भागसूचना
त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दुर्योधनके पूछनेपर भीष्म आदिके द्वारा अपनी-अपनी शक्तिका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभातायां तु शर्वर्यां पुनरेव सुतस्तव।
मध्ये सर्वस्य सैन्यस्य पितामहमपृच्छत ॥ १ ॥
मूलम्
प्रभातायां तु शर्वर्यां पुनरेव सुतस्तव।
मध्ये सर्वस्य सैन्यस्य पितामहमपृच्छत ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय कहते हैं—राजन्! जब रात बीती और प्रभात हुआ, उस समय आपके पुत्र दुर्योधनने सारी सेनाके बीचमें पुनः पितामह भीष्मसे पूछा—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवेयस्य गाङ्गेय यदेतत् सैन्यमुद्यतम्।
प्रभूतनरनागाश्वं महारथसमाकुलम् ॥ २ ॥
भीमार्जुनप्रभृतिभिर्महेष्वासैर्महाबलैः ।
लोकपालसमैर्गुप्तं घृष्टद्युम्नपुरोगमैः ॥ ३ ॥
अप्रधृष्यमनावार्यमुद्धूतमिव सागरम् ।
सेनासागरमक्षोभ्यमपि देवैर्महाहवे ॥ ४ ॥
मूलम्
पाण्डवेयस्य गाङ्गेय यदेतत् सैन्यमुद्यतम्।
प्रभूतनरनागाश्वं महारथसमाकुलम् ॥ २ ॥
भीमार्जुनप्रभृतिभिर्महेष्वासैर्महाबलैः ।
लोकपालसमैर्गुप्तं घृष्टद्युम्नपुरोगमैः ॥ ३ ॥
अप्रधृष्यमनावार्यमुद्धूतमिव सागरम् ।
सेनासागरमक्षोभ्यमपि देवैर्महाहवे ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘गंगानन्दन! यह जो पाण्डवोंकी सेना युद्धके लिये उद्यत है। इसमें बहुत-से पैदल, हाथीसवार और घुड़सवार भरे हुए हैं। यह सेना बड़े-बड़े महारथियों एवं उनके विशाल रथोंसे व्याप्त है। लोकपालोंके समान महापराक्रमी एवं महाधनुर्धर भीमसेन, अर्जुन और धृष्टद्युम्न आदि वीर इस सेनाकी रक्षा करते हैं। यह उछलती हुई तरंगोंसे युक्त समुद्रकी भाँति दुर्धर्ष प्रतीत होती है। इसे आगे बढ़नेसे रोकना असम्भव है तथा बड़े-बड़े देवता भी इस महान् युद्धमें इस सैन्य-समुद्रको क्षुब्ध नहीं कर सकते॥२—४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केन कालेन गाङ्गेय क्षपयेथा महाद्युते।
आचार्यो वा महेष्वासः कृपो वा सुमहाबलः ॥ ५ ॥
कर्णो वा समरश्लाघी द्रौणिर्वा द्विजसत्तमः।
दिव्यास्त्रविदुषः सर्वे भवन्तो हि बले मम ॥ ६ ॥
मूलम्
केन कालेन गाङ्गेय क्षपयेथा महाद्युते।
आचार्यो वा महेष्वासः कृपो वा सुमहाबलः ॥ ५ ॥
कर्णो वा समरश्लाघी द्रौणिर्वा द्विजसत्तमः।
दिव्यास्त्रविदुषः सर्वे भवन्तो हि बले मम ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महातेजस्वी गंगानन्दन! आप कितने समयमें इस सारी सेनाका विध्वंस कर सकते हैं? महाधनुर्धर द्रोणाचार्य, अत्यन्त बलशाली कृपाचार्य, युद्धकी स्पृहा रखनेवाले कर्ण अथवा द्विजश्रेष्ठ अश्वत्थामा कितने समयमें शत्रुसेनाका संहार कर सकते हैं; क्योंकि मेरी सेनामें आप ही सब लोग दिव्यास्त्रोंके ज्ञाता हैं॥५-६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतदिच्छाम्यहं ज्ञातुं परं कौतूहलं हि मे।
हृदि नित्यं महाबाहो वक्तुमर्हसि तन्मम ॥ ७ ॥
मूलम्
एतदिच्छाम्यहं ज्ञातुं परं कौतूहलं हि मे।
हृदि नित्यं महाबाहो वक्तुमर्हसि तन्मम ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहो! मैं यह जानना चाहता हूँ, इसके लिये मेरे हृदयमें सदा अत्यन्त कौतूहल बना रहता है। आप मुझे यह बतानेकी कृपा करें’॥७॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुरूपं कुरुश्रेष्ठ त्वय्येतत् पृथिवीपते।
बलाबलममित्राणां तेषां यदिह पृच्छसि ॥ ८ ॥
मूलम्
अनुरूपं कुरुश्रेष्ठ त्वय्येतत् पृथिवीपते।
बलाबलममित्राणां तेषां यदिह पृच्छसि ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— कुरुश्रेष्ठ! पृथ्वीपते! तुम जो यहाँ शत्रुओंके बलाबलके विषयमें पूछ रहे हो, यह तुम्हारे योग्य ही है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु राजन् मम रणे या शक्तिः परमा भवेत्।
शस्त्रवीर्यं रणे यच्च भुजयोश्च महाभुज ॥ ९ ॥
मूलम्
शृणु राजन् मम रणे या शक्तिः परमा भवेत्।
शस्त्रवीर्यं रणे यच्च भुजयोश्च महाभुज ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! महाबाहो! युद्धमें जो मेरी सबसे अधिक शक्ति है, मेरे अस्त्र-शस्त्रोंका तथा दोनों भुजाओंका जितना बल है, वह सब बताता हूँ, सुनो॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आर्जवेनैव युद्धेन योद्धव्य इतरो जनः।
मायायुद्धेन मायावी इत्येतद् धर्मनिश्चयः ॥ १० ॥
मूलम्
आर्जवेनैव युद्धेन योद्धव्य इतरो जनः।
मायायुद्धेन मायावी इत्येतद् धर्मनिश्चयः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
साधारण लोगोंके साथ सरलभावसे ही युद्ध करना चाहिये। जो लोग मायावी हैं, उनका सामना मायायुद्धसे ही करना चाहिये। यही धर्मशास्त्रोंका निश्चय है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हन्यामहं महाभाग पाण्डवानामनीकिनीम् ।
दिवसे दिवसे कृत्वा भागं प्रागाह्निकं मम ॥ ११ ॥
मूलम्
हन्यामहं महाभाग पाण्डवानामनीकिनीम् ।
दिवसे दिवसे कृत्वा भागं प्रागाह्निकं मम ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाभाग! मैं प्रतिदिन पाण्डवोंकी सेनाको पहले अपने दैनिक भागमें विभक्त करके उसका वध करूँगा॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योधानां दशसाहस्रं कृत्वा भागं महाद्युते।
सहस्रं रथिनामेकमेष भागो मतो मम ॥ १२ ॥
मूलम्
योधानां दशसाहस्रं कृत्वा भागं महाद्युते।
सहस्रं रथिनामेकमेष भागो मतो मम ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाद्युते! दस-दस हजार योद्धाओंका तथा एक हजार रथियोंका समूह मेरा एक भाग मानना चाहिये॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनेनाहं विधानेन संनद्धः सततोत्थितः।
क्षपयेयं महत् सैन्यं कालेनानेन भारत ॥ १३ ॥
मूलम्
अनेनाहं विधानेन संनद्धः सततोत्थितः।
क्षपयेयं महत् सैन्यं कालेनानेन भारत ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! इस विधानसे मैं सदा उद्यत और संनद्ध होकर उस विशाल सेनाको इतने ही समयमें नष्ट कर सकता हूँ॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुञ्चेयं यदि वास्त्राणि महान्ति समरे स्थितः।
शतसाहस्रघातीनि हन्यां मासेन भारत ॥ १४ ॥
मूलम्
मुञ्चेयं यदि वास्त्राणि महान्ति समरे स्थितः।
शतसाहस्रघातीनि हन्यां मासेन भारत ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! यदि मैं युद्धमें स्थित होकर लाखों वीरोंका संहार करनेवाले अपने महान् अस्त्रोंका प्रयोग करने लगूँ तो एक मासमें पाण्डवोंकी सारी सेनाको नष्ट कर सकता हूँ॥१४॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा भीष्मस्य तद् वाक्यं राजा दुर्योधनस्ततः।
पर्यपृच्छत राजेन्द्र द्रोणमङ्गिरसां वरम् ॥ १५ ॥
आचार्य केन कालेन पाण्डुपुत्रस्य सैनिकान्।
निहन्या इति तं द्रोणः प्रत्युवाच हसन्निव ॥ १६ ॥
मूलम्
श्रुत्वा भीष्मस्य तद् वाक्यं राजा दुर्योधनस्ततः।
पर्यपृच्छत राजेन्द्र द्रोणमङ्गिरसां वरम् ॥ १५ ॥
आचार्य केन कालेन पाण्डुपुत्रस्य सैनिकान्।
निहन्या इति तं द्रोणः प्रत्युवाच हसन्निव ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय बोले— राजेन्द्र! भीष्मका यह वचन सुनकर राजा दुर्योधनने आंगिरस ब्राह्मणोंमें सबसे श्रेष्ठ द्रोणाचार्यसे पूछा—‘आचार्य! आप कितने समयमें पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरके सैनिकोंका संहार कर सकते हैं?’ यह प्रश्न सुनकर द्रोणाचार्य हँसते हुए-से बोले—॥१५-१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थविरोऽस्मि महाबाहो मन्दप्राणविचेष्टितः ।
शस्त्राग्निना निर्दहेयं पाण्डवानामनीकिनीम् ॥ १७ ॥
मूलम्
स्थविरोऽस्मि महाबाहो मन्दप्राणविचेष्टितः ।
शस्त्राग्निना निर्दहेयं पाण्डवानामनीकिनीम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहो! अब तो मैं बूढ़ा हो गया, मेरी प्राणशक्ति और चेष्टा कम हो गयी, तो भी अपने अस्त्र-शस्त्रोंकी अग्निसे पाण्डवोंकी विशाल वाहिनीको भस्म कर दूँगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा भीष्मः शान्तनवो मासेनेति मतिर्मम।
एषा मे परमा शक्तिरेतन्मे परमं बलम् ॥ १८ ॥
मूलम्
यथा भीष्मः शान्तनवो मासेनेति मतिर्मम।
एषा मे परमा शक्तिरेतन्मे परमं बलम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे शान्तनुनन्दन भीष्म एक मासमें पाण्डव-सेनाका विनाश कर सकते हैं, उसी प्रकार और उतने ही समयमें मैं भी कर सकता हूँ, ऐसा मेरा विश्वास है। यही मेरी सबसे बड़ी शक्ति है और यही मेरा अधिक-से-अधिक बल है’॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्वाभ्यामेव तु मासाभ्यां कृपः शारद्वतोऽबवीत्।
द्रौणिस्तु दशरात्रेण प्रतिजज्ञे बलक्षयम् ॥ १९ ॥
मूलम्
द्वाभ्यामेव तु मासाभ्यां कृपः शारद्वतोऽबवीत्।
द्रौणिस्तु दशरात्रेण प्रतिजज्ञे बलक्षयम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कृपाचार्यने दो महीनोंमें पाण्डव-सेनाके संहारकी बात कही; परंतु अश्वत्थामाने दस ही दिनोंमें शत्रुसेनाके संहारकी प्रतिज्ञा कर ली॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णस्तु पञ्चरात्रेण प्रतिजज्ञे महास्त्रवित्।
तच्छ्रुत्वा सूतपुत्रस्य वाक्यं सागरगासुतः ॥ २० ॥
जहास सस्वनं हासं वाक्यं चेदमुवाच ह।
न हि यावद् रणे पार्थं बाणशङ्खधनुर्धरम् ॥ २१ ॥
वासुदेवसमायुक्तं रथेनायान्तमाहवे ।
समागच्छसि राधेय तेनैवमभिमन्यसे ।
शक्यमेवं च भूयश्च त्वया वक्तुं यथेष्टतः ॥ २२ ॥
मूलम्
कर्णस्तु पञ्चरात्रेण प्रतिजज्ञे महास्त्रवित्।
तच्छ्रुत्वा सूतपुत्रस्य वाक्यं सागरगासुतः ॥ २० ॥
जहास सस्वनं हासं वाक्यं चेदमुवाच ह।
न हि यावद् रणे पार्थं बाणशङ्खधनुर्धरम् ॥ २१ ॥
वासुदेवसमायुक्तं रथेनायान्तमाहवे ।
समागच्छसि राधेय तेनैवमभिमन्यसे ।
शक्यमेवं च भूयश्च त्वया वक्तुं यथेष्टतः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बड़े-बड़े अस्त्रोंके ज्ञाता कर्णने पाँच ही दिनोंमें पाण्डवसेनाको नष्ट करनेकी प्रतिज्ञा की। सूतपुत्रका यह कथन सुनकर गंगानन्दन भीष्मजी ठहाका मारकर हँस पड़े और यह वचन बोले—‘राधापुत्र! जबतक युद्धभूमिमें शंख, बाण और धनुष धारण करनेवाले श्रीकृष्णसहित अर्जुनको तुम एक ही रथसे आते हुए नहीं देखते और जबतक उनके साथ तुम्हारी मुठभेड़ नहीं होती, तभीतक ऐसा अभिमान प्रकट करते हो, तुम इच्छानुसार और भी ऐसी बहुत-सी बहकी-बहकी बातें कह सकते हो’॥२०-२२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि अम्बोपाख्यानपर्वणि भीष्मादिशक्तिकथने त्रिनवत्यधिकशततमोऽध्याय ॥ १९३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत अम्बोपाख्यानपर्वमें भीष्म आदिके द्वारा अपनी शक्तिका वर्णनविषयक एक सौ तिरानबेवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१९३॥