००१ सैन्यशिक्षणे

Misc Detail


श्रीपरमात्मने नमः

भागसूचना

श्रीमहाभारतम्

सूचना (हिन्दी)

भीष्मपर्व

भागसूचना

जम्बूखण्डविनिर्माणपर्व
प्रथमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कुरुक्षेत्रमें उभय पक्षके सैनिकोंकी स्थिति तथा युद्धके नियमोंका निर्माण

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥

मूलम्

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्।
देवीं सरस्वतीं व्यासं ततो जयमुदीरयेत्॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्तर्यामी नारायणस्वरूप भगवान् श्रीकृष्ण, (उनके नित्य सखा) नरस्वरूप नरश्रेष्ठ अर्जुन, (उनकी लीला प्रकट करनेवाली) भगवती सरस्वती और (उन लीलाओंका संकलन करनेवाले) महर्षि वेदव्यासको नमस्कार करके जय (महाभारत)-का पाठ करना चाहिये।

मूलम् (वचनम्)

जनमेजय उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं युयुधिरे वीराः कुरुपाण्डवसोमकाः।
पार्थिवाः सुमहात्मानो नानादेशसमागताः ॥ १ ॥

मूलम्

कथं युयुधिरे वीराः कुरुपाण्डवसोमकाः।
पार्थिवाः सुमहात्मानो नानादेशसमागताः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जनमेजयने पूछा— मुने! कौरव, पाण्डव और सोमकवीरों तथा नाना देशोंसे आये हुए अन्य महामना नरेशोंने वहाँ किस प्रकार युद्ध किया?॥१॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा युयुधिरे वीराः कुरुपाण्डवसोमकाः।
कुरुक्षेत्रे तपःक्षेत्रे शृणु त्वं पृथिवीपते ॥ २ ॥

मूलम्

यथा युयुधिरे वीराः कुरुपाण्डवसोमकाः।
कुरुक्षेत्रे तपःक्षेत्रे शृणु त्वं पृथिवीपते ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजीने कहा— पृथ्वीपते! वीर कौरव, पाण्डव और सोमकोंने तपोभूमि कुरुक्षेत्रमें जिस प्रकार युद्ध किया था, उसे बताता हूँ; सुनो॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेऽवतीर्य कुरुक्षेत्रं पाण्डवाः सहसोमकाः।
कौरवाः समवर्तन्त जिगीषन्तो महाबलाः ॥ ३ ॥

मूलम्

तेऽवतीर्य कुरुक्षेत्रं पाण्डवाः सहसोमकाः।
कौरवाः समवर्तन्त जिगीषन्तो महाबलाः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सोमकोंसहित पाण्डव तथा कौरव दोनों महाबली थे। वे एक-दूसरेको जीतनेकी आशासे कुरुक्षेत्रमें उतरकर आमने-सामने डटे हुए थे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वेदाध्ययनसम्पन्नाः सर्वे युद्धाभिनन्दिनः ।
आशंसन्तो जयं युद्धे बलेनाभिमुखा रणे ॥ ४ ॥

मूलम्

वेदाध्ययनसम्पन्नाः सर्वे युद्धाभिनन्दिनः ।
आशंसन्तो जयं युद्धे बलेनाभिमुखा रणे ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सब-के-सब वेदाध्ययनसे सम्पन्न और युद्धका अभिनन्दन करनेवाले थे और संग्राममें विजयकी आशा रखकर रणभूमिमें बलपूर्वक एक-दूसरेके सम्मुख खड़े थे॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभियाय च दुर्धर्षां धार्तराष्ट्रस्य वाहिनीम्।
प्राङ्‌मुखाः पश्चिमे भागे न्यविशन्त ससैनिकाः ॥ ५ ॥

मूलम्

अभियाय च दुर्धर्षां धार्तराष्ट्रस्य वाहिनीम्।
प्राङ्‌मुखाः पश्चिमे भागे न्यविशन्त ससैनिकाः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवोंके योद्धालोग अपने-अपने सैनिकोंके सहित धृतराष्ट्रपुत्रकी दुर्धर्ष सेनाके सम्मुख जाकर पश्चिमभागमें पूर्वाभिमुख होकर ठहर गये थे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समन्तपञ्चकाद् बाह्यं शिबिराणि सहस्रशः।
कारयामास विधिवत् कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ ६ ॥

मूलम्

समन्तपञ्चकाद् बाह्यं शिबिराणि सहस्रशः।
कारयामास विधिवत् कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीनन्दन युधिष्ठिरने समन्तपंचकक्षेत्रसे बाहर यथायोग्य सहस्रों शिविर बनवाये थे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शून्या च पृथिवी सर्वा बालवृद्धावशेषिता।
निरश्वपुरुषेवासीद् रथकुञ्जरवर्जिता ॥ ७ ॥

मूलम्

शून्या च पृथिवी सर्वा बालवृद्धावशेषिता।
निरश्वपुरुषेवासीद् रथकुञ्जरवर्जिता ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त पृथ्वीके सभी प्रदेश नवयुवकोंसे सूने हो रहे थे। उनमें केवल बालक और वृद्ध ही शेष रह गये थे। सारी वसुधा घोड़े, हाथी, रथ और तरुण पुरुषोंसे हीन-सी हो रही थी॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावत्तपति सूर्यो हि जम्बूद्वीपस्य मण्डलम्।
तावदेव समायातं बलं पार्थिवसत्तम ॥ ८ ॥

मूलम्

यावत्तपति सूर्यो हि जम्बूद्वीपस्य मण्डलम्।
तावदेव समायातं बलं पार्थिवसत्तम ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नृपश्रेष्ठ! सूर्यदेव जम्बूद्वीपके जितने भूमण्डलको अपनी किरणोंसे तपाते हैं, उतनी दूरकी सेनाएँ वहाँ युद्धके लिये आ गयी थीं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकस्थाः सर्ववर्णास्ते मण्डलं बहुयोजनम्।
पर्याक्रामन्त देशांश्च नदीः शैलान् वनानि च ॥ ९ ॥

मूलम्

एकस्थाः सर्ववर्णास्ते मण्डलं बहुयोजनम्।
पर्याक्रामन्त देशांश्च नदीः शैलान् वनानि च ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ सभी वर्णके लोग एक ही स्थानपर एकत्र थे। युद्धभूमिका घेरा कई योजन लंबा था। उन सब लोगोंने वहाँके अनेक प्रदेशों, नदियों, पर्वतों और वनोंको सब ओरसे घेर लिया था॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां युधिष्ठिरो राजा सर्वेषां पुरुषर्षभ।
व्यादिदेश सवाह्यानां भक्ष्यभोज्यमनुत्तमम् ॥ १० ॥

मूलम्

तेषां युधिष्ठिरो राजा सर्वेषां पुरुषर्षभ।
व्यादिदेश सवाह्यानां भक्ष्यभोज्यमनुत्तमम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ! राजा युधिष्ठिरने सेना और सवारियों-सहित उन सबके लिये उत्तमोत्तम भोजन प्रस्तुत करनेका आदेश दे दिया था॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शय्याश्च विविधास्तात तेषां रात्रौ युधिष्ठिरः।
एवंवेदी वेदितव्यः पाण्डवेयोऽयमित्युत ॥ ११ ॥
अभिज्ञानानि सर्वेषां संज्ञाश्चाभरणानि च।
योजयामास कौरव्यो युद्धकाल उपस्थिते ॥ १२ ॥

मूलम्

शय्याश्च विविधास्तात तेषां रात्रौ युधिष्ठिरः।
एवंवेदी वेदितव्यः पाण्डवेयोऽयमित्युत ॥ ११ ॥
अभिज्ञानानि सर्वेषां संज्ञाश्चाभरणानि च।
योजयामास कौरव्यो युद्धकाल उपस्थिते ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! रातके समय युधिष्ठिरने उन सबके सोनेके लिये नाना प्रकारकी शय्याओंका भी प्रबन्ध कर दिया था। युद्धकाल उपस्थित होनेपर कुरुनन्दन युधिष्ठिरने सभी सैनिकोंके पहचानके लिये उन्हें भिन्न-भिन्न प्रकारके संकेत और आभूषण दे दिये थे, जिससे यह जान पड़े कि यह पाण्डवपक्षका सैनिक है॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा ध्वजाग्रं पार्थस्य धार्तराष्ट्रो महामनाः।
सह सर्वैर्महीपालैः प्रत्यव्यूहत पाण्डवम् ॥ १३ ॥

मूलम्

दृष्ट्वा ध्वजाग्रं पार्थस्य धार्तराष्ट्रो महामनाः।
सह सर्वैर्महीपालैः प्रत्यव्यूहत पाण्डवम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुन्तीपुत्र अर्जुनके ध्वजका अग्रभाग देखकर महामना दुर्योधनने समस्त भूपालोंके साथ पाण्डव-सेनाके विरुद्ध अपनी सेनाकी व्यूहरचना की॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डुरेणातपत्रेण ध्रियमाणेन मूर्धनि ।
मध्ये नागसहस्रस्य भ्रातृभिः परिवारितः ॥ १४ ॥

मूलम्

पाण्डुरेणातपत्रेण ध्रियमाणेन मूर्धनि ।
मध्ये नागसहस्रस्य भ्रातृभिः परिवारितः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसके मस्तकपर श्वेत छत्र तना हुआ था। वह एक हजार हाथियोंके बीचमें अपने भाइयोंसे घिरा हुआ शोभा पाता था॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्ट्वा दुर्योधनं हृष्टाः पञ्चाला युद्धनन्दिनः।
दध्मुः प्रीता महाशङ्खान् भेर्यश्च मधुरस्वनाः ॥ १५ ॥

मूलम्

दृष्ट्वा दुर्योधनं हृष्टाः पञ्चाला युद्धनन्दिनः।
दध्मुः प्रीता महाशङ्खान् भेर्यश्च मधुरस्वनाः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधनको देखकर युद्धका अभिनन्दन करनेवाले पांचाल सैनिक बहुत प्रसन्न हुए और प्रसन्नतापूर्वक बड़े-बड़े शंखों तथा मधुर ध्वनि करनेवाली भेरियोंको बजाने लगे॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रहृष्टां तां सेनामभिवीक्ष्याथ पाण्डवाः।
बभूवुर्हृष्टमनसो वासुदेवश्च वीर्यवान् ॥ १६ ॥

मूलम्

ततः प्रहृष्टां तां सेनामभिवीक्ष्याथ पाण्डवाः।
बभूवुर्हृष्टमनसो वासुदेवश्च वीर्यवान् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर अपनी सेनाको हर्ष और उल्लासमें भरी हुई देख समस्त पाण्डवोंके मनमें बड़ा हर्ष हुआ तथा पराक्रमी वसुदेवनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण भी संतुष्ट हुए॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो हर्षं समागम्य वासुदेवधनंजयौ।
दध्मतुः पुरुषव्याघ्रौ दिव्यौ शङ्खौ रथे स्थितौ ॥ १७ ॥

मूलम्

ततो हर्षं समागम्य वासुदेवधनंजयौ।
दध्मतुः पुरुषव्याघ्रौ दिव्यौ शङ्खौ रथे स्थितौ ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय एक ही रथपर बैठे हुए पुरुषसिंह श्रीकृष्ण और अर्जुन आनन्दमग्न होकर अपने दिव्य शंखोंको बजाने लगे॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाञ्चजन्यस्य निर्घोषं देवदत्तस्य चोभयोः।
श्रुत्वा तु निनदं योधाः शकृन्मूत्रं प्रसुस्रुवुः ॥ १८ ॥

मूलम्

पाञ्चजन्यस्य निर्घोषं देवदत्तस्य चोभयोः।
श्रुत्वा तु निनदं योधाः शकृन्मूत्रं प्रसुस्रुवुः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पांचजन्य और देवदत्त दोनों शंखोंकी ध्वनि सुनकर शत्रुपक्षके बहुत-से सैनिक भयके मारे मल-मूत्र करने लगे॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा सिंहस्य नदतः स्वनं श्रुत्वेतरे मृगाः।
त्रसेयुर्निनदं श्रुत्वा तथासीदत तद्बलम् ॥ १९ ॥

मूलम्

यथा सिंहस्य नदतः स्वनं श्रुत्वेतरे मृगाः।
त्रसेयुर्निनदं श्रुत्वा तथासीदत तद्बलम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे गर्जते हुए सिंहकी आवाज सुनकर दूसरे वन्य पशु भयभीत हो जाते हैं, उसी प्रकार उन दोनोंका शंखनाद सुनकर कौरवसेनाका उत्साह शिथिल पड़ गया—वह खिन्न-सी हो गयी॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उदतिष्ठद् रजो भौमं न प्राज्ञायत किंचन।
अस्तङ्गत इवादित्ये सैन्येन सहसाऽऽवृते ॥ २० ॥

मूलम्

उदतिष्ठद् रजो भौमं न प्राज्ञायत किंचन।
अस्तङ्गत इवादित्ये सैन्येन सहसाऽऽवृते ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धरतीसे धूल उड़कर आकाशमें छा गयी। कुछ भी सूझ नहीं पड़ता था। सेनाकी गर्दसे सहसा आच्छादित हो जानेके कारण सूर्य अस्त हो गये-से जान पड़ते थे॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ववर्ष तत्र पर्जन्यो मांसशोणितवृष्टिमान्।
दिक्षु सर्वाणि सैन्यानि तदद्भुतमिवाभवत् ॥ २१ ॥

मूलम्

ववर्ष तत्र पर्जन्यो मांसशोणितवृष्टिमान्।
दिक्षु सर्वाणि सैन्यानि तदद्भुतमिवाभवत् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय वहाँ मेघ सब दिशाओंमें समस्त सैनिकोंपर मांस और रक्तकी वर्षा करने लगे। वह एक अद्भुत-सी बात हुई॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वायुस्ततः प्रादुरभून्नीचैः शर्करकर्षणः ।
विनिघ्नंस्तान्यनीकानि शतशोऽथ सहस्रशः ॥ २२ ॥

मूलम्

वायुस्ततः प्रादुरभून्नीचैः शर्करकर्षणः ।
विनिघ्नंस्तान्यनीकानि शतशोऽथ सहस्रशः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वहाँ नीचेसे बालू तथा कंकड़ खींचकर सब ओर बिखेरनेवाली बवंडरकी-सी वायु उठी, जिसने सैकड़ों-हजारों सैनिकोंको घायल कर दिया॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उभे सैन्ये च राजेन्द्र युद्धाय मुदिते भृशम्।
कुरुक्षेत्रे स्थिते यत्ते सागरक्षुभितोपमे ॥ २३ ॥

मूलम्

उभे सैन्ये च राजेन्द्र युद्धाय मुदिते भृशम्।
कुरुक्षेत्रे स्थिते यत्ते सागरक्षुभितोपमे ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! कुरुक्षेत्रमें युद्धके लिये अत्यन्त हर्षोल्लासमें भरी हुई दोनों पक्षकी सेनाएँ दो विक्षुब्ध महासागरोंके समान एक-दूसरेके सम्मुख खड़ी थीं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोस्तु सेनयोरासीदद्भुतः स तु संगमः।
युगान्ते समनुप्राप्ते द्वयोः सागरयोरिव ॥ २४ ॥

मूलम्

तयोस्तु सेनयोरासीदद्भुतः स तु संगमः।
युगान्ते समनुप्राप्ते द्वयोः सागरयोरिव ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दोनों सेनाओंका वह अद्भुत समागम प्रलयकाल आनेपर परस्पर मिलनेवाले दो समुद्रोंके समान जान पड़ता था॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शून्याऽऽसीत्‌ पृथिवी सर्वा वृद्धबालावशेषिता।
निरश्वपुरुषेवासीद् रथकुञ्जरवर्जिता ॥ २५ ॥
तेन सेनासमूहेन समानीतेन कौरवैः।

मूलम्

शून्याऽऽसीत्‌ पृथिवी सर्वा वृद्धबालावशेषिता।
निरश्वपुरुषेवासीद् रथकुञ्जरवर्जिता ॥ २५ ॥
तेन सेनासमूहेन समानीतेन कौरवैः।

अनुवाद (हिन्दी)

कौरवोंद्वारा संग्रह करके वहाँ लाये हुए उस सैन्यसमूहद्वारा सारी पृथ्वी नवयुवकोंसे सूनी-सी हो रही थी। सर्वत्र केवल बालक और बूढ़े ही शेष रह गये थे। सारी वसुधा घोड़े, हाथी, रथ और तरुण पुरुषोंसे हीन-सी हो गयी थी॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते समयं चक्रुः कुरुपाण्डवसोमकाः ॥ २६ ॥
धर्मान् संस्थापयामासुर्युद्धानां भरतर्षभ ।

मूलम्

ततस्ते समयं चक्रुः कुरुपाण्डवसोमकाः ॥ २६ ॥
धर्मान् संस्थापयामासुर्युद्धानां भरतर्षभ ।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! तत्पश्चात् कौरव, पाण्डव तथा सोमकोंने परस्पर मिलकर युद्धके सम्बन्धमें कुछ नियम बनाये। युद्धधर्मकी मर्यादा स्थापित की॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निवृत्ते विहिते युद्धे स्यात् प्रीतिर्नः परस्परम् ॥ २७ ॥
यथापरं यथायोगं न च स्यात् कस्यचित् पुनः।

मूलम्

निवृत्ते विहिते युद्धे स्यात् प्रीतिर्नः परस्परम् ॥ २७ ॥
यथापरं यथायोगं न च स्यात् कस्यचित् पुनः।

अनुवाद (हिन्दी)

वे नियम इस प्रकार हैं—चालू युद्धके बंद होनेपर संध्याकालमें हम सब लोगोंमें परस्पर प्रेम बना रहे। उस समय पुनः किसीका किसीके साथ शत्रुतापूर्ण अयोग्य बर्ताव नहीं होना चाहिये॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाचा युद्धप्रवृत्तानां वाचैव प्रतियोधनम्।
निष्क्रान्ताः पृतनामध्यान्न हन्तव्याः कदाचन ॥ २८ ॥
रथी च रथिना योध्यो गजेन गजधूर्गतः।
अश्वेनाश्वी पदातिश्च पादातेनैव भारत ॥ २९ ॥

मूलम्

वाचा युद्धप्रवृत्तानां वाचैव प्रतियोधनम्।
निष्क्रान्ताः पृतनामध्यान्न हन्तव्याः कदाचन ॥ २८ ॥
रथी च रथिना योध्यो गजेन गजधूर्गतः।
अश्वेनाश्वी पदातिश्च पादातेनैव भारत ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो वाग्युद्धमें प्रवृत्त हों उनके साथ वाणीद्वारा ही युद्ध किया जाय। जो सेनासे बाहर निकल गये हों उनका वध कदापि न किया जाय। भारत! रथीको रथीसे ही युद्ध करना चाहिये, इसी प्रकार हाथीसवारके साथ हाथीसवार, घुड़सवारके साथ घुड़सवार तथा पैदलके साथ पैदल ही युद्ध करे॥२८-२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथायोगं यथाकामं यथोत्साहं यथाबलम्।
समाभाष्य प्रहर्तव्यं न विश्वस्ते न विह्वले ॥ ३० ॥

मूलम्

यथायोगं यथाकामं यथोत्साहं यथाबलम्।
समाभाष्य प्रहर्तव्यं न विश्वस्ते न विह्वले ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसमें जैसी योग्यता, इच्छा, उत्साह तथा बल हो उसके अनुसार ही विपक्षीको बताकर उसे सावधान करके ही उसके ऊपर प्रहार किया जाय। जो विश्वास करके असावधान हो रहा हो अथवा जो युद्धसे घबराया हुआ हो, उसपर प्रहार करना उचित नहीं है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकेन सह संयुक्तः प्रपन्नो विमुखस्तथा।
क्षीणशस्त्रो विवर्मा च न हन्तव्यः कदाचन ॥ ३१ ॥

मूलम्

एकेन सह संयुक्तः प्रपन्नो विमुखस्तथा।
क्षीणशस्त्रो विवर्मा च न हन्तव्यः कदाचन ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो एकके साथ युद्धमें लगा हो, शरणमें आया हो, पीठ दिखाकर भागा हो और जिसके अस्त्र-शस्त्र और कवच कट गये हों; ऐसे मनुष्यको कदापि न मारा जाय॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न सूतेषु न धुर्येषु न च शस्त्रोपनायिषु।
न भेरीशङ्खवादेषु प्रहर्तव्यं कथंचन ॥ ३२ ॥

मूलम्

न सूतेषु न धुर्येषु न च शस्त्रोपनायिषु।
न भेरीशङ्खवादेषु प्रहर्तव्यं कथंचन ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

घोड़ोंकी सेवाके लिये नियुक्त हुए सूतों, बोझ ढोनेवालों, शस्त्र पहुँचानेवालों तथा भेरी और शंख बजानेवालोंपर कोई किसी प्रकार भी प्रहार न करे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ते समयं कृत्वा कुरुपाण्डवसोमकाः।
विस्मयं परमं जग्मुः प्रेक्षमाणाः परस्परम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

एवं ते समयं कृत्वा कुरुपाण्डवसोमकाः।
विस्मयं परमं जग्मुः प्रेक्षमाणाः परस्परम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार नियम बनाकर कौरव, पाण्डव तथा सोमक एक-दूसरेकी ओर देखते हुए बड़े आश्चर्यचकित हुए॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निविश्य च महात्मानस्ततस्ते पुरुषर्षभाः।
हृष्टरूपाः सुमनसो बभूवुः सहसैनिकाः ॥ ३४ ॥

मूलम्

निविश्य च महात्मानस्ततस्ते पुरुषर्षभाः।
हृष्टरूपाः सुमनसो बभूवुः सहसैनिकाः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वे महामना पुरुषरत्न अपने-अपने स्थानपर स्थित हो सैनिकोंसहित प्रसन्नचित्त होकर हर्ष एवं उत्साहसे भर गये॥३४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते भीष्मपर्वणि जम्बूखण्डविनिर्माणपर्वणि सैन्यशिक्षणे प्रथमोऽध्यायः ॥ १ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत भीष्मपर्वके अन्तर्गत जम्बूण्डविनिर्माणपर्वमें सैन्यशिक्षणविषयक पहला अध्याय पूरा हुआ॥१॥