१७९ रामभीष्मयुद्धे

भागसूचना

एकोनाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

संकल्पनिर्मित रथपर आरूढ़ परशुरामजीके साथ भीष्मका युद्ध प्रारम्भ करना

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमहं स्मयन्निव रणे प्रत्यभाषं व्यवस्थितम्।
भूमिष्ठं नोत्सहे योद्‌धुं भवन्तं रथमास्थितः ॥ १ ॥

मूलम्

तमहं स्मयन्निव रणे प्रत्यभाषं व्यवस्थितम्।
भूमिष्ठं नोत्सहे योद्‌धुं भवन्तं रथमास्थितः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! तब मैं युद्धके लिये खड़े हुए परशुरामजीसे मुसकराता हुआ-सा बोला—‘ब्रह्मन्! मैं रथपर बैठा हूँ और आप भूमिपर खड़े हैं। ऐसी दशामें मैं आपके साथ युद्ध नहीं कर सकता॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आरोह स्यन्दनं वीर कवचं च महाभुज।
बधान समरे राम यदि योद्‌धुं मयेच्छसि ॥ २ ॥

मूलम्

आरोह स्यन्दनं वीर कवचं च महाभुज।
बधान समरे राम यदि योद्‌धुं मयेच्छसि ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! वीरवर राम! यदि आप समरभूमिमें मेरे साथ युद्ध करना चाहते हैं तो रथपर आरूढ़ होइये और कवच भी बाँध लीजिये’॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो मामब्रवीद् रामः स्मयमानो रणाजिरे।
रथो मे मेदिनी भीष्म वाहा वेदाः सदश्ववत् ॥ ३ ॥
सूतश्च मातरिश्वा वै कवचं वेदमातरः।
सुसंवीतो रणे ताभिर्योत्स्येऽहं कुरुनन्दन ॥ ४ ॥

मूलम्

ततो मामब्रवीद् रामः स्मयमानो रणाजिरे।
रथो मे मेदिनी भीष्म वाहा वेदाः सदश्ववत् ॥ ३ ॥
सूतश्च मातरिश्वा वै कवचं वेदमातरः।
सुसंवीतो रणे ताभिर्योत्स्येऽहं कुरुनन्दन ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब परशुरामजी समरांगणमें किंचित् मुसकराते हुए मुझसे बोले—‘कुरुनन्दन भीष्म! मेरे लिये तो पृथ्वी ही रथ है, चारों वेद ही उत्तम अश्वोंके समान मेरे वाहन हैं, वायुदेव ही सारथि हैं और वेदमाताएँ (गायत्री, सावित्री और सरस्वती) ही कवच हैं। इन सबसे आवृत एवं सुरक्षित होकर मैं रणक्षेत्रमें युद्ध करूँगा’॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ब्रुवाणो गान्धारे रामो मां सत्यविक्रमः।
शरव्रातेन महता सर्वतः प्रत्यवारयत् ॥ ५ ॥

मूलम्

एवं ब्रुवाणो गान्धारे रामो मां सत्यविक्रमः।
शरव्रातेन महता सर्वतः प्रत्यवारयत् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गान्धारीनन्दन! ऐसा कहते हुए सत्यपराक्रमी परशुरामजीने मुझे सब ओरसे अपने बाणोंके महान् समुदायद्वारा आवृत कर लिया॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽपश्यं जामदग्न्यं रथमध्ये व्यवस्थितम्।
सर्वायुधवरे श्रीमत्यद्भुतोपमदर्शने ॥ ६ ॥

मूलम्

ततोऽपश्यं जामदग्न्यं रथमध्ये व्यवस्थितम्।
सर्वायुधवरे श्रीमत्यद्भुतोपमदर्शने ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय मैंने देखा, जमदग्निनन्दन परशुराम सम्पूर्ण श्रेष्ठ आयुधोंसे सुशोभित, तेजस्वी एवं अद्भुत दिखायी देनेवाले रथमें बैठे हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मनसा विहिते पुण्ये विस्तीर्णे नगरोपमे।
दिव्याश्वयुजि संनद्धे काञ्चनेन विभूषिते ॥ ७ ॥

मूलम्

मनसा विहिते पुण्ये विस्तीर्णे नगरोपमे।
दिव्याश्वयुजि संनद्धे काञ्चनेन विभूषिते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उसका विस्तार एक नगरके समान था। उस पुण्यरथका निर्माण उन्होंने अपने मानसिक संकल्पसे किया था। उसमें दिव्य अश्व जुते हुए थे। वह स्वर्णभूषित रथ सब प्रकारसे सुसज्जित था॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कवचेन महाबाहो सोमार्ककृतलक्ष्मणा ।
धनुर्धरो बद्धतूणो बद्धगोधाङ्‌गुलित्रवान् ॥ ८ ॥

मूलम्

कवचेन महाबाहो सोमार्ककृतलक्ष्मणा ।
धनुर्धरो बद्धतूणो बद्धगोधाङ्‌गुलित्रवान् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहो! परशुरामजीने एक सुन्दर कवच धारण कर रखा था, जिसमें चन्द्रमा और सूर्यके चिह्न बने हुए थे। उन्होंने हाथमें धनुष लेकर पीठपर तरकस बाँध रखा था और अंगुलियोंकी रक्षाके लिये गोहके चर्मके बने हुए दस्ताने पहन रखे थे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सारथ्यं कृतवांस्तत्र युयुत्सोरकृतव्रणः ।
सखा वेदविदत्यन्तं दयितो भार्गवस्य ह ॥ ९ ॥

मूलम्

सारथ्यं कृतवांस्तत्र युयुत्सोरकृतव्रणः ।
सखा वेदविदत्यन्तं दयितो भार्गवस्य ह ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय युद्धके इच्छुक परशुरामजीके प्रिय सखा वेदवेत्ता अकृतव्रणने उनके सारथिका कार्य सम्पन्न किया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आह्वयानः स मां युद्धे मनो हर्षयतीव मे।
पुनः पुनरभिक्रोशन्नभियाहीति भार्गवः ॥ १० ॥

मूलम्

आह्वयानः स मां युद्धे मनो हर्षयतीव मे।
पुनः पुनरभिक्रोशन्नभियाहीति भार्गवः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भृगुनन्दन राम ‘आओ, आओ’ कहकर बार-बार मुझे पुकारते और युद्धके लिये मेरा आह्वान करते हुए मेरे मनको हर्ष और उत्साह-सा प्रदान कर रहे थे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमादित्यमिवोद्यन्तमनाधृष्यं महाबलम् ।
क्षत्रियान्तकरं राममेकमेकः समासदम् ॥ ११ ॥

मूलम्

तमादित्यमिवोद्यन्तमनाधृष्यं महाबलम् ।
क्षत्रियान्तकरं राममेकमेकः समासदम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उदयकालीन सूर्यके समान तेजस्वी, अजेय, महाबली और क्षत्रियविनाशक परशुराम अकेले ही युद्धके लिये खड़े थे। अतः मैं भी अकेला ही उनका सामना करनेके लिये गया॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽहं बाणपातेषु त्रिषु वाहान् निगृह्य वै।
अवतीर्य धनुर्न्यस्य पदातिर्ऋषिसत्तमम् ॥ १२ ॥
अभ्यागच्छं तदा राममर्चिष्यन् द्विजसत्तमम्।
अभिवाद्य चैनं विधिवदब्रुवं वाक्यमुत्तमम् ॥ १३ ॥

मूलम्

ततोऽहं बाणपातेषु त्रिषु वाहान् निगृह्य वै।
अवतीर्य धनुर्न्यस्य पदातिर्ऋषिसत्तमम् ॥ १२ ॥
अभ्यागच्छं तदा राममर्चिष्यन् द्विजसत्तमम्।
अभिवाद्य चैनं विधिवदब्रुवं वाक्यमुत्तमम् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब वे तीन बार मेरे ऊपर बाणोंका प्रहार कर चुके, तब मैं घोड़ोंको रोककर और धनुष रखकर रथसे उतर गया और उन ब्राह्मणशिरोमणि मुनिप्रवर परशुरामजीका समादर करनेके लिये पैदल ही उनके पास गया। जाकर विधिपूर्वक उन्हें प्रणाम करनेके पश्चात् यह उत्तम वचन बोला—॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योत्स्ये त्वया रणे राम सदृशेनाधिकेन वा।
गुरुणा धर्मशीलेन जयमाशास्व मे विभो ॥ १४ ॥

मूलम्

योत्स्ये त्वया रणे राम सदृशेनाधिकेन वा।
गुरुणा धर्मशीलेन जयमाशास्व मे विभो ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवन् परशुराम! आप मेरे समान अथवा मुझसे भी अधिक शक्तिशाली हैं। मेरे धर्मात्मा गुरु हैं। मैं इस रणक्षेत्रमें आपके साथ युद्ध करूँगा; अतः आप मुझे विजयके लिये आशीर्वाद दें’॥१४॥

मूलम् (वचनम्)

राम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेतत् कुरुश्रेष्ठ कर्तव्यं भूतिमिच्छता।
धर्मो ह्येष महाबाहो विशिष्टैः सह युध्यताम् ॥ १५ ॥

मूलम्

एवमेतत् कुरुश्रेष्ठ कर्तव्यं भूतिमिच्छता।
धर्मो ह्येष महाबाहो विशिष्टैः सह युध्यताम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परशुरामजीने कहा— कुरुश्रेष्ठ! अपनी उन्नतिके चाहनेवाले प्रत्येक योद्धाको ऐसा ही करना चाहिये। महाबाहो! अपनेसे विशिष्ट गुरुजनोंके साथ युद्ध करनेवाले राजाओंका यही धर्म है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शपेयं त्वां न चेदेवमागच्छेथा विशाम्पते।
युध्यस्व त्वं रणे यत्तो धैर्यमालम्ब्य कौरव ॥ १६ ॥

मूलम्

शपेयं त्वां न चेदेवमागच्छेथा विशाम्पते।
युध्यस्व त्वं रणे यत्तो धैर्यमालम्ब्य कौरव ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजानाथ! यदि तुम इस प्रकार मेरे समीप नहीं आते तो मैं तुम्हें शाप दे देता। कुरुनन्दन! तुम धैर्य धारण करके इस रणक्षेत्रमें प्रयत्नपूर्वक युद्ध करो॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तु ते जयमाशासे त्वां विजेतुमहं स्थितः।
गच्छ युध्यस्व धर्मेण प्रीतोऽस्मि चरितेन ते ॥ १७ ॥

मूलम्

न तु ते जयमाशासे त्वां विजेतुमहं स्थितः।
गच्छ युध्यस्व धर्मेण प्रीतोऽस्मि चरितेन ते ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं तो तुम्हें विजयसूचक आशीर्वाद नहीं दे सकता; क्योंकि इस समय मैं तुम्हें पराजित करनेके लिये खड़ा हूँ। जाओ, धर्मपूर्वक युद्ध करो। तुम्हारे इस शिष्टाचारसे मैं बहुत प्रसन्न हूँ॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽहं तं नमस्कृत्य रथमारुह्य सत्वरः।
प्राध्मापयं रणे शङ्खं पुनर्हेमपरिष्कृतम् ॥ १८ ॥

मूलम्

ततोऽहं तं नमस्कृत्य रथमारुह्य सत्वरः।
प्राध्मापयं रणे शङ्खं पुनर्हेमपरिष्कृतम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मैं उन्हें नमस्कार करके शीघ्र ही रथपर जा बैठा और उस युद्धभूमिमें मैंने पुनः अपने सुवर्णजटित शंखको बजाया॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो युद्धं समभवन्मम तस्य च भारत।
दिवसान् सुबहून् राजन् परस्परजिगीषया ॥ १९ ॥

मूलम्

ततो युद्धं समभवन्मम तस्य च भारत।
दिवसान् सुबहून् राजन् परस्परजिगीषया ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! भरतनन्दन! तदनन्तर एक-दूसरेको जीतनेकी इच्छासे मेरा तथा परशुरामजीका युद्ध बहुत दिनोंतक चलता रहा॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मे तस्मिन् रणे पूर्वं प्राहरत् कङ्कपत्रिभिः।
षष्ट्या शतैश्च नवभिः शराणां नतपर्वणाम् ॥ २० ॥

मूलम्

स मे तस्मिन् रणे पूर्वं प्राहरत् कङ्कपत्रिभिः।
षष्ट्या शतैश्च नवभिः शराणां नतपर्वणाम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस रणभूमिमें उन्होंने ही पहले मेरे ऊपर गीधकी पाँखोंसे सुशोभित तथा मुड़े हुए पर्ववाले नौ सौ साठ बाणोंद्वारा प्रहार किया॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चत्वारस्तेन मे वाहाः सूतश्चैव विशाम्पते।
प्रतिरुद्धास्तथैवाहं समरे दंशितः स्थितः ॥ २१ ॥

मूलम्

चत्वारस्तेन मे वाहाः सूतश्चैव विशाम्पते।
प्रतिरुद्धास्तथैवाहं समरे दंशितः स्थितः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उन्होंने मेरे चारों घोड़ों तथा सारथिको भी अवरुद्ध कर दिया तो भी मैं पूर्ववत् कवच धारण किये उस समरभूमिमें डटा रहा॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नमस्कृत्य च देवेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो विशेषतः।
तमहं स्मयन्निव रणे प्रत्यभाषं व्यवस्थितम् ॥ २२ ॥

मूलम्

नमस्कृत्य च देवेभ्यो ब्राह्मणेभ्यो विशेषतः।
तमहं स्मयन्निव रणे प्रत्यभाषं व्यवस्थितम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् देवताओं और विशेषतः ब्राह्मणोंको नमस्कार कर मैं रणभूमिमें खड़े हुए परशुरामजीसे मुसकराता हुआ-सा बोला—॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचार्यता मानिता मे निर्मर्यादे ह्यपि त्वयि।
भूयश्च शृणु मे ब्रह्मन् सम्पदं धर्मसंग्रहे ॥ २३ ॥

मूलम्

आचार्यता मानिता मे निर्मर्यादे ह्यपि त्वयि।
भूयश्च शृणु मे ब्रह्मन् सम्पदं धर्मसंग्रहे ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! यद्यपि आप अपनी मर्यादा छोड़े बैठे हैं तो भी मैंने सदा आपके आचार्यत्वका सम्मान किया है। धर्मसंग्रहके विषयमें मेरा जो दृढ़ विचार है, उसे आप पुनः सुन लीजिये॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये ते वेदाः शरीरस्था ब्राह्मण्यं यच्च ते महत्।
तपश्च ते महत् तप्तं न तेभ्यः प्रहराम्यहम् ॥ २४ ॥

मूलम्

ये ते वेदाः शरीरस्था ब्राह्मण्यं यच्च ते महत्।
तपश्च ते महत् तप्तं न तेभ्यः प्रहराम्यहम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विप्रवर! आपके शरीरमें जो वेद हैं, जो आपका महान् ब्राह्मणत्व है तथा आपने जो बड़ी भारी तपस्या की है, उन सबके ऊपर मैं बाणोंका प्रहार नहीं करता हूँ॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रहरे क्षत्रधर्मस्य यं राम त्वं समाश्रितः।
ब्राह्मणः क्षत्रियत्वं हि याति शस्त्रसमुद्यमात् ॥ २५ ॥

मूलम्

प्रहरे क्षत्रधर्मस्य यं राम त्वं समाश्रितः।
ब्राह्मणः क्षत्रियत्वं हि याति शस्त्रसमुद्यमात् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राम! आपने जिस क्षत्रियधर्मका आश्रय लिया है, मैं उसीपर प्रहार करूँगा; क्योंकि ब्राह्मण हथियार उठाते ही क्षत्रियभावको प्राप्त कर लेता है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य मे धनुषो वीर्यं पश्य बाह्वोर्बलं मम।
एष ते कार्मुकं वीर छिनद्मि निशितेषुणा ॥ २६ ॥

मूलम्

पश्य मे धनुषो वीर्यं पश्य बाह्वोर्बलं मम।
एष ते कार्मुकं वीर छिनद्मि निशितेषुणा ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अब आप मेरे धनुषकी शक्ति और मेरी भुजाओंका बल देखिये। वीर! मैं अपने बाणसे आपके धनुषको अभी काट देता हूँ’॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्याहं निशितं भल्लं चिक्षेप भरतर्षभ।
तेनास्य धनुषः कोटिं छित्त्वा भूमावपातयम् ॥ २७ ॥

मूलम्

तस्याहं निशितं भल्लं चिक्षेप भरतर्षभ।
तेनास्य धनुषः कोटिं छित्त्वा भूमावपातयम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! ऐसा कहकर मैंने उनके ऊपर तेज धारवाले एक भल्ल नामक बाणका प्रहार किया और उसके द्वारा उनके धनुषकी कोटि (अग्रभाग)-को काटकर पृथ्वीपर गिरा दिया॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथैव च पृषत्कानां शतानि नतपर्वणाम्।
चिक्षेप कङ्कपत्राणां जामदग्न्यरथं प्रति ॥ २८ ॥

मूलम्

तथैव च पृषत्कानां शतानि नतपर्वणाम्।
चिक्षेप कङ्कपत्राणां जामदग्न्यरथं प्रति ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार परशुरामजीके रथकी ओर मैंने गीधकी पाँख और झुकी हुई गाँठवाले सौ बाण चलाये॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

काये विषक्तास्तु तदा वायुना समुदीरिताः।
चेलुः क्षरन्तो रुधिरं नागा इव च ते शराः॥२९॥

मूलम्

काये विषक्तास्तु तदा वायुना समुदीरिताः।
चेलुः क्षरन्तो रुधिरं नागा इव च ते शराः॥२९॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे बाण वायुद्वारा उड़ाये हुए सर्पोंकी भाँति परशुरामजीके शरीरमें धँसकर खून बहाते हुए चल दिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षतजोक्षितसर्वाङ्गः क्षरन् स रुधिरं रणे।
बभौ रामस्तदा राजन् मेरुर्धातुमिवोत्सृजन् ॥ ३० ॥

मूलम्

क्षतजोक्षितसर्वाङ्गः क्षरन् स रुधिरं रणे।
बभौ रामस्तदा राजन् मेरुर्धातुमिवोत्सृजन् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस समय उनके सारे अंग लहूलुहान हो गये। जैसे मेरु पर्वत वर्षाकालमें गेरु आदि धातुओंसे मिश्रित जलकी धार बहाता है, उसी प्रकार उस रणभूमिमें अपने अंगोंसे रक्तकी धारा बहाते हुए परशुरामजी शोभा पाने लगे॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हेमन्तान्तेऽशोक इव रक्तस्तबकमण्डितः ।
बभौ रामस्तथा राजन् प्रफुल्ल इव किंशुकः ॥ ३१ ॥

मूलम्

हेमन्तान्तेऽशोक इव रक्तस्तबकमण्डितः ।
बभौ रामस्तथा राजन् प्रफुल्ल इव किंशुकः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! जैसे वसन्त-ऋतुमें लाल फूलोंके गुच्छोंसे अलंकृत अशोक और खिला हुआ पलाश सुशोभित होता है, परशुरामजीकी भी वैसी ही शोभा हुई॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽन्यद् धनुरादाय रामः क्रोधसमन्वितः।
हेमपुङ्खान् सुनिशिताञ्शरांस्तान् हि ववर्ष सः ॥ ३२ ॥

मूलम्

ततोऽन्यद् धनुरादाय रामः क्रोधसमन्वितः।
हेमपुङ्खान् सुनिशिताञ्शरांस्तान् हि ववर्ष सः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब क्रोधमें भरे हुए परशुरामजीने दूसरा धनुष लेकर सोनेकी पाँखोंसे सुशोभित अत्यन्त तीखे बाणोंकी वर्षा आरम्भ की॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते समासाद्य मां रौद्रा बहुधा मर्मभेदिनः।
अकम्पयन् महावेगाः सर्पानलविषोपमाः ॥ ३३ ॥

मूलम्

ते समासाद्य मां रौद्रा बहुधा मर्मभेदिनः।
अकम्पयन् महावेगाः सर्पानलविषोपमाः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे नाना प्रकारके भयंकर बाण मुझपर चोट करके मेरे मर्मस्थानोंका भेदन करने लगे। उनका वेग महान् था। वे सर्प, अग्नि और विषके समान जान पड़ते थे। उन्होंने मुझे कम्पित कर दिया॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमहं समवष्टभ्य पुनरात्मानमाहवे ।
शतसंख्यैः शरैः क्रुद्धस्तदा राममवाकिरम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

तमहं समवष्टभ्य पुनरात्मानमाहवे ।
शतसंख्यैः शरैः क्रुद्धस्तदा राममवाकिरम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मैंने पुनः अपने-आपको स्थिर करके कुपित हो उस युद्धमें परशुरामजीपर सैकड़ों बाण बरसाये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तैरग्न्यर्कसंकाशैः शरैराशीविषोपमैः ।
शितैरभ्यर्दितो रामो मन्दचेता इवाभवत् ॥ ३५ ॥

मूलम्

स तैरग्न्यर्कसंकाशैः शरैराशीविषोपमैः ।
शितैरभ्यर्दितो रामो मन्दचेता इवाभवत् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे बाण अग्नि, सूर्य तथा विषधर सर्पोंके समान भयंकर एवं तीक्ष्ण थे। उनसे पीड़ित होकर परशुरामजी अचेत-से हो गये॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽहं कृपयाऽऽविष्टो विष्टभ्यात्मानमात्मना ।
धिग्धिगित्यब्रुवं युद्धं क्षत्रधर्मं च भारत ॥ ३६ ॥

मूलम्

ततोऽहं कृपयाऽऽविष्टो विष्टभ्यात्मानमात्मना ।
धिग्धिगित्यब्रुवं युद्धं क्षत्रधर्मं च भारत ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! तब मैं दयासे द्रवित हो स्वयं ही अपने-आपमें धैर्य लाकर युद्ध और क्षत्रियधर्मको धिक्कार देने लगा॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असकृच्चाब्रुवं राजन् शोकवेगपरिप्लुतः ।
अहो बत कृतं पापं मेयदं क्षत्रधर्मणा ॥ ३७ ॥
गरुर्द्विजातिर्धर्मात्मा यदेवं पीडितः शरैः।

मूलम्

असकृच्चाब्रुवं राजन् शोकवेगपरिप्लुतः ।
अहो बत कृतं पापं मेयदं क्षत्रधर्मणा ॥ ३७ ॥
गरुर्द्विजातिर्धर्मात्मा यदेवं पीडितः शरैः।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस समय शोकके वेगसे व्याकुल हो मैं बार-बार इस प्रकार कहने लगा—‘अहो! मुझ क्षत्रियने यह बड़ा भारी पाप कर डाला, जो कि धर्मात्मा एवं ब्राह्मण गुरुको इस प्रकार बाणोंसे पीड़ित किया’॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो न प्राहरं भूयो जामदग्न्याय भारत ॥ ३८ ॥
अथावताप्य पृथिवीं पूषा दिवससंक्षये।
जगामास्तं सहस्रांशुस्ततो युद्धमुपारमत् ॥ ३९ ॥

मूलम्

ततो न प्राहरं भूयो जामदग्न्याय भारत ॥ ३८ ॥
अथावताप्य पृथिवीं पूषा दिवससंक्षये।
जगामास्तं सहस्रांशुस्ततो युद्धमुपारमत् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! उसके बादसे मैंने परशुरामजीपर फिर प्रहार नहीं किया। इधर सहस्र किरणोंवाले भगवान् सूर्य इस पृथ्वीको तपाकर दिनका अन्त होनेपर अस्त हो गये; इसलिये वह युद्ध बंद हो गया॥३८-३९॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि अम्बोपाख्यानपर्वणि रामभीष्मयुद्धे एकोनाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत अम्बोपाख्यानपर्वमें परशुराम और भीष्मका युद्धविषयक एक सौ उन्यासीवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७९॥