००७ माल्यवद्वर्णने

भागसूचना

सप्तमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

उत्तर कुरु, भद्राश्ववर्ष तथा माल्यवान्‌का वर्णन

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मेरोरथोत्तरं पार्श्वं पूर्वं चाचक्ष्व संजय।
निखिलेन महाबुद्धे माल्यवन्तं च पर्वतम् ॥ १ ॥

मूलम्

मेरोरथोत्तरं पार्श्वं पूर्वं चाचक्ष्व संजय।
निखिलेन महाबुद्धे माल्यवन्तं च पर्वतम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्रने कहा— परमबुद्धिमान् संजय! तुम मेरुके उत्तर तथा पूर्वभागमें जो कुछ है, उसका पूर्ण रूपसे वर्णन करो। साथ ही माल्यवान् पर्वतके विषयमें भी जाननेयोग्य बातें बताओ॥१॥

मूलम् (वचनम्)

संजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दक्षिणेन तु नीलस्य मेरोः पार्श्वे तथोत्तरे।
उत्तराः कुरवो राजन् पुण्याः सिद्धनिषेविताः ॥ २ ॥

मूलम्

दक्षिणेन तु नीलस्य मेरोः पार्श्वे तथोत्तरे।
उत्तराः कुरवो राजन् पुण्याः सिद्धनिषेविताः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजयने कहा— राजन्! नीलगिरिसे दक्षिण तथा मेरुपर्वतके उत्तरभागमें पवित्र उत्तर कुरुवर्ष है, जहाँ सिद्ध पुरुष निवास करते हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र वृक्षा मधुफला नित्यपुष्पफलोपगाः।
पुष्पाणि च सुगन्धीनि रसवन्ति फलानि च ॥ ३ ॥

मूलम्

तत्र वृक्षा मधुफला नित्यपुष्पफलोपगाः।
पुष्पाणि च सुगन्धीनि रसवन्ति फलानि च ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँके वृक्ष सदा पुष्प और फलसे सम्पन्न होते हैं और उनके फल बड़े मधुर एवं स्वादिष्ट होते हैं। उस देशके सभी पुष्प सुगन्धित और फल सरस होते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वकामफलास्तत्र केचिद् वृक्षा जनाधिप।
अपरे क्षीरिणो नाम वृक्षास्तत्र नराधिप ॥ ४ ॥
ये क्षरन्ति सदा क्षीरं षड्रसं चामृतोपमम्।
वस्त्राणि च प्रसूयन्ते फलेष्वाभरणानि च ॥ ५ ॥

मूलम्

सर्वकामफलास्तत्र केचिद् वृक्षा जनाधिप।
अपरे क्षीरिणो नाम वृक्षास्तत्र नराधिप ॥ ४ ॥
ये क्षरन्ति सदा क्षीरं षड्रसं चामृतोपमम्।
वस्त्राणि च प्रसूयन्ते फलेष्वाभरणानि च ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! वहाँके कुछ वृक्ष ऐसे होते हैं, जो सम्पूर्ण मनोवांछित फलोंके दाता हैं। राजन्! दूसरे क्षीरी नामवाले वृक्ष हैं, जो सदा षड्‌विध रसोंसे युक्त एवं अमृतके समान स्वादिष्ट दुग्ध बहाते रहते हैं। उनके फलोंमें इच्छानुसार वस्त्र और आभूषण भी प्रकट होते हैं॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वा मणिमयी भूमिः सूक्ष्मकाञ्चनवालुका।
सर्वर्तुसुखसंस्पर्शा निष्पङ्का च जनाधिप।
पुष्करिण्यः शुभास्तत्र सुखस्पर्शा मनोरमाः ॥ ६ ॥

मूलम्

सर्वा मणिमयी भूमिः सूक्ष्मकाञ्चनवालुका।
सर्वर्तुसुखसंस्पर्शा निष्पङ्का च जनाधिप।
पुष्करिण्यः शुभास्तत्र सुखस्पर्शा मनोरमाः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनेश्वर! वहाँकी सारी भूमि मणिमयी है। वहाँ जो सूक्ष्म बालूके कण हैं, वे सब सुवर्णमय हैं। उस भूमिपर कीचड़का कहीं नाम भी नहीं है। उसका स्पर्श सभी ऋतुओंमें सुखदायक होता है। वहाँके सुन्दर सरोवर अत्यन्त मनोरम होते हैं। उनका स्पर्श सुखद जान पड़ता है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवलोकच्युताः सर्वे जायन्ते तत्र मानवाः।
शुक्लाभिजनसम्पन्नाः सर्वे सुप्रियदर्शनाः ॥ ७ ॥

मूलम्

देवलोकच्युताः सर्वे जायन्ते तत्र मानवाः।
शुक्लाभिजनसम्पन्नाः सर्वे सुप्रियदर्शनाः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ देवलोकसे भूतलपर आये हुए समस्त पुण्यात्मा मनुष्य ही जन्म ग्रहण करते हैं। ये सभी उत्तम कुलसे सम्पन्न और देखनेमें अत्यन्त प्रिय होते हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिथुनानि च जायन्ते स्त्रियश्चाप्सरसोपमाः।
तेषां ते क्षीरिणां क्षीरं पिबन्त्यमृतसंनिभम् ॥ ८ ॥

मूलम्

मिथुनानि च जायन्ते स्त्रियश्चाप्सरसोपमाः।
तेषां ते क्षीरिणां क्षीरं पिबन्त्यमृतसंनिभम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ स्त्री-पुरुषोंके जोड़े भी उत्पन्न होते हैं। स्त्रियाँ अप्सराओंके समान सुन्दरी होती हैं। उत्तरकुरुके निवासी क्षीरी वृक्षोंके अमृततुल्य दूध पीते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिथुनं जायते काले समं तच्च प्रवर्धते।
तुल्यरूपगुणोपेतं समवेषं तथैव च ॥ ९ ॥

मूलम्

मिथुनं जायते काले समं तच्च प्रवर्धते।
तुल्यरूपगुणोपेतं समवेषं तथैव च ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ स्त्री-पुरुषोंके जोड़े एक ही साथ उत्पन्न होते और साथ-साथ बढ़ते हैं। उनके रूप, गुण और वेष सब एक-से होते हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकैकमनुरक्तं च चक्रवाकसमं विभो।
निरामयाश्च ते लोका नित्यं मुदितमानसाः ॥ १० ॥

मूलम्

एकैकमनुरक्तं च चक्रवाकसमं विभो।
निरामयाश्च ते लोका नित्यं मुदितमानसाः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रभो! वे चकवा-चकवीके समान सदा एक-दूसरेके अनुकूल बने रहते हैं। उत्तरकुरुके लोग सदा नीरोग और प्रसन्नचित्त रहते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दश वर्षसहस्राणि दश वर्षशतानि च।
जीवन्ति ते महाराज न चान्योन्यं जहत्युत ॥ ११ ॥

मूलम्

दश वर्षसहस्राणि दश वर्षशतानि च।
जीवन्ति ते महाराज न चान्योन्यं जहत्युत ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! वे ग्यारह हजार वर्षोंतक जीवित रहते हैं। एक-दूसरेका कभी त्याग नहीं करते॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भारुण्डा नाम शकुनास्तीक्ष्णतुण्डा महाबलाः।
तान् निर्हरन्तीह मृतान् दरीषु प्रक्षिपन्ति च ॥ १२ ॥

मूलम्

भारुण्डा नाम शकुनास्तीक्ष्णतुण्डा महाबलाः।
तान् निर्हरन्तीह मृतान् दरीषु प्रक्षिपन्ति च ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ भारुण्ड नामके महाबली पक्षी हैं, जिनकी चोंचें बड़ी तीखी होती हैं। वे वहाँके मरे हुए लोगों-की लाशें उठाकर ले जाते और कन्दराओंमें फेंक देते हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तराः कुरवो राजन् व्याख्यातास्ते समासतः।
मेरोः पार्श्वमहं पूर्वं वक्ष्याम्यथ यथातथम् ॥ १३ ॥

मूलम्

उत्तराः कुरवो राजन् व्याख्यातास्ते समासतः।
मेरोः पार्श्वमहं पूर्वं वक्ष्याम्यथ यथातथम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस प्रकार मैंने आपसे थोड़ेमें उत्तरकुरु-वर्षका वर्णन किया। अब मैं मेरुके पूर्वभागमें स्थित भद्राश्ववर्षका यथावत् वर्णन करूँगा॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य मूर्धाभिषेकस्तु भद्राश्वस्य विशाम्पते।
भद्रसालवनं यत्र कालाम्रश्च महाद्रुमः ॥ १४ ॥

मूलम्

तस्य मूर्धाभिषेकस्तु भद्राश्वस्य विशाम्पते।
भद्रसालवनं यत्र कालाम्रश्च महाद्रुमः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! भद्राश्ववर्षके शिखरपर भद्रशाल नामका एक वन है एवं वहाँ कालाम्र नामक महान् वृक्ष भी है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालाम्रस्तु महाराज नित्यपुष्पफलः शुभः।
द्रुमश्च योजनोत्सेधः सिद्धचारणसेवितः ॥ १५ ॥

मूलम्

कालाम्रस्तु महाराज नित्यपुष्पफलः शुभः।
द्रुमश्च योजनोत्सेधः सिद्धचारणसेवितः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! कालाम्रवृक्ष बहुत ही सुन्दर और एक योजन ऊँचा है। उसमें सदा फूल और फल लगे रहते हैं। सिद्ध और चारण पुरुष उसका सदा सेवन करते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र ते पुरुषाः श्वेतास्तेजोयुक्ता महाबलाः।
स्त्रियः कुमुदवर्णाश्च सुन्दर्यः प्रियदर्शनाः ॥ १६ ॥

मूलम्

तत्र ते पुरुषाः श्वेतास्तेजोयुक्ता महाबलाः।
स्त्रियः कुमुदवर्णाश्च सुन्दर्यः प्रियदर्शनाः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँके पुरुष श्वेतवर्णके होते हैं। वे तेजस्वी और महान् बलवान् हुआ करते हैं। वहाँकी स्त्रियाँ कुमुद-पुष्पके समान गौरवर्णवाली, सुन्दरी तथा देखनेमें प्रिय होती हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चन्द्रप्रभाश्चन्द्रवर्णाः पूर्णचन्द्रनिभाननाः ।
चन्द्रशीतलगात्र्यश्च नृत्यगीतविशारदाः ॥ १७ ॥

मूलम्

चन्द्रप्रभाश्चन्द्रवर्णाः पूर्णचन्द्रनिभाननाः ।
चन्द्रशीतलगात्र्यश्च नृत्यगीतविशारदाः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी अंगकान्ति एवं वर्ण चन्द्रमाके समान है। उनके मुख पूर्णचन्द्रके समान मनोहर होते हैं। उनका एक-एक अंग चन्द्ररश्मियोंके समान शीतल प्रतीत होता है। वे नृत्य और गीतकी कलामें कुशल होती हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दश वर्षसहस्राणि तत्रायुर्भरतर्षभ ।
कालाम्ररसपीतास्ते नित्यं संस्थितयौवनाः ॥ १८ ॥

मूलम्

दश वर्षसहस्राणि तत्रायुर्भरतर्षभ ।
कालाम्ररसपीतास्ते नित्यं संस्थितयौवनाः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! वहाँके लोगोंकी आयु दस हजार वर्षकी होती है। वे कालाम्रवृक्षका रस पीकर सदा जवान बने रहते हैं॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दक्षिणेन तु नीलस्य निषधस्योत्तरेण तु।
सुदर्शनो नाम महाञ्जम्बूवृक्षः सनातनः ॥ १९ ॥

मूलम्

दक्षिणेन तु नीलस्य निषधस्योत्तरेण तु।
सुदर्शनो नाम महाञ्जम्बूवृक्षः सनातनः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नीलगिरिके दक्षिण और निषधके उत्तर सुदर्शन नामक एक विशाल जामुनका वृक्ष है, जो सदा स्थिर रहनेवाला है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वकामफलः पुण्यः सिद्धचारणसेवितः ।
तस्य नाम्ना समाख्यातो जम्बूद्वीपः सनातनः ॥ २० ॥

मूलम्

सर्वकामफलः पुण्यः सिद्धचारणसेवितः ।
तस्य नाम्ना समाख्यातो जम्बूद्वीपः सनातनः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह समस्त मनोवांछित फलोंको देनेवाला, पवित्र तथा सिद्धों और चारणोंका आश्रय है। उसीके नामपर यह सनातन प्रदेश जम्बूद्वीपके नामसे विख्यात है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योजनानां सहस्रं च शतं च भरतर्षभ।
उत्सेधो वृक्षराजस्य दिवस्पृङ्‌मनुजेश्वर ॥ २१ ॥

मूलम्

योजनानां सहस्रं च शतं च भरतर्षभ।
उत्सेधो वृक्षराजस्य दिवस्पृङ्‌मनुजेश्वर ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! मनुजेश्वर! उस वृक्षराजकी ऊँचाई ग्यारह सौ योजन है। वह (ऊँचाई) स्वर्गलोकको स्पर्श करती हुई-सी प्रतीत होती है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अरत्नीनां सहस्रं च शतानि दश पञ्च च।
परिणाहस्तु वृक्षस्य फलानां रसभेदिनाम् ॥ २२ ॥

मूलम्

अरत्नीनां सहस्रं च शतानि दश पञ्च च।
परिणाहस्तु वृक्षस्य फलानां रसभेदिनाम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके फलोंमें जब रस आ जाता है अर्थात् जब वे पक जाते हैं, तब अपने-आप टूटकर गिर जाते हैं। उन फलोंकी लंबाई ढाई हजार अरत्नि1 मानी गयी है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतमानानि तान्युर्वीं कुर्वन्ति विपुलं स्वनम्।
मुञ्चन्ति च रसं राजंस्तस्मिन् रजतसंनिभम् ॥ २३ ॥

मूलम्

पतमानानि तान्युर्वीं कुर्वन्ति विपुलं स्वनम्।
मुञ्चन्ति च रसं राजंस्तस्मिन् रजतसंनिभम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! वे फल इस पृथ्वीपर गिरते समय भारी धमाकेकी आवाज करते हैं और उस भूतलपर सुवर्णसदृश रस बहाया करते हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्या जम्ब्वाः फलरसो नदी भूत्वा जनाधिप।
मेरुं प्रदक्षिणं कृत्वा सम्प्रयात्युत्तरान् कुरून् ॥ २४ ॥

मूलम्

तस्या जम्ब्वाः फलरसो नदी भूत्वा जनाधिप।
मेरुं प्रदक्षिणं कृत्वा सम्प्रयात्युत्तरान् कुरून् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनेश्वर! उस जम्बूके फलोंका रस नदीके रूपमें परिणत होकर मेरुगिरिकी प्रदक्षिणा करता हुआ उत्तर-कुरुवर्षमें पहुँच जाता है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र तेषां मनःशान्तिर्न पिपासा जनाधिप।
तस्मिन् फलरसे पीते न जरा बाधते च तान्॥२५॥

मूलम्

तत्र तेषां मनःशान्तिर्न पिपासा जनाधिप।
तस्मिन् फलरसे पीते न जरा बाधते च तान्॥२५॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! फलोंके उस रसका पान कर लेनेपर वहाँके निवासियोंके मनमें पूर्ण शान्ति और प्रसन्नता रहती है। उन्हें पिपासा अथवा वृद्धावस्था कभी नहीं सताती है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र जाम्बूनदं नाम कनकं देवभूषणम्।
इन्द्रगोपकसंकाशं जायते भास्वरं तु तत् ॥ २६ ॥

मूलम्

तत्र जाम्बूनदं नाम कनकं देवभूषणम्।
इन्द्रगोपकसंकाशं जायते भास्वरं तु तत् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस जम्बू नदीसे जाम्बूनद नामक सुवर्ण प्रकट होता है, जो देवताओंका आभूषण है। वह इन्द्रगोपके समान लाल और अत्यन्त चमकीला होता है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तरुणादित्यवर्णाश्च जायन्ते तत्र मानवाः।
तथा माल्यवतः शृङ्गे दृश्यते हव्यवाट् सदा ॥ २७ ॥

मूलम्

तरुणादित्यवर्णाश्च जायन्ते तत्र मानवाः।
तथा माल्यवतः शृङ्गे दृश्यते हव्यवाट् सदा ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँके लोग प्रातःकालीन सूर्यके समान कान्तिमान् होते हैं। माल्यवान् पर्वतके शिखरपर सदा अग्निदेव प्रज्वलित दिखायी देते हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम्ना संवर्तको नाम कालाग्निर्भरतर्षभ।
तथा माल्यवतः शृङ्गे पूर्वपूर्वानुगण्डिका ॥ २८ ॥

मूलम्

नाम्ना संवर्तको नाम कालाग्निर्भरतर्षभ।
तथा माल्यवतः शृङ्गे पूर्वपूर्वानुगण्डिका ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! वे वहाँ संवर्तक एवं कालाग्निके नामसे प्रसिद्ध हैं। माल्यवान्‌के शिखरपर पूर्व-पूर्वकी ओर नदी प्रवाहित होती है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योजनानां सहस्राणि पञ्चषण्माल्यवानथ ।
महारजतसंकाशा जायन्ते तत्र मानवाः ॥ २९ ॥

मूलम्

योजनानां सहस्राणि पञ्चषण्माल्यवानथ ।
महारजतसंकाशा जायन्ते तत्र मानवाः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माल्यवान्‌का विस्तार पाँच-छः हजार योजन है। वहाँ सुवर्णके समान कान्तिमान् मानव उत्पन्न होते हैं॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रह्मलोकच्युताः सर्वे सर्वे सर्वेषु साधवः।
तपस्तप्यन्ति ते तीव्रं भवन्ति ह्यूर्ध्वरेतसः।
रक्षणार्थं तु भूतानां प्रविशन्ते दिवाकरम् ॥ ३० ॥

मूलम्

ब्रह्मलोकच्युताः सर्वे सर्वे सर्वेषु साधवः।
तपस्तप्यन्ति ते तीव्रं भवन्ति ह्यूर्ध्वरेतसः।
रक्षणार्थं तु भूतानां प्रविशन्ते दिवाकरम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सब लोग ब्रह्मलोकसे नीचे आये हुए पुण्यात्मा मनुष्य हैं। उन सबका सबके प्रति साधुतापूर्ण बर्ताव होता है। वे ऊर्ध्वरेता (नैष्ठिक ब्रह्मचारी) होते और कठोर तपस्या करते हैं। फिर समस्त प्राणियोंकी रक्षाके लिये सूर्यलोकमें प्रवेश कर जाते हैं॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षष्टिस्तानि सहस्राणि षष्टिमेव शतानि च।
अरुणस्याग्रतो यान्ति परिवार्य दिवाकरम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

षष्टिस्तानि सहस्राणि षष्टिमेव शतानि च।
अरुणस्याग्रतो यान्ति परिवार्य दिवाकरम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनमेंसे छाछठ हजार मनुष्य भगवान् सूर्यको चारों ओरसे घेरकर अरुणके आगे-आगे चलते हैं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

षष्टिं वर्षसहस्राणि षष्टिमेव शतानि च।
आदित्यतापतप्तास्ते विशन्ति शशिमण्डलम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

षष्टिं वर्षसहस्राणि षष्टिमेव शतानि च।
आदित्यतापतप्तास्ते विशन्ति शशिमण्डलम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे छाछठ हजार वर्षोंतक ही सूर्यदेवके तापमें तपकर अन्तमें चन्द्रमण्डलमें प्रवेश कर जाते हैं॥३२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि जम्बूखण्डविनिर्माणपर्वणि माल्यवद्वर्णने सप्तमोऽध्यायः ॥ ७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत जम्बूखण्डविनिर्माणपर्वमें माल्यवान्‌का वर्णनविषयक सातवाँ अध्याय पूरा हुआ॥७॥


  1. पहुचीसे लेकर कनिष्ठिका अंगुलिके मूलभागतक एक मुट्‌ठीकी लंबाईको ‘अरत्नि’ कहते हैं। ↩︎