भागसूचना
सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
पाण्डवपक्षके रथियों और महारथियोंका वर्णन तथा विराट और द्रुपदकी प्रशंसा
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौपदेया महाराज सर्वे पञ्च महारथाः।
वैराटिरुत्तरश्चैव रथोदारो मतो मम ॥ १ ॥
मूलम्
द्रौपदेया महाराज सर्वे पञ्च महारथाः।
वैराटिरुत्तरश्चैव रथोदारो मतो मम ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मजी कहते हैं— महाराज! द्रौपदीके जो पाँच पुत्र हैं, वे सब-के-सब महारथी हैं। विराटपुत्र उत्तरको मैं उदार रथी मानता हूँ॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिमन्युर्महाबाहू रथयूथपयूथपः ।
समः पार्थेन समरे वासुदेवेन चारिहा ॥ २ ॥
लब्धास्त्रश्चित्रयोधी च मनस्वी च दृढव्रतः।
संस्मरन् वै परिक्लेशं स्वपितुर्विक्रमिष्यति ॥ ३ ॥
मूलम्
अभिमन्युर्महाबाहू रथयूथपयूथपः ।
समः पार्थेन समरे वासुदेवेन चारिहा ॥ २ ॥
लब्धास्त्रश्चित्रयोधी च मनस्वी च दृढव्रतः।
संस्मरन् वै परिक्लेशं स्वपितुर्विक्रमिष्यति ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहु अभिमन्यु रथ-यूथपतियोंका भी यूथपति है। वह शत्रुनाशक वीर समरभूमिमें अर्जुन और श्रीकृष्णके समान पराक्रमी है। उसने अस्त्रविद्याकी विधिवत् शिक्षा प्राप्त की है। वह युद्धकी विचित्र कलाएँ जानता है तथा दृढ़तापूर्वक व्रतका पालन करनेवाला और मनस्वी है। वह अपने पिताके क्लेशको याद करके अवश्य पराक्रम दिखायेगा॥२-३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सात्यकिर्माधवः शूरो रथयूथपयूथपः ।
एष वृष्णिप्रवीराणाममर्षी जितसाध्वसः ॥ ४ ॥
मूलम्
सात्यकिर्माधवः शूरो रथयूथपयूथपः ।
एष वृष्णिप्रवीराणाममर्षी जितसाध्वसः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मधुवंशी शूरवीर सात्यकि भी रथ-यूथपतियोंके भी यूथपति हैं। वृष्णिवंशके प्रमुख वीरोंमें ये सात्यकि बड़े ही अमर्षशील हैं। इन्होंने भयको जीत लिया है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उत्तमौजास्तथा राजन् रथोदारो मतो मम।
युधामन्युश्च विक्रान्तो रथोदारो मतो मम ॥ ५ ॥
मूलम्
उत्तमौजास्तथा राजन् रथोदारो मतो मम।
युधामन्युश्च विक्रान्तो रथोदारो मतो मम ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! उत्तमौजाको भी मैं उदार रथी मानता हूँ। पराक्रमी युधामन्यु भी मेरे मतमें एक श्रेष्ठ रथी हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतेषां बहुसाहस्रा रथा नागा हयास्तथा।
योत्स्यन्ते ते तनूंस्त्यक्त्वा कुन्तीपुत्रप्रियेप्सया ॥ ६ ॥
मूलम्
एतेषां बहुसाहस्रा रथा नागा हयास्तथा।
योत्स्यन्ते ते तनूंस्त्यक्त्वा कुन्तीपुत्रप्रियेप्सया ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इनके कई हजार रथ, हाथी और घोड़े हैं, जो कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरका प्रिय करनेकी इच्छासे अपने शरीरको निछावर करके युद्ध करेंगे॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवैः सह राजेन्द्र तव सेनासु भारत।
अग्निमारुतवद् राजन्नाह्वयन्तः परस्परम् ॥ ७ ॥
मूलम्
पाण्डवैः सह राजेन्द्र तव सेनासु भारत।
अग्निमारुतवद् राजन्नाह्वयन्तः परस्परम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! राजेन्द्र! वे पाण्डवोंके साथ तुम्हारी सेनामें प्रवेश करके एक-दूसरेका आह्वान करते हुए अग्नि और वायुकी भाँति विचरेंगे॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अजेयौ समरे वृद्धौ विराटद्रुपदौ तथा।
महारथौ महावीर्यौ मतौ मे पुरुषर्षभौ ॥ ८ ॥
मूलम्
अजेयौ समरे वृद्धौ विराटद्रुपदौ तथा।
महारथौ महावीर्यौ मतौ मे पुरुषर्षभौ ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वृद्ध राजा विराट और द्रुपद भी युद्धमें अजेय हैं। इन दोनों महापराक्रमी नरश्रेष्ठ वीरोंको मैं महारथी मानता हूँ॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयोवृद्धावपि हि तौ क्षत्रधर्मपरायणौ।
यतिष्येते परं शक्त्या स्थितौ वीरगते पथि ॥ ९ ॥
मूलम्
वयोवृद्धावपि हि तौ क्षत्रधर्मपरायणौ।
यतिष्येते परं शक्त्या स्थितौ वीरगते पथि ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यद्यपि वे दोनों अवस्थाकी दृष्टिसे बहुत बूढ़े हैं, तथापि क्षत्रिय-धर्मका आश्रय ले वीरोंके मार्गमें स्थित हो अपनी शक्तिभर युद्ध करनेका प्रयत्न करेंगे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सम्बन्धकेन राजेन्द्र तौ तु वीर्यबलान्वयात्।
आर्यवृत्तौ महेष्वासौ स्नेहपाशसितावुभौ ॥ १० ॥
मूलम्
सम्बन्धकेन राजेन्द्र तौ तु वीर्यबलान्वयात्।
आर्यवृत्तौ महेष्वासौ स्नेहपाशसितावुभौ ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजेन्द्र! वे दोनों नरेश वीर्य और बलसे संयुक्त श्रेष्ठ पुरुषोंके समान सदाचारी और महान् धनुर्धर हैं। पाण्डवोंके साथ सम्बन्ध होनेके कारण वे दोनों उनके स्नेह-बन्धनमें बँधे हुए हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कारणं प्राप्य तु नराः सर्व एव महाभुजाः।
शूरा वा कातरा वापि भवन्ति कुरुपुङ्गव ॥ ११ ॥
मूलम्
कारणं प्राप्य तु नराः सर्व एव महाभुजाः।
शूरा वा कातरा वापि भवन्ति कुरुपुङ्गव ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुश्रेष्ठ! कोई कारण पाकर प्रायः सभी महाबाहु मानव शूर अथवा कायर हो जाते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एकायनगतावेतौ पार्थिवौ दृढधन्विनौ ।
प्राणांस्त्यक्त्वा परं शक्त्या घट्टितारौ परंतप ॥ १२ ॥
मूलम्
एकायनगतावेतौ पार्थिवौ दृढधन्विनौ ।
प्राणांस्त्यक्त्वा परं शक्त्या घट्टितारौ परंतप ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतप! दृढ़तापूर्वक धनुष धारण करनेवाले राजा विराट और द्रुपद एकमात्र वीरपथका आश्रय ले चुके हैं। वे अपने प्राणोंका त्याग करके भी पूरी शक्तिसे तुम्हारी सेनाके साथ टक्कर लेंगे॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पृथगक्षौहिणीभ्यां तावुभौ संयति दारुणौ।
सम्बन्धिभावं रक्षन्तौ महत् कर्म करिष्यतः ॥ १३ ॥
मूलम्
पृथगक्षौहिणीभ्यां तावुभौ संयति दारुणौ।
सम्बन्धिभावं रक्षन्तौ महत् कर्म करिष्यतः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे दोनों युद्धमें बड़े भयंकर हैं, अतः अपने सम्बन्धकी रक्षा करते हुए पृथक्-पृथक् अक्षौहिणी सेना साथ लिये महान् पराक्रम करेंगे॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
लोकवीरौ महेष्वासौ त्यक्तात्मानौ च भारत।
प्रत्ययं परिरक्षन्तौ महत् कर्म करिष्यतः ॥ १४ ॥
मूलम्
लोकवीरौ महेष्वासौ त्यक्तात्मानौ च भारत।
प्रत्ययं परिरक्षन्तौ महत् कर्म करिष्यतः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भारत! महान् धनुर्धर तथा जगत्के सुप्रसिद्ध वीर वे दोनों नरेश अपने विश्वास और सम्मानकी रक्षा करते हुए शरीरकी परवा न करके युद्धभूमिमें महान् पुरुषार्थ प्रकट करेंगे॥१४॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि रथातिरथसंख्यानपर्वणि सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १७० ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत रथातिरथसंख्यानपर्वमें एक सौ सत्तरवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१७०॥