भागसूचना
पञ्चाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
देवताओंके मना करनेसे भीष्मका प्रस्वापनास्त्रको प्रयोगमें न लाना तथा पितर, देवता और गंगाके आग्रहसे भीष्म और परशुरामके युद्धकी समाप्ति
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो हलहलाशब्दो दिवि राजन् महानभूत्।
प्रस्वापं भीष्म मा स्राक्षीरिति कौरवनन्दन ॥ १ ॥
मूलम्
ततो हलहलाशब्दो दिवि राजन् महानभूत्।
प्रस्वापं भीष्म मा स्राक्षीरिति कौरवनन्दन ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! कौरवनन्दन! तदनन्तर ‘भीष्म! प्रस्वापनास्त्रका प्रयोग न करो’ इस प्रकार आकाशमें महान् कोलाहल मच गया॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अयुञ्जमेव चैवाहं तदस्त्रं भृगुनन्दने।
प्रस्वापं मां प्रयुञ्जानं नारदो वाक्यमब्रवीत् ॥ २ ॥
मूलम्
अयुञ्जमेव चैवाहं तदस्त्रं भृगुनन्दने।
प्रस्वापं मां प्रयुञ्जानं नारदो वाक्यमब्रवीत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तथापि मैंने भृगुनन्दन परशुरामजीको लक्ष्य करके उस अस्त्रको धनुषपर चढ़ा ही लिया। मुझे प्रस्वापनास्त्रका प्रयोग करते देख नारदजीने इस प्रकार कहा—॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एते वियति कौरव्य दिवि देवगणाः स्थिताः।
ते त्वां निवारयन्त्यद्य प्रस्वापं मा प्रयोजय ॥ ३ ॥
मूलम्
एते वियति कौरव्य दिवि देवगणाः स्थिताः।
ते त्वां निवारयन्त्यद्य प्रस्वापं मा प्रयोजय ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कुरुनन्दन! ये आकाशमें स्वर्गलोकके देवता खड़े हैं। ये सब-के-सब इस समय तुम्हें मना कर रहे हैं, तुम प्रस्वापनास्त्रका प्रयोग न करो॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रामस्तपस्वी ब्रह्मण्यो ब्राह्मणश्च गुरुश्च ते।
तस्यावमानं कौरव्य मा स्म कार्षीः कथंचन ॥ ४ ॥
मूलम्
रामस्तपस्वी ब्रह्मण्यो ब्राह्मणश्च गुरुश्च ते।
तस्यावमानं कौरव्य मा स्म कार्षीः कथंचन ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘परशुरामजी तपस्वी, ब्राह्मणभक्त, ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मण और तुम्हारे गुरु हैं। कुरुकुलरत्न! तुम किसी तरह भी उनका अपमान न करो’॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽपश्यं दिविष्ठान् वै तानष्टौ ब्रह्मवादिनः।
ते मां स्मयन्तो राजेन्द्र शनकैरिदमब्रुवन् ॥ ५ ॥
मूलम्
ततोऽपश्यं दिविष्ठान् वै तानष्टौ ब्रह्मवादिनः।
ते मां स्मयन्तो राजेन्द्र शनकैरिदमब्रुवन् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! तत्पश्चात् मैंने आकाशमें खड़े हुए उन आठों ब्रह्मवादी वसुओंको देखा। वे मुसकराते हुए मुझसे धीरे-धीरे इस प्रकार बोले—॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथाऽऽह भरतश्रेष्ठ नारदस्तत् तथा कुरु।
एतद्धि परमं श्रेयो लोकानां भरतर्षभ ॥ ६ ॥
मूलम्
यथाऽऽह भरतश्रेष्ठ नारदस्तत् तथा कुरु।
एतद्धि परमं श्रेयो लोकानां भरतर्षभ ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भरतश्रेष्ठ! नारदजी जैसा कहते हैं, वैसा करो। भरतकुलतिलक! यही सम्पूर्ण जगत्के लिये परम कल्याणकारी होगा’॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्च प्रतिसंहृत्य तदस्त्रं स्वापनं महत्।
ब्रह्मास्त्रं दीपयांचक्रे तस्मिन् युधि यथाविधि ॥ ७ ॥
मूलम्
ततश्च प्रतिसंहृत्य तदस्त्रं स्वापनं महत्।
ब्रह्मास्त्रं दीपयांचक्रे तस्मिन् युधि यथाविधि ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब मैंने उस महान् प्रस्वापनास्त्रको धनुषसे उतार लिया और उस युद्धमें विधिपूर्वक ब्रह्मास्त्रको ही प्रकाशित किया॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रामो हृषितो राजसिंह
दृष्ट्वा तदस्त्रं विनिवर्तितं वै।
जितोऽस्मि भीष्मेण सुमन्दबुद्धि-
रित्येव वाक्यं सहसा व्यमुञ्चत् ॥ ८ ॥
मूलम्
ततो रामो हृषितो राजसिंह
दृष्ट्वा तदस्त्रं विनिवर्तितं वै।
जितोऽस्मि भीष्मेण सुमन्दबुद्धि-
रित्येव वाक्यं सहसा व्यमुञ्चत् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजसिंह! मैंने प्रस्वापनास्त्रको उतार लिया है—यह देखकर परशुरामजी बड़े प्रसन्न हुए। उनके मुखसे सहसा यह वाक्य निकल पड़ा कि ‘मुझ मन्दबुद्धिको भीष्मने जीत लिया’॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽपश्यत् पितरं जामदग्न्यः
पितुस्तथा पितरं चास्य मान्यम्।
ते तत्र चैनं परिवार्य तस्थु-
रूचुश्चैनं सान्त्वपूर्वं तदानीम् ॥ ९ ॥
मूलम्
ततोऽपश्यत् पितरं जामदग्न्यः
पितुस्तथा पितरं चास्य मान्यम्।
ते तत्र चैनं परिवार्य तस्थु-
रूचुश्चैनं सान्त्वपूर्वं तदानीम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसके बाद जमदग्निकुमार परशुरामने अपने पिता जमदग्निको तथा उनके भी माननीय पिता ऋचीक मुनिको देखा। वे सब पितर उन्हें चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये और उस समय उन्हें सान्त्वना देते हुए बोले॥९॥
मूलम् (वचनम्)
पितर ऊचुः
विश्वास-प्रस्तुतिः
मा स्मैवं साहसं तात पुनः कार्षीः कथंचन।
भीष्मेण संयुगं गन्तुं क्षत्रियेण विशेषतः ॥ १० ॥
मूलम्
मा स्मैवं साहसं तात पुनः कार्षीः कथंचन।
भीष्मेण संयुगं गन्तुं क्षत्रियेण विशेषतः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पितरोंने कहा— तात! फिर कभी किसी प्रकार भी ऐसा साहस न करना। भीष्म और विशेषतः क्षत्रियके साथ युद्धभूमिमें उतरना अब तुम्हारे लिये उचित नहीं है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षत्रियस्य तु धर्मोऽयं यद् युद्धं भृगुनन्दन।
स्वाध्यायो व्रतचर्याथ ब्राह्मणानां परं धनम् ॥ ११ ॥
मूलम्
क्षत्रियस्य तु धर्मोऽयं यद् युद्धं भृगुनन्दन।
स्वाध्यायो व्रतचर्याथ ब्राह्मणानां परं धनम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भृगुनन्दन! क्षत्रियका तो युद्ध करना धर्म ही है; किंतु ब्राह्मणोंके लिये वेदोंका स्वाध्याय तथा उत्तम व्रतोंका पालन ही परम धर्म है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं निमित्ते कस्मिंश्चिदस्माभिः प्रागुदाहृतम्।
शस्त्रधारणमत्युग्रं तच्चाकार्यं कृतं त्वया ॥ १२ ॥
मूलम्
इदं निमित्ते कस्मिंश्चिदस्माभिः प्रागुदाहृतम्।
शस्त्रधारणमत्युग्रं तच्चाकार्यं कृतं त्वया ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह बात पहले भी किसी अवसरपर हमने तुमसे कही थी। शस्त्र उठाना अत्यन्त भयंकर कर्म है; अतः तुमने यह न करनेयोग्य कार्य ही किया है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वत्स पर्याप्तमेतावद् भीष्मेण सह संयुगे।
विमर्दस्ते महाबाहो व्यपयाहि रणादितः ॥ १३ ॥
मूलम्
वत्स पर्याप्तमेतावद् भीष्मेण सह संयुगे।
विमर्दस्ते महाबाहो व्यपयाहि रणादितः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहो! वत्स! भीष्मके साथ युद्धमें उतरकर जो तुमने इतना विध्वंसात्मक कार्य किया है, यही बहुत हो गया। अब तुम इस संग्रामसे हट जाओ॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पर्याप्तमेतद् भद्रं ते तव कार्मुकधारणम्।
विसर्जयैतद् दुर्धर्ष तपस्तप्यस्व भार्गव ॥ १४ ॥
एष भीष्मः शान्तनवो देवैः सर्वैर्निवारितः।
निवर्तस्व रणादस्मादिति चैव प्रसादितः ॥ १५ ॥
रामेण सह मा योत्सीर्गुरुणेति पुनः पुनः।
न हि रामो रणे जेतुं त्वया न्याय्यः कुरूद्वह॥१६॥
मानं कुरुष्व गाङ्गेय ब्राह्मणस्य रणाजिरे।
मूलम्
पर्याप्तमेतद् भद्रं ते तव कार्मुकधारणम्।
विसर्जयैतद् दुर्धर्ष तपस्तप्यस्व भार्गव ॥ १४ ॥
एष भीष्मः शान्तनवो देवैः सर्वैर्निवारितः।
निवर्तस्व रणादस्मादिति चैव प्रसादितः ॥ १५ ॥
रामेण सह मा योत्सीर्गुरुणेति पुनः पुनः।
न हि रामो रणे जेतुं त्वया न्याय्यः कुरूद्वह॥१६॥
मानं कुरुष्व गाङ्गेय ब्राह्मणस्य रणाजिरे।
अनुवाद (हिन्दी)
भृगुनन्दन! तुम्हारा कल्याण हो। दुर्धर्ष वीर! तुमने जो धनुष उठा लिया, यही पर्याप्त है। अब इसे त्याग दो और तपस्या करो। देखो, इन सम्पूर्ण देवताओंने शान्तनु-नन्दन भीष्मको भी रोक दिया है। वे उन्हें प्रसन्न करके यह बात कह रहे हैं कि ‘तुम युद्धसे निवृत्त हो जाओ। परशुराम तुम्हारे गुरु हैं। तुम उनके साथ बार-बार युद्ध न करो। कुरुश्रेष्ठ! परशुरामको युद्धमें जीतना तुम्हारे लिये कदापि न्यायसंगत नहीं है। गंगानन्दन! तुम इस समरांगणमें अपने ब्राह्मणगुरुका सम्मान करो’॥१४—१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयं तु गुरवस्तुभ्यं तस्मात् त्वां वारयामहे ॥ १७ ॥
भीष्मो वसूनामन्यतमो दिष्ट्या जीवसि पुत्रक।
मूलम्
वयं तु गुरवस्तुभ्यं तस्मात् त्वां वारयामहे ॥ १७ ॥
भीष्मो वसूनामन्यतमो दिष्ट्या जीवसि पुत्रक।
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा परशुराम! हम जो तुम्हारे गुरुजन—आदरणीय पितर हैं। इसलिये तुम्हें रोक रहे हैं। पुत्र! भीष्म वसुओंमेंसे एक वसु हैं। तुम अपना सौभाग्य ही समझो कि उनके साथ युद्ध करके अबतक जीवित हो॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गाङ्गेयः शान्तनोः पुत्रो वसुरेष महायशाः ॥ १८ ॥
कथं शक्यस्त्वया जेतुं निवर्तस्वेह भार्गव।
मूलम्
गाङ्गेयः शान्तनोः पुत्रो वसुरेष महायशाः ॥ १८ ॥
कथं शक्यस्त्वया जेतुं निवर्तस्वेह भार्गव।
अनुवाद (हिन्दी)
भृगुनन्दन! गंगा और शान्तनुके ये महायशस्वी पुत्र भीष्म साक्षात् वसु ही हैं। इन्हें तुम कैसे जीत सकते हो? अतः यहाँ युद्धसे निवृत्त हो जाओ॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्जुनः पाण्डवश्रेष्ठः पुरंदरसुतो बली ॥ १९ ॥
नरः प्रजापतिर्वीरः पूर्वदेवः सनातनः।
सव्यसाचीति विख्यातस्त्रिषु लोकेषु वीर्यवान्।
भीष्ममृत्युर्यथाकालं विहितो वै स्वयम्भुवा ॥ २० ॥
मूलम्
अर्जुनः पाण्डवश्रेष्ठः पुरंदरसुतो बली ॥ १९ ॥
नरः प्रजापतिर्वीरः पूर्वदेवः सनातनः।
सव्यसाचीति विख्यातस्त्रिषु लोकेषु वीर्यवान्।
भीष्ममृत्युर्यथाकालं विहितो वै स्वयम्भुवा ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्राचीन सनातन देवता और प्रजापालक वीरवर भगवान् नर इन्द्रपुत्र महाबली पाण्डवश्रेष्ठ अर्जुनके रूपमें प्रकट होंगे तथा पराक्रमसम्पन्न होकर तीनों लोकोंमें सव्यसाचीके नामसे विख्यात होंगे। स्वयम्भू ब्रह्माजीने उन्हींको यथासमय भीष्मकी मृत्युमें कारण बनाया है॥१९-२०॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तः स पितृभिः पितॄन् रामोऽब्रवीदिदम्।
नाहं युधि निवर्तेयमिति मे व्रतमाहितम् ॥ २१ ॥
मूलम्
एवमुक्तः स पितृभिः पितॄन् रामोऽब्रवीदिदम्।
नाहं युधि निवर्तेयमिति मे व्रतमाहितम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! पितरोंके ऐसा कहनेपर परशुरामजीने उनसे इस प्रकार कहा—‘मैं युद्धमें पीठ नहीं दिखाऊँगा। यह मेरा चिरकालसे धारण किया हुआ व्रत है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न निवर्तितपूर्वश्च कदाचिद् रणमूर्धनि।
निवर्त्यतामापगेयः कामं युद्धात् पितामहाः ॥ २२ ॥
न त्वहं विनिवर्तिष्ये युद्धादस्मात् कथंचन।
मूलम्
न निवर्तितपूर्वश्च कदाचिद् रणमूर्धनि।
निवर्त्यतामापगेयः कामं युद्धात् पितामहाः ॥ २२ ॥
न त्वहं विनिवर्तिष्ये युद्धादस्मात् कथंचन।
अनुवाद (हिन्दी)
‘आजसे पहले भी मैं कभी किसी युद्धसे पीछे नहीं हटा हूँ। अतः पितामहो! आपलोग अपनी इच्छाके अनुसार पहले गंगानन्दन भीष्मको ही युद्धसे निवृत्त कीजिये। मैं किसी प्रकार पहले स्वयं ही इस युद्धसे पीछे नहीं हटूँगा’॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते मुनयो राजन्नॄचीकप्रमुखास्तदा ॥ २३ ॥
नारदेनैव सहिताः समागम्येदमब्रुवन् ।
निवर्तस्व रणात् तात मानयस्व द्विजोत्तमम् ॥ २४ ॥
मूलम्
ततस्ते मुनयो राजन्नॄचीकप्रमुखास्तदा ॥ २३ ॥
नारदेनैव सहिताः समागम्येदमब्रुवन् ।
निवर्तस्व रणात् तात मानयस्व द्विजोत्तमम् ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तब वे ऋचीक आदि मुनि नारदजीके साथ मेरे पास आये और इस प्रकार बोले—‘तात! तुम्हीं युद्धसे निवृत्त हो जाओ और द्विजश्रेष्ठ परशुरामजीका मान रखो’॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इत्यवोचमहं तांश्च क्षत्रधर्मव्यपेक्षया ।
मम व्रतमिदं लोके नाहं युद्धात् कदाचन ॥ २५ ॥
विमुखो विनिवर्तेयं पृष्ठतोऽभ्याहतः शरैः।
नाहं लोभान्न कार्पण्यान्न भयान्नार्थकारणात् ॥ २६ ॥
त्यजेयं शाश्वतं धर्ममिति मे निश्चिता मतिः।
मूलम्
इत्यवोचमहं तांश्च क्षत्रधर्मव्यपेक्षया ।
मम व्रतमिदं लोके नाहं युद्धात् कदाचन ॥ २५ ॥
विमुखो विनिवर्तेयं पृष्ठतोऽभ्याहतः शरैः।
नाहं लोभान्न कार्पण्यान्न भयान्नार्थकारणात् ॥ २६ ॥
त्यजेयं शाश्वतं धर्ममिति मे निश्चिता मतिः।
अनुवाद (हिन्दी)
तब मैंने क्षत्रियधर्मको लक्ष्य करके उनसे कहा—‘महर्षियो! संसारमें मेरा यह व्रत प्रसिद्ध है कि मैं पीठपर बाणोंकी चोट खाता हुआ कदापि युद्धसे निवृत्त नहीं हो सकता। मेरा यह निश्चित विचार है कि मैं लोभसे, कायरता या दीनतासे, भयसे अथवा किसी स्वार्थके कारण भी क्षत्रियोंके सनातन धर्मका त्याग नहीं कर सकता’॥२५-२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते मुनयः सर्वे नारदप्रमुखा नृप ॥ २७ ॥
भागीरथी च मे माता रणमध्यं प्रपेदिरे।
तथैवात्तशरो धन्वी तथैव दृढनिश्चयः।
स्थिरोऽहमाहवे योद्धुं ततस्ते राममब्रुवन् ॥ २८ ॥
समेत्य सहिता भूयः समरे भृगुनन्दनम्।
मूलम्
ततस्ते मुनयः सर्वे नारदप्रमुखा नृप ॥ २७ ॥
भागीरथी च मे माता रणमध्यं प्रपेदिरे।
तथैवात्तशरो धन्वी तथैव दृढनिश्चयः।
स्थिरोऽहमाहवे योद्धुं ततस्ते राममब्रुवन् ॥ २८ ॥
समेत्य सहिता भूयः समरे भृगुनन्दनम्।
अनुवाद (हिन्दी)
इतना कहकर मैं पूर्ववत् धनुष-बाण लिये दृढ़ निश्चयके साथ समरभूमिमें युद्ध करनेके लिये डटा रहा। राजन्! तब वे नारद आदि सम्पूर्ण ऋषि और मेरी माता गंगा सब लोग उस रणक्षेत्रमें एकत्र हुए और पुनः एक साथ मिलकर उस समरांगणमें भृगुनन्दन परशुरामजीके पास जाकर इस प्रकार बोले—॥२७-२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नावनीतं हि हृदयं विप्राणां शाम्य भार्गव ॥ २९ ॥
राम राम निवर्तस्व युद्धादस्माद् द्विजोत्तम।
अवध्यो वै त्वया भीष्मस्त्वं च भीष्मस्य भार्गव ॥ ३० ॥
मूलम्
नावनीतं हि हृदयं विप्राणां शाम्य भार्गव ॥ २९ ॥
राम राम निवर्तस्व युद्धादस्माद् द्विजोत्तम।
अवध्यो वै त्वया भीष्मस्त्वं च भीष्मस्य भार्गव ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भृगुनन्दन! ब्राह्मणोंका हृदय नवनीतके समान कोमल होता है; अतः शान्त हो जाओ। विप्रवर परशुराम! इस युद्धसे निवृत्त हो जाओ। भार्गव! तुम्हारे लिये भीष्म और भीष्मके लिये तुम अवध्य हो’॥२९-३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ब्रुवन्तस्ते सर्वे प्रतिरुध्य रणाजिरम्।
न्यासयांचक्रिरे शस्त्रं पितरो भृगुनन्दनम् ॥ ३१ ॥
मूलम्
एवं ब्रुवन्तस्ते सर्वे प्रतिरुध्य रणाजिरम्।
न्यासयांचक्रिरे शस्त्रं पितरो भृगुनन्दनम् ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार कहते हुए उन सब लोगोंने रणस्थलीको घेर लिया और पितरोंने भृगुनन्दन परशुरामसे अस्त्र-शस्त्र रखवा दिया॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽहं पुनरेवाथ तानष्टौ ब्रह्मवादिनः।
अद्राक्षं दीप्यमानान् वै ग्रहानष्टाविवोदितान् ॥ ३२ ॥
मूलम्
ततोऽहं पुनरेवाथ तानष्टौ ब्रह्मवादिनः।
अद्राक्षं दीप्यमानान् वै ग्रहानष्टाविवोदितान् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसी समय मैंने पुनः उन आठों ब्रह्मवादी वसुओंको आकाशमें उदित हुए आठ ग्रहोंकी भाँति प्रकाशित होते देखा॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते मां सप्रणयं वाक्यमब्रुवन् समरे स्थितम्।
प्रैहि रामं महाबाहो गुरुं लोकहितं कुरु ॥ ३३ ॥
मूलम्
ते मां सप्रणयं वाक्यमब्रुवन् समरे स्थितम्।
प्रैहि रामं महाबाहो गुरुं लोकहितं कुरु ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने समरभूमिमें डटे हुए मुझसे प्रेमपूर्वक कहा—‘महाबाहो! तुम अपने गुरु परशुरामजीके पास जाओ और जगत्का कल्याण करो’॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दृष्ट्वा निवर्तितं राम सुहृद्वाक्येन तेन वै।
लोकानां च हितं कुर्वन्नहमप्याददे वचः ॥ ३४ ॥
मूलम्
दृष्ट्वा निवर्तितं राम सुहृद्वाक्येन तेन वै।
लोकानां च हितं कुर्वन्नहमप्याददे वचः ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने सुहृदोंके कहनेसे परशुरामजीको युद्धसे निवृत्त हुआ देख मैंने भी लोककी भलाई करनेके लिये उन महर्षियोंकी बात मान ली॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽहं राममासाद्य ववन्दे भृशविक्षतः।
रामश्चाभ्युत्स्मयन् प्रेम्णा मामुवाच महातपाः ॥ ३५ ॥
मूलम्
ततोऽहं राममासाद्य ववन्दे भृशविक्षतः।
रामश्चाभ्युत्स्मयन् प्रेम्णा मामुवाच महातपाः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर मैंने परशुरामजीके पास जाकर उनके चरणोंमें प्रणाम किया। उस समय मेरा शरीर बहुत घायल हो गया था। महातपस्वी परशुराम मुझे देखकर मुसकराये और प्रेमपूर्वक इस प्रकार बोले—॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वत्समो नास्ति लोकेऽस्मिन् क्षत्रियः पृथिवीचरः।
गम्यतां भीष्म युद्धेऽस्मिंस्तोषितोऽहं भृशं त्वया ॥ ३६ ॥
मूलम्
त्वत्समो नास्ति लोकेऽस्मिन् क्षत्रियः पृथिवीचरः।
गम्यतां भीष्म युद्धेऽस्मिंस्तोषितोऽहं भृशं त्वया ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भीष्म! इस जगत्में भूतलपर विचरनेवाला कोई भी क्षत्रिय तुम्हारे समान नहीं है। जाओ, इस युद्धमें तुमने मुझे बहुत संतुष्ट किया है’॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मम चैव समक्षं तां कन्यामाहूय भार्गवः।
उक्तवान् दीनया वाचा मध्ये तेषां महात्मनाम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
मम चैव समक्षं तां कन्यामाहूय भार्गवः।
उक्तवान् दीनया वाचा मध्ये तेषां महात्मनाम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर मेरे सामने ही उन्होंने उस कन्याको बुलाकर उन सब महात्माओंके बीच दीनतापूर्ण वाणीमें उससे कहा॥३७॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि अम्बोपाख्यानपर्वणि युद्धनिवृत्तौ पञ्चाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १८५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत अम्बोपाख्यानपर्वमें युद्धनिवृत्तिविषयक एक सौ पचासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१८५॥