भागसूचना
अष्टमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
रमणक, हिरण्यक, शृंगवान् पर्वत तथा ऐरावतवर्षका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वर्षाणां चैव नामानि पर्वतानां च संजय।
आचक्ष्व मे यथातत्त्वं ये च पर्वतवासिनः ॥ १ ॥
मूलम्
वर्षाणां चैव नामानि पर्वतानां च संजय।
आचक्ष्व मे यथातत्त्वं ये च पर्वतवासिनः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्र बोले— संजय! तुम सभी वर्षों और पर्वतोंके नाम बताओ और जो उन पर्वतोंपर निवास करनेवाले हैं उनकी स्थितिका भी यथावत् वर्णन करो॥१॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
दक्षिणेन तु श्वेतस्य निषधस्योत्तरेण तु।
वर्षं रमणकं नाम जायन्ते तत्र मानवाः ॥ २ ॥
शुक्लाभिजनसम्पन्नाः सर्वे सुप्रियदर्शनाः ।
निःसपत्नाश्च ते सर्वे जायन्ते तत्र मानवाः ॥ ३ ॥
मूलम्
दक्षिणेन तु श्वेतस्य निषधस्योत्तरेण तु।
वर्षं रमणकं नाम जायन्ते तत्र मानवाः ॥ २ ॥
शुक्लाभिजनसम्पन्नाः सर्वे सुप्रियदर्शनाः ।
निःसपत्नाश्च ते सर्वे जायन्ते तत्र मानवाः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय बोले— राजन्! श्वेतके दक्षिण और निषधके उत्तर रमणक नामक वर्ष है। वहाँ जो मनुष्य जन्म लेते हैं, वे उत्तम कुलसे युक्त और देखनेमें अत्यन्त प्रिय होते हैं। वहाँके सब मनुष्य शत्रुओंसे रहित होते हैं॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दश वर्षसहस्राणि शतानि दश पञ्च च।
जीवन्ति ते महाराज नित्यं मुदितमानसाः ॥ ४ ॥
मूलम्
दश वर्षसहस्राणि शतानि दश पञ्च च।
जीवन्ति ते महाराज नित्यं मुदितमानसाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! रमणकवर्षके मनुष्य सदा प्रसन्नचित्त होकर साढ़े ग्यारह हजार वर्षोंतक जीवित रहते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दक्षिणेन तु नीलस्य निषधस्योत्तरेण तु।
वर्षं हिरण्मयं नाम यत्र हैरण्वती नदी ॥ ५ ॥
मूलम्
दक्षिणेन तु नीलस्य निषधस्योत्तरेण तु।
वर्षं हिरण्मयं नाम यत्र हैरण्वती नदी ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नीलके दक्षिण और निषधके उत्तर हिरण्मयवर्ष है, जहाँ हैरण्यवती नदी बहती है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत्र चायं महाराज पक्षिराट् पतगोत्तमः।
यक्षानुगा महाराज धनिनः प्रियदर्शनाः ॥ ६ ॥
महाबलास्तत्र जना राजन् मुदितमानसाः।
मूलम्
यत्र चायं महाराज पक्षिराट् पतगोत्तमः।
यक्षानुगा महाराज धनिनः प्रियदर्शनाः ॥ ६ ॥
महाबलास्तत्र जना राजन् मुदितमानसाः।
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! वहीं विहंगोंमें उत्तम पक्षिराज गरुड़ निवास करते हैं। वहाँके सब मनुष्य यक्षोंकी उपासना करनेवाले, धनवान्, प्रियदर्शन, महाबली तथा प्रसन्नचित्त होते हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकादश सहस्राणि वर्षाणां ते जनाधिप ॥ ७ ॥
आयुःप्रमाणं जीवन्ति शतानि दश पञ्च च।
मूलम्
एकादश सहस्राणि वर्षाणां ते जनाधिप ॥ ७ ॥
आयुःप्रमाणं जीवन्ति शतानि दश पञ्च च।
अनुवाद (हिन्दी)
जनेश्वर! वहाँके लोग साढ़े बारह हजार वर्षोंकी आयुतक जीवित रहते हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृङ्गाणि च विचित्राणि त्रीण्येव मनुजाधिप ॥ ८ ॥
एकं मणिमयं तत्र तथैकं रौक्ममद्भुतम्।
सर्वरत्नमयं चैकं भवनैरुपशोभितम् ॥ ९ ॥
मूलम्
शृङ्गाणि च विचित्राणि त्रीण्येव मनुजाधिप ॥ ८ ॥
एकं मणिमयं तत्र तथैकं रौक्ममद्भुतम्।
सर्वरत्नमयं चैकं भवनैरुपशोभितम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मनुजेश्वर! वहाँ शृंगवान् पर्वतके तीन ही विचित्र शिखर हैं। उनमेंसे एक मणिमय है, दूसरा अद्भुत सुवर्णमय है तथा तीसरा अनेक भवनोंसे सुशोभित एवं सर्वरत्नमय है॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र स्वयंप्रभा देवी नित्यं वसति शाण्डिली।
उत्तरेण तु शृङ्गस्य समुद्रान्ते जनाधिप ॥ १० ॥
वर्षमैरावतं नाम तस्माच्छृङ्गमतः परम्।
न तत्र सूर्यस्तपति न जीर्यन्ते च मानवाः ॥ ११ ॥
मूलम्
तत्र स्वयंप्रभा देवी नित्यं वसति शाण्डिली।
उत्तरेण तु शृङ्गस्य समुद्रान्ते जनाधिप ॥ १० ॥
वर्षमैरावतं नाम तस्माच्छृङ्गमतः परम्।
न तत्र सूर्यस्तपति न जीर्यन्ते च मानवाः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ स्वयंप्रभा नामवाली शाण्डिली देवी नित्य निवास करती हैं। जनेश्वर! शृंगवान् पर्वतके उत्तर समुद्रके निकट ऐरावत नामक वर्ष है। अतः इन शिखरोंसे संयुक्त यह वर्ष अन्य वर्षोंकी अपेक्षा उत्तम है। वहाँ सूर्यदेव ताप नहीं देते हैं और न वहाँके मनुष्य बूढ़े ही होते हैं॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चन्द्रमाश्च सनक्षत्रो ज्योतिर्भूत इवावृतः।
पद्मप्रभाः पद्मवर्णाः पद्मपत्रनिभेक्षणाः ॥ १२ ॥
मूलम्
चन्द्रमाश्च सनक्षत्रो ज्योतिर्भूत इवावृतः।
पद्मप्रभाः पद्मवर्णाः पद्मपत्रनिभेक्षणाः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नक्षत्रोंसहित चन्द्रमा वहाँ ज्योतिर्मय होकर सब ओर व्याप्त-सा रहता है। वहाँके मनुष्य कमलकी-सी कान्ति तथा वर्णवाले होते हैं। उनके विशाल नेत्र कमलदलके समान सुशोभित होते हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पद्मपत्रसुगन्धाश्च जायन्ते तत्र मानवाः।
अनिष्यन्दा इष्टगन्धा निराहारा जितेन्द्रियाः ॥ १३ ॥
मूलम्
पद्मपत्रसुगन्धाश्च जायन्ते तत्र मानवाः।
अनिष्यन्दा इष्टगन्धा निराहारा जितेन्द्रियाः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँके मनुष्योंके शरीरसे विकसित कमलदलोंके समान सुगन्ध प्रकट होती है। उनके शरीरसे पसीने नहीं निकलते। उनकी सुगन्ध प्रिय लगती है। वे आहार (भूख-प्याससे)-रहित और जितेन्द्रिय होते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
देवलोकच्युताः सर्वे तथा विरजसो नृप।
त्रयोदश सहस्राणि वर्षाणां ते जनाधिप ॥ १४ ॥
आयुःप्रमाणं जीवन्ति नरा भरतसत्तम।
मूलम्
देवलोकच्युताः सर्वे तथा विरजसो नृप।
त्रयोदश सहस्राणि वर्षाणां ते जनाधिप ॥ १४ ॥
आयुःप्रमाणं जीवन्ति नरा भरतसत्तम।
अनुवाद (हिन्दी)
वे सब-के-सब देवलोकसे च्युत (होकर वहाँ शेष पुण्यका उपभोग करते) हैं! उनमें रजोगुणका सर्वथा अभाव होता है। भरतभूषण जनेश्वर! वे तेरह हजार वर्षोंकी आयुतक जीवित रहते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षीरोदस्य समुद्रस्य तथैवोत्तरतः प्रभुः।
हरिर्वसति वैकुण्ठः शकटे कनकामये ॥ १५ ॥
अष्टचक्रं हि तद् यानं भूतयुक्तं मनोजवम्।
अग्निवर्णं महातेजो जाम्बूनदविभूषितम् ॥ १६ ॥
मूलम्
क्षीरोदस्य समुद्रस्य तथैवोत्तरतः प्रभुः।
हरिर्वसति वैकुण्ठः शकटे कनकामये ॥ १५ ॥
अष्टचक्रं हि तद् यानं भूतयुक्तं मनोजवम्।
अग्निवर्णं महातेजो जाम्बूनदविभूषितम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षीरसागरके उत्तर तटपर भगवान् विष्णु निवास करते हैं, वे वहाँ सुवर्णमय रथपर विराजमान हैं। उस रथमें आठ पहिये लगे हैं। उसका वेग मनके समान है। वह समस्त भूतोंसे युक्त, अग्निके समान कान्तिमान्, परम तेजस्वी तथा जाम्बूनद नामक सुवर्णसे विभूषित है॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स प्रभुः सर्वभूतानां विभुश्च भरतर्षभ।
संक्षेपो विस्तरश्चैव कर्ता कारयिता तथा ॥ १७ ॥
मूलम्
स प्रभुः सर्वभूतानां विभुश्च भरतर्षभ।
संक्षेपो विस्तरश्चैव कर्ता कारयिता तथा ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! वे सर्वशक्तिमान् सर्वव्यापी भगवान् विष्णु ही समस्त प्राणियोंका संकोच और विस्तार करते हैं। वे ही करनेवाले और करानेवाले हैं॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथिव्यापस्तथाऽऽकाशं वायुस्तेजश्च पार्थिव ।
स यज्ञः सर्वभूतानामास्यं तस्य हुताशनः ॥ १८ ॥
मूलम्
पृथिव्यापस्तथाऽऽकाशं वायुस्तेजश्च पार्थिव ।
स यज्ञः सर्वभूतानामास्यं तस्य हुताशनः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश सब कुछ वे ही हैं। वे ही समस्त प्राणियोंके लिये यज्ञस्वरूप हैं। अग्नि उनका मुख है॥१८॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तः संजयेन धृतराष्ट्रो महामनाः।
ध्यानमन्वगमद् राजन् पुत्रान् प्रति जनाधिप ॥ १९ ॥
मूलम्
एवमुक्तः संजयेन धृतराष्ट्रो महामनाः।
ध्यानमन्वगमद् राजन् पुत्रान् प्रति जनाधिप ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— महाराज जनमेजय! संजयके ऐसा कहनेपर महामना धृतराष्ट्र अपने पुत्रोंके लिये चिन्ता करने लगे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स विचिन्त्य महातेजाः पुनरेवाब्रवीद् वचः।
असंशयं सूतपुत्र कालः संक्षिपते जगत् ॥ २० ॥
मूलम्
स विचिन्त्य महातेजाः पुनरेवाब्रवीद् वचः।
असंशयं सूतपुत्र कालः संक्षिपते जगत् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुछ देरतक सोच-विचार करनेके पश्चात् महा-तेजस्वी धृतराष्ट्रने पुनः इस प्रकार कहा—‘सूतपुत्र संजय! इसमें संदेह नहीं कि काल ही सम्पूर्ण जगत्का संहार करता है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सृजते च पुनः सर्वं विद्यते नेह शाश्वतम्।
नरो नारायणश्चैव सर्वज्ञः सर्वभूतहृत् ॥ २१ ॥
देवा वैकुण्ठमित्याहुर्नरा विष्णुमिति प्रभुम् ॥ २२ ॥
मूलम्
सृजते च पुनः सर्वं विद्यते नेह शाश्वतम्।
नरो नारायणश्चैव सर्वज्ञः सर्वभूतहृत् ॥ २१ ॥
देवा वैकुण्ठमित्याहुर्नरा विष्णुमिति प्रभुम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘फिर वही सबकी सृष्टि करता है। यहाँ कुछ भी सदा स्थिर रहनेवाला नहीं है। भगवान् नर और नारायण समस्त प्राणियोंके सुहृद् एवं सर्वज्ञ हैं।
Misc Detail
देवता उन्हें वैकुण्ठ और मनुष्य उन्हें शक्तिशाली विष्णु कहते हैं’॥२१-२२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि जम्बूखण्डविनिर्माणपर्वणि धृतराष्ट्रवाक्येऽष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत जम्बूखण्डविनिर्माणपर्वमें धृतराष्ट्रवाक्यविषयक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥८॥