाराज स्वर्भानुः श्रूयते ग्रहः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय बोले— महाराज! मैंने द्वीपोंका वर्णन तो कर दिया। अब ग्रहोंका यथार्थ वर्णन सुनिये। कौरव-श्रेष्ठ! राहुकी जितनी बड़ी लंबाई-चौड़ाई सुननेमें आती है, वह आपको बताता हूँ। महाराज! सुना है कि राहु ग्रह मण्डलाकार है॥३९-४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योजनानां सहस्राणि विष्कम्भो द्वादशास्य वै।
परिणाहेन षट्त्रिंशद् विपुलत्वेन चानघ ॥ ४१ ॥

मूलम्

योजनानां सहस्राणि विष्कम्भो द्वादशास्य वै।
परिणाहेन षट्त्रिंशद् विपुलत्वेन चानघ ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

निष्पाप नरेश! राहु ग्रहका व्यासगत विस्तार बारह हजार योजन है और उसकी परिधिका विस्तार छत्तीस हजार योजन है॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षष्टिमाहुः शतान्यस्य बुधाः पौराणिकास्तथा।
चन्द्रमास्तु सहस्राणि राजन्नेकादश स्मृतः ॥ ४२ ॥

मूलम्

षष्टिमाहुः शतान्यस्य बुधाः पौराणिकास्तथा।
चन्द्रमास्तु सहस्राणि राजन्नेकादश स्मृतः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पौराणिक विद्वान् उसकी विपुलता (मोटाई) छः हजार योजनकी बताते हैं। राजन्! चन्द्रमाका व्यास ग्यारह हजार योजन है॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्कम्भेण कुरुश्रेष्ठ त्रयस्त्रिंशत् तु मण्डलम्।
एकोनषष्टिविष्कम्भं शीतरश्मेर्महात्मनः ॥ ४३ ॥

मूलम्

विष्कम्भेण कुरुश्रेष्ठ त्रयस्त्रिंशत् तु मण्डलम्।
एकोनषष्टिविष्कम्भं शीतरश्मेर्महात्मनः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुश्रेष्ठ! उनकी परिधि या मण्डलका विस्तार तैंतीस हजार योजन बताया गया है और महामना शीतरश्मि चन्द्रमाका वैपुल्यगत विस्तार (मोटाई) उनसठ सौ योजन है॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूर्यस्त्वष्टौ सहस्राणि द्वे चान्ये कुरुनन्दन।
विष्कम्भेण ततो राजन् मण्डलं त्रिंशता समम् ॥ ४४ ॥
अष्टपञ्चाशतं राजन् विपुलत्वेन चानघ।
श्रूयते परमोदारः पतगोऽसौ विभावसुः ॥ ४५ ॥

मूलम्

सूर्यस्त्वष्टौ सहस्राणि द्वे चान्ये कुरुनन्दन।
विष्कम्भेण ततो राजन् मण्डलं त्रिंशता समम् ॥ ४४ ॥
अष्टपञ्चाशतं राजन् विपुलत्वेन चानघ।
श्रूयते परमोदारः पतगोऽसौ विभावसुः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! सूर्यका व्यासगत विस्तार दस हजार योजन है और उनकी परिधि या मण्डलका विस्तार तीस हजार योजन है तथा उनकी विपुलता अट्ठावन सौ योजनकी है। अनघ! इस प्रकार शीघ्रगामी परम उदार भगवान् सूर्यके त्रिविध विस्तारका वर्णन सुना जाता है॥४४-४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतत् प्रमाणमर्कस्य निर्दिष्टमिह भारत।
स राहुश्छादयत्येतौ यथाकालं महत्तया ॥ ४६ ॥
चन्द्रादित्यौ महाराज संक्षेपोऽयमुदाहृतः ।
इत्येतत् ते महाराज पृच्छतः शास्त्रचक्षुषा ॥ ४७ ॥
सर्वमुक्तं यथातत्त्वं तस्माच्छममवाप्नुहि ।

मूलम्

एतत् प्रमाणमर्कस्य निर्दिष्टमिह भारत।
स राहुश्छादयत्येतौ यथाकालं महत्तया ॥ ४६ ॥
चन्द्रादित्यौ महाराज संक्षेपोऽयमुदाहृतः ।
इत्येतत् ते महाराज पृच्छतः शास्त्रचक्षुषा ॥ ४७ ॥
सर्वमुक्तं यथातत्त्वं तस्माच्छममवाप्नुहि ।

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! यहाँ सूर्यका प्रमाण बताया गया, इन दोनोंसे अधिक विस्तार रखनेके कारण राहु यथासमय इन सूर्य और चन्द्रमाको आच्छादित कर लेता है। महाराज! आपके प्रश्नके अनुसार शास्त्रदृष्टिसे ग्रहोंके विषयमें संक्षेपसे बताया गया। ये सारी बातें मैंने आपके सामने यथार्थरूपसे उपस्थित की हैं। अतः आप शान्ति धारण कीजिये॥४६-४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोद्दिष्टं मया प्रोक्तं सनिर्माणमिदं जगत् ॥ ४८ ॥
तस्मादाश्वस कौरव्य पुत्रं दुर्योधनं प्रति।

मूलम्

यथोद्दिष्टं मया प्रोक्तं सनिर्माणमिदं जगत् ॥ ४८ ॥
तस्मादाश्वस कौरव्य पुत्रं दुर्योधनं प्रति।

अनुवाद (हिन्दी)

इस जगत्‌का स्वरूप कैसा है और इसका निर्माण किस प्रकार हुआ है, ये सब बातें मैंने शास्त्रोक्त रीतिसे बतायी हैं; अतः कुरुनन्दन! आप अपने पुत्र दुर्योधनकी ओरसे निश्चिन्त रहिये॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वेदं भरतश्रेष्ठ भूमिपर्व मनोनुगम् ॥ ४९ ॥
श्रीमान् भवति राजन्यः सिद्धार्थः साधुसम्मतः।
आयुर्बलं च कीर्तिश्च तस्य तेजश्च वर्धते ॥ ५० ॥

मूलम्

श्रुत्वेदं भरतश्रेष्ठ भूमिपर्व मनोनुगम् ॥ ४९ ॥
श्रीमान् भवति राजन्यः सिद्धार्थः साधुसम्मतः।
आयुर्बलं च कीर्तिश्च तस्य तेजश्च वर्धते ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! जो राजा इस भूमिपर्वको मनोयोगपूर्वक सुनता है, वह श्रीसम्पन्न, सफलमनोरथ तथा श्रेष्ठ पुरुषोंद्वारा सम्मानित होता है और उसके बल, आयु, कीर्ति तथा तेजकी वृद्धि होती है॥४९-५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः शृणोति महीपाल पर्वणीदं यतव्रतः।
प्रीयन्ते पितरस्तस्य तथैव च पितामहाः ॥ ५१ ॥

मूलम्

यः शृणोति महीपाल पर्वणीदं यतव्रतः।
प्रीयन्ते पितरस्तस्य तथैव च पितामहाः ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूपाल! जो मनुष्य दृढ़तापूर्वक संयम एवं व्रतका पालन करते हुए प्रत्येक पर्वके दिन इस प्रसंगको सुनता है, उसके पितर और पितामह पूर्ण तृप्त होते हैं॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं तु भारतं वर्षं यत्र वर्तामहे वयम्।
पूर्वैः प्रवर्तितं पुण्यं तत् सर्वं श्रुतवानसि ॥ ५२ ॥

मूलम्

इदं तु भारतं वर्षं यत्र वर्तामहे वयम्।
पूर्वैः प्रवर्तितं पुण्यं तत् सर्वं श्रुतवानसि ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जिसमें हमलोग निवास करते हैं और जहाँ हमारे पूर्वजोंने पुण्यकर्मोंका अनुष्ठान किया है, यह वही भारतवर्ष है। आपने इसका पूरा-पूरा वर्णन सुन लिया है॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि भूमिपर्वणि उत्तरद्वीपादिसंस्थानवर्णने द्वादशोऽध्यायः ॥ १२ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत भूमिपर्वमें उत्तरद्वीपादिसंस्थानवर्णनविषयक बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२॥