१७८ कुरुक्षेत्रावतरणे

भागसूचना

अष्टसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

अम्बा और परशुरामजीका संवाद, अकृतव्रणकी सलाह, परशुराम और भीष्मकी रोषपूर्ण बातचीत तथा उन दोनोंका युद्धके लिये कुरुक्षेत्रमें उतरना

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तदा रामो जहि भीष्ममिति प्रभो।
उवाच रुदतीं कन्यां चोदयन्तीं पुनः पुनः ॥ १ ॥
काश्ये न कामं गृह्णामि शस्त्रं वै वरवर्णिनि।
ऋते ब्रह्मविदां हेतोः किमन्यत् करवाणि ते ॥ २ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तदा रामो जहि भीष्ममिति प्रभो।
उवाच रुदतीं कन्यां चोदयन्तीं पुनः पुनः ॥ १ ॥
काश्ये न कामं गृह्णामि शस्त्रं वै वरवर्णिनि।
ऋते ब्रह्मविदां हेतोः किमन्यत् करवाणि ते ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! अम्बाके ऐसा कहनेपर कि प्रभो! भीष्मको मार डालिये। परशुरामजीने रो-रोकर बार-बार प्रेरणा देनेवाली उस कन्यासे इस प्रकार कहा—‘सुन्दरी! काशिराजकुमारी! मैं अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार किसी वेदवेत्ता ब्राह्मणको आवश्यकता हो तो उसीके लिये शस्त्र उठाता हूँ। वैसा कारण हुए बिना इच्छानुसार हथियार नहीं उठाता। अतः इस प्रतिज्ञाकी रक्षा करते हुए मैं तेरा दूसरा कौन-सा कार्य करूँ॥१-२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाचा भीष्मश्च शाल्वश्च मम राज्ञि वशानुगौ।
भविष्यतोऽनवद्याङ्गि तत् करिष्यामि मा शुचः ॥ ३ ॥

मूलम्

वाचा भीष्मश्च शाल्वश्च मम राज्ञि वशानुगौ।
भविष्यतोऽनवद्याङ्गि तत् करिष्यामि मा शुचः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजकन्ये! भीष्म और शाल्व दोनों मेरी आज्ञाके अधीन होंगे। अतः निर्दोष अंगोंवाली सुन्दरी! मैं तेरा कार्य करूँगा। तू शोक न कर॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तु शस्त्रं ग्रहीष्यामि कथंचिदपि भाविनि।
ऋते नियोगाद् विप्राणामेष मे समयः कृतः ॥ ४ ॥

मूलम्

न तु शस्त्रं ग्रहीष्यामि कथंचिदपि भाविनि।
ऋते नियोगाद् विप्राणामेष मे समयः कृतः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भाविनि! मैं किसी तरह ब्राह्मणोंकी आज्ञाके बिना हथियार नहीं उठाऊँगा, ऐसी मैंने प्रतिज्ञा कर रखी है’॥

मूलम् (वचनम्)

अम्बोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मम दुःखं भगवता व्यपनेयं यतस्ततः।
तच्च भीष्मप्रसूतं मे तं जहीश्वर मा चिरम् ॥ ५ ॥

मूलम्

मम दुःखं भगवता व्यपनेयं यतस्ततः।
तच्च भीष्मप्रसूतं मे तं जहीश्वर मा चिरम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अम्बा बोली— भगवन्! आप जैसे हो सके वैसे ही मेरा दुःख दूर करें। वह दुःख भीष्मने पैदा किया है; अतः प्रभो! उसीका शीघ्र वध कीजिये॥५॥

मूलम् (वचनम्)

राम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

काशिकन्ये पुनर्ब्रूहि भीष्मस्ते चरणावुभौ।
शिरसा वन्दनार्होऽपि ग्रहीष्यति गिरा मम ॥ ६ ॥

मूलम्

काशिकन्ये पुनर्ब्रूहि भीष्मस्ते चरणावुभौ।
शिरसा वन्दनार्होऽपि ग्रहीष्यति गिरा मम ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परशुरामजी बोले— काशिराजकी पुत्री! तू पुनः सोचकर बता। यद्यपि भीष्म तेरे लिये वन्दनीय है, तथापि मेरे कहनेसे वह तेरे चरणोंको अपने सिरपर उठा लेगा॥

मूलम् (वचनम्)

अम्बोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

जहि भीष्मं रणे राम गर्जन्तमसुरं यथा।
समाहूतो रणे राम मम चेदिच्छसि प्रियम्।
प्रतिश्रुतं च यदपि तत् सत्यं कर्तुमर्हसि ॥ ७ ॥

मूलम्

जहि भीष्मं रणे राम गर्जन्तमसुरं यथा।
समाहूतो रणे राम मम चेदिच्छसि प्रियम्।
प्रतिश्रुतं च यदपि तत् सत्यं कर्तुमर्हसि ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अम्बा बोली— राम! यदि आप मेरा प्रिय करना चाहते हैं तो युद्धमें आमन्त्रित हो, असुरके समान गर्जना करनेवाले भीष्मको मार डालिये और आपने जो प्रतिज्ञा कर रखी है, उसे भी सत्य कीजिये॥७॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तयोः संवदतोरेवं राजन् रामाम्बयोस्तदा।
ऋषिः परमधर्मात्मा इदं वचनमब्रवीत् ॥ ८ ॥

मूलम्

तयोः संवदतोरेवं राजन् रामाम्बयोस्तदा।
ऋषिः परमधर्मात्मा इदं वचनमब्रवीत् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— राजन्! परशुराम और अम्बामें जब इस प्रकार बातचीत हो रही थी, उसी समय परम धर्मात्मा ऋषि अकृतव्रणने यह बात कही—॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शरणागतां महाबाहो कन्यां न त्यक्तुमर्हसि।
यदि भीष्मो रणे राम समाहूतस्त्वया मृधे ॥ ९ ॥
निर्जितोऽस्मीति वा ब्रूयात् कुर्याद् वा वचनं तव।
कृतमस्या भवेत् कार्यं कन्याया भृगुनन्दन ॥ १० ॥

मूलम्

शरणागतां महाबाहो कन्यां न त्यक्तुमर्हसि।
यदि भीष्मो रणे राम समाहूतस्त्वया मृधे ॥ ९ ॥
निर्जितोऽस्मीति वा ब्रूयात् कुर्याद् वा वचनं तव।
कृतमस्या भवेत् कार्यं कन्याया भृगुनन्दन ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! यह कन्या शरणमें आयी है; अतः आपको इसका त्याग नहीं करना चाहिये। भृगुनन्दन राम! यदि युद्धमें आपके बुलानेपर भीष्म सामने आकर अपनी पराजय स्वीकार करे अथवा आपकी बात ही मान ले तो इस कन्याका कार्य सिद्ध हो जायगा॥९-१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाक्यं सत्यं च ते वीर भविष्यति कृतं विभो।
इयं चापि प्रतिज्ञा ते तदा राम महामुने ॥ ११ ॥
जित्वा वै क्षत्रियान् सर्वान् ब्राह्मणेषु प्रतिश्रुता।
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रश्चैव रणे यदि ॥ १२ ॥
ब्रह्मद्विड् भविता तं वै हनिष्यामीति भार्गव।
शरणार्थे प्रपन्नानां भीतानां शरणार्थिनाम् ॥ १३ ॥
न शक्ष्यामि परित्यागं कर्तुं जीवन् कथंचन।
यश्च कृत्स्नं रणे क्षत्रं विजेष्यति समागतम् ॥ १४ ॥
दीप्तात्मानमहं तं च हनिष्यामीति भार्गव।

मूलम्

वाक्यं सत्यं च ते वीर भविष्यति कृतं विभो।
इयं चापि प्रतिज्ञा ते तदा राम महामुने ॥ ११ ॥
जित्वा वै क्षत्रियान् सर्वान् ब्राह्मणेषु प्रतिश्रुता।
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रश्चैव रणे यदि ॥ १२ ॥
ब्रह्मद्विड् भविता तं वै हनिष्यामीति भार्गव।
शरणार्थे प्रपन्नानां भीतानां शरणार्थिनाम् ॥ १३ ॥
न शक्ष्यामि परित्यागं कर्तुं जीवन् कथंचन।
यश्च कृत्स्नं रणे क्षत्रं विजेष्यति समागतम् ॥ १४ ॥
दीप्तात्मानमहं तं च हनिष्यामीति भार्गव।

अनुवाद (हिन्दी)

‘महामुने राम! प्रभो! ऐसा होनेसे आपकी कही हुई बात सत्य सिद्ध होगी। वीरवर भार्गव! आपने समस्त क्षत्रियोंको जीतकर ब्राह्मणोंके बीचमें यह प्रतिज्ञा की थी कि यदि कोई ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र ब्राह्मणोंसे द्वेष करेगा तो मैं उसे निश्चय ही मार डालूँगा। साथ ही भयभीत होकर शरणमें आये हुए शरणार्थियोंका परित्याग मैं जीते-जी किसी प्रकार नहीं कर सकूँगा और जो युद्धमें एकत्र हुए सम्पूर्ण क्षत्रियोंको जीत लेगा, उस तेजस्वी पुरुषका भी मैं वध कर डालूँगा॥११—१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एवं विजयी राम भीष्मः कुरुकुलोद्वहः।
तेन युध्यस्व संग्रामे समेत्य भृगुनन्दन ॥ १५ ॥

मूलम्

स एवं विजयी राम भीष्मः कुरुकुलोद्वहः।
तेन युध्यस्व संग्रामे समेत्य भृगुनन्दन ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भृगुनन्दन राम! इस प्रकार कुरुकुलका भार वहन करनेवाला भीष्म समस्त क्षत्रियोंपर विजय पा चुका है; अतः आप संग्राममें उसके सामने जाकर युद्ध कीजिये’॥१५॥

मूलम् (वचनम्)

राम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्मराम्यहं पूर्वकृतां प्रतिज्ञामृषिसत्तम ।
तथैव च चरिष्यामि यथा साम्नैव लप्स्यते ॥ १६ ॥

मूलम्

स्मराम्यहं पूर्वकृतां प्रतिज्ञामृषिसत्तम ।
तथैव च चरिष्यामि यथा साम्नैव लप्स्यते ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परशुरामजी बोले— मुनिश्रेष्ठ! मुझे अपनी पहलेकी की हुई प्रतिज्ञाका स्मरण है, तथापि मैं ऐसा प्रयत्न करूँगा कि सामनीतिसे ही काम बन जाय॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कार्यमेतन्महद् ब्रह्मन् काशिकन्यामनोगतम् ।
गमिष्यामि स्वयं तत्र कन्यामादाय यत्र सः ॥ १७ ॥

मूलम्

कार्यमेतन्महद् ब्रह्मन् काशिकन्यामनोगतम् ।
गमिष्यामि स्वयं तत्र कन्यामादाय यत्र सः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! काशिराजकी कन्याके मनमें जो यह कार्य है, वह महान् है। मैं उसकी सिद्धिके लिये इस कन्याको साथ लेकर स्वयं ही वहाँ जाऊँगा, जहाँ भीष्म है॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि भीष्मो रणश्लाघी न करिष्यति मे वचः।
हनिष्याम्येनमुद्रिक्तमिति मे निश्चिता मतिः ॥ १८ ॥

मूलम्

यदि भीष्मो रणश्लाघी न करिष्यति मे वचः।
हनिष्याम्येनमुद्रिक्तमिति मे निश्चिता मतिः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि युद्धकी स्पृहा रखनेवाला भीष्म मेरी बात नहीं मानेगा तो मैं उस अभिमानीको मार डालूँगा; यह मेरा निश्चित विचार है॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि बाणा मयोत्सृष्टाः सज्जन्तीह शरीरिणाम्।
कायेषु विदितं तुभ्यं पुरा क्षत्रियसंगरे ॥ १९ ॥

मूलम्

न हि बाणा मयोत्सृष्टाः सज्जन्तीह शरीरिणाम्।
कायेषु विदितं तुभ्यं पुरा क्षत्रियसंगरे ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे चलाये हुए बाण देहधारियोंके शरीरमें अटकते नहीं हैं। (उन्हें विदीर्ण करके बाहर निकल जाते हैं।) यह बात तुम्हें पूर्वकालमें क्षत्रियोंके साथ होनेवाले युद्धके समय ज्ञात हो चुकी है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा ततो रामः सह तैर्ब्रह्मवादिभिः।
प्रयाणाय मतिं कृत्वा समुत्तस्थौ महातपाः ॥ २० ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा ततो रामः सह तैर्ब्रह्मवादिभिः।
प्रयाणाय मतिं कृत्वा समुत्तस्थौ महातपाः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर महातपस्वी परशुरामजी उन ब्रह्मवादी महर्षियोंके साथ प्रस्थान करनेका निश्चय करके उसके लिये उद्यत हो गये॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते तामुषित्वा तु रजनीं तत्र तापसाः।
हुताग्नयो जप्तजप्याः प्रतस्थुर्मज्जिघांसया ॥ २१ ॥

मूलम्

ततस्ते तामुषित्वा तु रजनीं तत्र तापसाः।
हुताग्नयो जप्तजप्याः प्रतस्थुर्मज्जिघांसया ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् रातभर वहीं रहकर प्रातःकाल संध्योपासन, गायत्री-जप और अग्निहोत्र करके वे तपस्वी मुनि मेरा वध करनेकी इच्छासे उस आश्रमसे चले॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभ्यगच्छत् ततो रामः सह तैर्ब्रह्मवादिभिः।
कुरुक्षेत्रं महाराज कन्यया सह भारत ॥ २२ ॥

मूलम्

अभ्यगच्छत् ततो रामः सह तैर्ब्रह्मवादिभिः।
कुरुक्षेत्रं महाराज कन्यया सह भारत ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज भरतनन्दन! फिर उन वेदवादी मुनियोंको साथ ले परशुरामजी राजकन्या अम्बाके साथ कुरुक्षेत्रमें आये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यविशन्त ततः सर्वे परिगृह्य सरस्वतीम्।
तापसास्ते महात्मानो भृगुश्रेष्ठपुरस्कृताः ॥ २३ ॥

मूलम्

न्यविशन्त ततः सर्वे परिगृह्य सरस्वतीम्।
तापसास्ते महात्मानो भृगुश्रेष्ठपुरस्कृताः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ भृगुश्रेष्ठ परशुरामजीको आगे करके उन सभी तपस्वी महात्माओंने सरस्वती नदीके तटका आश्रय ले रात्रिमें निवास किया॥२३॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तृतीये दिवसे संदिदेश व्यवस्थितः।
कुरु प्रियं स मे राजन् प्राप्तोऽस्मीति महाव्रतः ॥ २४ ॥

मूलम्

ततस्तृतीये दिवसे संदिदेश व्यवस्थितः।
कुरु प्रियं स मे राजन् प्राप्तोऽस्मीति महाव्रतः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— तदनन्तर तीसरे दिन (हस्तिनापुरके बाहर) एक स्थानपर ठहरकर महान् व्रतधारी परशुरामजीने मुझे संदेश दिया—‘राजन्! मैं यहाँ आया हूँ। तुम मेरा प्रिय कार्य करो’॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमागतमहं श्रुत्वा विषयान्तं महाबलम्।
अभ्यगच्छं जवेनाशु प्रीत्या तेजोनिधिं प्रभुम् ॥ २५ ॥

मूलम्

तमागतमहं श्रुत्वा विषयान्तं महाबलम्।
अभ्यगच्छं जवेनाशु प्रीत्या तेजोनिधिं प्रभुम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तेजके भण्डार और महाबली भगवान् परशुरामको अपने राज्यकी सीमापर आया हुआ सुनकर मैं बड़ी प्रसन्नताके साथ वेगपूर्वक उनके पास गया॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गां पुरस्कृत्य राजेन्द्र ब्राह्मणैः परिवारितः।
ऋत्विग्भिर्देवकल्पैश्च तथैव च पुरोहितैः ॥ २६ ॥

मूलम्

गां पुरस्कृत्य राजेन्द्र ब्राह्मणैः परिवारितः।
ऋत्विग्भिर्देवकल्पैश्च तथैव च पुरोहितैः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! उस समय एक गौको आगे करके ब्राह्मणोंसे घिरा हुआ मैं देवताओंके समान तेजस्वी ऋत्विजों तथा पुरोहितोंके साथ उनकी सेवामें उपस्थित हुआ॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मामभिगतं दृष्ट्वा जामदग्न्यः प्रतापवान्।
प्रतिजग्राह तां पूजां वचनं चेदमब्रवीत् ॥ २७ ॥

मूलम्

स मामभिगतं दृष्ट्वा जामदग्न्यः प्रतापवान्।
प्रतिजग्राह तां पूजां वचनं चेदमब्रवीत् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझे अपने समीप आया हुआ देख प्रतापी परशुरामजीने मेरी दी हुई पूजा स्वीकार की और इस प्रकार कहा॥२७॥

मूलम् (वचनम्)

राम उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्म कां बुद्धिमास्थाय काशिराजसुता तदा।
अकामेन त्वयाऽऽनीता पुनश्चैव विसर्जिता ॥ २८ ॥

मूलम्

भीष्म कां बुद्धिमास्थाय काशिराजसुता तदा।
अकामेन त्वयाऽऽनीता पुनश्चैव विसर्जिता ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परशुरामजी बोले— भीष्म! तुमने किस विचारसे उन दिनों स्वयं पत्नीकी कामनासे रहित होते हुए भी काशिराजकी इस कन्याका अपहरण किया, अपने घर ले आये और पुनः इसे निकाल बाहर किया॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विभ्रंशिता त्वया हीयं धर्मादास्ते यशस्विनी।
परामृष्टां त्वया हीमां को हि गन्तुमिहार्हति ॥ २९ ॥

मूलम्

विभ्रंशिता त्वया हीयं धर्मादास्ते यशस्विनी।
परामृष्टां त्वया हीमां को हि गन्तुमिहार्हति ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तुमने इस यशस्विनी राजकुमारीको धर्मसे भ्रष्ट कर दिया है। तुम्हारे द्वारा इसका स्पर्श कर लिया गया है, ऐसी दशामें इसे दूसरा कौन ग्रहण कर सकता है?॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्याख्याता हि शाल्वेन त्वयाऽऽनीतेति भारत।
तस्मादिमां मन्नियोगात् प्रतिगृह्णीष्व भारत ॥ ३० ॥

मूलम्

प्रत्याख्याता हि शाल्वेन त्वयाऽऽनीतेति भारत।
तस्मादिमां मन्नियोगात् प्रतिगृह्णीष्व भारत ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! तुम इसे हरकर लाये थे। इसी कारणसे शाल्वराजने इसके साथ विवाह करनेसे इन्कार कर दिया है; अतः अब तुम मेरी आज्ञासे इसे ग्रहण कर लो॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वधर्मं पुरुषव्याघ्र राजपुत्री लभत्वियम्।
न युक्तस्त्ववमानोऽयं राज्ञां कर्तुं त्वयानघ ॥ ३१ ॥

मूलम्

स्वधर्मं पुरुषव्याघ्र राजपुत्री लभत्वियम्।
न युक्तस्त्ववमानोऽयं राज्ञां कर्तुं त्वयानघ ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषसिंह! तुम्हें ऐसा करना चाहिये, जिससे इस राजकुमारीको स्वधर्मपालनका अवसर प्राप्त हो। अनघ! तुम्हें राजाओंका इस प्रकार अपमान करना उचित नहीं है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तं वै विमनसमुदीक्ष्याहमथाब्रुवम् ।
नाहमेनां पुनर्दद्यां ब्रह्मन् भ्रात्रे कथंचन ॥ ३२ ॥

मूलम्

ततस्तं वै विमनसमुदीक्ष्याहमथाब्रुवम् ।
नाहमेनां पुनर्दद्यां ब्रह्मन् भ्रात्रे कथंचन ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मैंने परशुरामजीको उदास देखकर इस प्रकार कहा—‘ब्रह्मन्! अब मैं इसका विवाह अपने भाईके साथ किसी प्रकार नहीं कर सकता॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शाल्वस्याहमिति प्राह पुरा मामेव भार्गव।
मया चैवाभ्यनुज्ञाता गतेयं नगरं प्रति ॥ ३३ ॥

मूलम्

शाल्वस्याहमिति प्राह पुरा मामेव भार्गव।
मया चैवाभ्यनुज्ञाता गतेयं नगरं प्रति ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भृगुनन्दन! इसने पहले मुझसे ही आकर कहा कि मैं शाल्वकी हूँ, तब मैंने इसे जानेकी आज्ञा दे दी और यह शाल्वराजके नगरको चली गयी॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न भयान्नाप्यनुक्रोशान्नार्थलोभान्न काम्यया ।
क्षात्रं धर्ममहं जह्यामिति मे व्रतमाहितम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

न भयान्नाप्यनुक्रोशान्नार्थलोभान्न काम्यया ।
क्षात्रं धर्ममहं जह्यामिति मे व्रतमाहितम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं भयसे, दयासे, धनके लोभसे तथा और किसी कामनासे भी क्षत्रियधर्मका त्याग नहीं कर सकता, यह मेरा स्वीकार किया हुआ व्रत है’॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ मामब्रवीद् रामः क्रोधपर्याकुलेक्षणः।
न करिष्यसि चेदेतद् वाक्यं मे नरपुङ्गव ॥ ३५ ॥
हनिष्यामि सहामात्यं त्वामद्येति पुनः पुनः।

मूलम्

अथ मामब्रवीद् रामः क्रोधपर्याकुलेक्षणः।
न करिष्यसि चेदेतद् वाक्यं मे नरपुङ्गव ॥ ३५ ॥
हनिष्यामि सहामात्यं त्वामद्येति पुनः पुनः।

अनुवाद (हिन्दी)

तब यह सुनकर परशुरामजीके नेत्रोंमें क्रोधका भाव व्याप्त हो गया और वे मुझसे इस प्रकार बोले—‘नरश्रेष्ठ! तुम यदि मेरी यह बात नहीं मानोगे तो आज मैं मन्त्रियोंसहित तुम्हें मार डालूँगा।’ इस बातको उन्होंने बार-बार दुहराया॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संरम्भादब्रवीद् रामः क्रोधपर्याकुलेक्षणः ॥ ३६ ॥
तमहं गीर्भिरिष्टाभिः पुनः पुनररिंदम।
अयाचं भृगुशार्दूलं न चैव प्रशशाम सः ॥ ३७ ॥

मूलम्

संरम्भादब्रवीद् रामः क्रोधपर्याकुलेक्षणः ॥ ३६ ॥
तमहं गीर्भिरिष्टाभिः पुनः पुनररिंदम।
अयाचं भृगुशार्दूलं न चैव प्रशशाम सः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुदमन दुर्योधन! परशुरामजीने क्रोधभरे नेत्रोंसे देखते हुए बड़े रोषावेशमें आकर यह बात कही थी, तथापि मैं प्रिय वचनोंद्वारा उन भृगुश्रेष्ठ महात्मासे बार-बार शान्त रहनेके लिये प्रार्थना करता रहा; पर वे किसी प्रकार शान्त न हो सके॥३६-३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रणम्य तमहं मूर्ध्ना भूयो ब्राह्मणसत्तमम्।
अब्रुवं कारणं किं तद् यत् त्वं युद्धं मयेच्छसि॥३८॥
इष्वस्त्रं मम बालस्य भवतैव चतुर्विधम्।
उपदिष्टं महाबाहो शिष्योऽस्मि तव भार्गव ॥ ३९ ॥

मूलम्

प्रणम्य तमहं मूर्ध्ना भूयो ब्राह्मणसत्तमम्।
अब्रुवं कारणं किं तद् यत् त्वं युद्धं मयेच्छसि॥३८॥
इष्वस्त्रं मम बालस्य भवतैव चतुर्विधम्।
उपदिष्टं महाबाहो शिष्योऽस्मि तव भार्गव ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मैंने उन ब्राह्मणशिरोमणिके चरणोंमें मस्तक झुकाकर पुनः प्रणाम किया और इस प्रकार पूछा—‘भगवन्! क्या कारण है कि आप मेरे साथ युद्ध करना चाहते हैं? बाल्यावस्थामें आपने ही मुझे चार प्रकारके धनुर्वेदकी शिक्षा दी है। महाबाहु भार्गव! मैं तो आपका शिष्य हूँ’॥३८-३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो मामब्रवीद् रामः क्रोधसंरक्तलोचनः।
जानीषे मां गुरुं भीष्म गृह्णासीमां न चैव ह॥४०॥
सुतां काश्यस्य कौरव्य मत्प्रियार्थं महामते।
न हि ते विद्यते शान्तिरन्यथा कुरुनन्दन ॥ ४१ ॥

मूलम्

ततो मामब्रवीद् रामः क्रोधसंरक्तलोचनः।
जानीषे मां गुरुं भीष्म गृह्णासीमां न चैव ह॥४०॥
सुतां काश्यस्य कौरव्य मत्प्रियार्थं महामते।
न हि ते विद्यते शान्तिरन्यथा कुरुनन्दन ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब परशुरामजीने क्रोधसे लाल आँखें करके मुझसे कहा—‘महामते भीष्म! तुम मुझे अपना गुरु तो समझते हो; परंतु मेरा प्रिय करनेके लिये काशिराजकी इस कन्याको ग्रहण नहीं करते हो; किंतु कुरुनन्दन! ऐसा किये बिना तुम्हें शान्ति नहीं मिल सकती॥४०-४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गृहाणेमां महाबाहो रक्षस्व कुलमात्मनः।
त्वया विभ्रंशिता हीयं भर्तारं नाधिगच्छति ॥ ४२ ॥

मूलम्

गृहाणेमां महाबाहो रक्षस्व कुलमात्मनः।
त्वया विभ्रंशिता हीयं भर्तारं नाधिगच्छति ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! इसे ग्रहण कर लो और इस प्रकार अपने कुलकी रक्षा करो। तुम्हारे द्वारा अपनी मर्यादासे गिर जानेके कारण इसे पतिकी प्राप्ति नहीं हो रही है’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा ब्रुवन्तं तमहं रामं परपुरंजयम्।
नैतदेवं पुनर्भावि ब्रह्मर्षे किं श्रमेण ते ॥ ४३ ॥

मूलम्

तथा ब्रुवन्तं तमहं रामं परपुरंजयम्।
नैतदेवं पुनर्भावि ब्रह्मर्षे किं श्रमेण ते ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसी बातें करते हुए शत्रुनगरविजयी परशुरामजीसे मैंने स्पष्ट कह दिया—‘ब्रह्मर्षे! अब फिर ऐसी बात नहीं हो सकती। इस विषयमें आपके परिश्रमसे क्या होगा?॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरुत्वं त्वयि सम्प्रेक्ष्य जामदग्न्य पुरातनम्।
प्रसादये त्वां भगवंस्त्यक्तैषा तु पुरा मया ॥ ४४ ॥

मूलम्

गुरुत्वं त्वयि सम्प्रेक्ष्य जामदग्न्य पुरातनम्।
प्रसादये त्वां भगवंस्त्यक्तैषा तु पुरा मया ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जमदग्निनन्दन! भगवन्! आप मेरे प्राचीन गुरु हैं, यह सोचकर ही मैं आपको प्रसन्न करनेकी चेष्टा कर रहा हूँ। इस अम्बाको तो मैंने पहले ही त्याग दिया था॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

को जातु परभावां हि नारीं व्यालीमिव स्थिताम्।
वासयेत गृहे जानन् स्त्रीणां दोषो महात्ययः ॥ ४५ ॥

मूलम्

को जातु परभावां हि नारीं व्यालीमिव स्थिताम्।
वासयेत गृहे जानन् स्त्रीणां दोषो महात्ययः ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दूसरेके प्रति अनुराग रखनेवाली नारी सर्पिणीके समान भयंकर होती है। कौन ऐसा पुरुष होगा, जो जान-बूझकर उसे कभी भी अपने घरमें स्थान देगा; क्योंकि स्त्रियोंका (परपुरुषमें अनुरागरूप) दोष महान् अनर्थका कारण होता है॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न भयाद् वासवस्यापि धर्मं जह्यां महाव्रत।
प्रसीद मा वा यद्‌ वा ते कार्यं तत्‌ कुरु मा चिरम्॥४६॥

मूलम्

न भयाद् वासवस्यापि धर्मं जह्यां महाव्रत।
प्रसीद मा वा यद्‌ वा ते कार्यं तत्‌ कुरु मा चिरम्॥४६॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महान् व्रतधारी राम! मैं इन्द्रके भी भयसे धर्मका त्याग नहीं कर सकता। आप प्रसन्न हों या न हों। आपको जो कुछ करना हो, शीघ्र कर डालिये॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं चापि विशुद्धात्मन् पुराणे श्रूयते विभो।
मरुत्तेन महाबुद्धे गीतः श्लोको महात्मना ॥ ४७ ॥
“गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः ।
उत्पथप्रतिपन्नस्य परित्यागो विधीयते” ॥ ४८ ॥

मूलम्

अयं चापि विशुद्धात्मन् पुराणे श्रूयते विभो।
मरुत्तेन महाबुद्धे गीतः श्लोको महात्मना ॥ ४७ ॥
“गुरोरप्यवलिप्तस्य कार्याकार्यमजानतः ।
उत्पथप्रतिपन्नस्य परित्यागो विधीयते” ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विशुद्ध हृदयवाले परम बुद्धिमान् राम! पुराणमें महात्मा मरुत्तके द्वारा कहा हुआ यह श्लोक सुननेमें आता है कि यदि गुरु भी गर्वमें आकर कर्तव्य और अकर्तव्यको न समझते हुए कुपथका आश्रय ले तो उसका परित्याग कर दिया जाता है॥४७-४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वं गुरुरिति प्रेम्णा मया सम्मानितो भृशम्।
गुरुवृत्तिं न जानीषे तस्माद् योत्स्यामि वै त्वया ॥ ४९ ॥

मूलम्

स त्वं गुरुरिति प्रेम्णा मया सम्मानितो भृशम्।
गुरुवृत्तिं न जानीषे तस्माद् योत्स्यामि वै त्वया ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप मेरे गुरु हैं, यह समझकर मैंने प्रेमपूर्वक आपका अधिक-से-अधिक सम्मान किया है; परंतु आप गुरुका-सा बर्ताव नहीं जानते; अतः मैं आपके साथ युद्ध करूँगा॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गुरुं न हन्यां समरे ब्राह्मणं च विशेषतः।
विशेषतस्तपोवृद्धमेवं क्षान्तं मया तव ॥ ५० ॥

मूलम्

गुरुं न हन्यां समरे ब्राह्मणं च विशेषतः।
विशेषतस्तपोवृद्धमेवं क्षान्तं मया तव ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘एक तो आप गुरु हैं। उसमें भी विशेषतः ब्राह्मण हैं। उसपर भी विशेष बात यह है कि आप तपस्यामें बढ़े-चढ़े हैं। अतः आप-जैसे पुरुषको मैं कैसे मार सकता हूँ? यही सोचकर मैंने अबतक आपके तीक्ष्ण बर्तावको चुपचाप सह लिया॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्यतेषुमथो दृष्ट्वा ब्राह्मणं क्षत्रबन्धुवत्।
यो हन्यात् समरे क्रुद्धं युध्यन्तमपलायिनम् ॥ ५१ ॥
ब्रह्महत्या न तस्य स्यादिति धर्मेषु निश्चयः।
क्षत्रियाणां स्थितो धर्मे क्षत्रियोऽस्मि तपोधन ॥ ५२ ॥

मूलम्

उद्यतेषुमथो दृष्ट्वा ब्राह्मणं क्षत्रबन्धुवत्।
यो हन्यात् समरे क्रुद्धं युध्यन्तमपलायिनम् ॥ ५१ ॥
ब्रह्महत्या न तस्य स्यादिति धर्मेषु निश्चयः।
क्षत्रियाणां स्थितो धर्मे क्षत्रियोऽस्मि तपोधन ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि ब्राह्मण भी क्षत्रियकी भाँति धनुष-बाण उठाकर युद्धमें क्रोधपूर्वक सामने आकर युद्ध करने लगे और पीठ दिखाकर भागे नहीं तो उसे इस दशामें देखकर जो योद्धा मार डालता है, उसे ब्रह्महत्याका दोष नहीं लगता, यह धर्मशास्त्रोंका निर्णय है। तपोधन! मैं क्षत्रिय हूँ और क्षत्रियोंके ही धर्ममें स्थित हूँ॥५१-५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो यथा वर्तते यस्मिंस्तस्मिन्नेव प्रवर्तयन्।
नाधर्मं समवाप्नोति न चाश्रेयश्च विन्दति ॥ ५३ ॥

मूलम्

यो यथा वर्तते यस्मिंस्तस्मिन्नेव प्रवर्तयन्।
नाधर्मं समवाप्नोति न चाश्रेयश्च विन्दति ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो जैसा बर्ताव करता है, उसके साथ वैसा ही बर्ताव करनेवाला पुरुष न तो अधर्मको प्राप्त होता है और न अमंगलका ही भागी होता है॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थे वा यदि वा धर्मे समर्थो देशकालवित्।
अर्थसंशयमापन्नः श्रेयान्निःसंशयो नरः ॥ ५४ ॥

मूलम्

अर्थे वा यदि वा धर्मे समर्थो देशकालवित्।
अर्थसंशयमापन्नः श्रेयान्निःसंशयो नरः ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अर्थ (लौकिक कृत्य) और धर्मके विवेचनमें कुशल तथा देश-कालके तत्त्वको जाननेवाला पुरुष यदि अर्थके विषयमें संशय उत्पन्न होनेपर उसे छोड़कर संशयशून्य हृदयसे केवल धर्मका ही अनुष्ठान करे तो वह श्रेष्ठ माना गया है॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मात् संशयितेऽप्यर्थेऽयथान्यायं प्रवर्तसे ।
तस्माद् योत्स्यामि सहितस्त्वया राम महाहवे ॥ ५५ ॥

मूलम्

यस्मात् संशयितेऽप्यर्थेऽयथान्यायं प्रवर्तसे ।
तस्माद् योत्स्यामि सहितस्त्वया राम महाहवे ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राम! ‘अम्बा ग्रहण करनेयोग्य है या नहीं’ यह संशयग्रस्त विषय है तो भी आप इसे ग्रहण करनेके लिये मुझसे न्यायोचित बर्ताव नहीं कर रहे हैं; इसलिये महान् समरांगणमें आपके साथ युद्ध करूँगा॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य मे बाहुवीर्यं च विक्रमं चातिमानुषम्।
एवं गतेऽपि तु मया यच्छक्यं भृगुनन्दन ॥ ५६ ॥
तत् करिष्ये कुरुक्षेत्रे योत्स्ये विप्र त्वया सह।
द्वन्द्वे राम यथेष्टं मे सज्जीभव महाद्युते ॥ ५७ ॥

मूलम्

पश्य मे बाहुवीर्यं च विक्रमं चातिमानुषम्।
एवं गतेऽपि तु मया यच्छक्यं भृगुनन्दन ॥ ५६ ॥
तत् करिष्ये कुरुक्षेत्रे योत्स्ये विप्र त्वया सह।
द्वन्द्वे राम यथेष्टं मे सज्जीभव महाद्युते ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप उस समय मेरे बाहुबल और अलौकिक पराक्रमको देखियेगा। भृगुनन्दन! ऐसी स्थितिमें भी मैं जो कुछ कर सकता हूँ, उसे अवश्य करूँगा। विप्रवर! मैं कुरुक्षेत्रमें चलकर आपके साथ युद्ध करूँगा। महातेजस्वी राम! आप द्वन्द्वयुद्धके लिये इच्छानुसार तैयारी कर लीजिये॥५६-५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र त्वं निहतो राम मया शरशतार्दितः।
प्राप्स्यसे निर्जिताल्ँलोकान् शस्त्रपूतो महारणे ॥ ५८ ॥

मूलम्

तत्र त्वं निहतो राम मया शरशतार्दितः।
प्राप्स्यसे निर्जिताल्ँलोकान् शस्त्रपूतो महारणे ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राम! उस महान् युद्धमें मेरे सैकड़ों बाणोंसे पीड़ित एवं शस्त्रपूत हो मारे जानेपर आप पुण्यकर्मोंद्वारा जीते हुए दिव्य लोकोंको प्राप्त करेंगे॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स गच्छ विनिवर्तस्व कुरुक्षेत्रं रणप्रिय।
तत्रैष्यामि महाबाहो युद्धाय त्वां तपोधन ॥ ५९ ॥

मूलम्

स गच्छ विनिवर्तस्व कुरुक्षेत्रं रणप्रिय।
तत्रैष्यामि महाबाहो युद्धाय त्वां तपोधन ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘युद्धप्रिय महाबाहु तपोधन! अब आप लौटिये और कुरुक्षेत्रमें ही चलिये। मैं युद्धके लिये वहीं आपके पास आऊँगा॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि यत्र त्वया राम कृतं शौचं पुरा पितुः।
तत्राहमपि हत्वा त्वां शौचं कर्तास्मि भार्गव ॥ ६० ॥

मूलम्

अपि यत्र त्वया राम कृतं शौचं पुरा पितुः।
तत्राहमपि हत्वा त्वां शौचं कर्तास्मि भार्गव ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भृगुनन्दन परशुराम! जहाँ पूर्वकालमें अपने पिताको अंजलि-दान देकर आपने आत्मशुद्धिका अनुभव किया था, वहीं मैं भी आपको मारकर आत्मशुद्धि करूँगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र राम समागच्छ त्वरितं युद्धदुर्मद।
व्यपनेष्यामि ते दर्पं पौराणं ब्राह्मणब्रुव ॥ ६१ ॥

मूलम्

तत्र राम समागच्छ त्वरितं युद्धदुर्मद।
व्यपनेष्यामि ते दर्पं पौराणं ब्राह्मणब्रुव ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्राह्मण कहलानेवाले रणदुर्मद राम! आप तुरंत कुरुक्षेत्रमें पधारिये। मैं वहीं आकर आपके पुरातन दर्पका दलन करूँगा’॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्चापि कत्थसे राम बहुशः परिषत्सु वै।
निर्जिताः क्षत्रिया लोके मयैकेनेति तच्छृणु ॥ ६२ ॥

मूलम्

यच्चापि कत्थसे राम बहुशः परिषत्सु वै।
निर्जिताः क्षत्रिया लोके मयैकेनेति तच्छृणु ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राम! आप जो बहुत बार भरी सभाओंमें अपनी प्रशंसाके लिये यह कहा करते हैं कि मैंने अकेले ही संसारके समस्त क्षत्रियोंको जीत लिया था तो उसका उत्तर सुन लीजिये॥६२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तदा जातवान् भीष्मः क्षत्रियो वापि मद्विधः।
पश्चाज्जातानि तेजांसि तृणेषु ज्वलितं त्वया ॥ ६३ ॥

मूलम्

न तदा जातवान् भीष्मः क्षत्रियो वापि मद्विधः।
पश्चाज्जातानि तेजांसि तृणेषु ज्वलितं त्वया ॥ ६३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन दिनों भीष्म अथवा मेरे-जैसा दूसरा कोई क्षत्रिय नहीं उत्पन्न हुआ था। तेजस्वी क्षत्रिय तो पीछे उत्पन्न हुए हैं। आप तो घास-फूसमें ही प्रज्वलित हुए हैं (तिनकोंके समान दुर्बल क्षत्रियोंपर ही अपना तेज प्रकट किया है)॥६३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्ते युद्धमयं दर्पं कामं च व्यपनाशयेत्।
सोऽहं जातो महाबाहो भीष्मः परपुरंजयः।
व्यपनेष्यामि ते दर्पं युद्धे राम न संशयः ॥ ६४ ॥

मूलम्

यस्ते युद्धमयं दर्पं कामं च व्यपनाशयेत्।
सोऽहं जातो महाबाहो भीष्मः परपुरंजयः।
व्यपनेष्यामि ते दर्पं युद्धे राम न संशयः ॥ ६४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! जो आपकी युद्धविषयक कामना तथा अभिमानको नष्ट कर सके, वह शत्रुनगरीपर विजय पानेवाला यह भीष्म तो अब उत्पन्न हुआ है। राम! मैं युद्धमें आपका सारा घमंड चूर-चूर कर दूँगा, इसमें संशय नहीं है’॥६४॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो मामब्रवीद् रामः प्रहसन्निव भारत।
दिष्ट्या भीष्म मया सार्धं योद्‌धुमिच्छसि संगरे ॥ ६५ ॥

मूलम्

ततो मामब्रवीद् रामः प्रहसन्निव भारत।
दिष्ट्या भीष्म मया सार्धं योद्‌धुमिच्छसि संगरे ॥ ६५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मजी कहते हैं— भरतनन्दन! तब परशुरामजीने मुझसे हँसते हुए-से कहा—‘भीष्म! बड़े सौभाग्यकी बात है कि तुम रणक्षेत्रमें मेरे साथ युद्ध करना चाहते हो॥६५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं गच्छामि कौरव्य कुरुक्षेत्रं त्वया सह।
भाषितं ते करिष्यामि तत्रागच्छ परंतप ॥ ६६ ॥
तत्र त्वां निहतं माता मया शरशताचितम्।
जाह्नवी पश्यतां भीष्म गृध्रकङ्कबलाशनम् ॥ ६७ ॥

मूलम्

अयं गच्छामि कौरव्य कुरुक्षेत्रं त्वया सह।
भाषितं ते करिष्यामि तत्रागच्छ परंतप ॥ ६६ ॥
तत्र त्वां निहतं माता मया शरशताचितम्।
जाह्नवी पश्यतां भीष्म गृध्रकङ्कबलाशनम् ॥ ६७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुनन्दन! यह देखो, मैं तुम्हारे साथ युद्धके लिये कुरुक्षेत्रमें चलता हूँ। परंतप! वहीं आओ। मैं तुम्हारा कथन पूरा करूँगा। वहाँ तुम्हारी माता गंगा तुम्हें मेरे हाथसे मरकर सैकड़ों बाणोंसे व्याप्त और कौओं, कंकों तथा गीधोंका भोजन बना हुआ देखेगी॥६६-६७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृपणं त्वामभिप्रेक्ष्य सिद्धचारणसेविता ।
मया विनिहतं देवी रोदतामद्य पार्थिव ॥ ६८ ॥

मूलम्

कृपणं त्वामभिप्रेक्ष्य सिद्धचारणसेविता ।
मया विनिहतं देवी रोदतामद्य पार्थिव ॥ ६८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! तुम दीन हो। आज तुम्हें मेरे हाथसे मारा गया देख सिद्ध-चारणसेविता गंगादेवी रुदन करें॥६८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतदर्हा महाभागा भगीरथसुतानघा ।
या त्वामजीजनन्मन्दं युद्धकामुकमातुरम् ॥ ६९ ॥

मूलम्

अतदर्हा महाभागा भगीरथसुतानघा ।
या त्वामजीजनन्मन्दं युद्धकामुकमातुरम् ॥ ६९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यद्यपि वे महाभागा भगीरथपुत्री पापहीना गंगा यह दुःख देखनेके योग्य नहीं हैं, तथापि जिन्होंने तुम-जैसे युद्धकामी, आतुर एवं मूर्ख पुत्रको जन्म दिया है, उन्हें यह कष्ट भोगना ही पड़ेगा॥६९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एहि गच्छ मया भीष्म युद्धकामुक दुर्मद।
गृहाण सर्वं कौरव्य रथादि भरतर्षभ ॥ ७० ॥

मूलम्

एहि गच्छ मया भीष्म युद्धकामुक दुर्मद।
गृहाण सर्वं कौरव्य रथादि भरतर्षभ ॥ ७० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘युद्धकी इच्छा रखनेवाले मदोन्मत्त भीष्म! आओ, मेरे साथ चलो। भरतश्रेष्ठ कुरुनन्दन! रथ आदि सारी सामग्री साथ ले लो’॥७०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति ब्रुवाणं तमहं राम परपुरंजयम्।
प्रणम्य शिरसा राममेवमस्त्वित्यथाब्रुवम् ॥ ७१ ॥

मूलम्

इति ब्रुवाणं तमहं राम परपुरंजयम्।
प्रणम्य शिरसा राममेवमस्त्वित्यथाब्रुवम् ॥ ७१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुओंकी नगरीपर विजय पानेवाले परशुरामजीको इस प्रकार कहते देख मैंने मस्तक झुकाकर उन्हें प्रणाम किया और ‘एवमस्तु’ कहकर उनकी आज्ञा स्वीकार की॥७१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा ययौ रामः कुरुक्षेत्रं युयुत्सया।
प्रविश्य नगरं चाहं सत्यवत्यै न्यवेदयम् ॥ ७२ ॥

मूलम्

एवमुक्त्वा ययौ रामः कुरुक्षेत्रं युयुत्सया।
प्रविश्य नगरं चाहं सत्यवत्यै न्यवेदयम् ॥ ७२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ऐसा कहकर परशुरामजी युद्धकी इच्छासे कुरुक्षेत्रमें गये और मैंने नगरमें प्रवेश करके सत्यवतीसे यह सारा समाचार निवेदन किया॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कृतस्वस्त्ययनो मात्रा च प्रतिनन्दितः।
द्विजातीन् वाच्य पुण्याहं स्वस्ति चैव महाद्युते ॥ ७३ ॥
रथमास्थाय रुचिरं राजतं पाण्डुरैर्हयैः।
सूपस्करं स्वधिष्ठानं वैयाघ्रपरिवारणम् ॥ ७४ ॥
उपपन्नं महाशस्त्रैः सर्वोपकरणान्वितम् ।
तत्कुलीनेन वीरेण हयशास्त्रविदा रणे ॥ ७५ ॥
यत्तुं सूतेन शिष्टेन बहुशो दृष्टकर्मणा।

मूलम्

ततः कृतस्वस्त्ययनो मात्रा च प्रतिनन्दितः।
द्विजातीन् वाच्य पुण्याहं स्वस्ति चैव महाद्युते ॥ ७३ ॥
रथमास्थाय रुचिरं राजतं पाण्डुरैर्हयैः।
सूपस्करं स्वधिष्ठानं वैयाघ्रपरिवारणम् ॥ ७४ ॥
उपपन्नं महाशस्त्रैः सर्वोपकरणान्वितम् ।
तत्कुलीनेन वीरेण हयशास्त्रविदा रणे ॥ ७५ ॥
यत्तुं सूतेन शिष्टेन बहुशो दृष्टकर्मणा।

अनुवाद (हिन्दी)

महातेजस्वी नरेश! उस समय स्वस्तिवाचन कराकर माता सत्यवतीने मेरा अभिनन्दन किया और मैं ब्राह्मणोंसे पुण्याहवाचन करा उनसे कल्याणकारी आशीर्वाद ले सुन्दर रजतमय रथपर आरूढ़ हुआ। उस रथमें श्वेत रंगके घोड़े जुते हुए थे। उसमें सब प्रकारकी आवश्यक सामग्री सुन्दर ढंगसे रखी गयी थी। उसकी बैठक बहुत सुन्दर थी। रथके ऊपर व्याघ्रचर्मका आवरण लगाया गया था। वह रथ बड़े-बड़े शस्त्रों तथा समस्त उपकरणोंसे सम्पन्न था। युद्धमें जिसका कार्य अनेक बार देख लिया गया था, ऐसे सुशिक्षित, कुलीन, वीर तथा अश्वशास्त्रके पण्डित सारथिद्वारा उस रथका संचालन और नियन्त्रण होता था॥७३—७५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दंशितः पाण्डुरेणाहं कवचेन वपुष्मता ॥ ७६ ॥
पाण्डुरं कार्मुकं गृह्य प्रायां भरतसत्तम।

मूलम्

दंशितः पाण्डुरेणाहं कवचेन वपुष्मता ॥ ७६ ॥
पाण्डुरं कार्मुकं गृह्य प्रायां भरतसत्तम।

अनुवाद (हिन्दी)

भरतश्रेष्ठ! मैंने अपने शरीरपर श्वेतवर्णका कवच धारण करके श्वेत धनुष हाथमें लेकर यात्रा की॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डुरेणातपत्रेण ध्रियमाणेन मूर्धनि ॥ ७७ ॥
पाण्डुरैश्चापि व्यजनैर्वीज्यमानो नराधिप ।
शुक्लवासाः सितोष्णीषः सर्वशुक्लविभूषणः ॥ ७८ ॥

मूलम्

पाण्डुरेणातपत्रेण ध्रियमाणेन मूर्धनि ॥ ७७ ॥
पाण्डुरैश्चापि व्यजनैर्वीज्यमानो नराधिप ।
शुक्लवासाः सितोष्णीषः सर्वशुक्लविभूषणः ॥ ७८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरेश्वर! उस समय मेरे मस्तकपर श्वेत छत्र तना हुआ था और मेरे दोनों ओर सफेद रंगके चँवर डुलाये जाते थे। मेरे वस्त्र, मेरी पगड़ी और मेरे समस्त आभूषण श्वेतवर्णके ही थे॥७७-७८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्तूयमानो जयाशीर्भिर्निष्क्रम्य गजसाह्वयात् ।
कुरुक्षेत्रं रणक्षेत्रमुपायां भरतर्षभ ॥ ७९ ॥

मूलम्

स्तूयमानो जयाशीर्भिर्निष्क्रम्य गजसाह्वयात् ।
कुरुक्षेत्रं रणक्षेत्रमुपायां भरतर्षभ ॥ ७९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विजयसूचक आशीर्वादोंके साथ मेरी स्तुति की जा रही थी। भरतभूषण! उस अवस्थामें मैं हस्तिनापुरसे निकलकर कुरुक्षेत्रके समरांगणमें गया॥७९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते हयाश्चोदितास्तेन सूतेन परमाहवे।
अवहन् मां भृशं राजन् मनोमारुतरंहसः ॥ ८० ॥

मूलम्

ते हयाश्चोदितास्तेन सूतेन परमाहवे।
अवहन् मां भृशं राजन् मनोमारुतरंहसः ॥ ८० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मेरे घोड़े मन और वायुके समान वेगशाली थे। सारथिके हाँकनेपर उन्होंने बात-की-बातमें मुझे उस महान् युद्धके स्थानपर पहुँचा दिया॥८०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गत्वाहं तत् कुरुक्षेत्रं स च रामः प्रतापवान्।
युद्धाय सहसा राजन् पराक्रान्तौ परस्परम् ॥ ८१ ॥

मूलम्

गत्वाहं तत् कुरुक्षेत्रं स च रामः प्रतापवान्।
युद्धाय सहसा राजन् पराक्रान्तौ परस्परम् ॥ ८१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! मैं तथा प्रतापी परशुरामजी दोनों कुरुक्षेत्रमें पहुँचकर युद्धके लिये सहसा एक-दूसरेको पराक्रम दिखानेके लिये उद्यत हो गये॥८१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः संदर्शनेऽतिष्ठं रामस्यातितपस्विनः ।
प्रगृह्य शङ्खप्रवरं ततः प्राधममुत्तमम् ॥ ८२ ॥

मूलम्

ततः संदर्शनेऽतिष्ठं रामस्यातितपस्विनः ।
प्रगृह्य शङ्खप्रवरं ततः प्राधममुत्तमम् ॥ ८२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर मैं अत्यन्त तपस्वी परशुरामजीकी दृष्टिके सामने खड़ा हुआ और अपने श्रेष्ठ शंखको हाथमें लेकर उसे जोर-जोरसे बजाने लगा॥८२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्तत्र द्विजा राजंस्तापसाश्च वनौकसः।
अपश्यन्त रणं दिव्यं देवाः सेन्द्रगणास्तदा ॥ ८३ ॥

मूलम्

ततस्तत्र द्विजा राजंस्तापसाश्च वनौकसः।
अपश्यन्त रणं दिव्यं देवाः सेन्द्रगणास्तदा ॥ ८३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस समय वहाँ बहुत-से ब्राह्मण, वनवासी तपस्वी तथा इन्द्रसहित देवगण उस दिव्य युद्धको देखने लगे॥८३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो दिव्यानि माल्यानि प्रादुरासंस्ततस्ततः।
वादित्राणि च दिव्यानि मेघवृन्दानि चैव ह ॥ ८४ ॥

मूलम्

ततो दिव्यानि माल्यानि प्रादुरासंस्ततस्ततः।
वादित्राणि च दिव्यानि मेघवृन्दानि चैव ह ॥ ८४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर वहाँ इधर-उधरसे दिव्य मालाएँ प्रकट होने लगीं और दिव्य वाद्य बज उठे। साथ ही सब ओर मेघोंकी घटाएँ छा गयीं॥८४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते तापसाः सर्वे भार्गवस्यानुयायिनः।
प्रेक्षकाः समपद्यन्त परिवार्य रणाजिरम् ॥ ८५ ॥

मूलम्

ततस्ते तापसाः सर्वे भार्गवस्यानुयायिनः।
प्रेक्षकाः समपद्यन्त परिवार्य रणाजिरम् ॥ ८५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर परशुरामजीके साथ आये हुए वे सब तपस्वी उस संग्रामभूमिको सब ओरसे घेरकर दर्शक बन गये॥८५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो मामब्रवीद् देवी सर्वभूतहितैषिणी।
माता स्वरूपिणी राजन् किमिदं ते चिकीर्षितम् ॥ ८६ ॥

मूलम्

ततो मामब्रवीद् देवी सर्वभूतहितैषिणी।
माता स्वरूपिणी राजन् किमिदं ते चिकीर्षितम् ॥ ८६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उस समय समस्त प्राणियोंका हित चाहनेवाली मेरी माता गंगादेवी स्वरूपतः प्रकट होकर बोलीं—‘बेटा! यह तू क्या करना चाहता है?॥८६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गत्वाहं जामदग्न्यं तु प्रयाचिष्ये कुरूद्वह।
भीष्मेण सह मा योत्सीः शिष्येणेति पुनः पुनः ॥ ८७ ॥

मूलम्

गत्वाहं जामदग्न्यं तु प्रयाचिष्ये कुरूद्वह।
भीष्मेण सह मा योत्सीः शिष्येणेति पुनः पुनः ॥ ८७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुश्रेष्ठ! मैं स्वयं जाकर जमदग्निनन्दन परशुरामजीसे बारंबार याचना करूँगी कि आप अपने शिष्य भीष्मके साथ युद्ध न कीजिये॥८७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा मैवं पुत्र निर्बन्धं कुरु विप्रेण पार्थिव।
जामदग्न्येन समरे योद्‌धुमित्येव भर्त्सयत् ॥ ८८ ॥

मूलम्

मा मैवं पुत्र निर्बन्धं कुरु विप्रेण पार्थिव।
जामदग्न्येन समरे योद्‌धुमित्येव भर्त्सयत् ॥ ८८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बेटा! तू ऐसा आग्रह न कर। राजन्! विप्रवर जमदग्निनन्दन परशुरामके साथ समरभूमिमें युद्ध करनेका हठ अच्छा नहीं है।’ ऐसा कहकर वे डाँट बताने लगीं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किन्न वै क्षत्रियहणो हरतुल्यपराक्रमः।
विदितः पुत्र रामस्ते यतस्तं योद्‌धुमिच्छसि ॥ ८९ ॥

मूलम्

किन्न वै क्षत्रियहणो हरतुल्यपराक्रमः।
विदितः पुत्र रामस्ते यतस्तं योद्‌धुमिच्छसि ॥ ८९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अन्तमें वे फिर बोलीं—‘बेटा! क्षत्रियहन्ता परशुराम महादेवजीके समान पराक्रमी हैं। क्या तू उन्हें नहीं जानता, जो उनके साथ युद्ध करना चाहता है?’॥८९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽहमब्रुवं देवीमभिवाद्य कृताञ्जलिः ।
सर्वं तद् भरतश्रेष्ठ यथावृत्तं स्वयंवरे ॥ ९० ॥

मूलम्

ततोऽहमब्रुवं देवीमभिवाद्य कृताञ्जलिः ।
सर्वं तद् भरतश्रेष्ठ यथावृत्तं स्वयंवरे ॥ ९० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब मैंने हाथ जोड़कर गंगादेवीको प्रणाम किया और स्वयंवरमें जैसी घटना घटित हुई थी, वह सब वृत्तान्त उनसे आद्योपान्त कह सुनाया॥९०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा च रामो राजेन्द्र मया पूर्वं प्रचोदितः।
काशिराजसुतायाश्च यथा कर्म पुरातनम् ॥ ९१ ॥

मूलम्

यथा च रामो राजेन्द्र मया पूर्वं प्रचोदितः।
काशिराजसुतायाश्च यथा कर्म पुरातनम् ॥ ९१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! मैंने परशुरामजीसे पहले जो-जो बातें कही थीं तथा काशिराजकी कन्याकी जो पुरानी करतूतें थीं, उन सबको बता दिया॥९१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सा राममभ्येत्य जननी मे महानदी।
मदर्थं तमृषिं वीक्ष्य क्षमयामास भार्गवम् ॥ ९२ ॥

मूलम्

ततः सा राममभ्येत्य जननी मे महानदी।
मदर्थं तमृषिं वीक्ष्य क्षमयामास भार्गवम् ॥ ९२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् मेरी जन्मदायिनी माता गंगाने भृगुनन्दन परशुरामजीके पास जाकर मेरे लिये उनसे क्षमा माँगी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मेण सह मा योत्सीः शिष्येणेति वचोऽब्रवीत्।
स च तामाह याचन्तीं भीष्ममेव निवर्तय।
न च मे कुरुते काममित्यहं तमुपागमम् ॥ ९३ ॥

मूलम्

भीष्मेण सह मा योत्सीः शिष्येणेति वचोऽब्रवीत्।
स च तामाह याचन्तीं भीष्ममेव निवर्तय।
न च मे कुरुते काममित्यहं तमुपागमम् ॥ ९३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

साथ ही यह भी कहा कि भीष्म आपका शिष्य है; अतः उसके साथ आप युद्ध न कीजिये। तब याचना करनेवाली मेरी मातासे परशुरामजीने कहा—‘तुम पहले भीष्मको ही युद्धसे निवृत्त करो। वह मेरे इच्छानुसार कार्य नहीं कर रहा है; इसीलिये मैंने उसपर चढ़ाई की है’॥९३॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो गङ्गा सुतस्नेहाद् भीष्मं पुनरुपागमत्।
न चास्याश्चाकरोद् वाक्यं क्रोधपर्याकुलेक्षणः ॥ ९४ ॥

मूलम्

ततो गङ्गा सुतस्नेहाद् भीष्मं पुनरुपागमत्।
न चास्याश्चाकरोद् वाक्यं क्रोधपर्याकुलेक्षणः ॥ ९४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तब गंगादेवी पुत्रस्नेहवश पुनः भीष्मके पास आयीं। उस समय भीष्मके नेत्रोंमें क्रोध व्याप्त हो रहा था; अतः उन्होंने भी माताका कहना नहीं माना॥९४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथादृश्यत धर्मात्मा भृगुश्रेष्ठो महातपाः।
आह्वयामास च तदा युद्धाय द्विजसत्तमः ॥ ९५ ॥

मूलम्

अथादृश्यत धर्मात्मा भृगुश्रेष्ठो महातपाः।
आह्वयामास च तदा युद्धाय द्विजसत्तमः ॥ ९५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतनेमें ही भृगुकुलतिलक ब्राह्मणशिरोमणि महातपस्वी धर्मात्मा परशुरामजी दिखायी दिये। उन्होंने सामने आकर युद्धके लिये भीष्मको ललकारा॥९५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि अम्बोपाख्यानपर्वणि परशुरामभीष्मयोः कुरुक्षेत्रावतरणे अष्टसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत अम्बोपाख्यानपर्वमें परशुराम और भीष्मका कुरुक्षेत्रमें युद्धके लिये अवतरणविषयक एक सौ अठहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७८॥