भागसूचना
पञ्चमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
पंचमहाभूतों तथा सुदर्शनद्वीपका संक्षिप्त वर्णन
मूलम् (वचनम्)
धृतराष्ट्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नदीनां पर्वतानां च नामधेयानि संजय।
तथा जनपदानां च ये चान्ये भूमिमाश्रिताः ॥ १ ॥
मूलम्
नदीनां पर्वतानां च नामधेयानि संजय।
तथा जनपदानां च ये चान्ये भूमिमाश्रिताः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धृतराष्ट्र बोले— संजय! नदियों, पर्वतों तथा जनपदोंके और दूसरे भी जो पदार्थ इस भूतलपर आश्रित हैं, उन सबके नाम बताओ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रमाणं च प्रमाणज्ञ पृथिव्या मम सर्वतः।
निखिलेन समाचक्ष्व काननानि च संजय ॥ २ ॥
मूलम्
प्रमाणं च प्रमाणज्ञ पृथिव्या मम सर्वतः।
निखिलेन समाचक्ष्व काननानि च संजय ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रमाणवेत्ता संजय! तुम सारी पृथ्वीका पूरा प्रमाण (लम्बाई-चौड़ाईका माप) मुझे बताओ। साथ ही यहाँके वनोंका भी वर्णन करो॥२॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
पञ्चेमानि महाराज महाभूतानि संग्रहात्।
जगतीस्थानि सर्वाणि समान्याहुर्मनीषिणः ॥ ३ ॥
मूलम्
पञ्चेमानि महाराज महाभूतानि संग्रहात्।
जगतीस्थानि सर्वाणि समान्याहुर्मनीषिणः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय बोले— महाराज! इस पृथ्वीपर रहनेवाली जितनी भी वस्तुएँ हैं, वे सब-की-सब संक्षेपसे पंचमहाभूतस्वरूप हैं। इसीलिये मनीषी पुरुष उन सबको ‘सम्1’ कहते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भूमिरापस्तथा वायुरग्निराकाशमेव च ।
गुणोत्तराणि सर्वाणि तेषां भूमिः प्रधानतः ॥ ४ ॥
मूलम्
भूमिरापस्तथा वायुरग्निराकाशमेव च ।
गुणोत्तराणि सर्वाणि तेषां भूमिः प्रधानतः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आकाश, वायु, अग्नि, जल और भूमि—ये पंच महाभूत हैं। आकाशसे लेकर भूमितक जो पंचमहाभूतोंका कम है, उसमें पूर्वकी अपेक्षा उत्तरोत्तर सब भूतोंमें एक-एक गुण अधिक होते हैं। इन सब भूतोंमें भूमिकी प्रधानता है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च पञ्चमः।
भूमेरेते गुणाः प्रोक्ता ऋषिभिस्तत्त्ववेदिभिः ॥ ५ ॥
मूलम्
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च पञ्चमः।
भूमेरेते गुणाः प्रोक्ता ऋषिभिस्तत्त्ववेदिभिः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध—इन पांचोंको तत्त्ववेत्ता महर्षियोंने पृथ्वीका गुण बताया है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चत्वारोऽप्सु गुणा राजन् गन्धस्तत्र न विद्यते।
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च तेजसोऽथ गुणास्त्रयः।
शब्दः स्पर्शश्च वायोस्तु आकाशे शब्द एव तु ॥ ६ ॥
मूलम्
चत्वारोऽप्सु गुणा राजन् गन्धस्तत्र न विद्यते।
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च तेजसोऽथ गुणास्त्रयः।
शब्दः स्पर्शश्च वायोस्तु आकाशे शब्द एव तु ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! जलमें चार ही गुण हैं। उसमें गन्धका अभाव है। तेजके शब्द, स्पर्श तथा रूप—ये तीन गुण हैं। वायुके शब्द और स्पर्श दो ही गुण हैं और आकाशका एकमात्र शब्द ही गुण है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते पञ्च गुणा राजन् महाभूतेषु पञ्चसु।
वर्तन्ते सर्वलोकेषु येषु भूताः प्रतिष्ठिताः ॥ ७ ॥
मूलम्
एते पञ्च गुणा राजन् महाभूतेषु पञ्चसु।
वर्तन्ते सर्वलोकेषु येषु भूताः प्रतिष्ठिताः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! ये पाँच गुण सम्पूर्ण लोकोंके आश्रय-भूत पंचमहाभूतोंमें रहते हैं। जिनमें समस्त प्राणी प्रतिष्ठित हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अन्योन्यं नाभिवर्तन्ते साम्यं भवति वै यदा ॥ ८ ॥
मूलम्
अन्योन्यं नाभिवर्तन्ते साम्यं भवति वै यदा ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये पाँचों गुण जब साम्यावस्थामें रहते हैं, तब एक-दूसरेसे संयुक्त नहीं होते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदा तु विषमीभावमाविशन्ति परस्परम्।
तदा देहैर्देहवन्तो व्यतिरोहन्ति नान्यथा ॥ ९ ॥
मूलम्
यदा तु विषमीभावमाविशन्ति परस्परम्।
तदा देहैर्देहवन्तो व्यतिरोहन्ति नान्यथा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जब ये विषमभावको प्राप्त होते हैं, तब एक-दूसरेसे मिल जाते हैं। उस समय ही देहधारी प्राणी अपने शरीरोंसे संयुक्त होते हैं, अन्यथा नहीं॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आनुपूर्व्या विनश्यन्ति जायन्ते चानुपूर्वशः।
सर्वाण्यपरिमेयाणि तदेषां रूपमैश्वरम् ॥ १० ॥
मूलम्
आनुपूर्व्या विनश्यन्ति जायन्ते चानुपूर्वशः।
सर्वाण्यपरिमेयाणि तदेषां रूपमैश्वरम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये सब भूत क्रमसे नष्ट होते और क्रमसे ही उत्पन्न होते हैं (पृथ्वी आदिके क्रमसे इनका लय होता है और आकाश आदिके क्रमसे इनका प्रादुर्भाव)। ये सब अपरिमेय हैं। इनका रूप ईश्वरकृत है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत्र तत्र हि दृश्यन्ते धातवः पाञ्चभौतिकाः।
तेषां मनुष्यास्तर्केण प्रमाणानि प्रचक्षते ॥ ११ ॥
मूलम्
तत्र तत्र हि दृश्यन्ते धातवः पाञ्चभौतिकाः।
तेषां मनुष्यास्तर्केण प्रमाणानि प्रचक्षते ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भिन्न-भिन्न लोकोंमें पांचभौतिक धातु दृष्टिगोचर होते हैं। मनुष्य तर्कके द्वारा उनके प्रमाणोंका प्रतिपादन करते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अचिन्त्याः खलु ये भावा न तांस्तर्केण साधयेत्।
प्रकृतिभ्यः परं यत् तु तदचिन्त्यस्य लक्षणम् ॥ १२ ॥
मूलम्
अचिन्त्याः खलु ये भावा न तांस्तर्केण साधयेत्।
प्रकृतिभ्यः परं यत् तु तदचिन्त्यस्य लक्षणम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु जो अचिन्त्य भाव हैं, उन्हें तर्कसे सिद्ध करनेकी चेष्टा नहीं करनी चाहिये। जो प्रकृतिसे परे है, वही अचिन्त्यस्वरूप है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुदर्शनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु कुरुनन्दन।
परिमण्डलो महाराज द्वीपोऽसौ चक्रसंस्थितः ॥ १३ ॥
मूलम्
सुदर्शनं प्रवक्ष्यामि द्वीपं तु कुरुनन्दन।
परिमण्डलो महाराज द्वीपोऽसौ चक्रसंस्थितः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! अब मैं सुदर्शन नामक द्वीपका वर्णन करूँगा। महाराज! वह द्वीप चक्रकी भाँति गोलाकार स्थित है॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नदीजलप्रतिच्छन्नः पर्वतैश्चाभ्रसंनिभैः ।
पुरैश्च विविधाकारै रम्यैर्जनपदैस्तथा ॥ १४ ॥
वृक्षैः पुष्पफलोपेतैः सम्पन्नधनधान्यवान् ।
लवणेन समुद्रेण समन्तात् परिवारितः ॥ १५ ॥
मूलम्
नदीजलप्रतिच्छन्नः पर्वतैश्चाभ्रसंनिभैः ।
पुरैश्च विविधाकारै रम्यैर्जनपदैस्तथा ॥ १४ ॥
वृक्षैः पुष्पफलोपेतैः सम्पन्नधनधान्यवान् ।
लवणेन समुद्रेण समन्तात् परिवारितः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह नाना प्रकारकी नदियोंके जलसे आच्छादित, मेघके समान उच्चतम पर्वतोंसे सुशोभित, भाँति-भाँतिके नगरों, रमणीय जनपदों तथा फल-फूलसे भरे हुए वृक्षोंसे विभूषित है। यह द्वीप भाँति-भाँतिकी सम्पदाओं तथा धन-धान्यसे सम्पन्न है। उसे सब ओरसे लवणसमुद्रने घेर रखा है॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा हि पुरुषः पश्येदादर्शे मुखमात्मनः।
एवं सुदर्शनद्वीपो दृश्यते चन्द्रमण्डले ॥ १६ ॥
मूलम्
यथा हि पुरुषः पश्येदादर्शे मुखमात्मनः।
एवं सुदर्शनद्वीपो दृश्यते चन्द्रमण्डले ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे पुरुष दर्पणमें अपना मुँह देखता है, उसी प्रकार सुदर्शनद्वीप चन्द्रमण्डलमें दिखायी देता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्विरंशे पिप्पलस्तत्र द्विरंशे च शशो महान्।
सर्वौषधिसमावायः सर्वतः परिवारितः ॥ १७ ॥
मूलम्
द्विरंशे पिप्पलस्तत्र द्विरंशे च शशो महान्।
सर्वौषधिसमावायः सर्वतः परिवारितः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके दो अंशमें पिप्पल और दो अंशमें महान् शश दृष्टिगोचर होता है। इनके सब ओर सम्पूर्ण ओषधियोंका समुदाय फैला हुआ है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आपस्ततोऽन्या विज्ञेयाः शेषः संक्षेप उच्यते।
ततोऽन्य उच्यते चायमेनं संक्षेपतः शृणु ॥ १८ ॥
मूलम्
आपस्ततोऽन्या विज्ञेयाः शेषः संक्षेप उच्यते।
ततोऽन्य उच्यते चायमेनं संक्षेपतः शृणु ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इन सबको छोड़कर शेष स्थान जलमय समझना चाहिये। इससे भिन्न संक्षिप्त भूमिखण्ड बताया जाता है। उस खण्डका मैं संक्षेपसे वर्णन करता हूँ, उसे सुनिये॥१८॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि जम्बूखण्डविनिर्माणपर्वणि सुदर्शनद्वीपवर्णने पञ्चमोऽध्यायः ॥ ५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत जम्बूखण्डविनिर्माणपर्वमें सुदर्शनद्वीपवर्णनविषयक पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ॥५॥
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एक समान। ↩︎