भागसूचना
(अम्बोपाख्यानपर्व)
त्रिसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
अम्बोपाख्यानका आरम्भ—भीष्मजीके द्वारा काशिराजकी कन्याओंका अपहरण
मूलम् (वचनम्)
दुर्योधन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमर्थं भरतश्रेष्ठ नैव हन्याः शिखण्डिनम्।
उद्यतेषुमथो दृष्ट्वा समरेष्वाततायिनम् ॥ १ ॥
मूलम्
किमर्थं भरतश्रेष्ठ नैव हन्याः शिखण्डिनम्।
उद्यतेषुमथो दृष्ट्वा समरेष्वाततायिनम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्योधनने पूछा— भरतश्रेष्ठ! जब शिखण्डी धनुष-बाण उठाये समरमें आततायीकी भाँति आपको मारने आयेगा, उस समय उसे इस रूपमें देखकर भी आप क्यों नहीं मारेंगे?॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वमुक्त्वा महाबाहो पञ्चालान् सह सोमकैः।
हनिष्यामीति गाङ्गेय तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ २ ॥
मूलम्
पूर्वमुक्त्वा महाबाहो पञ्चालान् सह सोमकैः।
हनिष्यामीति गाङ्गेय तन्मे ब्रूहि पितामह ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहु गंगानन्दन! पितामह! आप पहले तो यह कह चुके हैं कि ‘मैं सोमकोंसहित पंचालोंका वध करूँगा’ (फिर आप शिखण्डीको छोड़ क्यों रहे हैं?) यह मुझे बताइये॥२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणु दुर्योधन कथां सहैभिर्वसुधाधिपैः।
यदर्थं युधि सम्प्रेक्ष्य नाहं हन्यां शिखण्डिनम् ॥ ३ ॥
मूलम्
शृणु दुर्योधन कथां सहैभिर्वसुधाधिपैः।
यदर्थं युधि सम्प्रेक्ष्य नाहं हन्यां शिखण्डिनम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजीने कहा— दुर्योधन! मैं जिस कारणसे समरांगणमें प्रहार करते देखकर भी शिखण्डीको नहीं मारूँगा, उसकी कथा कहता हूँ, इन भूमिपालोंके साथ सुनो॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाराजो मम पिता शान्तनुर्लोकविश्रुतः।
दिष्टान्तमाप धर्मात्मा समये भरतर्षभ ॥ ४ ॥
ततोऽहं भरतश्रेष्ठ प्रतिज्ञां परिपालयन्।
चित्राङ्गदं भ्रातरं वै महाराज्येऽभ्यषेचयम् ॥ ५ ॥
मूलम्
महाराजो मम पिता शान्तनुर्लोकविश्रुतः।
दिष्टान्तमाप धर्मात्मा समये भरतर्षभ ॥ ४ ॥
ततोऽहं भरतश्रेष्ठ प्रतिज्ञां परिपालयन्।
चित्राङ्गदं भ्रातरं वै महाराज्येऽभ्यषेचयम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! मेरे धर्मात्मा पिता लोकविख्यात महाराज शान्तनुका जब निधन हो गया, उस समय अपनी प्रतिज्ञाका पालन करते हुए मैंने भाई चित्रांगदको इस महान् राज्यपर अभिषिक्त कर दिया॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मिंश्च निधनं प्राप्ते सत्यवत्या मते स्थितः।
विचित्रवीर्यं राजानमभ्यषिञ्चं यथाविधि ॥ ६ ॥
मूलम्
तस्मिंश्च निधनं प्राप्ते सत्यवत्या मते स्थितः।
विचित्रवीर्यं राजानमभ्यषिञ्चं यथाविधि ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर जब चित्रांगदकी भी मृत्यु हो गयी; तब माता सत्यवतीकी सम्मतिसे मैंने विधिपूर्वक विचित्रवीर्यका राजाके पदपर अभिषेक किया॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयाभिषिक्तो राजेन्द्र यवीयानपि धर्मतः।
विचित्रवीर्यो धर्मात्मा मामेव समुदैक्षत ॥ ७ ॥
मूलम्
मयाभिषिक्तो राजेन्द्र यवीयानपि धर्मतः।
विचित्रवीर्यो धर्मात्मा मामेव समुदैक्षत ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! छोटे होनेपर भी मेरे द्वारा अभिषिक्त होकर धर्मात्मा विचित्रवीर्य धर्मतः मेरी ही ओर देखा करते थे अर्थात् मेरी सम्मतिसे ही सारा राजकार्य करते थे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य दारक्रियां तात चिकीर्षुरहमप्युत।
अनुरूपादिव कुलादित्येव च मनो दधे ॥ ८ ॥
मूलम्
तस्य दारक्रियां तात चिकीर्षुरहमप्युत।
अनुरूपादिव कुलादित्येव च मनो दधे ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! तब मैंने अपने योग्य कुलसे कन्या लाकर उनका विवाह करनेका निश्चय किया॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथाश्रौषं महाबाहो तिस्रः कन्याः स्वयंवराः।
रूपेणाप्रतिमाः सर्वाः काशिराजसुतास्तदा ।
अम्बां चैवाम्बिकां चैव तथैवाम्बालिकामपि ॥ ९ ॥
मूलम्
तथाश्रौषं महाबाहो तिस्रः कन्याः स्वयंवराः।
रूपेणाप्रतिमाः सर्वाः काशिराजसुतास्तदा ।
अम्बां चैवाम्बिकां चैव तथैवाम्बालिकामपि ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहो! उन्हीं दिनों मैंने सुना कि काशिराजकी तीन कन्याएँ हैं, जो सब-की-सब अप्रतिम रूप-सौन्दर्यसे सुशोभित हैं और वे स्वयंवर-सभामें स्वयं ही पतिका चुनाव करनेवाली हैं। उनके नाम हैं अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राजानश्च समाहूताः पृथिव्यां भरतर्षभ।
अम्बा ज्येष्ठाभवत् तासामम्बिका त्वथ मध्यमा ॥ १० ॥
अम्बालिका च राजेन्द्र राजकन्या यवीयसी।
सोऽहमेकरथेनैव गतः काशिपतेः पुरीम् ॥ ११ ॥
मूलम्
राजानश्च समाहूताः पृथिव्यां भरतर्षभ।
अम्बा ज्येष्ठाभवत् तासामम्बिका त्वथ मध्यमा ॥ १० ॥
अम्बालिका च राजेन्द्र राजकन्या यवीयसी।
सोऽहमेकरथेनैव गतः काशिपतेः पुरीम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! राजेन्द्र! उन तीनोंके स्वयंवरके लिये भूमण्डलके सम्पूर्ण नरेश आमन्त्रित किये गये थे। उनमें अम्बा सबसे बड़ी थी, अम्बिका मझली थी और राजकन्या अम्बालिका सबसे छोटी थी। स्वयंवरका समाचार पाकर मैं एक ही रथके द्वारा काशिराजके नगरमें गया॥१०-११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपश्यं ता महाबाहो तिस्रः कन्याः स्वलंकृताः।
राज्ञश्चैव समाहूतान् पार्थिवान् पृथिवीपते ॥ १२ ॥
मूलम्
अपश्यं ता महाबाहो तिस्रः कन्याः स्वलंकृताः।
राज्ञश्चैव समाहूतान् पार्थिवान् पृथिवीपते ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहो! वहाँ पहुँचकर मैंने वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत हुई उन तीनों कन्याओंको देखा। पृथ्वीपते! वहाँ उसी समय आमन्त्रित होकर आये हुए सम्पूर्ण राजाओंपर भी मेरी दृष्टि पड़ी॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽहं तान् नृपान् सर्वानाहूय समरे स्थितान्।
रथमारोपयांचक्रे कन्यास्ता भरतर्षभ ॥ १३ ॥
मूलम्
ततोऽहं तान् नृपान् सर्वानाहूय समरे स्थितान्।
रथमारोपयांचक्रे कन्यास्ता भरतर्षभ ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! तदनन्तर मैंने युद्धके लिये खड़े हुए उन समस्त राजाओंको ललकारकर उन तीनों कन्याओंको अपने रथपर बैठा लिया॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वीर्यशुल्काश्च ता ज्ञात्वा समारोप्य रथं तदा।
अवोचं पार्थिवान् सर्वानहं तत्र समागतान्।
भीष्मः शान्तनवः कन्या हरतीति पुनः पुनः ॥ १४ ॥
ते यतध्वं परं शक्त्या सर्वे मोक्षाय पार्थिवाः।
प्रसह्य हि हराम्येष मिषतां वो नरर्षभाः ॥ १५ ॥
मूलम्
वीर्यशुल्काश्च ता ज्ञात्वा समारोप्य रथं तदा।
अवोचं पार्थिवान् सर्वानहं तत्र समागतान्।
भीष्मः शान्तनवः कन्या हरतीति पुनः पुनः ॥ १४ ॥
ते यतध्वं परं शक्त्या सर्वे मोक्षाय पार्थिवाः।
प्रसह्य हि हराम्येष मिषतां वो नरर्षभाः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पराक्रम ही इन कन्याओंका शुल्क है, यह जानकर उन्हें रथपर चढ़ा लेनेके पश्चात् मैंने वहाँ आये हुए समस्त भूपालोंसे कहा—‘नरश्रेष्ठ राजाओ! शान्तनुपुत्र भीष्म इन राजकन्याओंका अपहरण कर रहा है, तुम सब लोग पूरी शक्ति लगाकर इन्हें छुड़ानेका प्रयत्न करो; क्योंकि मैं तुम्हारे देखते-देखते बलपूर्वक इन्हें लिये जाता हूँ’; इस बातको मैंने बारंबार दुहराया॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते पृथिवीपालाः समुत्पेतुरुदायुधाः ।
योगो योग इति क्रुद्धाः सारथीनभ्यचोदयन् ॥ १६ ॥
मूलम्
ततस्ते पृथिवीपालाः समुत्पेतुरुदायुधाः ।
योगो योग इति क्रुद्धाः सारथीनभ्यचोदयन् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर तो वे महीपाल कुपित हो हाथमें हथियार लिये टूट पड़े और अपने सारथियोंको ‘रथ तैयार करो, रथ तैयार करो’ इस प्रकार आदेश देने लगे॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते रथैर्गजसंकाशैर्गजैश्च गजयोधिनः ।
पुष्टैश्चाश्वैर्महीपालाः समुत्पेतुरुदायुधाः ॥ १७ ॥
मूलम्
ते रथैर्गजसंकाशैर्गजैश्च गजयोधिनः ।
पुष्टैश्चाश्वैर्महीपालाः समुत्पेतुरुदायुधाः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे राजा हाथियोंके समान विशाल रथों, हाथियों और हृष्ट-पुष्ट अश्वोंपर सवार हो अस्त्र-शस्त्र लिये मुझपर आक्रमण करने लगे। उनमेंसे कितने ही हाथियोंपर सवार होकर युद्ध करनेवाले थे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते मां महीपालाः सर्व एव विशाम्पते।
रथव्रातेन महता सर्वतः पर्यवारयन् ॥ १८ ॥
मूलम्
ततस्ते मां महीपालाः सर्व एव विशाम्पते।
रथव्रातेन महता सर्वतः पर्यवारयन् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
प्रजानाथ! तदनन्तर उन सब नरेशोंने विशाल रथ-समूहद्वारा मुझे सब ओरसे घेर लिया॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानहं शरवर्षेण समन्तात् पर्यवारयम्।
सर्वान् नृपांश्चाप्यजयं देवराडिव दानवान् ॥ १९ ॥
मूलम्
तानहं शरवर्षेण समन्तात् पर्यवारयम्।
सर्वान् नृपांश्चाप्यजयं देवराडिव दानवान् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तब मैंने भी बाणोंकी वर्षा करके चारों ओरसे उनकी प्रगति रोक दी और जैसे देवराज इन्द्र दानवोंपर विजय पाते हैं, उसी प्रकार मैंने भी उन सब नरेशोंको जीत लिया॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपातयं शरैर्दीप्तैः प्रहसन् भरतर्षभ।
तेषामापततां चित्रान् ध्वजान् हेमपरिष्कृतान् ॥ २० ॥
मूलम्
अपातयं शरैर्दीप्तैः प्रहसन् भरतर्षभ।
तेषामापततां चित्रान् ध्वजान् हेमपरिष्कृतान् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! जिस समय उन्होंने आक्रमण किया उसी समय मैंने प्रज्वलित बाणोंद्वारा हँसते-हँसते उनके स्वर्णभूषित विचित्र ध्वजोंको काट गिराया॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकैकेन हि बाणेन भूमौ पातितवानहम्।
हयांस्तेषां गजांश्चैव सारथींश्चाप्यहं रणे ॥ २१ ॥
मूलम्
एकैकेन हि बाणेन भूमौ पातितवानहम्।
हयांस्तेषां गजांश्चैव सारथींश्चाप्यहं रणे ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर एक-एक बाण मारकर मैंने समरभूमिमें उनके घोड़ों, हाथियों और सारथियोंको भी धराशायी कर दिया॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते निवृत्ताश्च भग्नाश्च दृष्ट्वा तल्लाघवं मम।
(प्रणिपेतुश्च सर्वे वै प्रशशंसुश्च पार्थिवाः।
तत आदाय ताः कन्या नृपतींश्च विसृज्य तान्॥)
अथाहं हास्तिनपुरमायां जित्वा महीक्षितः ॥ २२ ॥
मूलम्
ते निवृत्ताश्च भग्नाश्च दृष्ट्वा तल्लाघवं मम।
(प्रणिपेतुश्च सर्वे वै प्रशशंसुश्च पार्थिवाः।
तत आदाय ताः कन्या नृपतींश्च विसृज्य तान्॥)
अथाहं हास्तिनपुरमायां जित्वा महीक्षितः ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे हाथोंकी वह फुर्ती देखकर वे पीछे हटने और भागने लगे। वे सब भूपाल नतमस्तक हो गये और मेरी प्रशंसा करने लगे। तत्पश्चात् मैं राजाओंको परास्त करके उन सबको वहीं छोड़ तीनों कन्याओंको साथ ले हस्तिनापुरमें आया॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततोऽहं ताश्च कन्या वै भ्रातुरर्थाय भारत।
तच्च कर्म महाबाहो सत्यवत्यै न्यवेदयम् ॥ २३ ॥
मूलम्
ततोऽहं ताश्च कन्या वै भ्रातुरर्थाय भारत।
तच्च कर्म महाबाहो सत्यवत्यै न्यवेदयम् ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहु भरतनन्दन! फिर मैंने उन कन्याओंको अपने भाईसे ब्याहनेके लिये माता सत्यवतीको सौंप दिया और अपना वह पराक्रम भी उन्हें बताया॥२३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि अम्बोपाख्यानपर्वणि कन्याहरणे त्रिसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत अम्बोपाख्यानपर्वमें कन्याहरणविषयक एक सौ तिहत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७३॥
सूचना (हिन्दी)
[दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २४ श्लोक हैं।]