भागसूचना
(भूमिपर्व)
एकादशोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
शाकद्वीपका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जम्बूखण्डस्त्वया प्रोक्तो यथावदिह संजय।
विष्कम्भमस्य प्रब्रूहि परिमाणं तु तत्त्वतः ॥ १ ॥
मूलम्
जम्बूखण्डस्त्वया प्रोक्तो यथावदिह संजय।
विष्कम्भमस्य प्रब्रूहि परिमाणं तु तत्त्वतः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्र बोले— संजय! तुमने यहाँ जम्बूखण्डका यथावत् वर्णन किया है। अब तुम इसके विस्तार और परिमाणको ठीक-ठीक बताओ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समुद्रस्य प्रमाणं च सम्यगच्छिद्रदर्शनम्।
शाकद्वीपं च मे ब्रूहि कुशद्वीपं च संजय ॥ २ ॥
मूलम्
समुद्रस्य प्रमाणं च सम्यगच्छिद्रदर्शनम्।
शाकद्वीपं च मे ब्रूहि कुशद्वीपं च संजय ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! समुद्रके सम्पूर्ण परिमाणको भी अच्छी तरह समझाकर कहो। इसके बाद मुझसे शाकद्वीप और कुशद्वीपका वर्णन करो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शाल्मलिं चैव तत्त्वेन क्रौञ्चद्वीपं तथैव च।
ब्रूहि गावल्गणे सर्वं राहोः सोमार्कयोस्तथा ॥ ३ ॥
मूलम्
शाल्मलिं चैव तत्त्वेन क्रौञ्चद्वीपं तथैव च।
ब्रूहि गावल्गणे सर्वं राहोः सोमार्कयोस्तथा ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गवल्गणकुमार संजय! इसी प्रकार शाल्मलिद्वीप, क्रौंचद्वीप तथा सूर्य, चन्द्रमा एवं राहुसे सम्बन्ध रखनेवाली सब बातोंका यथार्थरूपसे प्रतिपादन करो॥३॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजन् सुबहवो द्वीपा यैरिदं संततं जगत्।
सप्तद्वीपान् प्रवक्ष्यामि चन्द्रादित्यौ ग्रहं तथा ॥ ४ ॥
मूलम्
राजन् सुबहवो द्वीपा यैरिदं संततं जगत्।
सप्तद्वीपान् प्रवक्ष्यामि चन्द्रादित्यौ ग्रहं तथा ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय बोले— राजन्! बहुत-से द्वीप हैं, जिनसे सम्पूर्ण जगत् परिपूर्ण है। अब मैं आपकी आज्ञाके अनुसार सात द्वीपोंका तथा चन्द्रमा, सूर्य और राहुका भी वर्णन करूँगा॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अष्टादश सहस्राणि योजनानि विशाम्पते।
षट् शतानि च पूर्णानि विष्कम्भो जम्बुपर्वतः ॥ ५ ॥
लावणस्य समुद्रस्य विष्कम्भो द्विगुणः स्मृतः।
नानाजनपदाकीर्णो मणिविद्रुमचित्रितः ॥ ६ ॥
नैकधातुविचित्रैश्च पर्वतैरुपशोभितः ।
सिद्धचारणसंकीर्णः सागरः परिमण्डलः ॥ ७ ॥
मूलम्
अष्टादश सहस्राणि योजनानि विशाम्पते।
षट् शतानि च पूर्णानि विष्कम्भो जम्बुपर्वतः ॥ ५ ॥
लावणस्य समुद्रस्य विष्कम्भो द्विगुणः स्मृतः।
नानाजनपदाकीर्णो मणिविद्रुमचित्रितः ॥ ६ ॥
नैकधातुविचित्रैश्च पर्वतैरुपशोभितः ।
सिद्धचारणसंकीर्णः सागरः परिमण्डलः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जम्बूद्वीपका विस्तार पूरे १८,६०० योजन है। इसके चारों ओर जो खारे पानीका समुद्र है, उसका विस्तार जम्बूद्वीपकी अपेक्षा दूना माना गया है। उसके तटपर तथा टापूमें बहुत-से देश और जनपद हैं। उसके भीतर नाना प्रकारके मणि और मूँगे हैं, जो उसकी विचित्रता सूचित करते हैं। अनेक प्रकारके धातुओंसे अद्भुत प्रतीत होनेवाले बहुसंख्यक पर्वत उस सागरकी शोभा बढ़ाते हैं। सिद्धों तथा चारणोंसे भरा हुआ वह लवणसमुद्र सब ओरसे मण्डलाकार है॥५—७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शाकद्वीपं च वक्ष्यामि यथावदिह पार्थिव।
शृणु मे त्वं यथान्यायं ब्रुवतः कुरुनन्दन ॥ ८ ॥
मूलम्
शाकद्वीपं च वक्ष्यामि यथावदिह पार्थिव।
शृणु मे त्वं यथान्यायं ब्रुवतः कुरुनन्दन ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! अब मैं शाकद्वीपका यथावत् वर्णन आरम्भ करता हूँ। कुरुनन्दन! मेरे इस न्यायोचित कथनको आप ध्यान देकर सुनें॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जम्बूद्वीपप्रमाणेन द्विगुणः स नराधिप।
विष्कम्भेण महाराज सागरोऽपि विभागशः ॥ ९ ॥
मूलम्
जम्बूद्वीपप्रमाणेन द्विगुणः स नराधिप।
विष्कम्भेण महाराज सागरोऽपि विभागशः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! नरेश्वर! वह द्वीप विस्तारकी दृष्टिसे जम्बूद्वीपके परिमाणसे दूना है। भरतश्रेष्ठ! उसका समुद्र भी विभागपूर्वक उससे दूना ही है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षीरोदो भरतश्रेष्ठ येन सम्परिवारितः।
तत्र पुण्या जनपदास्तत्र न म्रियते जनः ॥ १० ॥
मूलम्
क्षीरोदो भरतश्रेष्ठ येन सम्परिवारितः।
तत्र पुण्या जनपदास्तत्र न म्रियते जनः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! उस समुद्रका नाम क्षीरसागर है, जिसने उक्त द्वीपको सब ओरसे घेर रखा है। वहाँ पवित्र जनपद हैं। वहाँ निवास करनेवाले लोगोंकी मृत्यु नहीं होती॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुत एव हि दुर्भिक्षं क्षमातेजोयुता हि ते।
शाकद्वीपस्य संक्षेपो यथावद् भरतर्षभ ॥ ११ ॥
उक्त एष महाराज किमन्यत् कथयामि ते।
मूलम्
कुत एव हि दुर्भिक्षं क्षमातेजोयुता हि ते।
शाकद्वीपस्य संक्षेपो यथावद् भरतर्षभ ॥ ११ ॥
उक्त एष महाराज किमन्यत् कथयामि ते।
अनुवाद (हिन्दी)
फिर वहाँ दुर्भिक्ष तो हो ही कैसे सकता है? उस द्वीपके निवासी क्षमाशील और तेजस्वी होते हैं। भरतश्रेष्ठ महाराज! इस प्रकार शाकद्वीपका संक्षेपसे यथावत् वर्णन किया गया है। अब और आपसे क्या कहूँ?॥११॥
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शाकद्वीपस्य संक्षेपो यथावदिह संजय ॥ १२ ॥
उक्तस्त्वया महाप्राज्ञ विस्तरं ब्रूहि तत्त्वतः।
मूलम्
शाकद्वीपस्य संक्षेपो यथावदिह संजय ॥ १२ ॥
उक्तस्त्वया महाप्राज्ञ विस्तरं ब्रूहि तत्त्वतः।
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्र बोले— महाबुद्धिमान् संजय! तुमने यहाँ शाकद्वीपका संक्षिप्तरूपसे यथावत् वर्णन किया है। अब उसका कुछ विस्तारके साथ यथार्थ परिचय दो॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथैव पर्वता राजन् सप्तात्र मणिभूषिताः ॥ १३ ॥
रत्नाकरास्तथा नद्यस्तेषां नामानि मे शृणु।
मूलम्
तथैव पर्वता राजन् सप्तात्र मणिभूषिताः ॥ १३ ॥
रत्नाकरास्तथा नद्यस्तेषां नामानि मे शृणु।
अनुवाद (हिन्दी)
संजय बोले— राजन्! शाकद्वीपमें भी मणियोंसे विभूषित सात पर्वत हैं। वहाँ रत्नोंकी बहुत-सी खानें तथा नदियाँ भी हैं। उनके नाम मुझसे सुनिये॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतीव गुणवत् सर्वं तत्र पुण्यं जनाधिप ॥ १४ ॥
देवर्षिगन्धर्वयुतः प्रथमो मेरुरुच्यते ।
प्रागायतो महाराज मलयो नाम पर्वतः ॥ १५ ॥
मूलम्
अतीव गुणवत् सर्वं तत्र पुण्यं जनाधिप ॥ १४ ॥
देवर्षिगन्धर्वयुतः प्रथमो मेरुरुच्यते ।
प्रागायतो महाराज मलयो नाम पर्वतः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनेश्वर! वहाँका सब कुछ परम पवित्र और अत्यन्त गुणकारी है। वहाँका प्रधान पर्वत है मेरु, जो देवर्षियों तथा गन्धर्वोंसे सेवित है। महाराज! दूसरे पर्वतका नाम मलय है, जो पूर्वसे पश्चिमकी ओर फैला हुआ है॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो मेघाः प्रवर्तन्ते प्रभवन्ति च सर्वशः।
ततः परेण कौरव्य जलधारो महागिरिः ॥ १६ ॥
मूलम्
ततो मेघाः प्रवर्तन्ते प्रभवन्ति च सर्वशः।
ततः परेण कौरव्य जलधारो महागिरिः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेघ वहींसे उत्पन्न होते हैं, फिर वे सब ओर फैलकर जलकी वर्षा करनेमें समर्थ होते हैं। कुरुनन्दन! उसके बाद जलधार नामक महान् पर्वत है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो नित्यमुपादत्ते वासवः परमं जलम्।
ततो वर्षं प्रभवति वर्षकाले जनेश्वर ॥ १७ ॥
मूलम्
ततो नित्यमुपादत्ते वासवः परमं जलम्।
ततो वर्षं प्रभवति वर्षकाले जनेश्वर ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनेश्वर! इन्द्र वहींसे सदा उत्तम जल ग्रहण करते हैं। इसीलिये वर्षाकालमें वे यथेष्ट जल बरसानेमें समर्थ होते हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उच्चैर्गिरी रैवतको यत्र नित्यं प्रतिष्ठिता।
रेवती दिवि नक्षत्रं पितामहकृतो विधिः ॥ १८ ॥
मूलम्
उच्चैर्गिरी रैवतको यत्र नित्यं प्रतिष्ठिता।
रेवती दिवि नक्षत्रं पितामहकृतो विधिः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसी द्वीपमें उच्चतम रैवतक पर्वत है, जहाँ आकाशमें रेवती नामक नक्षत्र नित्य प्रतिष्ठित है। यह ब्रह्माजीका रचा हुआ विधान है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तरेण तु राजेन्द्र श्यामो नाम महागिरिः।
नवमेघप्रभः प्रांशुः श्रीमानुज्ज्वलविग्रहः ॥ १९ ॥
मूलम्
उत्तरेण तु राजेन्द्र श्यामो नाम महागिरिः।
नवमेघप्रभः प्रांशुः श्रीमानुज्ज्वलविग्रहः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! उसके उत्तर भागमें श्याम नामक महान् पर्वत है, जो नूतन मेघके समान श्याम शोभासे युक्त है। उसकी ऊँचाई बहुत है। उसका कान्तिमान् कलेवर परम उज्ज्वल है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यतः श्यामत्वमापन्नाः प्रजा जनपदेश्वर।
मूलम्
यतः श्यामत्वमापन्नाः प्रजा जनपदेश्वर।
अनुवाद (हिन्दी)
जनपदेश्वर! वहाँ रहनेसे ही वहाँकी प्रजा श्यामताको प्राप्त हुई है॥१९॥
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुमहान् संशयो मेऽद्य प्रोक्तोऽयं संजय त्वया।
प्रजाः कथं सूतपुत्र सम्प्राप्ताः श्यामतामिह ॥ २० ॥
मूलम्
सुमहान् संशयो मेऽद्य प्रोक्तोऽयं संजय त्वया।
प्रजाः कथं सूतपुत्र सम्प्राप्ताः श्यामतामिह ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्र बोले— सूतपुत्र संजय! यह तो तुमने आज मुझसे महान् संशयकी बात कही है। भला, वहाँ रहनेमात्रसे प्रजा श्यामताको कैसे प्राप्त हो गयी?॥२०॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वेष्वेव महाराज द्वीपेषु कुरुनन्दन।
गौरः कृष्णश्च वर्णौ द्वौ तयोर्वर्णान्तरं नृप ॥ २१ ॥
श्यामो यस्मात् प्रवृत्तो वै तत् ते वक्ष्यामि भारत।
आस्तेऽत्र भगवान् कृष्णस्तत्कान्त्या श्यामतां गतः ॥ २२ ॥
मूलम्
सर्वेष्वेव महाराज द्वीपेषु कुरुनन्दन।
गौरः कृष्णश्च वर्णौ द्वौ तयोर्वर्णान्तरं नृप ॥ २१ ॥
श्यामो यस्मात् प्रवृत्तो वै तत् ते वक्ष्यामि भारत।
आस्तेऽत्र भगवान् कृष्णस्तत्कान्त्या श्यामतां गतः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— महाराज कुरुनन्दन! सम्पूर्ण द्वीपोंमें गौर, कृष्ण तथा इन दोनों वर्णोंका सम्मिश्रण देखा जाता है। भारत! यह पर्वत जिस कारणसे श्याम होकर दूसरोंमें भी श्यामता उत्पन्न करनेवाला हुआ, वह आपको बताता हूँ। यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण निवास करते हैं; अतः उन्हींकी कान्तिसे यह (स्वयं भी) श्यामताको प्राप्त हुआ है (और अपने समीप रहनेवाली प्रजामें भी श्यामता उत्पन्न कर देता है)॥२१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः परं कौरवेन्द्र दुर्गशैलो महोदयः।
केसरः केसरयुतो यतो वातः प्रवर्तते ॥ २३ ॥
मूलम्
ततः परं कौरवेन्द्र दुर्गशैलो महोदयः।
केसरः केसरयुतो यतो वातः प्रवर्तते ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कौरवराज! श्यामगिरिके बाद बहुत ऊँचा दुर्ग शैल है। उसके बाद केसर पर्वत है, जहाँसे चली हुई वायु केसरकी सुगन्ध लिये बहती है॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां योजनविष्कम्भो द्विगुणः प्रविभागशः।
वर्षाणि तेषु कौरव्य सप्तोक्तानि मनीषिभिः ॥ २४ ॥
मूलम्
तेषां योजनविष्कम्भो द्विगुणः प्रविभागशः।
वर्षाणि तेषु कौरव्य सप्तोक्तानि मनीषिभिः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन सब पर्वतोंका विस्तार दूना होता गया है। कुरुनन्दन! मनीषी पुरुषोंने उन पर्वतोंके समीप सात वर्ष बताये हैं॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महामेरुर्महाकाशो जलदः कुमुदोत्तरः ।
जलधारो महाराज सुकुमार इति स्मृतः ॥ २५ ॥
मूलम्
महामेरुर्महाकाशो जलदः कुमुदोत्तरः ।
जलधारो महाराज सुकुमार इति स्मृतः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामेरु पर्वतके समीप महाकाशवर्ष है, जलद या मलयके निकट कुमुदोत्तरवर्ष है। महाराज! जलधार गिरिका पार्श्ववर्ती वर्ष सुकुमार बताया गया है॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रेवतस्य तु कौमारः श्यामस्य मणिकाञ्चनः।
केसरस्याथ मोदाकी परेण तु महापुमान् ॥ २६ ॥
मूलम्
रेवतस्य तु कौमारः श्यामस्य मणिकाञ्चनः।
केसरस्याथ मोदाकी परेण तु महापुमान् ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रैवतक पर्वतका कुमारवर्ष तथा श्यामगिरिका मणिकांचनवर्ष है। इसी प्रकार केसरके समीपवर्ती वर्षको मोदाकी कहते हैं। उसके आगे महापुमान् नामक एक पर्वत है॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिवार्य तु कौरव्य दैर्घ्यं ह्रस्वत्वमेव च।
जम्बूद्वीपेन संख्यातस्तस्य मध्ये महाद्रुमः ॥ २७ ॥
शाको नाम महाराज प्रजा तस्य सदानुगा।
तत्र पुण्या जनपदाः पूज्यते तत्र शंकरः ॥ २८ ॥
मूलम्
परिवार्य तु कौरव्य दैर्घ्यं ह्रस्वत्वमेव च।
जम्बूद्वीपेन संख्यातस्तस्य मध्ये महाद्रुमः ॥ २७ ॥
शाको नाम महाराज प्रजा तस्य सदानुगा।
तत्र पुण्या जनपदाः पूज्यते तत्र शंकरः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह उस द्वीपकी लंबाई और चौड़ाई सबको घेरकर खड़ा है। महाराज! उसके बीचमें शाक नामक एक बड़ा भारी वृक्ष है, जो जम्बूद्वीपके समान ही विशाल है। महाराज! वहाँकी प्रजा सदा उस शाकवृक्षके ही आश्रित रहती है। वहाँ बड़े पवित्र जनपद हैं। उस द्वीपमें भगवान् शंकरकी आराधना की जाती है॥२७-२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र गच्छन्ति सिद्धाश्च चारणा दैवतानि च।
धार्मिकाश्च प्रजा राजंश्चत्वारोऽतीव भारत ॥ २९ ॥
मूलम्
तत्र गच्छन्ति सिद्धाश्च चारणा दैवतानि च।
धार्मिकाश्च प्रजा राजंश्चत्वारोऽतीव भारत ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! भरतनन्दन! वहाँ सिद्ध, चारण और देवता जाते हैं। वहाँके चारों वर्णोंकी प्रजा अत्यन्त धार्मिक होती है॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्णाः स्वकर्मनिरता न च स्तेनोऽत्र दृश्यते।
दीर्घायुषो महाराज जरामृत्युविवर्जिताः ॥ ३० ॥
मूलम्
वर्णाः स्वकर्मनिरता न च स्तेनोऽत्र दृश्यते।
दीर्घायुषो महाराज जरामृत्युविवर्जिताः ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सभी वर्णके लोग वहाँ अपने-अपने वर्णाश्रमोचित कर्मका पालन करते हैं। वहाँ कोई चोर नहीं दिखायी देता। महाराज! उस द्वीपके निवासी दीर्घायु तथा जरा और मृत्युसे रहित होते हैं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजास्तत्र विवर्धन्ते वर्षास्विव समुद्रगाः।
नद्यः पुण्यजलास्तत्र गङ्गा च बहुधा गता ॥ ३१ ॥
मूलम्
प्रजास्तत्र विवर्धन्ते वर्षास्विव समुद्रगाः।
नद्यः पुण्यजलास्तत्र गङ्गा च बहुधा गता ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे वर्षा-ऋतुमें समुद्रगामिनी नदियाँ बढ़ जाती हैं, उसी प्रकार वहाँकी समस्त प्रजा सदा वृद्धिको प्राप्त होती रहती है। उस द्वीपमें अनेक पवित्र जलवाली नदियाँ बहती हैं। वहाँ गंगा भी अनेक धाराओंमें विभक्त देखी जाती हैं॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुकुमारी कुमारी च शीताशी वेणिका तथा।
महानदी च कौरव्य तथा मणिजला नदी ॥ ३२ ॥
चक्षुर्वर्धनिका चैव नदी भरतसत्तम।
तत्र प्रवृत्ताः पुण्योदा नद्यः कुरुकुलोद्वह ॥ ३३ ॥
मूलम्
सुकुमारी कुमारी च शीताशी वेणिका तथा।
महानदी च कौरव्य तथा मणिजला नदी ॥ ३२ ॥
चक्षुर्वर्धनिका चैव नदी भरतसत्तम।
तत्र प्रवृत्ताः पुण्योदा नद्यः कुरुकुलोद्वह ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! भरतश्रेष्ठ! उस द्वीपमें सुकुमारी, कुमारी, शीताशी, वेणिका, महानदी, मणिजला तथा चक्षुर्वर्धनिका आदि पवित्र जलवाली नदियाँ बहती हैं॥३२-३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहस्राणां शतान्येव यतो वर्षति वासवः।
न तासां नामधेयानि परिमाणं तथैव च ॥ ३४ ॥
शक्यन्ते परिसंख्यातुं पुण्यास्ता हि सरिद्वराः।
तव पुण्या जनपदाश्चत्वारो लोकसम्मताः ॥ ३५ ॥
मूलम्
सहस्राणां शतान्येव यतो वर्षति वासवः।
न तासां नामधेयानि परिमाणं तथैव च ॥ ३४ ॥
शक्यन्ते परिसंख्यातुं पुण्यास्ता हि सरिद्वराः।
तव पुण्या जनपदाश्चत्वारो लोकसम्मताः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ लाखों ऐसी नदियाँ हैं, जिनसे जल लेकर इन्द्र वर्षा करते हैं। उनके नाम और परिमाणकी संख्या बताना कठिन ही नहीं, असम्भव है। वे सभी श्रेष्ठ नदियाँ परम पुण्यमयी हैं। उस द्वीपमें लोकसम्मानित चार पवित्र जनपद हैं॥३४-३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मङ्गाश्च मशकाश्चैव मानसा मन्दगास्तथा।
मङ्गा ब्राह्मणभूयिष्ठाः स्वकर्मनिरता नृप ॥ ३६ ॥
मूलम्
मङ्गाश्च मशकाश्चैव मानसा मन्दगास्तथा।
मङ्गा ब्राह्मणभूयिष्ठाः स्वकर्मनिरता नृप ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनके नाम इस प्रकार हैं—मंग, मशक, मानस तथा मन्दग। नरेश्वर! उनमेंसे मंग जनपदमें अधिकतर ब्राह्मण निवास करते हैं। वे सब-के-सब अपने कर्तव्यके पालनमें तत्पर रहते हैं॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मशकेषु तु राजन्या धार्मिकाः सर्वकामदाः।
मानसाश्च महाराज वैश्यधर्मोपजीविनः ॥ ३७ ॥
सर्वकामसमायुक्ताः शूरा धर्मार्थनिश्चिताः ।
मूलम्
मशकेषु तु राजन्या धार्मिकाः सर्वकामदाः।
मानसाश्च महाराज वैश्यधर्मोपजीविनः ॥ ३७ ॥
सर्वकामसमायुक्ताः शूरा धर्मार्थनिश्चिताः ।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! मशक जनपदमें सम्पूर्ण कामनाओंके देनेवाले धर्मात्मा क्षत्रिय निवास करते हैं। मानस जनपदके निवासी वैश्यवृत्तिसे जीवन-निर्वाह करते हैं। वे सर्वभोगसम्पन्न, शूरवीर, धर्म और अर्थको समझनेवाले एवं दृढ़निश्चयी होते हैं॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शूद्रास्तु मन्दगा नित्यं पुरुषा धर्मशीलिनः ॥ ३८ ॥
मूलम्
शूद्रास्तु मन्दगा नित्यं पुरुषा धर्मशीलिनः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मन्दग जनपदमें शूद्र रहते हैं। वे भी धर्मात्मा होते हैं॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तत्र राजा राजेन्द्र न दण्डो न च दण्डिकः।
स्वधर्मेणैव धर्मज्ञास्ते रक्षन्ति परस्परम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
न तत्र राजा राजेन्द्र न दण्डो न च दण्डिकः।
स्वधर्मेणैव धर्मज्ञास्ते रक्षन्ति परस्परम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! वहाँ न कोई राजा है, न दण्ड है और न दण्ड देनेवाला है। वहाँके लोग धर्मके ज्ञाता हैं और स्वधर्मपालनके ही प्रभावसे एक-दूसरेकी रक्षा करते हैं॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतावदेव शक्यं तु तत्र द्वीपे प्रभाषितुम्।
एतदेव च श्रोतव्यं शाकद्वीपे महौजसि ॥ ४० ॥
मूलम्
एतावदेव शक्यं तु तत्र द्वीपे प्रभाषितुम्।
एतदेव च श्रोतव्यं शाकद्वीपे महौजसि ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! उस महान् तेजोमय शाकद्वीपके सम्बन्धमें इतना ही कहा जा सकता है और इतना ही सुनना चाहिये॥४०॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि भूमिपर्वणि शाकद्वीपवर्णने एकादशोऽध्यायः ॥ ११ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत भूमिपर्वमें शाकद्वीपवर्णनविषयक ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११॥