००३ निमित्ताख्याने

भागसूचना

तृतीयोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

व्यासजीके द्वारा अमंगलसूचक उत्पातों तथा विजयसूचक लक्षणोंका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

खरा गोषु प्रजायन्ते रमन्ते मातृभिः सुताः।
अनार्तवं पुष्पफलं दर्शयन्ति वनद्रुमाः ॥ १ ॥

मूलम्

खरा गोषु प्रजायन्ते रमन्ते मातृभिः सुताः।
अनार्तवं पुष्पफलं दर्शयन्ति वनद्रुमाः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजीने कहा— राजन्! गायोंके गर्भसे गदहे पैदा होते हैं, पुत्र माताओंके साथ रमण करते हैं। वनके वृक्ष बिना ऋतुके फूल और फल प्रकट करते हैं॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गर्भिण्योऽजातपुत्राश्च जनयन्ति विभीषणान् ।
क्रव्यादाः पक्षिभिश्चापि सहाश्नन्ति परस्परम् ॥ २ ॥

मूलम्

गर्भिण्योऽजातपुत्राश्च जनयन्ति विभीषणान् ।
क्रव्यादाः पक्षिभिश्चापि सहाश्नन्ति परस्परम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गर्भवती स्त्रियाँ पुत्रको जन्म न देकर अपने गर्भसे भयंकर जीवोंको पैदा करती हैं। मांसभक्षी पशु भी पक्षियोंके साथ परस्पर मिलकर एक ही जगह आहार ग्रहण करते हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिविषाणाश्चतुर्नेत्राः पञ्चपादा द्विमेहनाः ।
द्विशीर्षाश्च द्विपुच्छाश्च दंष्ट्रिणः पशवोऽशिवाः ॥ ३ ॥
जायन्ते विवृतास्याश्च व्याहरन्तोऽशिवा गिरः।

मूलम्

त्रिविषाणाश्चतुर्नेत्राः पञ्चपादा द्विमेहनाः ।
द्विशीर्षाश्च द्विपुच्छाश्च दंष्ट्रिणः पशवोऽशिवाः ॥ ३ ॥
जायन्ते विवृतास्याश्च व्याहरन्तोऽशिवा गिरः।

अनुवाद (हिन्दी)

तीन सींग, चार नेत्र, पाँच पैर, दो मूत्रेन्द्रिय, दो मस्तक, दो पूँछ और अनेक दाँढ़ोंवाले अमंगलमय पशु जन्म लेते तथा मुँह फैलाकर अमंगलसूचक वाणी बोलते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिपदाः शिखिनस्तार्क्ष्याश्चतुर्दंष्ट्रा विषाणिनः ॥ ४ ॥
तथैवान्याश्च दृश्यने स्त्रियो वै ब्रह्मवादिनाम्।
वैनतेयान् मयूरांश्च जनयन्ति पुरे तव ॥ ५ ॥

मूलम्

त्रिपदाः शिखिनस्तार्क्ष्याश्चतुर्दंष्ट्रा विषाणिनः ॥ ४ ॥
तथैवान्याश्च दृश्यने स्त्रियो वै ब्रह्मवादिनाम्।
वैनतेयान् मयूरांश्च जनयन्ति पुरे तव ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गरुड़ पक्षीके मस्तकपर शिखा और सींग हैं। उनके तीन पैर तथा चार दाढ़ें दिखायी देती हैं। इसी प्रकार अन्य जीव भी देखे जाते हैं। वेदवादी ब्राह्मणोंकी स्त्रियाँ तुम्हारे नगरमें गरुड़ और मोर पैदा करती हैं॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गोवत्सं वडवा सूते श्वा सृगालं महीपते।
कुक्कुरान् करभाश्चैव शुकाश्चाशुभवादिनः ॥ ६ ॥

मूलम्

गोवत्सं वडवा सूते श्वा सृगालं महीपते।
कुक्कुरान् करभाश्चैव शुकाश्चाशुभवादिनः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूपाल! घोड़ी गायके बछड़ेको जन्म देती है, कुतियाके पेटसे सियार पैदा होता है, हाथी कुत्तोंको जन्म देते हैं और तोते भी अशुभसूचक बोली बोलने लगे हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रियः काश्चित्प्रजायन्ते चतस्रः पञ्च कन्यकाः।
जातमात्राश्च नृत्यन्ति गायन्ति च हसन्ति च ॥ ७ ॥

मूलम्

स्त्रियः काश्चित्प्रजायन्ते चतस्रः पञ्च कन्यकाः।
जातमात्राश्च नृत्यन्ति गायन्ति च हसन्ति च ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुछ स्त्रियाँ एक ही साथ चार-चार या पाँच-पाँच कन्याएँ पैदा करती हैं। वे कन्याएँ पैदा होते ही नाचती, गाती तथा हँसती हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथग्जनस्य सर्वस्य क्षुद्रकाः प्रहसन्ति च।
नृत्यन्ति परिगायन्ति वेदयन्तो महद् भयम् ॥ ८ ॥

मूलम्

पृथग्जनस्य सर्वस्य क्षुद्रकाः प्रहसन्ति च।
नृत्यन्ति परिगायन्ति वेदयन्तो महद् भयम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त नीच जातियोंके घरोंमें उत्पन्न हुए काने, कुबड़े आदि बालक भी महान् भयकी सूचना देते हुए जोर-जोरसे हँसते, गाते और नाचते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिमाश्चालिखन्त्येताः सशस्त्राः कालचोदिताः ।
अन्योन्यमभिधावन्ति शिशवो दण्डपाणयः ॥ ९ ॥

मूलम्

प्रतिमाश्चालिखन्त्येताः सशस्त्राः कालचोदिताः ।
अन्योन्यमभिधावन्ति शिशवो दण्डपाणयः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये सब कालसे प्रेरित हो हाथोंमें हथियार लिये मूर्तियाँ लिखते और बनाते हैं। छोटे-छोटे बच्चे हाथमें डंडा लिये एक-दूसरेपर धावा करते हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अन्योन्यमभिमृद्नन्ति नगराणि युयुत्सवः ।
पद्मोत्पलानि वृक्षेषु जायन्ते कुमुदानि च ॥ १० ॥

मूलम्

अन्योन्यमभिमृद्नन्ति नगराणि युयुत्सवः ।
पद्मोत्पलानि वृक्षेषु जायन्ते कुमुदानि च ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

और कृत्रिम नगर बनाकर परस्पर युद्धकी इच्छा रखते हुए उन नगरोंको रौंदकर मिट्टीमें मिला देते हैं। पद्म, उत्पल और कुमुद आदि जलीय पुष्प वृक्षोंपर पैदा होते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्वग्वाताश्च वान्त्युग्रा रजो नाप्युपशाम्यति।
अभीक्ष्णं कम्पते भूमिरर्कं राहुरुपैति च ॥ ११ ॥

मूलम्

विष्वग्वाताश्च वान्त्युग्रा रजो नाप्युपशाम्यति।
अभीक्ष्णं कम्पते भूमिरर्कं राहुरुपैति च ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चारों ओर भयंकर आँधी चल रही है, धूलका उड़ना शान्त नहीं हो रहा है, धरती बारंबार काँप रही है तथा राहु सूर्यके निकट जा रहा है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वेतो ग्रहस्तथा चित्रां समतिक्रम्य तिष्ठति।
अभावं हि विशेषेण कुरूणां तत्र पश्यति ॥ १२ ॥

मूलम्

श्वेतो ग्रहस्तथा चित्रां समतिक्रम्य तिष्ठति।
अभावं हि विशेषेण कुरूणां तत्र पश्यति ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

केतु चित्राका अतिक्रमण करके स्वातीपर स्थित हो रहा है;1 उसकी विशेषरूपसे कुरुवंशके विनाशपर ही दृष्टि है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धूमकेतुर्महाघोरः पुष्यं चाक्रम्य तिष्ठति।
सेनयोरशिवं घोरं करिष्यति महाग्रहः ॥ १३ ॥

मूलम्

धूमकेतुर्महाघोरः पुष्यं चाक्रम्य तिष्ठति।
सेनयोरशिवं घोरं करिष्यति महाग्रहः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्यन्त भयंकर धूमकेतु पुष्य नक्षत्रपर आक्रमण करके वहीं स्थित हो रहा है। यह महान् उपग्रह दोनों सेनाओंका घोर अमंगल करेगा॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मघास्वङ्गारको वक्रः श्रवणे च बृहस्पतिः।
भगं नक्षत्रमाक्रम्य सूर्यपुत्रेण पीड्यते ॥ १४ ॥

मूलम्

मघास्वङ्गारको वक्रः श्रवणे च बृहस्पतिः।
भगं नक्षत्रमाक्रम्य सूर्यपुत्रेण पीड्यते ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मंगल वक्र होकर मघा नक्षत्रपर स्थित है, बृहस्पति श्रवण नक्षत्रपर विराजमान है तथा सूर्यपुत्र शनि पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्रपर पहुँचकर उसे पीड़ा दे रहा है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शुक्रः प्रोष्ठपदे पूर्वे समारुह्य विरोचते।
उत्तरे तु परिक्रम्य सहितः समुदीक्षते ॥ १५ ॥

मूलम्

शुक्रः प्रोष्ठपदे पूर्वे समारुह्य विरोचते।
उत्तरे तु परिक्रम्य सहितः समुदीक्षते ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शुक्र पूर्वा भाद्रपदापर आरूढ़ हो प्रकाशित हो रहा है और सब ओर घूम-फिरकर परिघ नामक उपग्रहके साथ उत्तरा भाद्रपदा नक्षत्रपर दृष्टि लगाये हुए है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्वेतो ग्रहः प्रज्वलितः सधूम इव पावकः।
ऐन्द्रं तेजस्वि नक्षत्रं ज्येष्ठामाक्रम्य तिष्ठति ॥ १६ ॥

मूलम्

श्वेतो ग्रहः प्रज्वलितः सधूम इव पावकः।
ऐन्द्रं तेजस्वि नक्षत्रं ज्येष्ठामाक्रम्य तिष्ठति ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

केतु नामक उपग्रह धूमयुक्त अग्निके समान प्रज्वलित हो इन्द्रदेवतासम्बन्धी तेजस्वी ज्येष्ठा नक्षत्रपर जाकर स्थित है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्रुवं प्रज्वलितो घोरमपसव्यं प्रवर्तते।
रोहिणीं पीडयत्येवमुभौ च शशिभास्करौ।
चित्रास्वात्यन्तरे चैव विष्ठितः परुषग्रहः ॥ १७ ॥

मूलम्

ध्रुवं प्रज्वलितो घोरमपसव्यं प्रवर्तते।
रोहिणीं पीडयत्येवमुभौ च शशिभास्करौ।
चित्रास्वात्यन्तरे चैव विष्ठितः परुषग्रहः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चित्रा और स्वातीके बीचमें स्थित हुआ क्रूर ग्रह राहु सदा वक्री होकर रोहिणी तथा चन्द्रमा और सूर्यको पीड़ा पहुँचाता है तथा अत्यन्त प्रज्वलित होकर ध्रुवकी बायीं ओर जा रहा है, जो घोर अनिष्टका सूचक है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वक्रानुवक्रं कृत्वा च श्रवणं पावकप्रभः।
ब्रह्मराशिं समावृत्य लोहिताङ्गो व्यवस्थितः ॥ १८ ॥

मूलम्

वक्रानुवक्रं कृत्वा च श्रवणं पावकप्रभः।
ब्रह्मराशिं समावृत्य लोहिताङ्गो व्यवस्थितः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अग्निके समान कान्तिमान् मंगल ग्रह (जिसकी स्थिति मघा नक्षत्रमें बतायी गयी है) बारंबार वक्र होकर ब्रह्मराशि (बृहस्पतिसे युक्त नक्षत्र) श्रवणको पूर्णरूपसे आवृत करके स्थित है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वसस्यपरिच्छन्ना पृथिवी सस्यमालिनी ।
पञ्चशीर्षा यवाश्चापि शतशीर्षाश्च शालयः ॥ १९ ॥

मूलम्

सर्वसस्यपरिच्छन्ना पृथिवी सस्यमालिनी ।
पञ्चशीर्षा यवाश्चापि शतशीर्षाश्च शालयः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(इसका प्रभाव खेतीपर अनुकूल पड़ा है) पृथ्वी सब प्रकारके अनाजके पौधोंसे आच्छादित है, शस्यकी मालाओंसे अलंकृत है, जौमें पाँच-पाँच और जड़हन धानमें सौ-सौ बालियाँ लग रही हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रधानाः सर्वलोकस्य यास्वायत्तमिदं जगत्।
ता गावः प्रस्नुता वत्सैः शोणितं प्रक्षरन्त्युत ॥ २० ॥

मूलम्

प्रधानाः सर्वलोकस्य यास्वायत्तमिदं जगत्।
ता गावः प्रस्नुता वत्सैः शोणितं प्रक्षरन्त्युत ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो सम्पूर्ण जगत्‌में माताके समान प्रधान मानी जाती हैं, यह समस्त संसार जिनके अधीन है, वे गौएँ बछड़ोंसे पिन्हा जानेके बाद अपने थनोंसे खून बहाती हैं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निश्चेरुरर्चिषश्चापात्‌ खड्‌गाश्च ज्वलिता भृशम्।
व्यक्तं पश्यन्ति शस्त्राणि संग्रामं समुपस्थितम् ॥ २१ ॥

मूलम्

निश्चेरुरर्चिषश्चापात्‌ खड्‌गाश्च ज्वलिता भृशम्।
व्यक्तं पश्यन्ति शस्त्राणि संग्रामं समुपस्थितम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

योद्धाओंके धनुषसे आगकी लपटें निकलने लगी हैं, खड्‌ग अत्यन्त प्रज्वलित हो उठे हैं मानो सम्पूर्ण शस्त्र स्पष्टरूपसे यह देख रहे हैं कि संग्राम उपस्थित हो गया है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अग्निवर्णा यथा भासः शस्त्राणामुदकस्य च।
कवचानां ध्वजानां च भविष्यति महाक्षयः ॥ २२ ॥

मूलम्

अग्निवर्णा यथा भासः शस्त्राणामुदकस्य च।
कवचानां ध्वजानां च भविष्यति महाक्षयः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शस्त्रोंकी, जलकी, कवचोंकी और ध्वजाओंकी कान्तियाँ अग्निके समान लाल हो गयी हैं; अतः निश्चय ही महान् जनसंहार होगा॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथिवी शोणितावर्ता ध्वजोडुपसमाकुला ।
कुरूणां वैशसे राजन् पाण्डवैः सह भारत ॥ २३ ॥

मूलम्

पृथिवी शोणितावर्ता ध्वजोडुपसमाकुला ।
कुरूणां वैशसे राजन् पाण्डवैः सह भारत ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! भरतनन्दन! जब पाण्डवोंके साथ कौरवोंका हिंसात्मक संग्राम आरम्भ हो जायगा, उस समय धरतीपर रक्तकी नदियाँ बह चलेंगी, उनमें शोणितमयी भँवरें उठेंगी तथा रथकी ध्वजाएँ उन नदियोंके ऊपर छोटी-छोटी डोंगियोंके समान सब ओर व्याप्त दिखायी देंगी॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिक्षु प्रज्वलितास्याश्च व्याहरन्ति मृगद्विजाः।
अत्याहितं दर्शयन्तो वेदयन्ति महद् भयम् ॥ २४ ॥

मूलम्

दिक्षु प्रज्वलितास्याश्च व्याहरन्ति मृगद्विजाः।
अत्याहितं दर्शयन्तो वेदयन्ति महद् भयम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चारों दिशाओंमें पशु और पक्षी प्राणान्तकारी अनर्थका दर्शन कराते हुए भयंकर बोली बोल रहे हैं। उनके मुख प्रज्वलित दिखायी देते हैं और वे अपने शब्दोंसे किसी महान् भयकी सूचना दे रहे हैं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकपक्षाक्षिचरणः शकुनिः खचरो निशि।
रौद्रं वदति संरब्धः शोणितं छर्दयन्निव ॥ २५ ॥

मूलम्

एकपक्षाक्षिचरणः शकुनिः खचरो निशि।
रौद्रं वदति संरब्धः शोणितं छर्दयन्निव ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रातमें एक आँख, एक पाँख और एक पैरका पक्षी आकाशमें विचरता है और कुपित होकर भयंकर बोली बोलता है। उसकी बोली ऐसी जान पड़ती है, मानो कोई रक्त वमन कर रहा हो॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शस्त्राणि चैव राजेन्द्र प्रज्वलन्तीव सम्प्रति।
सप्तर्षीणामुदाराणां समवच्छाद्यते प्रभा ॥ २६ ॥

मूलम्

शस्त्राणि चैव राजेन्द्र प्रज्वलन्तीव सम्प्रति।
सप्तर्षीणामुदाराणां समवच्छाद्यते प्रभा ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! सभी शस्त्र इस समय जलते-से प्रतीत होते हैं। उदार सप्तर्षियोंकी प्रभा फीकी पड़ती जाती है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संवत्सरस्थायिनौ च ग्रहौ प्रज्वलितावुभौ।
विशाखायाः समीपस्थौ बृहस्पतिशनैश्चरौ ॥ २७ ॥

मूलम्

संवत्सरस्थायिनौ च ग्रहौ प्रज्वलितावुभौ।
विशाखायाः समीपस्थौ बृहस्पतिशनैश्चरौ ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वर्षपर्यन्त एक राशिपर रहनेवाले दो प्रकाशमान ग्रह बृहस्पति और शनैश्चर तिर्यग्वेधके द्वारा विशाखा नक्षत्रके समीप आ गये हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चन्द्रादित्यावुभौ ग्रस्तावेकाह्ना हि त्रयोदशीम्।
अपर्वणि ग्रहं यातौ प्रजासंक्षयमिच्छतः ॥ २८ ॥

मूलम्

चन्द्रादित्यावुभौ ग्रस्तावेकाह्ना हि त्रयोदशीम्।
अपर्वणि ग्रहं यातौ प्रजासंक्षयमिच्छतः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

(इस पक्षमें तो तिथियोंका क्षय होनेके कारण) एक ही दिन त्रयोदशी तिथिको बिना पर्वके ही राहुने चन्द्रमा और सूर्य दोनोंको ग्रस लिया है। अतः ग्रहणावस्थाको प्राप्त हुए वे दोनों ग्रह प्रजाका संहार चाहते हैं॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशोभिता दिशः सर्वाः पांसुवर्षैः समन्ततः।
उत्पातमेघा रौद्राश्च रात्रौ वर्षन्ति शोणितम् ॥ २९ ॥

मूलम्

अशोभिता दिशः सर्वाः पांसुवर्षैः समन्ततः।
उत्पातमेघा रौद्राश्च रात्रौ वर्षन्ति शोणितम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

चारों ओर धूलकी वर्षा होनेसे सम्पूर्ण दिशाएँ शोभाहीन हो गयी हैं। उत्पातसूचक भयंकर मेघ रातमें रक्तकी वर्षा करते हैं॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्तिकां पीडयंस्तीक्ष्णैर्नक्षत्रं पृथिवीपते ।
अभीक्ष्णवाता वायन्ते धूमकेतुमवस्थिताः ॥ ३० ॥

मूलम्

कृत्तिकां पीडयंस्तीक्ष्णैर्नक्षत्रं पृथिवीपते ।
अभीक्ष्णवाता वायन्ते धूमकेतुमवस्थिताः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! अपने तीक्ष्ण (क्रूरतापूर्ण) कर्मोंके द्वारा उपलक्षित होनेवाला राहु (चित्रा और स्वातीके बीचमें रहकर सर्वतोभद्रचक्रगतवेधके अनुसार) कृत्तिका नक्षत्रको पीड़ा दे रहा है। बारंबार धूमकेतुका आश्रय लेकर प्रचण्ड आँधी उठती रहती है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषमं जनयन्त्येत आक्रन्दजननं महत्।
त्रिषु सर्वेषु नक्षत्रनक्षत्रेषु विशाम्पते।
गृध्रः सम्पतते शीर्षं जनयन् भयमुत्तमम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

विषमं जनयन्त्येत आक्रन्दजननं महत्।
त्रिषु सर्वेषु नक्षत्रनक्षत्रेषु विशाम्पते।
गृध्रः सम्पतते शीर्षं जनयन् भयमुत्तमम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह महान् युद्ध एवं विषम परिस्थिति पैदा करनेवाली है। राजन्! (अश्विनी आदि नक्षत्रोंको तीन भागोंमें बाँटनेपर जो नौ-नौ नक्षत्रोंके तीन समुदाय होते हैं, वे क्रमशः अश्वपति, गजपति तथा नरपतिके छत्र कहलाते हैं; ये ही पापग्रहसे आक्रान्त होनेपर क्षत्रियोंका विनाश सूचित करनेके कारण ‘नक्षत्र-नक्षत्र’ कहे गये हैं) इन तीनों अथवा सम्पूर्ण नक्षत्र-नक्षत्रोंमें शीर्षस्थानपर यदि पापग्रहसे वेध हो तो वह ग्रह महान् भय उत्पन्न करनेवाला होता है; इस समय ऐसा ही कुयोग आया है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्दशीं पञ्चदशीं भूतपूर्वां च षोडशीम्।
इमां तु नाभिजानेऽहममावास्यां त्रयोदशीम्।
चन्द्रसूर्यावुभौ ग्रस्तावेकमासीं त्रयोदशीम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

चतुर्दशीं पञ्चदशीं भूतपूर्वां च षोडशीम्।
इमां तु नाभिजानेऽहममावास्यां त्रयोदशीम्।
चन्द्रसूर्यावुभौ ग्रस्तावेकमासीं त्रयोदशीम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक तिथिका क्षय होनेपर चौदहवें दिन, तिथिक्षय न होनेपर पंद्रहवें दिन और एक तिथिकी वृद्धि होनेपर सोलहवें दिन अमावास्याका होना तो पहले देखा गया है; परंतु इस पक्षमें जो तेरहवें दिन यह अमावास्या आ गयी है, ऐसा पहले भी कभी हुआ है, इसका स्मरण मुझे नहीं है। इस एक ही महीनेमें तेरह दिनोंके भीतर चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण दोनों लग गये॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपर्वणि ग्रहेणैतौ प्रजाः संक्षपयिष्यतः।
मांसवर्षं पुनस्तीव्रमासीत् कृष्णचतुर्दशीम् ।
शोणितैर्वक्त्रसम्पूर्णा अतृप्तास्तत्र राक्षसाः ॥ ३३ ॥

मूलम्

अपर्वणि ग्रहेणैतौ प्रजाः संक्षपयिष्यतः।
मांसवर्षं पुनस्तीव्रमासीत् कृष्णचतुर्दशीम् ।
शोणितैर्वक्त्रसम्पूर्णा अतृप्तास्तत्र राक्षसाः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार अप्रसिद्ध पर्वमें ग्रहण लगनेके कारण ये सूर्य और चन्द्रमा प्रजाका विनाश करनेवाले होंगे। कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको बड़े जोरसे मांसकी वर्षा हुई थी। उस समय राक्षसोंका मुँह रक्तसे भरा हुआ था। वे खून पीते अघाते नहीं थे॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिस्रोतो महानद्यः सरितः शोणितोदकाः।
फेनायमानाः कूपाश्च कूर्दन्ति वृषभा इव ॥ ३४ ॥

मूलम्

प्रतिस्रोतो महानद्यः सरितः शोणितोदकाः।
फेनायमानाः कूपाश्च कूर्दन्ति वृषभा इव ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बड़ी-बड़ी नदियोंके जल रक्तके समान लाल हो गये हैं और उनकी धारा उलटे स्रोतकी ओर बहने लगी है। कुँओंसे फेन ऊपरको उठ रहे हैं, मानो वृषभ उछल रहे हों॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतन्त्युल्का सनिर्घाताः शक्राशनिसमप्रभाः ।
अद्य चैव निशां व्युष्टामनयं समवाप्स्यथ ॥ ३५ ॥

मूलम्

पतन्त्युल्का सनिर्घाताः शक्राशनिसमप्रभाः ।
अद्य चैव निशां व्युष्टामनयं समवाप्स्यथ ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बिजलीकी कड़कड़के साथ इन्द्रकी अशनिके समान प्रकाशित होनेवाली उल्काएँ गिर रही हैं। आजकी रात बीतनेपर सबेरेसे ही तुमलोगोंको अपने अन्यायका फल मिलने लगेगा॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विनिःसृत्य महोल्काभिस्तिमिरं सर्वतोदिशम् ।
अन्योन्यमुपतिष्ठद्भिस्तत्र चोक्तं महर्षिभिः ॥ ३६ ॥

मूलम्

विनिःसृत्य महोल्काभिस्तिमिरं सर्वतोदिशम् ।
अन्योन्यमुपतिष्ठद्भिस्तत्र चोक्तं महर्षिभिः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण दिशाओंमें अन्धकार व्याप्त होनेके कारण बड़ी-बड़ी मशालें जलाकर घरसे निकले हुए महर्षियोंने एक-दूसरेके पास उपस्थित हो इन उत्पातोंके सम्बन्धमें अपना मत इस प्रकार प्रकट किया है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूमिपालसहस्राणां भूमिः पास्यति शोणितम्।
कैलासमन्दराभ्यां तु तथा हिमवता विभो ॥ ३७ ॥
सहस्रशो महाशब्दः शिखराणि पतन्ति च।

मूलम्

भूमिपालसहस्राणां भूमिः पास्यति शोणितम्।
कैलासमन्दराभ्यां तु तथा हिमवता विभो ॥ ३७ ॥
सहस्रशो महाशब्दः शिखराणि पतन्ति च।

अनुवाद (हिन्दी)

जान पड़ता है, यह भूमि सहस्रों भूमिपालोंका रक्तपान करेगी। प्रभो! कैलास, मन्दराचल तथा हिमालयसे सहस्रों प्रकारके अत्यन्त भयानक शब्द प्रकट होते हैं और उनके शिखर भी टूट-टूटकर गिर रहे हैं॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाभूता भूमिकम्पे चत्वारः सागराः पृथक्।
वेलामुद्वर्तयन्तीव क्षोभयन्तो वसुंधराम् ॥ ३८ ॥

मूलम्

महाभूता भूमिकम्पे चत्वारः सागराः पृथक्।
वेलामुद्वर्तयन्तीव क्षोभयन्तो वसुंधराम् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूकम्प होनेके कारण पृथक्-पृथक् चारों सतर वृद्धिको प्राप्त होकर वसुधामें क्षोभ उत्पन्न करते हुए अपनी सीमाको लाँघते हुए-से जान पड़ते हैं॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृक्षानुन्मथ्य वान्त्युग्रा वाताः शर्करकर्षिणः।
आभग्नाः सुमहावातैरशनीभिः समाहताः ॥ ३९ ॥
वृक्षाः पतन्ति चैत्याश्च ग्रामेषु नगरेषु च।

मूलम्

वृक्षानुन्मथ्य वान्त्युग्रा वाताः शर्करकर्षिणः।
आभग्नाः सुमहावातैरशनीभिः समाहताः ॥ ३९ ॥
वृक्षाः पतन्ति चैत्याश्च ग्रामेषु नगरेषु च।

अनुवाद (हिन्दी)

बालू और कंकड़ खींचकर बरसानेवाले भयानक बवंडर उठकर वृक्षोंको उखाड़ डालते हैं। गाँवों तथा नगरोंमें वृक्ष और चैत्यवृक्ष प्रचण्ड आँधियों तथा बिजलीके आघातोंसे टूटकर गिर रहे हैं॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीललोहितपीतश्च भवत्यग्निर्हुतो द्विजैः ॥ ४० ॥
वामार्चिर्दुष्टगन्धश्च मुञ्चन्‌ वै दारुणं स्वनम्।
स्पर्शा गन्धा रसाश्चैव विपरीता महीपते ॥ ४१ ॥

मूलम्

नीललोहितपीतश्च भवत्यग्निर्हुतो द्विजैः ॥ ४० ॥
वामार्चिर्दुष्टगन्धश्च मुञ्चन्‌ वै दारुणं स्वनम्।
स्पर्शा गन्धा रसाश्चैव विपरीता महीपते ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्राह्मणलोगोंके आहुति देनेपर प्रज्वलित हुई अग्नि काले, लाल और पीले रंगकी दिखायी देती है। उसकी लपटें वामावर्त होकर उठ रही हैं। उससे दुर्गन्ध निकलती है और वह भयानक शब्द प्रकट करती रहती है। राजन्! स्पर्श, गन्ध तथा रस—इन सबकी स्थिति विपरीत हो गयी है॥४०-४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धूमं ध्वजाः प्रमुञ्चन्ति कम्पमाना मुहुर्मुहुः।
मुञ्चन्त्यङ्गारवर्षं च भेर्यश्च पटहास्तथा ॥ ४२ ॥

मूलम्

धूमं ध्वजाः प्रमुञ्चन्ति कम्पमाना मुहुर्मुहुः।
मुञ्चन्त्यङ्गारवर्षं च भेर्यश्च पटहास्तथा ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ध्वज बारंबार कम्पित होकर धूआँ छोड़ते हैं। ढोल, नगाड़े अंगारोंकी वर्षा करते हैं॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शिखराणां समृद्धानामुपरिष्टात् समन्ततः ।
वायसाश्च रुवन्त्युग्रं वामं मण्डलमाश्रिताः ॥ ४३ ॥

मूलम्

शिखराणां समृद्धानामुपरिष्टात् समन्ततः ।
वायसाश्च रुवन्त्युग्रं वामं मण्डलमाश्रिताः ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फल-फूलसे सम्पन्न वृक्षोंकी शिखाओंपर बायीं ओरसे घूम-घूमकर सब ओर कौए बैठते हैं और भयंकर काँव-काँवका कोलाहल करते हैं॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पक्वापक्वेति सुभृशं वावाश्यन्ते वयांसि च।
निलीयन्ते ध्वजाग्रेषु क्षयाय पृथिवीक्षिताम् ॥ ४४ ॥

मूलम्

पक्वापक्वेति सुभृशं वावाश्यन्ते वयांसि च।
निलीयन्ते ध्वजाग्रेषु क्षयाय पृथिवीक्षिताम् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बहुत-से पक्षी ‘पक्वा-पक्वा’ इस शब्दका बारंबार जोर-जोरसे उच्चारण करते और ध्वजाओंके अग्रभागमें छिपते हैं। यह लक्षण राजाओंके विनाशका सूचक है॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ध्यायन्तः प्रकिरन्तश्च व्याला वेपथुसंयुताः।
दीनास्तुरङ्गमाः सर्वे वारणाः सलिलाश्रयाः ॥ ४५ ॥

मूलम्

ध्यायन्तः प्रकिरन्तश्च व्याला वेपथुसंयुताः।
दीनास्तुरङ्गमाः सर्वे वारणाः सलिलाश्रयाः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुष्ट हाथी काँपते और चिन्ता करते हुए भयके मारे मल-मूत्र त्याग कर रहे हैं, घोड़े अत्यन्त दीन हो रहे हैं और सम्पूर्ण गजराज पसीने-पसीने हो रहे हैं॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा भवानत्र प्राप्तकालं व्यवस्यताम्।
यथा लोकः समुच्छेदं नायं गच्छेत भारत ॥ ४६ ॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा भवानत्र प्राप्तकालं व्यवस्यताम्।
यथा लोकः समुच्छेदं नायं गच्छेत भारत ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! यह सुनकर (और उसके परिणामपर विचार करके) तुम इस अवसरके अनुरूप ऐसा कोई उपाय करो, जिससे यह संसार विनाशसे बच जाय॥४६॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितुर्वचो निशम्यैतद् धृतराष्ट्रोऽब्रवीदिदम् ।
दिष्टमेतत् पुरा मन्ये भविष्यति नरक्षयः ॥ ४७ ॥

मूलम्

पितुर्वचो निशम्यैतद् धृतराष्ट्रोऽब्रवीदिदम् ।
दिष्टमेतत् पुरा मन्ये भविष्यति नरक्षयः ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! अपने पिता व्यासजीका यह वचन सुनकर धृतराष्ट्रने कहा—‘भगवन्! मैं तो इसे पूर्वनिश्चित दैवका विधान मानता हूँ; अतः यह जनसंहार होगा ही॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजानः क्षत्रधर्मेण यदि वध्यन्ति संयुगे।
वीरलोकं समासाद्य सुखं प्राप्स्यन्ति केवलम् ॥ ४८ ॥

मूलम्

राजानः क्षत्रधर्मेण यदि वध्यन्ति संयुगे।
वीरलोकं समासाद्य सुखं प्राप्स्यन्ति केवलम् ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि राजालोग क्षत्रियधर्मके अनुसार युद्धमें मारे जायँगे तो वीरलोकको प्राप्त होकर केवल सुखके भागी होंगे॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इह कीर्तिं परे लोके दीर्घकालं महत् सुखम्।
प्राप्स्यन्ति पुरुषव्याघ्राः प्राणांस्त्यक्त्वा महाहवे ॥ ४९ ॥

मूलम्

इह कीर्तिं परे लोके दीर्घकालं महत् सुखम्।
प्राप्स्यन्ति पुरुषव्याघ्राः प्राणांस्त्यक्त्वा महाहवे ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे पुरुषसिंह नरेश महायुद्धमें प्राणोंका परित्याग करके इहलोकमें कीर्ति तथा परलोकमें दीर्घकालतक महान् सुख प्राप्त करेंगे’॥४९॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तो मुनिस्तत्त्वं कवीन्द्रो राजसत्तम।
धृतराष्ट्रेण पुत्रेण ध्यानमन्वगमत् परम् ॥ ५० ॥

मूलम्

एवमुक्तो मुनिस्तत्त्वं कवीन्द्रो राजसत्तम।
धृतराष्ट्रेण पुत्रेण ध्यानमन्वगमत् परम् ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— नृपश्रेष्ठ! अपने पुत्र धृतराष्ट्रके इस प्रकार यथार्थ बात कहनेपर ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ महर्षि व्यास कुछ देरतक बड़े सोच-विचारमें पड़े रहे॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मुहूर्तं तथा ध्यात्वा पुनरेवाब्रवीद् वचः।
असंशयं पार्थिवेन्द्र कालः संक्षिपते जगत् ॥ ५१ ॥
सृजते च पुनर्लोकान् नेह विद्यति शाश्वतम्।

मूलम्

स मुहूर्तं तथा ध्यात्वा पुनरेवाब्रवीद् वचः।
असंशयं पार्थिवेन्द्र कालः संक्षिपते जगत् ॥ ५१ ॥
सृजते च पुनर्लोकान् नेह विद्यति शाश्वतम्।

अनुवाद (हिन्दी)

दो घड़ीतक चिन्तन करनेके बाद वे पुनः इस प्रकार बोले—‘राजेन्द्र! इसमें संशय नहीं है कि काल ही इस जगत्‌का संहार करता है और वही पुनः इन सम्पूर्ण लोकोंकी सृष्टि करता है। यहाँ कोई वस्तु सदा रहनेवाली नहीं है॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्ञातीनां वै कुरूणां च सम्बन्धिसुहृदां तथा ॥ ५२ ॥
धर्म्यं देशय पन्थानं समर्थो ह्यसि वारणे।
क्षुद्रं जातिवधं प्राहुर्मा कुरुष्व ममाप्रियम् ॥ ५३ ॥

मूलम्

ज्ञातीनां वै कुरूणां च सम्बन्धिसुहृदां तथा ॥ ५२ ॥
धर्म्यं देशय पन्थानं समर्थो ह्यसि वारणे।
क्षुद्रं जातिवधं प्राहुर्मा कुरुष्व ममाप्रियम् ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! तुम अपने जाति-भाई, कौरवों, सगे-सम्बन्धियों तथा हितैषी-सुहृदोंको धर्मानुकूल मार्गका उपदेश करो; क्योंकि तुम उन सबको रोकनेमें समर्थ हो। जाति-वधको अत्यन्त नीच कर्म बताया गया है। वह मुझे अत्यन्त अप्रिय है। तुम यह अप्रिय कार्य न करो॥५२-५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालोऽयं पुत्ररूपेण तव जातो विशाम्पते।
न वधः पूज्यते वेदे हितं नैव कथंचन ॥ ५४ ॥

मूलम्

कालोऽयं पुत्ररूपेण तव जातो विशाम्पते।
न वधः पूज्यते वेदे हितं नैव कथंचन ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाराज! यह काल तुम्हारे पुत्ररूपसे उत्पन्न हुआ है। वेदमें हिंसाकी प्रशंसा नहीं की गयी है। हिंसासे किसी प्रकार हित नहीं हो सकता॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्यात्‌ स एनं यो हन्यात्‌ कुलधर्मं स्विकां तनुम्।
कालेनोत्पथगन्तासि शक्ये सति यथाऽऽपदि ॥ ५५ ॥

मूलम्

हन्यात्‌ स एनं यो हन्यात्‌ कुलधर्मं स्विकां तनुम्।
कालेनोत्पथगन्तासि शक्ये सति यथाऽऽपदि ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुलधर्म अपने शरीरके ही समान है। जो इस कुलधर्मका नाश करता है, उसे वह धर्म ही नष्ट कर देता है। जबतक धर्मका पालन सम्भव है (जबतक तुमपर कोई आपत्ति नहीं आयी है), तबतक तुम कालसे प्रेरित होकर ही धर्मकी अवहेलना करके कुमार्गपर चल रहे हो, जैसा कि बहुधा लोग किसी आपत्तिमें पड़नेपर ही करते हैं॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुलस्यास्य विनाशाय तथैव च महीक्षिताम्।
अनर्थो राज्यरूपेण तव जातो विशाम्पते ॥ ५६ ॥

मूलम्

कुलस्यास्य विनाशाय तथैव च महीक्षिताम्।
अनर्थो राज्यरूपेण तव जातो विशाम्पते ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! तुम्हारे कुलका तथा अन्य बहुत-से राजाओंका विनाश करनेके लिये यह तुम्हारे राज्यके रूपमें अनर्थ ही प्राप्त हुआ है॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लुप्तधर्मा परेणासि धर्मं दर्शय वै सुतान्।
किं ते राज्येन दुर्धर्ष येन प्राप्तोऽसि किल्बिषम् ॥ ५७ ॥

मूलम्

लुप्तधर्मा परेणासि धर्मं दर्शय वै सुतान्।
किं ते राज्येन दुर्धर्ष येन प्राप्तोऽसि किल्बिषम् ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारा धर्म अत्यन्त लुप्त हो गया है। अपने पुत्रोंको धर्मका मार्ग दिखाओ। दुर्धर्ष वीर! तुम्हें राज्य लेकर क्या करना है, जिसके लिये अपने ऊपर पापका बोझ लाद रहे हो?॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यशो धर्मं च कीर्तिं च पालयन् स्वर्गमाप्स्यसि।
लभन्तां पाण्डवा राज्यं शमं गच्छन्तु कौरवाः ॥ ५८ ॥

मूलम्

यशो धर्मं च कीर्तिं च पालयन् स्वर्गमाप्स्यसि।
लभन्तां पाण्डवा राज्यं शमं गच्छन्तु कौरवाः ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम मेरी बात माननेपर यश, धर्म और कीर्तिका पालन करते हुए स्वर्ग प्राप्त कर लोगे। पाण्डवोंको उनके राज्य प्राप्त हों और समस्त कौरव आपसमें संधि करके शान्त हो जायँ’॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ब्रुवति विप्रेन्द्रे धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः।
आक्षिप्य वाक्यं वाक्यज्ञो वाक्यं चैवाब्रवीत् पुनः ॥ ५९ ॥

मूलम्

एवं ब्रुवति विप्रेन्द्रे धृतराष्ट्रोऽम्बिकासुतः।
आक्षिप्य वाक्यं वाक्यज्ञो वाक्यं चैवाब्रवीत् पुनः ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विप्रवर व्यासजी जब इस प्रकार उपदेश दे रहे थे, उसी समय बोलनेमें चतुर अम्बिकानन्दन धृतराष्ट्रने बीचमें ही उनकी बात काटकर उनसे इस प्रकार कहा॥५९॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा भवान् वेत्ति तथैव वेत्ता
भावाभावौ विदितौ मे यथार्थौ।
स्वार्थे हि सम्मुह्यति तात लोको
मां चापि लोकात्मकमेव विद्धि ॥ ६० ॥

मूलम्

यथा भवान् वेत्ति तथैव वेत्ता
भावाभावौ विदितौ मे यथार्थौ।
स्वार्थे हि सम्मुह्यति तात लोको
मां चापि लोकात्मकमेव विद्धि ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— तात! जैसा आप जानते हैं, उसी प्रकार मैं भी इन बातोंको समझता हूँ। भाव और अभावका यथार्थ स्वरूप मुझे भी ज्ञात है, तथापि यह संसार अपने स्वार्थके लिये मोहमें पड़ा रहता है। मुझे भी संसारसे अभिन्न ही समझें॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसादये त्वामतुलप्रभावं
त्वं नो गतिर्दर्शयिता च धीरः।
न चापि ते मद्वशगा महर्षे
न चाधर्मं कर्तुमर्हा हि मे मतिः ॥ ६१ ॥

मूलम्

प्रसादये त्वामतुलप्रभावं
त्वं नो गतिर्दर्शयिता च धीरः।
न चापि ते मद्वशगा महर्षे
न चाधर्मं कर्तुमर्हा हि मे मतिः ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आपका प्रभाव अनुपम है। आप हमारे आश्रय, मार्गदर्शक तथा धीर पुरुष हैं। मैं आपको प्रसन्न करना चाहता हूँ। महर्षे! मेरी बुद्धि भी अधर्म करना नहीं चाहती; परंतु क्या करूँ? मेरे पुत्र मेरे वशमें नहीं हैं॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं हि धर्मप्रवृत्तिश्च यशः कीर्तिश्च भारती।
कुरूणां पाण्डवानां च मान्यश्चापि पितामहः ॥ ६२ ॥

मूलम्

त्वं हि धर्मप्रवृत्तिश्च यशः कीर्तिश्च भारती।
कुरूणां पाण्डवानां च मान्यश्चापि पितामहः ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आप ही हम भरतवंशियोंकी धर्मप्रवृत्ति, यश तथा कीर्तिके हेतु हैं। आप कौरवों और पाण्डवों—दोनोंके माननीय पितामह हैं॥६२॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैचित्रवीर्य नृपते यत् ते मनसि वर्तते।
अभिधत्स्व यथाकामं छेत्तास्मि तव संशयम् ॥ ६३ ॥

मूलम्

वैचित्रवीर्य नृपते यत् ते मनसि वर्तते।
अभिधत्स्व यथाकामं छेत्तास्मि तव संशयम् ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजी बोले— विचित्रवीर्यकुमार! नरेश्वर! तुम्हारे मनमें जो संदेह है, उसे अपनी इच्छाके अनुसार प्रकट करो। मैं तुम्हारे संशयका निवारण करूँगा॥६३॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यानि लिङ्गानि संग्रामे भवन्ति विजयिष्यताम्।
तानि सर्वाणि भगवञ्छ्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ ६४ ॥

मूलम्

यानि लिङ्गानि संग्रामे भवन्ति विजयिष्यताम्।
तानि सर्वाणि भगवञ्छ्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— भगवन्! युद्धमें निश्चितरूपसे विजय पानेवाले लोगोंको जो शुभ लक्षण दीख पड़ते हैं, उन सबको यथार्थरूपसे सुननेकी मेरी इच्छा है॥६४॥

मूलम् (वचनम्)

व्यास उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसन्नभाः पावक ऊर्ध्वरश्मिः
प्रदक्षिणावर्तशिखो विधूमः ।
पुण्या गन्धाश्चाहुतीनां प्रवान्ति
जयस्यैतद् भाविनो रूपमाहुः ॥ ६५ ॥

मूलम्

प्रसन्नभाः पावक ऊर्ध्वरश्मिः
प्रदक्षिणावर्तशिखो विधूमः ।
पुण्या गन्धाश्चाहुतीनां प्रवान्ति
जयस्यैतद् भाविनो रूपमाहुः ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

व्यासजीने कहा— अग्निकी प्रभा निर्मल हो, उसकी लपटें ऊपरकी ओर दक्षिणावर्त होकर उठें और धूआँ बिलकुल न रहे; साथ ही अग्निमें जो आहुतियाँ डाली जायँ, उनकी पवित्र सुगन्ध वायुमें मिलकर सर्वत्र व्याप्त होती रहे—यह भावी विजयका स्वरूप (लक्षण) बताया गया है॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गम्भीरघोषाश्च महास्वनाश्च
शङ्खा मृदङ्गाश्च नदन्ति यत्र।
विशुद्धरश्मिस्तपनः शशी च
जयस्यैतद् भाविनो रूपमाहुः ॥ ६६ ॥

मूलम्

गम्भीरघोषाश्च महास्वनाश्च
शङ्खा मृदङ्गाश्च नदन्ति यत्र।
विशुद्धरश्मिस्तपनः शशी च
जयस्यैतद् भाविनो रूपमाहुः ॥ ६६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस पक्षमें शंखों और मृदंगोंकी गम्भीर आवाज बड़े जोर-जोरसे हो रही हो तथा जिन्हें सूर्य और चन्द्रमाकी किरणें विशुद्ध प्रतीत होती हों, उनके लिये यह भावी विजयका शुभ लक्षण बताया है॥६६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इष्टा वाचः प्रसृता वायसानां
सम्प्रस्थितानां च गमिष्यतां च।
ये पृष्ठतस्ते त्वरयन्ति राजन्
ये चाग्रतस्ते प्रतिषेधयन्ति ॥ ६७ ॥

मूलम्

इष्टा वाचः प्रसृता वायसानां
सम्प्रस्थितानां च गमिष्यतां च।
ये पृष्ठतस्ते त्वरयन्ति राजन्
ये चाग्रतस्ते प्रतिषेधयन्ति ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके प्रस्थित होनेपर अथवा प्रस्थानके लिये उद्यत होनेपर कौवोंकी मीठी आवाज फैलती है, उनकी विजय सूचित होती है। राजन्! जो कौवे पीछे बोलते हैं, वे मानो सिद्धिकी सूचना देते हुए शीघ्रतापूर्वक आगे बढ़नेके लिये प्रेरित करते हैं और जो सामने बोलते हैं, वे मानो युद्धमें जानेसे रोकते हैं॥६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कल्याणवाचः शकुना राजहंसाः
शुकाः क्रौञ्चाः शतपत्राश्च यत्र।
प्रदक्षिणाश्चैव भवन्ति संख्ये
ध्रुवं जयस्तत्र वदन्ति विप्राः ॥ ६८ ॥

मूलम्

कल्याणवाचः शकुना राजहंसाः
शुकाः क्रौञ्चाः शतपत्राश्च यत्र।
प्रदक्षिणाश्चैव भवन्ति संख्ये
ध्रुवं जयस्तत्र वदन्ति विप्राः ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ शुभ एवं कल्याणमयी बोली बोलनेवाले राजहंस, शुक, क्रौंच तथा शतपत्र (मोर) आदि पक्षी सैनिकोंकी प्रदक्षिणा करते हैं (दाहिने जाते हैं), उस पक्षकी युद्धमें निश्चितरूपसे विजय होती है, यह ब्राह्मणोंका कथन है॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलङ्कारैः कवचैः केतुभिश्च
सुखप्रणादैर्हेषितैर्वा हयानाम् ।
भ्राजिष्मती दुष्प्रतिवीक्षणीया
येषां चमूस्ते विजयन्ति शत्रून् ॥ ६९ ॥

मूलम्

अलङ्कारैः कवचैः केतुभिश्च
सुखप्रणादैर्हेषितैर्वा हयानाम् ।
भ्राजिष्मती दुष्प्रतिवीक्षणीया
येषां चमूस्ते विजयन्ति शत्रून् ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अलंकार, कवच, ध्वजा-पताका, सुखपूर्वक किये जानेवाले सिंहनाद अथवा घोड़ोंके हिनहिनानेकी आवाजसे जिनकी सेना अत्यन्त शोभायमान होती है तथा शत्रुओंको जिनकी सेनाकी ओर देखना भी कठिन जान पड़ता है, वे अवश्य अपने विपक्षियोंपर विजय पाते हैं॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृष्टा वाचस्तथा सत्त्वं योधानां यत्र भारत।
न म्लायन्ति स्रजश्चैव ते तरन्ति रणोदधिम् ॥ ७० ॥

मूलम्

हृष्टा वाचस्तथा सत्त्वं योधानां यत्र भारत।
न म्लायन्ति स्रजश्चैव ते तरन्ति रणोदधिम् ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! जिस पक्षके योद्धाओंकी बातें हर्ष और उत्साहसे परिपूर्ण होती हैं, मन प्रसन्न रहता है तथा जिनके कण्ठमें पड़ी हुई पुष्पमालाएँ कुम्हलाती नहीं हैं, वे युद्धरूपी महासागरसे पार हो जाते हैं॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इष्टा वाचः प्रविष्टस्य दक्षिणाः प्रविविक्षतः।
पश्चात् संधारयन्त्यर्थमग्रे च प्रतिषेधिकाः ॥ ७१ ॥

मूलम्

इष्टा वाचः प्रविष्टस्य दक्षिणाः प्रविविक्षतः।
पश्चात् संधारयन्त्यर्थमग्रे च प्रतिषेधिकाः ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस पक्षके योद्धा शत्रुकी सेनामें प्रवेश करनेकी इच्छा करते समय अथवा उसमें प्रवेश कर लेनेपर अभीष्ट वचन (मैं तुझे अभी मार भगाता हूँ इत्यादि शौर्यसूचक बातें) बोलते हैं और अपने रणकौशलका परिचय देते हैं, वे पीछे प्राप्त होनेवाली अपनी विजयको पहलेसे ही निश्चित कर लेते हैं। इसके विपरीत जिन्हें शत्रुसेनामें प्रवेश करते समय सामनेसे निषेधसूचक वचन सुननेको मिलते हैं, उनकी पराजय होती है॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शब्दरूपरसस्पर्शगन्धाश्चाविकृताः शुभाः ।
सदा हर्षश्च योधानां जयतामिह लक्षणम् ॥ ७२ ॥

मूलम्

शब्दरूपरसस्पर्शगन्धाश्चाविकृताः शुभाः ।
सदा हर्षश्च योधानां जयतामिह लक्षणम् ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिनके शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आदि निर्विकार एवं शुभ होते हैं तथा जिन योद्धाओंके हृदयमें सदा हर्ष और उत्साह बना रहता है, उनके विजयी होनेका यही शुभ लक्षण है॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुगा वायवो वान्ति तथाभ्राणि वयांसि च।
अनुप्लवन्ति मेघाश्च तथैवेन्द्रधनूंषि च ॥ ७३ ॥
एतानि जयमानानां लक्षणानि विशाम्पते।
भवन्ति विपरीतानि मुमूर्षूणां जनाधिप ॥ ७४ ॥

मूलम्

अनुगा वायवो वान्ति तथाभ्राणि वयांसि च।
अनुप्लवन्ति मेघाश्च तथैवेन्द्रधनूंषि च ॥ ७३ ॥
एतानि जयमानानां लक्षणानि विशाम्पते।
भवन्ति विपरीतानि मुमूर्षूणां जनाधिप ॥ ७४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! हवा जिनके अनुकूल बहती है, बादल और पक्षी भी जिनके अनुकूल होते हैं, मेघ जिनके पीछे-पीछे छत्रछाया किये चलते हैं तथा इन्द्रधनुष भी जिन्हें अनुकूल दिशामें ही दृष्टिगोचर होते हैं, उन विजयी वीरोंके लिये ये विजयके शुभ लक्षण हैं। जनेश्वर! मरणासन्न मनुष्योंको इसके विपरीत अशुभ लक्षण दिखायी देते हैं॥७३-७४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अल्पायां वा महत्यां वा सेनायामिति निश्चयः।
हर्षो योधगणस्यैको जयलक्षणमुच्यते ॥ ७५ ॥

मूलम्

अल्पायां वा महत्यां वा सेनायामिति निश्चयः।
हर्षो योधगणस्यैको जयलक्षणमुच्यते ॥ ७५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सेना छोटी हो या बड़ी, उसमें सम्मिलित होनेवाले सैनिकोंका एकमात्र हर्ष ही निश्चितरूपसे विजयका लक्षण बताया जाता है॥७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एको दीर्णो दारयति सेनां सुमहतीमपि।
तां दीर्णामनुदीर्यन्ते योधाः शूरतरा अपि ॥ ७६ ॥

मूलम्

एको दीर्णो दारयति सेनां सुमहतीमपि।
तां दीर्णामनुदीर्यन्ते योधाः शूरतरा अपि ॥ ७६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि सेनाका एक सैनिक भी उत्साहहीन होकर पीछे हटे तो वह अपनी ही देखा-देखी अत्यन्त विशाल सेनाको भी भगा देता है (उसके भागनेमें कारण बन जाता है)। उस सेनाके पलायन करनेपर बड़े-बड़े शूरवीर सैनिक भी भागनेको विवश होते हैं॥७६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्निवर्त्या तदा चैव प्रभग्ना महती चमूः।
अपामिव महावेगास्त्रस्ता मृगगणा इव ॥ ७७ ॥

मूलम्

दुर्निवर्त्या तदा चैव प्रभग्ना महती चमूः।
अपामिव महावेगास्त्रस्ता मृगगणा इव ॥ ७७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब बड़ी भारी सेना भागने लगती है, तब डरकर भागे हुए मृगोंके झुंड तथा नीची भूमिकी ओर बहनेवाले जलके महान् वेगकी भाँति उसे पीछे लौटाना बहुत कठिन है॥७७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैव शक्या समाधातुं संनिपाते महाचमूः।
दीर्णामित्येव दीर्यन्ते सुविद्वांसोऽपि भारत ॥ ७८ ॥

मूलम्

नैव शक्या समाधातुं संनिपाते महाचमूः।
दीर्णामित्येव दीर्यन्ते सुविद्वांसोऽपि भारत ॥ ७८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतनन्दन! विशाल सेनामें जब भगदड़ मच जाती है, तब उसे समझा-बुझाकर रोकना कठिन हो जाता है। सेना भाग रही है, इतना सुनकर ही बड़े-बड़े युद्धविद्याके विद्वान् भी भागने लगते हैं॥७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीतान् भग्नांश्च सम्प्रेक्ष्य भयं भूयोऽभिवर्धते।
प्रभग्ना सहसा राजन् दिशो विद्रवते चमूः ॥ ७९ ॥

मूलम्

भीतान् भग्नांश्च सम्प्रेक्ष्य भयं भूयोऽभिवर्धते।
प्रभग्ना सहसा राजन् दिशो विद्रवते चमूः ॥ ७९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! भयभीत होकर भागते हुए सैनिकोंको देखकर अन्य योद्धाओंका भय, बहुत अधिक बढ़ जाता है; फिर तो सहसा सारी सेना हतोत्साह होकर सम्पूर्ण दिशाओंमें भागने लगती है॥७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैव स्थापयितुं शक्या शूरैरपि महाचमूः।
सत्कृत्य महतीं सेनां चतुरङ्गां महीपतिः।
उपायपूर्वं मेधावी यतेत सततोत्थितः ॥ ८० ॥

मूलम्

नैव स्थापयितुं शक्या शूरैरपि महाचमूः।
सत्कृत्य महतीं सेनां चतुरङ्गां महीपतिः।
उपायपूर्वं मेधावी यतेत सततोत्थितः ॥ ८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय बहुत-से शूरवीर भी उस विशाल वाहिनीको रोककर खड़ी नहीं रख सकते। इसलिये बुद्धिमान् राजाको चाहिये कि वह सतत सावधान रहकर कोई-न-कोई उपाय करके अपनी विशाल चतुरंगिणी सेनाको विशेष सत्कारपूर्वक स्थिर रखनेका यत्न करे॥८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपायविजयं श्रेष्ठमाहुर्भेदेन मध्यमम् ।
जघन्य एष विजयो यो युद्धेन विशाम्पते ॥ ८१ ॥

मूलम्

उपायविजयं श्रेष्ठमाहुर्भेदेन मध्यमम् ।
जघन्य एष विजयो यो युद्धेन विशाम्पते ॥ ८१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! साम-दानरूप उपायसे जो विजय प्राप्त होती है, उसे श्रेष्ठ बताया गया है। भेदनीतिके द्वारा शत्रुसेनामें फूट डालकर जो विजय प्राप्त की जाती है, वह मध्यम है तथा युद्धके द्वारा मार-काट मचाकर जो शत्रुको पराजित किया जाता है, वह सबसे निम्नश्रेणीकी विजय है॥८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महादोषः संनिपातस्तस्याद्यः क्षय उच्यते।
परस्परज्ञाः संहृष्टा व्यवधूताः सुनिश्चिताः ॥ ८२ ॥
पञ्चाशदपि ये शूरा मृद्‌गन्ति महतीं चमूम्।
अपि वा पञ्च षट् सप्त विजयन्त्यनिवर्तिनः ॥ ८३ ॥

मूलम्

महादोषः संनिपातस्तस्याद्यः क्षय उच्यते।
परस्परज्ञाः संहृष्टा व्यवधूताः सुनिश्चिताः ॥ ८२ ॥
पञ्चाशदपि ये शूरा मृद्‌गन्ति महतीं चमूम्।
अपि वा पञ्च षट् सप्त विजयन्त्यनिवर्तिनः ॥ ८३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्ध महान् दोषका भण्डार है। उन दोषोंमें सबसे प्रधान है जनसंहार। यदि एक दूसरेको जाननेवाले, हर्ष और उत्साहमें भरे रहनेवाले, कहीं भी आसक्त न होकर विजय-प्राप्तिका दृढ़ निश्चय रखनेवाले तथा शौर्यसम्पन्न पचास सैनिक भी हों तो वे बड़ी भारी सेनाको धूलमें मिला देते हैं। यदि पीछे पैर न हटानेवाले पाँच, छः और सात ही योद्धा हों तो वे भी निश्चितरूपसे विजयी होते हैं॥८२-८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न वैनतेयो गरुडः प्रशंसति महाजनम्।
दृष्ट्वा सुपर्णोऽपचितिं महत्या अपि भारत ॥ ८४ ॥

मूलम्

न वैनतेयो गरुडः प्रशंसति महाजनम्।
दृष्ट्वा सुपर्णोऽपचितिं महत्या अपि भारत ॥ ८४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! सुन्दर पंखोंवाले विनतानन्दन गरुड़ विशाल सेनाका भी विनाश होता देखकर अधिक जनसमूहकी प्रशंसा नहीं करते हैं॥८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न बाहुल्येन सेनाया जयो भवति नित्यशः।
अध्रुवो हि जयो नाम दैवं चात्र परायणम्।
जयवन्तो हि संग्रामे कृतकृत्या भवन्ति हि ॥ ८५ ॥

मूलम्

न बाहुल्येन सेनाया जयो भवति नित्यशः।
अध्रुवो हि जयो नाम दैवं चात्र परायणम्।
जयवन्तो हि संग्रामे कृतकृत्या भवन्ति हि ॥ ८५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सदा अधिक सेना होनेसे ही विजय नहीं होती है। युद्धमें जीत प्रायः अनिश्चित होती है। उसमें दैव ही सबसे बड़ा सहारा है। जो संग्राममें विजयी होते हैं, वे ही कृतकार्य होते हैं॥८५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि जम्बूखण्डविनिर्माणपर्वणि निमित्ताख्याने तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत जम्बूखण्डविनिर्माणपर्वमें अमंगलसूचक उत्पातों तथा विजयसूचक लक्षणोंका वर्णनविषयक तीसरा अध्याय पूरा हुआ॥३॥


  1. राहु और केतु सदा एक-दूसरेसे सातवीं राशिपर स्थित होते हैं, किंतु उस समय दोनों एक राशिपर आ गये थे; अतः महान् अनिष्टके सूचक थे। सूर्य तुलापर थे, उनके निकट राहुके आनेका वर्णन पहले आ चुका है; फिर केतुके वहाँ पहुँचनेसे महान् दुर्योग बन गया है। ↩︎