१८६ अम्बातपस्यायाम्

भागसूचना

षडशीत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अम्बाकी कठोर तपस्या

मूलम् (वचनम्)

राम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्यक्षमेतल्लोकानां सर्वेषामेव भाविनि ।
यथाशक्त्या मया युद्धं कृतं वै पौरुषं परम् ॥ १ ॥

मूलम्

प्रत्यक्षमेतल्लोकानां सर्वेषामेव भाविनि ।
यथाशक्त्या मया युद्धं कृतं वै पौरुषं परम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परशुराम बोले— भाविनि! यह सब लोगोंने प्रत्यक्ष देखा है कि मैंने (तेरे लिये) पूरी शक्ति लगाकर युद्ध किया और महान् पुरुषार्थ दिखाया है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चैवमपि शक्नोमि भीष्मं शस्त्रभृतां वरम्।
विशेषयितुमत्यर्थमुत्तमास्त्राणि दर्शयन् ॥ २ ॥

मूलम्

न चैवमपि शक्नोमि भीष्मं शस्त्रभृतां वरम्।
विशेषयितुमत्यर्थमुत्तमास्त्राणि दर्शयन् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु इस प्रकार उत्तमोत्तम अस्त्र प्रकट करके भी मैं शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ भीष्मसे अपनी अधिक विशिष्टता नहीं दिखा सका॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा मे परमा शक्तिरेतन्मे परमं बलम्।
यथेष्टं गम्यतां भद्रे किमन्यद् वा करोमि ते ॥ ३ ॥

मूलम्

एषा मे परमा शक्तिरेतन्मे परमं बलम्।
यथेष्टं गम्यतां भद्रे किमन्यद् वा करोमि ते ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी अधिक-से-अधिक शक्ति, अधिक-से-अधिक बल इतना ही है। भद्रे! अब तेरी जहाँ इच्छा हो, चली जा, अथवा बता, तेरा दूसरा कौन-सा कार्य सिद्ध करूँ?॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्ममेव प्रपद्यस्व न तेऽन्या विद्यते गतिः।
निर्जितो ह्यस्मि भीष्मेण महास्त्राणि प्रमुञ्चता ॥ ४ ॥

मूलम्

भीष्ममेव प्रपद्यस्व न तेऽन्या विद्यते गतिः।
निर्जितो ह्यस्मि भीष्मेण महास्त्राणि प्रमुञ्चता ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अब तू भीष्मकी ही शरण ले। तेरे लिये दूसरी कोई गति नहीं है; क्योंकि महान् अस्त्रोंका प्रयोग करके भीष्मने मुझे जीत लिया है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा ततो रामो विनिःश्वस्य महामनाः।
तूष्णीमासीत् ततः कन्या प्रोवाच भृगुनन्दनम् ॥ ५ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा ततो रामो विनिःश्वस्य महामनाः।
तूष्णीमासीत् ततः कन्या प्रोवाच भृगुनन्दनम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर महामना परशुराम लंबी साँस खींचते हुए मौन हो गये। तब राजकन्या अम्बाने उन भृगुनन्दनसे कहा—॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन्नेवमेवैतद् यथाऽऽह भगवांस्तथा ।
अजेयो युधि भीष्मोऽयमपि देवैरुदारधीः ॥ ६ ॥

मूलम्

भगवन्नेवमेवैतद् यथाऽऽह भगवांस्तथा ।
अजेयो युधि भीष्मोऽयमपि देवैरुदारधीः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवन्! आपका कहना ठीक है। वास्तवमें ये उदारबुद्धि भीष्म युद्धमें देवताओंके लिये भी अजेय हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथाशक्ति यथोत्साहं मम कार्यं कृतं त्वया।
अनिवार्यं रणे वीर्यमस्त्राणि विविधानि च ॥ ७ ॥

मूलम्

यथाशक्ति यथोत्साहं मम कार्यं कृतं त्वया।
अनिवार्यं रणे वीर्यमस्त्राणि विविधानि च ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपने अपनी पूरी शक्ति लगाकर पूर्ण उत्साहके साथ मेरा कार्य किया है। युद्धमें ऐसा पराक्रम दिखाया है, जिसे भीष्मके सिवा दूसरा कोई रोक नहीं सकता था। इसी प्रकार आपने नाना प्रकारके दिव्यास्त्र भी प्रकट किये हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चैव शक्यते युद्धे विशेषयितुमन्ततः।
न चाहमेनं यास्यामि पुनर्भीष्मं कथंचन ॥ ८ ॥

मूलम्

न चैव शक्यते युद्धे विशेषयितुमन्ततः।
न चाहमेनं यास्यामि पुनर्भीष्मं कथंचन ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु अन्ततोगत्वा आप युद्धमें उनकी अपेक्षा अपनी विशेष्यता स्थापित न कर सके। मैं भी अब किसी प्रकार पुनः भीष्मके पास नहीं जाऊँगी॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गमिष्यामि तु तत्राहं यत्र भीष्मं तपोधन।
समरे पातयिष्यामि स्वयमेव भृगूद्वह ॥ ९ ॥

मूलम्

गमिष्यामि तु तत्राहं यत्र भीष्मं तपोधन।
समरे पातयिष्यामि स्वयमेव भृगूद्वह ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भृगुश्रेष्ठ तपोधन! अब मैं वहीं जाऊँगी, जहाँ ऐसी बन सकूँ कि समरभूमिमें स्वयं ही भीष्मको मार गिराऊँ’॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा ययौ कन्या रोषव्याकुललोचना।
तापस्ये धृतसंकल्पा सा मे चिन्तयती वधम् ॥ १० ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा ययौ कन्या रोषव्याकुललोचना।
तापस्ये धृतसंकल्पा सा मे चिन्तयती वधम् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर रोषभरे नेत्रोंवाली वह राजकन्या मेरे वधके उपायका चिन्तन करती हुई तपस्याके लिये दृढ़ संकल्प लेकर वहाँसे चली गयी॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो महेन्द्रं सह तैर्मुनिभिर्भृगुसत्तमः।
यथाऽऽगतं तथा सोऽगान्मामुपामन्त्र्य भारत ॥ ११ ॥

मूलम्

ततो महेन्द्रं सह तैर्मुनिभिर्भृगुसत्तमः।
यथाऽऽगतं तथा सोऽगान्मामुपामन्त्र्य भारत ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! तदनन्तर भृगुश्रेष्ठ परशुरामजी उन महर्षियोंके साथ मुझसे विदा ले जैसे आये थे, वैसे ही महेन्द्र पर्वतपर चले गये॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो रथं समारुह्य स्तूयमानो द्विजातिभिः।
प्रविश्य नगरं मात्रे सत्यवत्यै न्यवेदयम् ॥ १२ ॥
यथावृत्तं महाराज सा च मां प्रत्यनन्दत।
पुरुषांश्चादिशं प्राज्ञान् कन्यावृत्तान्तकर्मणि ॥ १३ ॥

मूलम्

ततो रथं समारुह्य स्तूयमानो द्विजातिभिः।
प्रविश्य नगरं मात्रे सत्यवत्यै न्यवेदयम् ॥ १२ ॥
यथावृत्तं महाराज सा च मां प्रत्यनन्दत।
पुरुषांश्चादिशं प्राज्ञान् कन्यावृत्तान्तकर्मणि ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! तत्पश्चात् मैंने भी ब्राह्मणके मुखसे अपनी प्रशंसा सुनते हुए रथपर आरूढ़ हो हस्तिनापुरमें आकर माता सत्यवतीसे सब समाचार यथार्थरूपसे निवेदन किया। माताने भी मेरा अभिनन्दन किया। इसके बाद मैंने कुछ बुद्धिमान् पुरुषोंको उस कन्याके वृत्तान्तका पता लगानेके कार्यमें नियुक्त कर दिया॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिवसे दिवसे ह्यस्या गतिजल्पितचेष्टितम्।
प्रत्याहरंश्च मे युक्ताः स्थिताः प्रियहिते सदा ॥ १४ ॥

मूलम्

दिवसे दिवसे ह्यस्या गतिजल्पितचेष्टितम्।
प्रत्याहरंश्च मे युक्ताः स्थिताः प्रियहिते सदा ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे लगाये हुए गुप्तचर सदा मेरे प्रिय एवं हितमें संलग्न रहनेवाले थे। वे प्रतिदिन उस कन्याकी गतिविधि, बोलचाल और चेष्टाका समाचार मेरे पास पहुँचाया करते थे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदैव हि वनं प्रायात् सा कन्या तपसे धृता।
तदैव व्यथितो दीनो गतचेता इवाभवम् ॥ १५ ॥

मूलम्

यदैव हि वनं प्रायात् सा कन्या तपसे धृता।
तदैव व्यथितो दीनो गतचेता इवाभवम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस दिन वह कन्या तपस्याका निश्चय करके वनमें गयी, उसी दिन मैं व्यथित, दीन और अचेत-सा हो गया॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि मां क्षत्रियः कश्चिद् वीर्येण व्यजयद् युधि।
ऋते ब्रह्मविदस्तात तपसा संशितव्रतात् ॥ १६ ॥

मूलम्

न हि मां क्षत्रियः कश्चिद् वीर्येण व्यजयद् युधि।
ऋते ब्रह्मविदस्तात तपसा संशितव्रतात् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! जो तपस्याके द्वारा कठोर व्रतका पालन करनेवाले हैं, उन ब्रह्मज्ञ ब्राह्मण परशुरामजीको छोड़कर कोई भी क्षत्रिय अबतक युद्धमें मुझे पराजित नहीं कर सका है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि चैतन्मया राजन् नारदेऽपि निवेदितम्।
व्यासे चैव तथा कार्यं तौ चोभौ मामवोचताम् ॥ १७ ॥
न विषादस्त्वया कार्यो भीष्म काशिसुतां प्रति।
दैवं पुरुषकारेण को निवर्तितुमुत्सहेत् ॥ १८ ॥

मूलम्

अपि चैतन्मया राजन् नारदेऽपि निवेदितम्।
व्यासे चैव तथा कार्यं तौ चोभौ मामवोचताम् ॥ १७ ॥
न विषादस्त्वया कार्यो भीष्म काशिसुतां प्रति।
दैवं पुरुषकारेण को निवर्तितुमुत्सहेत् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मैंने यह वृत्तान्त देवर्षि नारद और महर्षि व्याससे भी निवेदन किया था। उस समय उन दोनोंने मुझसे कहा—‘भीष्म! तुम्हें काशिराजकी कन्याके विषयमें तनिक भी विषाद नहीं करना चाहिये। दैवके विधानको पुरुषार्थके द्वारा कौन टाल सकता है?’॥१७-१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा कन्या तु महाराज प्रविश्याश्रममण्डलम्।
यमुनातीरमाश्रित्य तपस्तेपेऽतिमानुषम् ॥ १९ ॥

मूलम्

सा कन्या तु महाराज प्रविश्याश्रममण्डलम्।
यमुनातीरमाश्रित्य तपस्तेपेऽतिमानुषम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! फिर उस कन्याने आश्रममण्डलमें पहुँचकर यमुनाके तटका आश्रय ले ऐसी कठोर तपस्या की, जो मानवीय शक्तिसे परे है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निराहारा कृशा रुक्षा जटिला मलपङ्किनी।
षण्मासान् वायुभक्षा च स्थाणुभूता तपोधना ॥ २० ॥

मूलम्

निराहारा कृशा रुक्षा जटिला मलपङ्किनी।
षण्मासान् वायुभक्षा च स्थाणुभूता तपोधना ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसने भोजन छोड़ दिया, वह दुबली तथा रुक्ष हो गयी। सिरपर केशोंकी जटा बन गयी। शरीरमें मैल और कीचड़ जम गयी। वह तपोधना कन्या छः महीनोंतक केवल वायु पीकर ठूँठे काठकी भाँति निश्चलभावसे खड़ी रही॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यमुनाजलमाश्रित्य संवत्सरमथापरम् ।
उदवासं निराहारा पारयामास भाविनी ॥ २१ ॥

मूलम्

यमुनाजलमाश्रित्य संवत्सरमथापरम् ।
उदवासं निराहारा पारयामास भाविनी ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

फिर एक वर्षतक यमुनाजीके जलमें घुसकर बिना कुछ खाये-पीये वह भाविनी राजकन्या जलमें ही रहकर तपस्या करती रही॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शीर्णपर्णेन चैकेन पारयामास सा परम्।
संवत्सरं तीव्रकोपा पादाङ्‌गुष्ठाग्रधिष्ठिता ॥ २२ ॥

मूलम्

शीर्णपर्णेन चैकेन पारयामास सा परम्।
संवत्सरं तीव्रकोपा पादाङ्‌गुष्ठाग्रधिष्ठिता ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् तीव्र क्रोधसे युक्त हुई अम्बाने पैरके अँगूठेके अग्रभागपर खड़ी हो अपने-आप झड़कर गिरा हुआ केवल एक सूखा पत्ता खाकर एक वर्ष व्यतीत किया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं द्वादश वर्षाणि तापयामास रोदसी।
निवर्त्यमानापि च सा ज्ञातिभिर्नैव शक्यते ॥ २३ ॥

मूलम्

एवं द्वादश वर्षाणि तापयामास रोदसी।
निवर्त्यमानापि च सा ज्ञातिभिर्नैव शक्यते ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार बारह वर्षोंतक कठोर तपस्यामें संलग्न हो उसने पृथ्वी और आकाशको संतप्त कर दिया। उसके जातिवालोंने आकर उसे उस कठोर व्रतसे निवृत्त करनेकी चेष्टा की; परंतु उन्हें सफलता न मिल सकी॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽगमद् वत्सभूमिं सिद्धचारणसेविताम् ।
आश्रमं पुण्यशीलानां तापसानां महात्मनाम् ॥ २४ ॥
तत्र पुण्येषु तीर्थेषु साऽऽप्लुताङ्गी दिवानिशम्।
व्यचरत् काशिकन्या सा यथाकामविचारिणी ॥ २५ ॥

मूलम्

ततोऽगमद् वत्सभूमिं सिद्धचारणसेविताम् ।
आश्रमं पुण्यशीलानां तापसानां महात्मनाम् ॥ २४ ॥
तत्र पुण्येषु तीर्थेषु साऽऽप्लुताङ्गी दिवानिशम्।
व्यचरत् काशिकन्या सा यथाकामविचारिणी ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वह सिद्धों और चारणोंद्वारा सेवित वत्सदेशकी भूमिमें गयी और वहाँ पुण्यशील तपस्वी महात्माओंके आश्रमोंमें विचरने लगी। काशिराजकी वह कन्या दिन-रात वहाँके पुण्य तीर्थोंमें स्नान करती और अपनी इच्छाके अनुसार सर्वत्र विचरती रहती थी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नन्दाश्रमे महाराज तथोलूकाश्रमे शुभे।
चवनस्याश्रमे चैव ब्रह्मणः स्थान एव च ॥ २६ ॥
प्रयागे देवयजने देवारण्येषु चैव ह।
भोगवत्यां महाराज कौशिकस्याश्रमे तथा ॥ २७ ॥
माण्डव्यस्याश्रमे राजन् दिलीपस्याश्रमे तथा।
रामह्रदे च कौरव्य पैलगर्गस्य चाश्रमे ॥ २८ ॥
एतेषु तीर्थेषु तदा काशिकन्या विशाम्पते।
आप्लावयत गात्राणि व्रतमास्थाय दुष्करम् ॥ २९ ॥

मूलम्

नन्दाश्रमे महाराज तथोलूकाश्रमे शुभे।
चवनस्याश्रमे चैव ब्रह्मणः स्थान एव च ॥ २६ ॥
प्रयागे देवयजने देवारण्येषु चैव ह।
भोगवत्यां महाराज कौशिकस्याश्रमे तथा ॥ २७ ॥
माण्डव्यस्याश्रमे राजन् दिलीपस्याश्रमे तथा।
रामह्रदे च कौरव्य पैलगर्गस्य चाश्रमे ॥ २८ ॥
एतेषु तीर्थेषु तदा काशिकन्या विशाम्पते।
आप्लावयत गात्राणि व्रतमास्थाय दुष्करम् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! शुभकारक नन्दाश्रम, उलूकाश्रम, च्यवनाश्रम, ब्रह्मस्थान, देवताओंके यज्ञस्थान प्रयाग, देवारण्य, भोगवती, कौशिकाश्रम, माण्डव्याश्रम, दिलीपाश्रम, रामह्रद और पैलगर्गाश्रम—क्रमशः इन सभी तीर्थोंमें उन दिनों काशिराजकी कन्याने कठोर व्रतका आश्रय ले स्नान किया॥२६—२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तामब्रवीच्च कौरव्य मम माता जले स्थिता।
किमर्थं क्लिश्यसे भद्रे तथ्यमेव वदस्व मे ॥ ३० ॥

मूलम्

तामब्रवीच्च कौरव्य मम माता जले स्थिता।
किमर्थं क्लिश्यसे भद्रे तथ्यमेव वदस्व मे ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! उस समय मेरी माता गंगाने जलमें प्रकट होकर अम्बासे कहा—‘भद्रे! तू किसलिये शरीरको इतना क्लेश देती है। मुझे ठीक-ठीक बता’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सैनामथाब्रवीद् राजन् कृताञ्जलिरनिन्दिता ।
भीष्मेण समरे रामो निर्जितश्चारुलोचने ॥ ३१ ॥
कोऽन्यस्तमुत्सहेज्जेतुमुद्यतेषुं महीपतिः ।
साहं भीष्मविनाशाय तपस्तप्स्ये सुदारुणम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

सैनामथाब्रवीद् राजन् कृताञ्जलिरनिन्दिता ।
भीष्मेण समरे रामो निर्जितश्चारुलोचने ॥ ३१ ॥
कोऽन्यस्तमुत्सहेज्जेतुमुद्यतेषुं महीपतिः ।
साहं भीष्मविनाशाय तपस्तप्स्ये सुदारुणम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तब साध्वी अम्बाने हाथ जोड़कर गंगाजीसे कहा—‘चारुलोचने! भीष्मने युद्धमें परशुरामजीको परास्त कर दिया; फिर दूसरा कौन ऐसा राजा है, जो धनुष-बाण लेकर खड़े हुए भीष्मको युद्धमें परास्त कर सके? अतः मैं भीष्मके विनाशके लिये अत्यन्त कठोर तपस्या कर रही हूँ॥३१-३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विचरामि महीं देवि यथा हन्यामहं नृपम्।
एतद् व्रतफलं देवि परमस्मिन् यथा हि मे ॥ ३३ ॥

मूलम्

विचरामि महीं देवि यथा हन्यामहं नृपम्।
एतद् व्रतफलं देवि परमस्मिन् यथा हि मे ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देवि! मैं इस भूतलपर विभिन्न तीर्थोंमें इसीलिये विचर रही हूँ कि योग्य बनकर मैं स्वयं ही भीष्मको मार सकूँ। भगवति! इस जगत्‌में मेरे व्रत और तपस्याका यही सर्वोत्तम फल है, जैसा मैंने आपको बताया है’॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽब्रवीत् सागरगा जिह्मं चरसि भाविनि।
नैष कामोऽनवद्याङ्गि शक्यः प्राप्तुं त्वयाबले ॥ ३४ ॥

मूलम्

ततोऽब्रवीत् सागरगा जिह्मं चरसि भाविनि।
नैष कामोऽनवद्याङ्गि शक्यः प्राप्तुं त्वयाबले ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब सतरगामिनी गंगानदीने उससे कहा—‘भाविनि! तू कुटिल आचरण कर रही है। सुन्दर अंगोंवाली अबले! तेरा यह मनोरथ कभी पूर्ण नहीं हो सकता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि भीष्मविनाशाय काश्ये चरसि वै व्रतम्।
व्रतस्था च शरीरं त्वं यदि नाम विमोक्ष्यसि ॥ ३५ ॥
नदी भविष्यसि शुभे कुटिला वार्षिकोदका।
दुस्तीर्था न तु विज्ञेया वार्षिकी नाष्टमासिकी ॥ ३६ ॥

मूलम्

यदि भीष्मविनाशाय काश्ये चरसि वै व्रतम्।
व्रतस्था च शरीरं त्वं यदि नाम विमोक्ष्यसि ॥ ३५ ॥
नदी भविष्यसि शुभे कुटिला वार्षिकोदका।
दुस्तीर्था न तु विज्ञेया वार्षिकी नाष्टमासिकी ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘काशिराजकन्ये! यदि भीष्मके विनाशके लिये तू प्रयत्न कर रही है और व्रतमें स्थित रहकर ही यदि तू अपना शरीर छोड़ेगी तो शुभे! तुझे टेढ़ी-मेढ़ी नदी होना पड़ेगा। केवल बरसातमें ही तेरे भीतर जल दिखायी देगा। तेरे भीतर तीर्थ या स्नानकी सुविधा बड़ी कठिनाईसे होगी। तू केवल बरसातकी नदी समझी जायगी। शेष आठ महीनोंमें तेरा पता नहीं लगेगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमग्राहवती घोरा सर्वभूतभयङ्करी ।
एवमुक्त्वा ततो राजन् काशिकन्यां न्यवर्तत ॥ ३७ ॥
माता मम महाभागा स्मयमानेव भाविनी।
कदाचिदष्टमे मासि कदाचिद् दशमे तथा।
न प्राश्नीतोदकमपि पुनः सा वरवर्णिनी ॥ ३८ ॥

मूलम्

भीमग्राहवती घोरा सर्वभूतभयङ्करी ।
एवमुक्त्वा ततो राजन् काशिकन्यां न्यवर्तत ॥ ३७ ॥
माता मम महाभागा स्मयमानेव भाविनी।
कदाचिदष्टमे मासि कदाचिद् दशमे तथा।
न प्राश्नीतोदकमपि पुनः सा वरवर्णिनी ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बरसातमें भी भयंकर ग्राहोंसे भरी रहनेके कारण तू समस्त प्राणियोंके लिये अत्यन्त भयंकर और घोरस्वरूपा बनी रहेगी।’ राजन्! काशिराजकी कन्यासे ऐसा कहकर मेरी परम सौभाग्यशालिनी माता गंगा देवी मुसकराती हुई लौट गयीं। तदनन्तर वह सुन्दरी कन्या पुनः कठोर तपस्यामें प्रवृत्त हो कभी आठवें और कभी दसवें महीनेतक जल भी नहीं पीती थी॥३७-३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा वत्सभूमिं कौरव्य तीर्थलोभात् ततस्ततः।
पतिता परिधावन्ती पुनः काशिपतेः सुता ॥ ३९ ॥

मूलम्

सा वत्सभूमिं कौरव्य तीर्थलोभात् ततस्ततः।
पतिता परिधावन्ती पुनः काशिपतेः सुता ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कुरुनन्दन! काशिराजकी वह कन्या तीर्थसेवनके लोभसे वत्सदेशकी भूमिपर इधर-उधर दौड़ती फिरती थी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा नदी वत्सभूम्यां तु प्रथिताम्बेति भारत।
वार्षिकी ग्राहबहुला दुस्तीर्था कुटिला तथा ॥ ४० ॥

मूलम्

सा नदी वत्सभूम्यां तु प्रथिताम्बेति भारत।
वार्षिकी ग्राहबहुला दुस्तीर्था कुटिला तथा ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! कुछ कालके पश्चात् वह वत्सदेशकी भूमिमें अम्बा नामसे प्रसिद्ध नदी हुई, जो केवल बरसातमें जलसे भरी रहती थी। उसमें बहुत-से ग्राह निवास करते थे। उसके भीतर उतरना और स्नान आदि तीर्थकृत्योंका सम्पादन बहुत ही कठिन था। वह नदी टेढ़ी-मेढ़ी होकर बहती थी॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा कन्या तपसा तेन देहार्धेन व्यजायत।
नदी च राजन् वत्सेषु कन्या चैवाभवत् तदा ॥ ४१ ॥

मूलम्

सा कन्या तपसा तेन देहार्धेन व्यजायत।
नदी च राजन् वत्सेषु कन्या चैवाभवत् तदा ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! राजकन्या अम्बा उस तपस्याके प्रभावसे आधे शरीरसे तो अम्बा नामकी नदी हो गयी और आधे अंगसे वत्सदेशमें ही एक कन्या होकर प्रकट हुई॥४१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि अम्बोपाख्यानपर्वणि अम्बातपस्यायां षडशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १८६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत अम्बोपाख्यानपर्वमें अम्बाका तपस्याविषयक एक सौ छियासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१८६॥