भागसूचना
चतुरशीत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भीष्म तथा परशुरामजीका एक-दूसरेपर शक्ति और ब्रह्मास्त्रका प्रयोग
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो रात्रौ व्यतीतायां प्रतिबुद्धोऽस्मि भारत।
ततः संचिन्त्य वै स्वप्नमवापं हर्षमुत्तमम् ॥ १ ॥
मूलम्
ततो रात्रौ व्यतीतायां प्रतिबुद्धोऽस्मि भारत।
ततः संचिन्त्य वै स्वप्नमवापं हर्षमुत्तमम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— भारत! तदनन्तर रात बीतनेपर जब मेरी नींद खुली, तब उस स्वप्नकी बातको सोचकर मुझे बड़ा हर्ष प्राप्त हुआ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः समभवद् युद्धं मम तस्य च भारत।
तुमुलं सर्वभूतानां लोमहर्षणमद्भुतम् ॥ २ ॥
मूलम्
ततः समभवद् युद्धं मम तस्य च भारत।
तुमुलं सर्वभूतानां लोमहर्षणमद्भुतम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! तदनन्तर मेरा और परशुरामजीका भयंकर युद्ध छिड़ गया, जो समस्त प्राणियोंके रोंगटे खड़े कर देनेवाला और अद्भुत था॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो बाणमयं वर्षं ववर्ष मयि भार्गवः।
न्यवारयमहं तच्च शरजालेन भारत ॥ ३ ॥
मूलम्
ततो बाणमयं वर्षं ववर्ष मयि भार्गवः।
न्यवारयमहं तच्च शरजालेन भारत ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय भृगुनन्दन परशुरामजीने मुझपर बाणोंकी झड़ी लगा दी। भारत! तब मैंने अपने सायकसमूहोंसे उस बाणवर्षाको रोक दिया॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः परमसंक्रुद्धः पुनरेव महातपाः।
ह्यस्तनेन च कोपेन शक्तिं वै प्राहिणोन्मयि ॥ ४ ॥
मूलम्
ततः परमसंक्रुद्धः पुनरेव महातपाः।
ह्यस्तनेन च कोपेन शक्तिं वै प्राहिणोन्मयि ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब महातपस्वी परशुराम पुनः मुझपर अत्यन्त कुपित हो गये। पहले दिनका भी कोप था ही। उससे प्रेरित होकर उन्होंने मेरे ऊपर शक्ति चलायी॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इन्द्राशनिसमस्पर्शां यमदण्डसमप्रभाम् ।
ज्वलन्तीमग्निवत् संख्ये लेलिहानां समन्ततः ॥ ५ ॥
मूलम्
इन्द्राशनिसमस्पर्शां यमदण्डसमप्रभाम् ।
ज्वलन्तीमग्निवत् संख्ये लेलिहानां समन्ततः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसका स्पर्श इन्द्रके वज्रके समान भयंकर था। उसकी प्रभा यमदण्डके समान थी और उस संग्राममें अग्निके समान प्रज्वलित हुई वह शक्ति मानो सब ओरसे रक्त चाट रही थी॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो भरतशार्दूल धिष्ण्यमाकाशगं यथा।
स मामभ्यवधीत् तूर्णं जत्रुदेशे कुरूद्वह ॥ ६ ॥
मूलम्
ततो भरतशार्दूल धिष्ण्यमाकाशगं यथा।
स मामभ्यवधीत् तूर्णं जत्रुदेशे कुरूद्वह ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! कुरुकुलरत्न! फिर आकाशवर्ती नक्षत्रके समान प्रकाशित होनेवाली उस शक्तिने तुरंत आकर मेरे गलेकी हँसलीपर आघात किया॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथास्रमस्रवद् घोरं गिरेर्गैरिकधातुवत् ।
रामेण सुमहाबाहो क्षतस्य छतजेक्षण ॥ ७ ॥
मूलम्
अथास्रमस्रवद् घोरं गिरेर्गैरिकधातुवत् ।
रामेण सुमहाबाहो क्षतस्य छतजेक्षण ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
लाल नेत्रोंवाले महाबाहु दुर्योधन! परशुरामजीके द्वारा किये हुए उस गहरे आघातसे भयंकर रक्तकी धारा बह चली। मानो पर्वतसे गैरिक धातुमिश्रित जलका झरना झर रहा हो॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽहं जामदग्न्याय भृशं क्रोधसमन्वितः।
चिक्षेप मृत्युसंकाशं बाणं सर्पविषोपमम् ॥ ८ ॥
मूलम्
ततोऽहं जामदग्न्याय भृशं क्रोधसमन्वितः।
चिक्षेप मृत्युसंकाशं बाणं सर्पविषोपमम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब मैंने भी अत्यन्त कुपित हो सर्पविषके समान भयंकर मृत्युतुल्य बाण लेकर परशुरामजीके ऊपर चलाया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तेनाभिहतो वीरो ललाटे द्विजसत्तमः।
अशोभत महाराज सशृङ्ग इव पर्वतः ॥ ९ ॥
मूलम्
स तेनाभिहतो वीरो ललाटे द्विजसत्तमः।
अशोभत महाराज सशृङ्ग इव पर्वतः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस बाणने विप्रवर वीर परशुरामजीके ललाटमें चोट पहुँचायी। महाराज! उसके कारण वे शिखरयुक्त पर्वतके समान शोभा पाने लगे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स संरब्धः समावृत्य शरं कालान्तकोपमम्।
संदधे बलवत् कृष्य घोरं शत्रुनिबर्हणम् ॥ १० ॥
मूलम्
स संरब्धः समावृत्य शरं कालान्तकोपमम्।
संदधे बलवत् कृष्य घोरं शत्रुनिबर्हणम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उन्होंने भी रोषमें आकर काल और यमके समान भयंकर शत्रुनाशक बाणको हाथमें ले धनुषको बलपूर्वक खींचकर उसके ऊपर रखा॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स वक्षसि पपातोग्रः शरो व्याल इव श्वसन्।
महीं राजंस्ततश्चाहमगमं रुधिराविलः ॥ ११ ॥
मूलम्
स वक्षसि पपातोग्रः शरो व्याल इव श्वसन्।
महीं राजंस्ततश्चाहमगमं रुधिराविलः ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उनका चलाया हुआ वह भयंकर बाण फुफकारते हुए सर्पके समान सनसनाता हुआ मेरी छातीपर आकर लगा। उससे लहूलुहान होकर मैं पृथ्वीपर गिर पड़ा॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्प्राप्य तु पुनः संज्ञां जामदग्न्याय धीमते।
प्राहिण्वं विमलां शक्तिं ज्वलन्तीमशनीमिव ॥ १२ ॥
मूलम्
सम्प्राप्य तु पुनः संज्ञां जामदग्न्याय धीमते।
प्राहिण्वं विमलां शक्तिं ज्वलन्तीमशनीमिव ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुनः चेतमें आनेपर मैंने बुद्धिमान् परशुरामजीके ऊपर प्रज्वलित वज्रके समान एक उज्ज्वल शक्ति चलायी॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा तस्य द्विजमुख्यस्य निपपात भुजान्तरे।
विह्वलश्चाभवद् राजन् वेपथुश्चैनमाविशत् ॥ १३ ॥
मूलम्
सा तस्य द्विजमुख्यस्य निपपात भुजान्तरे।
विह्वलश्चाभवद् राजन् वेपथुश्चैनमाविशत् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह शक्ति उन ब्राह्मणशिरोमणिकी दोनों भुजाओंके ठीक बीचमें जाकर लगी। राजन्! इससे वे विह्वल हो गये और उनके शरीरमें कँपकँपी आ गयी॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तत एनं परिष्वज्य सखा विप्रो महातपाः।
अकृतव्रणः शुभैर्वाक्यैराश्वासयदनेकधा ॥ १४ ॥
मूलम्
तत एनं परिष्वज्य सखा विप्रो महातपाः।
अकृतव्रणः शुभैर्वाक्यैराश्वासयदनेकधा ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उनके महातपस्वी मित्र अकृतव्रणने उन्हें हृदयसे लगाकर सुन्दर वचनोंद्वारा अनेक प्रकारसे आश्वासन दिया॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समाश्वस्तस्ततो रामः क्रोधामर्षसमन्वितः ।
प्रादुश्चके तदा ब्राह्मं परमास्त्रं महाव्रतः ॥ १५ ॥
मूलम्
समाश्वस्तस्ततो रामः क्रोधामर्षसमन्वितः ।
प्रादुश्चके तदा ब्राह्मं परमास्त्रं महाव्रतः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर महाव्रती परशुरामजी धैर्ययुक्त हो क्रोध और अमर्षमें भर गये और उन्होंने परम उत्तम ब्रह्मास्त्रका प्रयोग किया॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तत्प्रतिघातार्थं ब्राह्ममेवास्त्रमुत्तमम् ।
मया प्रयुक्तं जज्वाल युगान्तमिव दर्शयत् ॥ १६ ॥
मूलम्
ततस्तत्प्रतिघातार्थं ब्राह्ममेवास्त्रमुत्तमम् ।
मया प्रयुक्तं जज्वाल युगान्तमिव दर्शयत् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब उस अस्त्रका निवारण करनेके लिये मैंने भी उत्तम ब्रह्मास्त्रका ही प्रयोग किया। मेरा वह अस्त्र प्रलयकालका-सा दृश्य उपस्थित करता हुआ प्रज्वलित हो उठा॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोर्ब्रह्मास्त्रयोरासीदन्तरा वै समागमः ।
असम्प्राप्यैव रामं च मां च भारतसत्तम ॥ १७ ॥
मूलम्
तयोर्ब्रह्मास्त्रयोरासीदन्तरा वै समागमः ।
असम्प्राप्यैव रामं च मां च भारतसत्तम ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतवंशशिरोमणे! वे दोनों ब्रह्मास्त्र मेरे तथा परशुरामजीके पास न पहुँचकर बीचमें ही एक-दूसरेसे भिड़ गये॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो व्योम्नि प्रादुरभूत् तेज एव हि केवलम्।
भूतानि चैव सर्वाणि जग्मुरार्तिं विशाम्पते ॥ १८ ॥
मूलम्
ततो व्योम्नि प्रादुरभूत् तेज एव हि केवलम्।
भूतानि चैव सर्वाणि जग्मुरार्तिं विशाम्पते ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! फिर तो आकाशमें केवल आगकी ही ज्वाला प्रकट होने लगी। इससे समस्त प्राणियोंको बड़ी पीड़ा हुई॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋषयश्च सगन्धर्वा देवताश्चैव भारत।
संतापं परमं जग्मुरस्त्रतेजोऽभिपीडिताः ॥ १९ ॥
मूलम्
ऋषयश्च सगन्धर्वा देवताश्चैव भारत।
संतापं परमं जग्मुरस्त्रतेजोऽभिपीडिताः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! उन ब्रह्मास्त्रोंके तेजसे पीड़ित होकर ऋषि, गन्धर्व तथा देवता भी अत्यन्त संतप्त हो उठे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततश्चचाल पृथिवी सपर्वतवनद्रुमा ।
संतप्तानि च भूतानि विषादं जग्मुरुत्तमम् ॥ २० ॥
मूलम्
ततश्चचाल पृथिवी सपर्वतवनद्रुमा ।
संतप्तानि च भूतानि विषादं जग्मुरुत्तमम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो पर्वत, वन और वृक्षोंसहित सारी पृथ्वी डोलने लगी। भूतलके समस्त प्राणी संतप्त हो अत्यन्त विषाद करने लगे॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रजज्वाल नभो राजन् धूमायन्ते दिशो दश।
न स्थातुमन्तरिक्षे च शेकुराकाशगास्तदा ॥ २१ ॥
मूलम्
प्रजज्वाल नभो राजन् धूमायन्ते दिशो दश।
न स्थातुमन्तरिक्षे च शेकुराकाशगास्तदा ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उस समय आकाश जल रहा था। सम्पूर्ण दिशाओंमें धूम व्याप्त हो रहा था। आकाशचारी प्राणी भी आकाशमें ठहर न सके॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो हाहाकृते लोके सदेवासुरराक्षसे।
इदमन्तरमित्येवं मोक्तुकामोऽस्मि भारत ॥ २२ ॥
प्रस्वापमस्त्रं त्वरितो वचनाद् ब्रह्मवादिनाम्।
विचित्रं च तदस्त्रं मे मनसि प्रत्यभात् तदा ॥ २३ ॥
मूलम्
ततो हाहाकृते लोके सदेवासुरराक्षसे।
इदमन्तरमित्येवं मोक्तुकामोऽस्मि भारत ॥ २२ ॥
प्रस्वापमस्त्रं त्वरितो वचनाद् ब्रह्मवादिनाम्।
विचित्रं च तदस्त्रं मे मनसि प्रत्यभात् तदा ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर देवता, असुर तथा राक्षसोंसहित सम्पूर्ण जगत्में हाहाकार मच गया। भारत! ‘यही उपयुक्त अवसर है’ ऐसा मानकर मैंने तुरंत ही प्रस्वापनास्त्रको छोड़नेका विचार किया। फिर तो उन ब्रह्मवादी वसुओंके कथनानुसार उस विचित्र अस्त्रका मेरे मनमें स्मरण हो आया॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि अम्बोपाख्यानपर्वणि परस्परब्रह्मास्त्रप्रयोगे चतुरशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १८४ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत अम्बोपाख्यानपर्वमें परस्पर ब्रह्मास्त्रयोगविषयक एक सौ चौरासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१८४॥