१६८ भीष्मकर्णसंवादे

भागसूचना

अष्टषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कौरवपक्षके रथियों और अतिरथियोंका वर्णन, कर्ण और भीष्मका रोषपूर्वक संवाद तथा दुर्योधनद्वारा उसका निवारण

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अचलो वृषकश्चैव सहितौ भ्रातरावुभौ।
रथौ तव दुराधर्षौ शत्रून् विध्वंसयिष्यतः ॥ १ ॥

मूलम्

अचलो वृषकश्चैव सहितौ भ्रातरावुभौ।
रथौ तव दुराधर्षौ शत्रून् विध्वंसयिष्यतः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्म कहते हैं— अचल और वृषक—ये साथ रहनेवाले दोनों भाई दुर्धर्ष रथी हैं, जो तुम्हारे शत्रुओंका विध्वंस कर डालेंगे॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलवन्तौ नरव्याघ्रौ दृढक्रोधौ प्रहारिणौ।
गान्धारमुख्यौ तरुणौ दर्शनीयौ महाबलौ ॥ २ ॥

मूलम्

बलवन्तौ नरव्याघ्रौ दृढक्रोधौ प्रहारिणौ।
गान्धारमुख्यौ तरुणौ दर्शनीयौ महाबलौ ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गान्धारदेशके ये प्रधान वीर मनुष्योंमें सिंहके समान पराक्रमी, बलवान्, अत्यन्त क्रोधी, प्रहार करनेमें कुशल, तरुण, दर्शनीय एवं महाबली हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सखा ते दयितो नित्यं य एष रणकर्कशः।
उत्साहयति राजंस्त्वां विग्रहे पाण्डवैः सह ॥ ३ ॥
परुषः कत्थनो नीचः कर्णो वैकर्तनस्तव।
मन्त्री नेता च बन्धुश्च मानी चात्यन्तमुच्छ्रितः ॥ ४ ॥

मूलम्

सखा ते दयितो नित्यं य एष रणकर्कशः।
उत्साहयति राजंस्त्वां विग्रहे पाण्डवैः सह ॥ ३ ॥
परुषः कत्थनो नीचः कर्णो वैकर्तनस्तव।
मन्त्री नेता च बन्धुश्च मानी चात्यन्तमुच्छ्रितः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! यह जो तुम्हारा प्रिय सखा कर्ण है, जो तुम्हें पाण्डवोंके साथ युद्धके लिये सदा उत्साहित करता रहता है और रणक्षेत्रमें सदा अपनी क्रूरताका परिचय देता है, बड़ा ही कटुभाषी, आत्मप्रशंसी और नीच है। यह कर्ण तुम्हारा मन्त्री, नेता और बन्धु बना हुआ है। यह अभिमानी तो है ही, तुम्हारा आश्रय पाकर बहुत ऊँचे चढ़ गया है॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष नैव रथः कर्णो न चाप्यतिरथो रणे।
वियुक्तः कवचेनैष सहजेन विचेतनः ॥ ५ ॥
कुण्डलाभ्यां च दिव्याभ्यां वियुक्तः सततं घृणी।
अभिशापाच्च रामस्य ब्राह्मणस्य च भाषणात् ॥ ६ ॥
करणानां वियोगाच्च तेन मेऽर्धरथो मतः।
नैष फाल्गुनमासाद्य पुनर्जीवन् विमोक्ष्यते ॥ ७ ॥

मूलम्

एष नैव रथः कर्णो न चाप्यतिरथो रणे।
वियुक्तः कवचेनैष सहजेन विचेतनः ॥ ५ ॥
कुण्डलाभ्यां च दिव्याभ्यां वियुक्तः सततं घृणी।
अभिशापाच्च रामस्य ब्राह्मणस्य च भाषणात् ॥ ६ ॥
करणानां वियोगाच्च तेन मेऽर्धरथो मतः।
नैष फाल्गुनमासाद्य पुनर्जीवन् विमोक्ष्यते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह कर्ण युद्धभूमिमें न तो अतिरथी है और न रथी ही कहलानेयोग्य है, क्योंकि यह मूर्ख अपने सहज कवच तथा दिव्य कुण्डलोंसे हीन हो चुका है। यह दूसरोंके प्रति सदा घृणाका भाव रखता है। परशुरामजीके अभिशापसे, ब्राह्मणकी शापोक्तिसे तथा विजयसाधक उपर्युक्त उपकरणोंको खो देनेसे मेरी दृष्टिमें यह कर्ण अर्धरथी है। अर्जुनसे भिड़नेपर यह कदापि जीवित नहीं बच सकता॥५—७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽब्रवीत् पुनर्द्रोणः सर्वशस्त्रभृतां वरः।
एवमेतद् यथाऽऽत्थ त्वं न मिथ्यास्ति कदाचन ॥ ८ ॥

मूलम्

ततोऽब्रवीत् पुनर्द्रोणः सर्वशस्त्रभृतां वरः।
एवमेतद् यथाऽऽत्थ त्वं न मिथ्यास्ति कदाचन ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर समस्त शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ द्रोणाचार्य भी बोल उठे—‘आप जैसा कहते हैं, बिलकुल ठीक है। आपका यह मत कदापि मिथ्या नहीं है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रणे रणेऽभिमानी च विमुखश्चापि दृश्यते।
घृणी कर्णः प्रमादी च तेन मेऽर्धरथो मतः ॥ ९ ॥

मूलम्

रणे रणेऽभिमानी च विमुखश्चापि दृश्यते।
घृणी कर्णः प्रमादी च तेन मेऽर्धरथो मतः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह प्रत्येक युद्धमें घमंड तो बहुत दिखाता है; परंतु वहाँसे भागता ही देखा जाता है। कर्ण दयालु और प्रमादी है। इसलिये मेरी रायमें भी यह अर्धरथी ही है’॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा तु राधेयः क्रोधादुत्फाल्य लोचने।
उवाच भीष्मं राधेयस्तुदन् वाग्भिः प्रतोदवत् ॥ १० ॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा तु राधेयः क्रोधादुत्फाल्य लोचने।
उवाच भीष्मं राधेयस्तुदन् वाग्भिः प्रतोदवत् ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर राधानन्दन कर्ण क्रोधसे आँखें फाड़-फाड़कर देखने लगा और अपने वचनरूपी चाबुकसे पीड़ा देता हुआ भीष्मसे बोला—॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितामह यथेष्टं मां वाक्‌शरैरुपकृन्तसि।
अनागसं सदा द्वेषादेवमेव पदे पदे ॥ ११ ॥

मूलम्

पितामह यथेष्टं मां वाक्‌शरैरुपकृन्तसि।
अनागसं सदा द्वेषादेवमेव पदे पदे ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पितामह! यद्यपि मैंने तुम्हारा कोई अपराध नहीं किया है, तो भी सदा मुझसे द्वेष रखनेके कारण तुम इसी प्रकार पग-पगपर मुझे अपने वाग्बाणोंद्वारा इच्छानुसार चोट पहुँचाते रहते हो॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मर्षयामि च तत् सर्वं दुर्योधनकृतेन वै।
त्वं तु मां मन्यसे मन्दं यथा कापुरुषं तथा॥१२॥

मूलम्

मर्षयामि च तत् सर्वं दुर्योधनकृतेन वै।
त्वं तु मां मन्यसे मन्दं यथा कापुरुषं तथा॥१२॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं दुर्योधनके कारण यह सब कुछ चुपचाप सह लेता हूँ, परंतु तुम मुझे मूर्ख और कायरके समान समझते हो॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवानर्धरथो मह्यं मतो वै नात्र संशयः।
सर्वस्य जगतश्चैव गाङ्गेयो न मृषा वदेत् ॥ १३ ॥

मूलम्

भवानर्धरथो मह्यं मतो वै नात्र संशयः।
सर्वस्य जगतश्चैव गाङ्गेयो न मृषा वदेत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम मेरे विषयमें जो अर्धरथी होनेका मत प्रकट कर रहे हो, इससे सम्पूर्ण जगत्‌को निःसंदेह ऐसा ही प्रतीत होने लगेगा; क्योंकि सब यही जानते हैं कि गंगानन्दन भीष्म झूठ नहीं बोलते॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुरूणामहितो नित्य न च राजावबुध्यते।
को हि नाम समानेषु राजसूदारकर्मसु ॥ १४ ॥
तेजोवधमिमं कुर्याद् विभेदयिषुराहवे ।
यथा त्वं गुणविद्वेषादपरागं चिकीर्षसि ॥ १५ ॥

मूलम्

कुरूणामहितो नित्य न च राजावबुध्यते।
को हि नाम समानेषु राजसूदारकर्मसु ॥ १४ ॥
तेजोवधमिमं कुर्याद् विभेदयिषुराहवे ।
यथा त्वं गुणविद्वेषादपरागं चिकीर्षसि ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम कौरवोंका सदा अहित करते हो; परंतु राजा दुर्योधन इस बातको नहीं समझते हैं। तुम मेरे गुणोंके प्रति द्वेष रखनेके कारण जिस प्रकार राजाओंकी मुझपर विरक्ति कराना चाहते हो, वैसा प्रयत्न तुम्हारे सिवा दूसरा कौन कर सकता है? इस समय युद्धका अवसर उपस्थित है और समान श्रेणीके उदारचरित राजा एकत्र हुए हैं; ऐसे अवसरपर आपसमें भेद (फूट) उत्पन्न करनेकी इच्छा रखकर कौन पुरुष अपने ही पक्षके योद्धाका इस प्रकार तेज और उत्साह नष्ट करेगा?॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हायनैर्न पलितैर्न वित्तैर्न च बन्धुभिः।
महारथत्वं संख्यातुं शक्यं क्षत्रस्य कौरव ॥ १६ ॥

मूलम्

न हायनैर्न पलितैर्न वित्तैर्न च बन्धुभिः।
महारथत्वं संख्यातुं शक्यं क्षत्रस्य कौरव ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कौरव! केवल बड़ी अवस्था हो जाने, बाल पक जाने, अधिक धनका संग्रह कर लेने तथा बहुसंख्यक भाई-बन्धुओंके होनेसे ही किसी क्षत्रियको महारथी नहीं गिना जा सकता॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलज्येष्ठं स्मृतं क्षत्रं मन्त्रज्येष्ठा द्विजातयः।
धनज्येष्ठाः स्मृता वैश्याः शूद्रास्तु वयसाधिकाः ॥ १७ ॥

मूलम्

बलज्येष्ठं स्मृतं क्षत्रं मन्त्रज्येष्ठा द्विजातयः।
धनज्येष्ठाः स्मृता वैश्याः शूद्रास्तु वयसाधिकाः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्षत्रियजातिमें जो बलमें अधिक हो, वही श्रेष्ठ माना गया है। ब्राह्मण वेदमन्त्रोंके ज्ञानसे, वैश्य अधिक धनसे और शूद्र अधिक आयु होनेसे श्रेष्ठ समझे जाते हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथेच्छकं स्वयं ब्रूया रथानतिरथांस्तथा।
कामद्वेषसमायुक्तो मोहात् प्रकुरुते भवान् ॥ १८ ॥

मूलम्

यथेच्छकं स्वयं ब्रूया रथानतिरथांस्तथा।
कामद्वेषसमायुक्तो मोहात् प्रकुरुते भवान् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम राग-द्वेषसे भरे हुए हो; अतः मोहवश मनमाने ढंगसे रथी-अतिरथियोंका विभाग कर रहे हो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधन महाबाहो साधु सम्यगवेक्ष्यताम्।
त्यज्यतां दुष्टभावोऽयं भीष्मः किल्बिषकृत् तव ॥ १९ ॥

मूलम्

दुर्योधन महाबाहो साधु सम्यगवेक्ष्यताम्।
त्यज्यतां दुष्टभावोऽयं भीष्मः किल्बिषकृत् तव ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहु दुर्योधन! तुम अच्छी तरह विचार करके देख लो। ये भीष्म दुर्भावसे दूषित होकर तुम्हारी बुराई कर रहे हैं। तुम इन्हें अभी त्याग दो॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भिन्ना हि सेना नृपते दुःसंधेया भवत्युत।
मौला हि पुरुषव्याघ्र किमु नानासमुत्थिताः ॥ २० ॥

मूलम्

भिन्ना हि सेना नृपते दुःसंधेया भवत्युत।
मौला हि पुरुषव्याघ्र किमु नानासमुत्थिताः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! पुरुषसिंह! एक बार सेनामें फूट पड़ जानेपर उसमें पुनः मेल कराना कठिन हो जाता है। उस दशामें मौलिक (पीढ़ियोंसे चले आनेवाले) सेवक भी हाथसे निकल जाते हैं। फिर जो भिन्न-भिन्न स्थानोंके लोग किसी एक कार्यके लिये उद्यत होकर एकत्र हुए हों, उनकी तो बात ही क्या है?॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषां द्वैधं समुत्पन्नं योधानां युधि भारत।
तेजोवधो नः क्रियते प्रत्यक्षेण विशेषतः ॥ २१ ॥

मूलम्

एषां द्वैधं समुत्पन्नं योधानां युधि भारत।
तेजोवधो नः क्रियते प्रत्यक्षेण विशेषतः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! इन योद्धाओंमें युद्धके अवसरपर दुविधा उत्पन्न हो गयी है। तुम प्रत्यक्ष देख रहे हो, हमारे तेज और उत्साहकी विशेषरूपसे हत्या की जा रही है॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथानां क्व च विज्ञानं क्व च भीष्मोऽल्पचेतनः।
अहमावारयिष्यामि पाण्डवानामनीकिनीम् ॥ २२ ॥

मूलम्

रथानां क्व च विज्ञानं क्व च भीष्मोऽल्पचेतनः।
अहमावारयिष्यामि पाण्डवानामनीकिनीम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कहाँ रथियोंको समझना और कहाँ अल्पबुद्धि भीष्म? मैं अकेला ही पाण्डवोंकी सेनाको आगे बढ़नेसे रोक दूँगा॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आसाद्य माममोघेषुं गमिष्यन्ति दिशो दश।
पाण्डवाः सहपञ्चालाः शार्दूलं वृषभा इव ॥ २३ ॥

मूलम्

आसाद्य माममोघेषुं गमिष्यन्ति दिशो दश।
पाण्डवाः सहपञ्चालाः शार्दूलं वृषभा इव ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे बाण अमोघ हैं। मेरे सामने आकर पाण्डव और पांचाल उसी प्रकार दसों दिशाओंमें भाग जायँगे, जैसे सिंहको देखकर बैल भागते हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्व च युद्धं विमर्दो वा मन्त्रे सुव्याहृतानि च।
क्व च भीष्मो गतवया मन्दात्मा कालचोदितः ॥ २४ ॥

मूलम्

क्व च युद्धं विमर्दो वा मन्त्रे सुव्याहृतानि च।
क्व च भीष्मो गतवया मन्दात्मा कालचोदितः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कहाँ युद्ध, मारकाट और गुप्त मन्त्रणामें अच्छी बातें बतानेका कार्य और कहाँ कालप्रेरित मन्दबुद्धि भीष्म, जिनकी आयु समाप्त हो चुकी है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकाकी स्पर्धते नित्यं सर्वेण जगता सह।
न चान्यं पुरुषं कंचिन्मन्यते मोघदर्शनः ॥ २५ ॥

मूलम्

एकाकी स्पर्धते नित्यं सर्वेण जगता सह।
न चान्यं पुरुषं कंचिन्मन्यते मोघदर्शनः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये अकेले ही सदा सम्पूर्ण जगत्‌के साथ स्पर्धा रखते हैं और अपनी व्यर्थ दृष्टिके कारण दूसरे किसीको पुरुष ही नहीं समझते हैं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रोतव्यं खलु वृद्धानामिति शास्त्रनिदर्शनम्।
न त्वेव ह्यतिवृद्धानां पुनर्बाला हि ते मताः ॥ २६ ॥

मूलम्

श्रोतव्यं खलु वृद्धानामिति शास्त्रनिदर्शनम्।
न त्वेव ह्यतिवृद्धानां पुनर्बाला हि ते मताः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वृद्धोंकी बातें सुननी चाहिये; यह शास्त्रका आदेश है। परंतु जो अत्यन्त बूढ़े हो गये हैं, उनकी बातें श्रवण करनेयोग्य नहीं हैं; क्योंकि वे तो फिर बालकोंके ही समान माने गये हैं॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहमेको हनिष्यामि पाण्डवानामनीकिनीम् ।
सुयुद्धे राजशार्दूल यशो भीष्मं गमिष्यति ॥ २७ ॥

मूलम्

अहमेको हनिष्यामि पाण्डवानामनीकिनीम् ।
सुयुद्धे राजशार्दूल यशो भीष्मं गमिष्यति ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नृपश्रेष्ठ! मैं इस युद्धमें अकेला ही पाण्डवोंकी सेनाका विनाश करूँगा; परंतु सारा यश भीष्मको मिल जायगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतः सेनापतिस्त्वेष त्वया भीष्मो नराधिप।
सेनापतौ यशो गन्ता न तु योधान् कथंचन ॥ २८ ॥

मूलम्

कृतः सेनापतिस्त्वेष त्वया भीष्मो नराधिप।
सेनापतौ यशो गन्ता न तु योधान् कथंचन ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! तुमने इन भीष्मको ही सेनापति बनाया है। विजयका यश सेनापतिको ही प्राप्त होता है; योद्धाओंको किसी प्रकार नहीं मिलता॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं जीवति गाङ्गेये योत्स्ये राजन् कथंचन।
हते भीष्मे तु योद्धास्मि सर्वैरेव महारथैः ॥ २९ ॥

मूलम्

नाहं जीवति गाङ्गेये योत्स्ये राजन् कथंचन।
हते भीष्मे तु योद्धास्मि सर्वैरेव महारथैः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः राजन्! मैं भीष्मके जीते-जी किसी प्रकार युद्ध नहीं करूँगा; परंतु भीष्मके मारे जानेपर सम्पूर्ण महारथियोंके साथ टक्कर लूँगा’॥२९॥

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

समुद्यतोऽयं भारो मे सुमहान् सागरोपमः।
धार्तराष्ट्रस्य संग्रामे वर्षपूगाभिचिन्तितः ॥ ३० ॥
तस्मिन्नभ्यागते काले प्रतप्ते लोमहर्षणे।
मिथो भेदो न मे कार्यस्तेन जीवसि सूतज ॥ ३१ ॥

मूलम्

समुद्यतोऽयं भारो मे सुमहान् सागरोपमः।
धार्तराष्ट्रस्य संग्रामे वर्षपूगाभिचिन्तितः ॥ ३० ॥
तस्मिन्नभ्यागते काले प्रतप्ते लोमहर्षणे।
मिथो भेदो न मे कार्यस्तेन जीवसि सूतज ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मने कहा— सूतपुत्र! इस युद्धमें दुर्योधनका यह समुद्रके समान अत्यन्त गुरुतर भार मैंने अपने कंधोंपर उठाया है। जिसके लिये मैं बहुत वर्षोंसे चिन्तित हो रहा था, वह संतापदायक रोमांचकारी समय अब आकर उपस्थित हो ही गया, ऐसे अवसरमें मुझे यह पारस्परिक भेद नहीं उत्पन्न करना चाहिये, इसीलिये तू अभीतक जी रहा है॥३०-३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्यहं त्वद्य विक्रम्य स्थविरोऽपि शिशोस्तव।
युद्धश्रद्धामहं छिन्द्यां जीवितस्य च सूतज ॥ ३२ ॥

मूलम्

न ह्यहं त्वद्य विक्रम्य स्थविरोऽपि शिशोस्तव।
युद्धश्रद्धामहं छिन्द्यां जीवितस्य च सूतज ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सूतकुमार! यदि ऐसी बात न होती तो मैं वृद्ध होनेपर भी पराक्रम करके आज तुझ बालककी युद्ध-विषयक श्रद्धा और जीवनकी आशाका एक ही साथ उच्छेद कर डालता॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जामदग्न्येन रामेण महास्त्राणि विमुञ्चता।
न मे व्यथा कृता काचित् त्वं तु मे किं करिष्यसि॥३३॥

मूलम्

जामदग्न्येन रामेण महास्त्राणि विमुञ्चता।
न मे व्यथा कृता काचित् त्वं तु मे किं करिष्यसि॥३३॥

अनुवाद (हिन्दी)

जमदग्निनन्दन परशुरामने मेरे ऊपर बड़े-बड़े अस्त्रोंका प्रयोग किया था; परंतु वे भी मुझे कोई पीड़ा न दे सके। फिर तू तो मेरा कर ही क्या लेगा?॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामं नैतत् प्रशंसन्ति सन्तः स्वबलसंस्तवम्।
वक्ष्यामि तु त्वां संतप्तो निहीनकुलपांसन ॥ ३४ ॥

मूलम्

कामं नैतत् प्रशंसन्ति सन्तः स्वबलसंस्तवम्।
वक्ष्यामि तु त्वां संतप्तो निहीनकुलपांसन ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नीचकुलांगार! साधु पुरुष अपने बलकी प्रशंसा करना कदापि अच्छा नहीं मानते हैं, तथापि तेरे व्यवहारसे संतप्त होकर मैं अपनी प्रशंसाकी बात भी कह रहा हूँ॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समेतं पार्थिवं क्षत्रं काशिराजस्वयंवरे।
निर्जित्यैकरथेनैव याः कन्यास्तरसा हृताः ॥ ३५ ॥

मूलम्

समेतं पार्थिवं क्षत्रं काशिराजस्वयंवरे।
निर्जित्यैकरथेनैव याः कन्यास्तरसा हृताः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

काशिराजके यहाँ स्वयंवरमें समस्त भूमण्डलके क्षत्रियनरेश एकत्र हुए थे, परंतु मैंने केवल एक रथपर ही आरूढ़ होकर उन सबको जीतकर बलपूर्वक काशिराजकी कन्याओंका अपहरण किया था॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईदृशानां सहस्राणि विशिष्टानामथो पुनः।
मयैकेन निरस्तानि ससैन्यानि रणाजिरे ॥ ३६ ॥

मूलम्

ईदृशानां सहस्राणि विशिष्टानामथो पुनः।
मयैकेन निरस्तानि ससैन्यानि रणाजिरे ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ जो लोग एकत्र हुए हैं, ऐसे तथा इनसे भी बढ़-चढ़कर पराक्रमी हजारों नरेश वहाँ एकत्र थे; परंतु मैंने समरांगणमें अकेले ही उन सबको सेनाओंसहित परास्त कर दिया था॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वां प्राप्य वैरपुरुषं कुरूणामनयो महान्।
उपस्थितो विनाशाय यतस्व पुरुषो भव ॥ ३७ ॥

मूलम्

त्वां प्राप्य वैरपुरुषं कुरूणामनयो महान्।
उपस्थितो विनाशाय यतस्व पुरुषो भव ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तू वैरका मूर्तिमान् स्वरूप है। तेरा सहारा पाकर कुरुकुलके विनाशके लिये बहुत बड़ा अन्याय उपस्थित हो गया है। अब तू रक्षाका प्रबन्ध कर और पुरुषत्वका परिचय दे॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युद्ध्यस्व समरे पार्थं येन विस्पर्धसे सह।
द्रक्ष्यामि त्वां विनिर्मुक्तमस्माद्‌ युद्धात्‌ सुदुर्मते ॥ ३८ ॥

मूलम्

युद्ध्यस्व समरे पार्थं येन विस्पर्धसे सह।
द्रक्ष्यामि त्वां विनिर्मुक्तमस्माद्‌ युद्धात्‌ सुदुर्मते ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्मते! तू जिसके साथ सदा स्पर्धा रखता है, उस अर्जुनके साथ समरभूमिमें युद्ध कर। मैं देखूँगा कि तू इस संग्रामसे किस प्रकार बच पाता है?॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमुवाच ततो राजा धार्तराष्ट्रः प्रतापवान्।
मां समीक्षस्व गाङ्गेय कार्यं हि महदुद्यतम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

तमुवाच ततो राजा धार्तराष्ट्रः प्रतापवान्।
मां समीक्षस्व गाङ्गेय कार्यं हि महदुद्यतम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर प्रतापी राजा दुर्योधनने भीष्मजीसे कहा—‘गंगानन्दन! आप मेरी ओर देखिये; क्योंकि इस समय महान् कार्य उपस्थित है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चिन्त्यतामिदमेकाग्रं मम निःश्रेयसं परम्।
उभावपि भवन्तौ मे महत् कर्म करिष्यतः ॥ ४० ॥

मूलम्

चिन्त्यतामिदमेकाग्रं मम निःश्रेयसं परम्।
उभावपि भवन्तौ मे महत् कर्म करिष्यतः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आप एकाग्रचित्त होकर मेरे परम कल्याणकी बात सोचिये। आप और कर्ण दोनों ही मेरा महान् कार्य सिद्ध करेंगे॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूयश्च श्रोतुमिच्छामि परेषां रथसत्तमान्।
ये चैवातिरथास्तत्र ये चैव रथयूथपाः ॥ ४१ ॥

मूलम्

भूयश्च श्रोतुमिच्छामि परेषां रथसत्तमान्।
ये चैवातिरथास्तत्र ये चैव रथयूथपाः ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अब मैं पुनः शत्रुपक्षके श्रेष्ठ रथियों, अतिरथियों तथा रथयूथपतियोंका परिचय सुनना चाहता हूँ॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बलाबलममित्राणां श्रोतुमिच्छामि कौरव ।
प्रभातायां रजन्यां वै इदं युद्धं भविष्यति ॥ ४२ ॥

मूलम्

बलाबलममित्राणां श्रोतुमिच्छामि कौरव ।
प्रभातायां रजन्यां वै इदं युद्धं भविष्यति ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुनन्दन! शत्रुओंके बलाबलको सुननेकी मेरी इच्छा है। आजकी रात बीतते ही कल प्रातःकाल यह युद्ध प्रारम्भ हो जायगा’॥४२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि रथातिरथसंख्यानपर्वणि भीष्मकर्णसंवादे अष्टषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १६८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत रथातिरथसंख्यानपर्वमें भीष्म-कर्णसंवादविषयक एक सौ अड़सठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६८॥