भागसूचना
पञ्चसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अम्बाका शाल्वके यहाँ जाना और उससे परित्यक्त होकर तापसोंके आश्रममें आना, वहाँ शैखावत्य और अम्बाका संवाद
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽहं समनुज्ञाप्य कालीं गन्धवतीं तदा।
मन्त्रिणश्चर्त्विजश्चैव तथैव च पुरोहितान् ॥ १ ॥
समनुज्ञासिषं कन्यामम्बां ज्येष्ठां नराधिप।
मूलम्
ततोऽहं समनुज्ञाप्य कालीं गन्धवतीं तदा।
मन्त्रिणश्चर्त्विजश्चैव तथैव च पुरोहितान् ॥ १ ॥
समनुज्ञासिषं कन्यामम्बां ज्येष्ठां नराधिप।
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— नरेश्वर! तब मैंने माता गन्धवती कालीसे आज्ञा ले मन्त्रियों, ऋत्विजों तथा पुरोहितोंसे पूछकर बड़ी राजकुमारी अम्बाको जानेकी आज्ञा दे दी॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुज्ञाता ययौ सा तु कन्या शाल्वपतेः पुरम् ॥ २ ॥
वृद्धैर्द्विजातिभिर्गुप्ता धात्र्या चानुगता तदा।
अतीत्य च तमध्वानमासाद्य नृपतिं तथा ॥ ३ ॥
सा तमासाद्य राजानं शाल्वं वचनमब्रवीत्।
आगताहं महाबाहो त्वामुद्दिश्य महामते ॥ ४ ॥
मूलम्
अनुज्ञाता ययौ सा तु कन्या शाल्वपतेः पुरम् ॥ २ ॥
वृद्धैर्द्विजातिभिर्गुप्ता धात्र्या चानुगता तदा।
अतीत्य च तमध्वानमासाद्य नृपतिं तथा ॥ ३ ॥
सा तमासाद्य राजानं शाल्वं वचनमब्रवीत्।
आगताहं महाबाहो त्वामुद्दिश्य महामते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आज्ञा पाकर राजकन्या अम्बा वृद्ध ब्राह्मणोंके संरक्षणमें रहकर शाल्वराजके नगरकी ओर गयी। उसके साथ उसकी धाय भी थी। उस मार्गको लाँघकर वह राजाके यहाँ पहुँच गयी और शाल्वराजसे मिलकर इस प्रकार बोली—‘महाबाहो! महामते! मैं तुम्हारे पास ही आयी हूँ॥२—४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(अभिनन्दस्व मां राजन् सदा प्रियहिते रताम्।
प्रतिपादय मां राजन् धर्मार्थं चैव धर्मतः॥
त्वं हि मनसा ध्यातस्त्वया चाप्युपमन्त्रिता ॥ )
मूलम्
(अभिनन्दस्व मां राजन् सदा प्रियहिते रताम्।
प्रतिपादय मां राजन् धर्मार्थं चैव धर्मतः॥
त्वं हि मनसा ध्यातस्त्वया चाप्युपमन्त्रिता ॥ )
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! मैं सदा तुम्हारे प्रिय और हितमें तत्पर रहनेवाली हूँ। मुझे अपनाकर आनन्दित करो। नरेश्वर! मुझे धर्मानुसार ग्रहण करके धर्मके लिये ही अपने चरणोंमें स्थान दो। मैंने मन-ही-मन सदा तुम्हारा ही चिन्तन किया है और तुमने भी एकान्तमें मेरे साथ विवाहका प्रस्ताव किया था’।
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामब्रवीच्छाल्वपतिः स्मयन्निव विशाम्पते ।
त्वयान्यपूर्वया नाहं भार्यार्थी वरवर्णिनि ॥ ५ ॥
मूलम्
तामब्रवीच्छाल्वपतिः स्मयन्निव विशाम्पते ।
त्वयान्यपूर्वया नाहं भार्यार्थी वरवर्णिनि ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! अम्बाकी बात सुनकर शाल्वराजने मुसकराते हुए-से कहा—‘सुन्दरी! तुम पहले दूसरेकी हो चुकी हो; अतः तुम्हारी-जैसी स्त्रीके साथ विवाह करनेकी मेरी इच्छा नहीं है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ भद्रे पुनस्तत्र सकाशं भीष्मकस्य वै।
नाहमिच्छामि भीष्मेण गृहीतां त्वां प्रसह्य वै ॥ ६ ॥
मूलम्
गच्छ भद्रे पुनस्तत्र सकाशं भीष्मकस्य वै।
नाहमिच्छामि भीष्मेण गृहीतां त्वां प्रसह्य वै ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भद्रे! तुम पुनः वहाँ भीष्मके ही पास जाओ। भीष्मने तुम्हें बलपूर्वक पकड़ लिया था, अतः अब तुम्हें मैं अपनी पत्नी बनाना नहीं चाहता॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं हि भीष्मेण निर्जित्य नीता प्रीतिमती तदा।
परामृश्य महायुद्धे निर्जित्य पृथिवीपतीन् ॥ ७ ॥
मूलम्
त्वं हि भीष्मेण निर्जित्य नीता प्रीतिमती तदा।
परामृश्य महायुद्धे निर्जित्य पृथिवीपतीन् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भीष्मने उस महायुद्धमें समस्त भूपालोंको हराकर तुम्हें जीता और तुम्हें उठाकर वे अपने साथ ले गये। तुम उस समय उनके साथ प्रसन्न थीं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं त्वय्यन्यपूर्वायां भार्यार्थी वरवर्णिनि।
कथमस्मद्विधो राजा परपूर्वां प्रवेशयेत् ॥ ८ ॥
नारीं विदितविज्ञानः परेषां धर्ममादिशन्।
यथेष्टं गम्यतां भद्रे मा त्वां कालोऽत्यगादयम् ॥ ९ ॥
मूलम्
नाहं त्वय्यन्यपूर्वायां भार्यार्थी वरवर्णिनि।
कथमस्मद्विधो राजा परपूर्वां प्रवेशयेत् ॥ ८ ॥
नारीं विदितविज्ञानः परेषां धर्ममादिशन्।
यथेष्टं गम्यतां भद्रे मा त्वां कालोऽत्यगादयम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वरवर्णिनि! जो पहले औरकी हो चुकी हो, ऐसी स्त्रीको मैं अपनी पत्नी बनाऊँ, यह मेरी इच्छा नहीं है। जिस नारीपर पहले किसी दूसरे पुरुषका अधिकार हो गया हो, उसे सारी बातोंको ठीक-ठीक जाननेवाला मेरे-जैसा राजा जो दूसरोंको धर्मका उपदेश करता है, कैसे अपने घरमें प्रविष्ट करायेगा। भद्रे! तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, चली जाओ। तुम्हारा यह समय यहाँ व्यर्थ न बीते’॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अम्बा तमब्रवीद् राजन्ननङ्गशरपीडिता ।
नैवं वद महीपाल नैतदेवं कथंचन ॥ १० ॥
नास्मि प्रीतिमती नीता भीष्मेणामित्रकर्शन।
बलान्नीतास्मि रुदती विद्राव्य पृथिवीपतीन् ॥ ११ ॥
मूलम्
अम्बा तमब्रवीद् राजन्ननङ्गशरपीडिता ।
नैवं वद महीपाल नैतदेवं कथंचन ॥ १० ॥
नास्मि प्रीतिमती नीता भीष्मेणामित्रकर्शन।
बलान्नीतास्मि रुदती विद्राव्य पृथिवीपतीन् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! यह सुनकर कामदेवके बाणोंसे पीड़ित हुई अम्बा शाल्वराजसे बोली—‘भूपाल! तुम किसी तरह भी ऐसी बात मुँहसे न निकालो। शत्रुसूदन! मैं भीष्मके साथ प्रसन्नतापूर्वक नहीं गयी थी। उन्होंने समस्त राजाओंको खदेड़कर बलपूर्वक मेरा अपहरण किया था और मैं रोती हुई ही उनके साथ गयी थी॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भजस्व मां शाल्वपते भक्तां बालामनागसम्।
भक्तानां हि परित्यागो न धर्मेषु प्रशस्यते ॥ १२ ॥
मूलम्
भजस्व मां शाल्वपते भक्तां बालामनागसम्।
भक्तानां हि परित्यागो न धर्मेषु प्रशस्यते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शाल्वराज! मैं निरपराध अबला हूँ। तुम्हारे प्रति अनुरक्त हूँ। मुझे स्वीकार करो; क्योंकि भक्तोंका परित्याग किसी भी धर्ममें अच्छा नहीं बताया गया है॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
साहमामन्त्र्य गाङ्गेयं समरेष्वनिवर्तिनम् ।
अनुज्ञाता च तेनैव ततोऽहं भृशमागता ॥ १३ ॥
मूलम्
साहमामन्त्र्य गाङ्गेयं समरेष्वनिवर्तिनम् ।
अनुज्ञाता च तेनैव ततोऽहं भृशमागता ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘युद्धमें कभी पीठ न दिखानेवाले गंगानन्दन भीष्मसे पूछकर, उनकी आज्ञा लेकर अत्यन्त उत्कण्ठाके साथ मैं यहाँ आयी हूँ॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न स भीष्मो महाबाहुर्मामिच्छति विशाम्पते।
भ्रातृहेतोः समारम्भो भीष्मस्येति श्रुतं मया ॥ १४ ॥
मूलम्
न स भीष्मो महाबाहुर्मामिच्छति विशाम्पते।
भ्रातृहेतोः समारम्भो भीष्मस्येति श्रुतं मया ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! महाबाहु भीष्म मुझे नहीं चाहते। उनका यह आयोजन अपने भाईके विवाहके लिये था, ऐसा मैंने सुना है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगिन्यौ मम ये नीते अम्बिकाम्बालिके नृप।
प्रादाद् विचित्रवीर्याय गाङ्गेयो हि यवीयसे ॥ १५ ॥
मूलम्
भगिन्यौ मम ये नीते अम्बिकाम्बालिके नृप।
प्रादाद् विचित्रवीर्याय गाङ्गेयो हि यवीयसे ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘नरेश्वर! भीष्म जिन मेरी दो बहिनों—अम्बिका और अम्बालिकाको हरकर ले गये थे, उन्हें उन्होंने अपने छोटे भाई विचित्रवीर्यको ब्याह दिया है॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यथा शाल्वपते नान्यं वरं ध्यामि कथंचन।
त्वामृते पुरुषव्याघ्र तथा मूर्धानमालभे ॥ १६ ॥
मूलम्
यथा शाल्वपते नान्यं वरं ध्यामि कथंचन।
त्वामृते पुरुषव्याघ्र तथा मूर्धानमालभे ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पुरुषसिंह शाल्वराज! मैं अपना मस्तक छूकर कहती हूँ; तुम्हारे सिवा दूसरे किसी वरका मैं किसी प्रकार भी चिन्तन नहीं करती हूँ॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चान्यपूर्वा राजेन्द्र त्वामहं समुपस्थिता।
सत्यं ब्रवीमि शाल्वैतत् सत्येनात्मानमालभे ॥ १७ ॥
मूलम्
न चान्यपूर्वा राजेन्द्र त्वामहं समुपस्थिता।
सत्यं ब्रवीमि शाल्वैतत् सत्येनात्मानमालभे ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजेन्द्र शाल्व! मुझपर किसी भी दूसरे पुरुषका पहले कभी अधिकार नहीं रहा है। मैं स्वेच्छापूर्वक पहले-पहल तुम्हारी ही सेवामें उपस्थित हुई हूँ। यह मैं सत्य कहती हूँ और इस सत्यके द्वारा ही इस शरीरकी शपथ खाती हूँ॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भजस्व मां विशालाक्ष स्वयं कन्यामुपस्थिताम्।
अनन्यपूर्वां राजेन्द्र त्वत्प्रसादाभिकङ्क्षणीम् ॥ १८ ॥
मूलम्
भजस्व मां विशालाक्ष स्वयं कन्यामुपस्थिताम्।
अनन्यपूर्वां राजेन्द्र त्वत्प्रसादाभिकङ्क्षणीम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विशाल नेत्रोंवाले महाराज! मैंने आजसे पहले किसी दूसरे पुरुषको अपना पति नहीं समझा है। मैं तुम्हारी कृपाकी अभिलाषा रखती हूँ। स्वयं ही अपनी सेवामें उपस्थित हुई मुझ कुमारी कन्याको धर्मपत्नीके रूपमें स्वीकार कीजिये’॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तामेवं भाषमाणां तु शाल्वः काशिपतेः सुताम्।
अत्यजद् भरतश्रेष्ठ जीर्णां त्वचमिवोरगः ॥ १९ ॥
मूलम्
तामेवं भाषमाणां तु शाल्वः काशिपतेः सुताम्।
अत्यजद् भरतश्रेष्ठ जीर्णां त्वचमिवोरगः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार अनुनय-विनय करती हुई काशिराजकी उस कन्याको शाल्वने उसी प्रकार त्याग दिया, जैसे सर्प पुरानी केंचुलको छोड़ देता है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं बहुविधैर्वाक्यैर्याच्यमानस्तया नृपः ।
नाश्रद्दधच्छाल्वपतिः कन्यायां भरतर्षभ ॥ २० ॥
मूलम्
एवं बहुविधैर्वाक्यैर्याच्यमानस्तया नृपः ।
नाश्रद्दधच्छाल्वपतिः कन्यायां भरतर्षभ ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतभूषण! इस तरह नाना प्रकारके वचनोंद्वारा बार-बार याचना करनेपर भी शाल्वराजने उस कन्याकी बातोंपर विश्वास नहीं किया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सा मन्युनाऽऽविष्टा ज्येष्ठा काशिपतेः सुता।
अब्रवीत् साश्रुनयना बाष्पविप्लुतया गिरा ॥ २१ ॥
मूलम्
ततः सा मन्युनाऽऽविष्टा ज्येष्ठा काशिपतेः सुता।
अब्रवीत् साश्रुनयना बाष्पविप्लुतया गिरा ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब काशिराजकी ज्येष्ठ पुत्री अम्बा क्रोध एवं दुःखसे व्याप्त हो नेत्रोंसे आँसू बहाती हुई अश्रुगद्गद वाणीमें बोली—॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वया त्यक्ता गमिष्यामि यत्र तत्र विशाम्पते।
तत्र मे गतयः सन्तु सन्तः सत्यं यथा ध्रुवम्॥२२॥
मूलम्
त्वया त्यक्ता गमिष्यामि यत्र तत्र विशाम्पते।
तत्र मे गतयः सन्तु सन्तः सत्यं यथा ध्रुवम्॥२२॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! यदि मेरी कही बात निश्चितरूपसे सत्य हो तो तुमसे परित्यक्त होनेपर मैं जहाँ-जहाँ जाऊँ, वहाँ-वहाँ साधु पुरुष मुझे सहारा देनेवाले हों’॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं तां भाषमाणां तु कन्यां शाल्वपतिस्तदा।
परितत्याज कौरव्य करुणं परिदेवतीम् ॥ २३ ॥
मूलम्
एवं तां भाषमाणां तु कन्यां शाल्वपतिस्तदा।
परितत्याज कौरव्य करुणं परिदेवतीम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुनन्दन! राजकन्या अम्बा करुणस्वरसे विलाप करती हुई इसी प्रकार कितनी ही बातें कहती रही; परंतु शाल्वराजने उसे सर्वथा त्याग दिया॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गच्छ गच्छेति तां शाल्वः पुनः पुनरभाषत।
बिभेमि भीष्मात् सुश्रोणि त्वं च भीष्मपरिग्रहः ॥ २४ ॥
मूलम्
गच्छ गच्छेति तां शाल्वः पुनः पुनरभाषत।
बिभेमि भीष्मात् सुश्रोणि त्वं च भीष्मपरिग्रहः ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शाल्वने बारंबार उससे कहा—‘सुश्रोणि! तुम जाओ, चली जाओ, मैं भीष्मसे डरता हूँ। तुम भीष्मके द्वारा ग्रहण की हुई हो’॥२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ता तु सा तेन शाल्वेनादीर्घदर्शिना।
निश्चक्राम पुराद् दीना रुदती कुररी यथा ॥ २५ ॥
मूलम्
एवमुक्ता तु सा तेन शाल्वेनादीर्घदर्शिना।
निश्चक्राम पुराद् दीना रुदती कुररी यथा ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अदूरदर्शी शाल्वके ऐसा कहनेपर अम्बा कुररीकी भाँति दीनभावसे रुदन करती हुई उस नगरसे निकल गयी॥२५॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
निष्क्रामन्ती तु नगराच्चिन्तयामास दुःखिता।
पृथिव्यां नास्ति युवतिर्विषमस्थतरा मया ॥ २६ ॥
मूलम्
निष्क्रामन्ती तु नगराच्चिन्तयामास दुःखिता।
पृथिव्यां नास्ति युवतिर्विषमस्थतरा मया ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— राजन्! नगरसे निकलते समय वह दुःखिनी नारी इस प्रकार चिन्ता करने लगी—‘इस पृथ्वीपर कोई भी ऐसी युवती नहीं होगी, जो मेरे समान भारी संकटमें पड़ गयी हो॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बन्धुभिर्विप्रहीणास्मि शाल्वेन च निराकृता।
न च शक्यं पुनर्गन्तुं मया वारणसाह्वयम् ॥ २७ ॥
मूलम्
बन्धुभिर्विप्रहीणास्मि शाल्वेन च निराकृता।
न च शक्यं पुनर्गन्तुं मया वारणसाह्वयम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भाई-बन्धुओंसे तो दूर हो ही गयी हूँ। राजा शाल्वने भी मुझे त्याग दिया है। अब मैं हस्तिनापुरमें भी नहीं जा सकती॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनुज्ञाता तु भीष्मेण शाल्वमुद्दिश्य कारणम्।
किं नु गर्हाम्यथात्मानमथ भीष्मं दुरासदम् ॥ २८ ॥
मूलम्
अनुज्ञाता तु भीष्मेण शाल्वमुद्दिश्य कारणम्।
किं नु गर्हाम्यथात्मानमथ भीष्मं दुरासदम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘क्योंकि शाल्वके अनुरागको कारण बताकर मैंने भीष्मसे यहाँ आनेकी आज्ञा ली थी। अब मैं अपनी ही निन्दा करूँ या उस दुर्जय वीर भीष्मको कोसूँ?॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अथवा पितरं मूढं यो मेऽकार्षीत् स्वयंवरम्।
मयायं स्वकृतो दोषो याहं भीष्मरथात् तदा ॥ २९ ॥
प्रवृत्ते दारुणे युद्धे शाल्वार्थं नापतं पुरा।
मूलम्
अथवा पितरं मूढं यो मेऽकार्षीत् स्वयंवरम्।
मयायं स्वकृतो दोषो याहं भीष्मरथात् तदा ॥ २९ ॥
प्रवृत्ते दारुणे युद्धे शाल्वार्थं नापतं पुरा।
अनुवाद (हिन्दी)
‘अथवा अपने मूढ़ पिताको दोष दूँ, जिन्होंने मेरा स्वयंवर किया। मेरे द्वारा सबसे बड़ा दोष यह हुआ है कि पूर्वकालमें जिस समय वह भयंकर युद्ध चल रहा था, उसी समय मैं शाल्वके लिये भीष्मके रथसे कूद नहीं पड़ी॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्येयं फलनिर्वृत्तिर्यदापन्नास्मि मूढवत् ॥ ३० ॥
धिग् भीष्मं धिक् च मे मन्दं पितरं मूढचेतसम्।
येनाहं वीर्यशुल्केन पण्यस्त्रीव प्रचोदिता ॥ ३१ ॥
मूलम्
तस्येयं फलनिर्वृत्तिर्यदापन्नास्मि मूढवत् ॥ ३० ॥
धिग् भीष्मं धिक् च मे मन्दं पितरं मूढचेतसम्।
येनाहं वीर्यशुल्केन पण्यस्त्रीव प्रचोदिता ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उसीका यह फल प्राप्त हुआ है कि मैं एक मूर्ख स्त्री-की भाँति भारी आपत्तिमें पड़ गयी हूँ। भीष्मको धिक्कार है, विवेकशून्य हृदयवाले मेरे मन्दबुद्धि पिताको भी धिक्कार है, जिन्होंने पराक्रमका शुल्क नियत करके मुझे बाजारू स्त्रीकी भाँति जनसमूहमें निकलनेकी आज्ञा दी॥३०-३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धिङ्मां धिक् शाल्वराजानं धिग् धातारमथापि वा।
येषां दुर्नीतभावेन प्राप्तास्म्यापदमुत्तमाम् ॥ ३२ ॥
मूलम्
धिङ्मां धिक् शाल्वराजानं धिग् धातारमथापि वा।
येषां दुर्नीतभावेन प्राप्तास्म्यापदमुत्तमाम् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मुझे धिक्कार है, शाल्वराजको धिक्कार है और विधाताको भी धिक्कार है, जिनकी दुर्नीतियोंसे मैं इस भारी विपत्तिमें फँस गयी हूँ॥३२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वथा भागधेयानि स्वानि प्राप्नोति मानवः।
अनयस्यास्य तु मुखं भीष्मः शान्तनवो मम ॥ ३३ ॥
मूलम्
सर्वथा भागधेयानि स्वानि प्राप्नोति मानवः।
अनयस्यास्य तु मुखं भीष्मः शान्तनवो मम ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मनुष्य सर्वथा वही पाता है जो उसके भाग्यमें होता है। मुझपर जो यह अन्याय हुआ है, उसका मुख्य कारण शान्तनुनन्दन भीष्म हैं॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा भीष्मे प्रतिकर्तव्यमहं पश्यामि साम्प्रतम्।
तपसा वा युधा वापि दुःखहेतुः स मे मतः॥३४॥
मूलम्
सा भीष्मे प्रतिकर्तव्यमहं पश्यामि साम्प्रतम्।
तपसा वा युधा वापि दुःखहेतुः स मे मतः॥३४॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः इस समय तपस्या अथवा युद्धके द्वारा भीष्मसे ही बदला लेना मुझे उचित दिखायी देता है; क्योंकि मेरे दुःखके प्रधान कारण वे ही हैं॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
को नु भीष्मं युधा जेतुमुत्सहेत महीपतिः।
एवं सा परिनिश्चित्य जगाम नगराद् बहिः ॥ ३५ ॥
मूलम्
को नु भीष्मं युधा जेतुमुत्सहेत महीपतिः।
एवं सा परिनिश्चित्य जगाम नगराद् बहिः ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘परंतु कौन ऐसा राजा है जो युद्धके द्वारा भीष्मको परास्त कर सके।’ ऐसा निश्चय करके वह नगरसे बाहर चली गयी॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आश्रमं पुण्यशीलानां तापसानां महात्मनाम्।
ततस्तामवसद् रात्रिं तापसैः परिवारिता ॥ ३६ ॥
मूलम्
आश्रमं पुण्यशीलानां तापसानां महात्मनाम्।
ततस्तामवसद् रात्रिं तापसैः परिवारिता ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसने पुण्यशील तपस्वी महात्माओंके आश्रमपर जाकर वहीं वह रात बितायी। उस आश्रममें तपस्वी-लोगोंने सब ओरसे घेरकर उसकी रक्षा की थी॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आचख्यौ च यथावृत्तं सर्वमात्मनि भारत।
विस्तरेण महाबाहो निखिलेन शुचिस्मिता।
हरणं च विसर्गं च शाल्वेन च विसर्जनम् ॥ ३७ ॥
मूलम्
आचख्यौ च यथावृत्तं सर्वमात्मनि भारत।
विस्तरेण महाबाहो निखिलेन शुचिस्मिता।
हरणं च विसर्गं च शाल्वेन च विसर्जनम् ॥ ३७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहु भरतनन्दन! पवित्र मुसकानवाली अम्बाने अपने ऊपर बीता हुआ सारा वृत्तान्त विस्तारपूर्वक उन महात्माओंसे बताया। किस प्रकार उसका अपहरण हुआ? कैसे भीष्मसे छुटकारा मिला? और फिर किस प्रकार शाल्वने उसे त्याग दिया, ये सारी बातें उसने कह सुनायीं॥३७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्तत्र महानासीद् ब्राह्मणः संशितव्रतः।
शैखावत्यस्तपोवृद्धः शास्त्रे चारण्यके गुरुः ॥ ३८ ॥
मूलम्
ततस्तत्र महानासीद् ब्राह्मणः संशितव्रतः।
शैखावत्यस्तपोवृद्धः शास्त्रे चारण्यके गुरुः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस आश्रममें कठोर व्रतका पालन करनेवाले शैखावत्य नामसे प्रसिद्ध एक तपोवृद्ध श्रेष्ठ ब्राह्मण रहते थे, जो शास्त्र और आरण्यक आदिकी शिक्षा देनेवाले सद्गुरु थे॥३८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आर्तां तामाह स मुनिः शैखावत्यो महातपाः।
निःश्वसन्तीं सतीं बालां दुःखशोकपरायणाम् ॥ ३९ ॥
मूलम्
आर्तां तामाह स मुनिः शैखावत्यो महातपाः।
निःश्वसन्तीं सतीं बालां दुःखशोकपरायणाम् ॥ ३९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महातपस्वी शैखावत्य मुनिने वहाँ सिसकती हुई उस दुःखशोकपरायणा सती साध्वी आर्त अबलासे कहा—॥३९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं गते तु किं भद्रे शक्यं कर्तुं तपस्विभिः।
आश्रमस्थैर्महाभागे तपोयुक्तैर्महात्मभिः ॥ ४० ॥
मूलम्
एवं गते तु किं भद्रे शक्यं कर्तुं तपस्विभिः।
आश्रमस्थैर्महाभागे तपोयुक्तैर्महात्मभिः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘भद्रे! महाभागे! ऐसी दशामें इस आश्रममें निवास करनेवाले तपःपरायण तपोधन महात्मा तुम्हारा क्या सहयोग कर सकते हैं?’॥४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सा त्वेनमब्रवीद् राजन् क्रियतां मदनुग्रहः।
प्राव्राज्यमहमिच्छामि तपस्तप्स्यामि दुश्चरम् ॥ ४१ ॥
मूलम्
सा त्वेनमब्रवीद् राजन् क्रियतां मदनुग्रहः।
प्राव्राज्यमहमिच्छामि तपस्तप्स्यामि दुश्चरम् ॥ ४१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तब अम्बाने उनसे कहा—‘भगवन्! मुझपर अनुग्रह कीजिये। मैं संन्यासियोंका-सा धर्म पालन करना चाहती हूँ। यहाँ रहकर दुष्कर तपस्या करूँगी॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयैव यानि कर्माणि पूर्वदेहे तु मूढया।
कृतानि नूनं पापानि तेषामेतत् फलं ध्रुवम् ॥ ४२ ॥
मूलम्
मयैव यानि कर्माणि पूर्वदेहे तु मूढया।
कृतानि नूनं पापानि तेषामेतत् फलं ध्रुवम् ॥ ४२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मुझ मूढ़ नारीने अपने पूर्वजन्मके शरीरसे जो पापकर्म किये थे, अवश्य ही उन्हींका यह दुःखदायक फल प्राप्त हुआ है॥४२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नोत्सहे तु पुनर्गन्तुं स्वजनं प्रति तापसाः।
प्रत्याख्याता निरानन्दा शाल्वेन च निराकृता ॥ ४३ ॥
मूलम्
नोत्सहे तु पुनर्गन्तुं स्वजनं प्रति तापसाः।
प्रत्याख्याता निरानन्दा शाल्वेन च निराकृता ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तपस्वी महात्माओ! अब मैं अपने स्वजनोंके यहाँ फिर नहीं लौट सकती; क्योंकि राजा शाल्वने मुझे कोरा उत्तर देकर त्याग दिया है, उससे मेरा सारा जीवन आनन्दशून्य (दुःखमय) हो गया है॥४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपदिष्टमिहेच्छामि तापस्यं वीतकल्मषाः ।
युष्माभिर्देवसंकाशैः कृपा भवतु वो मयि ॥ ४४ ॥
मूलम्
उपदिष्टमिहेच्छामि तापस्यं वीतकल्मषाः ।
युष्माभिर्देवसंकाशैः कृपा भवतु वो मयि ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निष्पाप तापसगण! मैं चाहती हूँ कि आप देवोपम साधुपुरुष मुझे तपस्याका उपदेश दें, मुझपर आपलोगोंकी कृपा हो’॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स तामाश्वासयत् कन्यां दृष्टान्तागमहेतुभिः।
सान्त्वयामास कार्यं च प्रतिजज्ञे द्विजैः सह ॥ ४५ ॥
मूलम्
स तामाश्वासयत् कन्यां दृष्टान्तागमहेतुभिः।
सान्त्वयामास कार्यं च प्रतिजज्ञे द्विजैः सह ॥ ४५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब शैखावत्य मुनिने लौकिक दृष्टान्तों, शास्त्रीय वचनों तथा युक्तियोंद्वारा उस कन्याको आश्वासन देकर धैर्य बँधाया और ब्राह्मणोंके साथ मिलकर उसके कार्य-साधनके लिये प्रयत्न करनेकी प्रतिज्ञा की॥४५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि अम्बोपाख्यानपर्वणि शैखावत्याम्बासंवादे पञ्चसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत अम्बोपाख्यानपर्वमें शैखावत्य तथा अम्बाका संवादविषयक एक सौ पचहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७५॥
सूचना (हिन्दी)
[दाक्षिणात्य अधिक पाठके १ श्लोक मिलकर कुल ४६ श्लोक हैं।]