१६७

भागसूचना

सप्तषष्ट्‌यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

कौरवपक्षके रथी, महारथी और अतिरथियोंका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

भीष्म उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शकुनिर्मातुलस्तेऽसौ रथ एको नराधिप।
प्रयुज्य पाण्डवैर्वैरं योत्स्यते नात्र संशयः ॥ १ ॥

मूलम्

शकुनिर्मातुलस्तेऽसौ रथ एको नराधिप।
प्रयुज्य पाण्डवैर्वैरं योत्स्यते नात्र संशयः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मने कहा— नरेश्वर! यह तुम्हारा मामा शकुनि भी एक रथी है। यह पाण्डवोंसे वैर बाँधकर युद्ध करेगा, इसमें संशय नहीं है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्य सेना दुर्धर्षा समरे प्रतियायिनः।
विकृतायुधभूयिष्ठा वायुवेगसमा जवे ॥ २ ॥

मूलम्

एतस्य सेना दुर्धर्षा समरे प्रतियायिनः।
विकृतायुधभूयिष्ठा वायुवेगसमा जवे ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धमें डटकर शत्रुओंका सामना करनेवाले इस शकुनिकी सेना दुर्धर्ष है। इसका वेग वायुके समान है तथा यह विविध आकारवाले अनेक आयुधोंसे विभूषित है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्रोणपुत्रो महेष्वासः सर्वानेवाति धन्विनः।
समरे चित्रयोधी च दृढास्त्रश्च महारथः ॥ ३ ॥

मूलम्

द्रोणपुत्रो महेष्वासः सर्वानेवाति धन्विनः।
समरे चित्रयोधी च दृढास्त्रश्च महारथः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाधनुर्धर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा तो सभी धनुर्धरोंसे बढ़कर है। वह युद्धमें विचित्र ढंगसे शत्रुओंका सामना करनेवाला, सुदृढ़ अस्त्रोंसे सम्पन्न तथा महारथी है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्य हि महाराज यथा गाण्डीवधन्वनः।
शरासनविनिर्मुक्ताः संसक्ता यान्ति सायकाः ॥ ४ ॥

मूलम्

एतस्य हि महाराज यथा गाण्डीवधन्वनः।
शरासनविनिर्मुक्ताः संसक्ता यान्ति सायकाः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! गाण्डीवधारी अर्जुनकी भाँति इसके धनुषसे एक साथ छूटे हुए बहुत-से बाण भी परस्पर सटे हुए ही लक्ष्यतक पहुँचते हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैष शक्यो मया वीरः संख्यातुं रथसत्तमः।
निर्दहेदपि लोकांस्त्रीनिच्छन्नेष महारथः ॥ ५ ॥

मूलम्

नैष शक्यो मया वीरः संख्यातुं रथसत्तमः।
निर्दहेदपि लोकांस्त्रीनिच्छन्नेष महारथः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

रथियोंमें श्रेष्ठ इस वीर पुरुषके महत्त्वकी गणना नहीं की जा सकती। यह महारथी चाहे, तो तीनों लोकोंको दग्ध कर सकता है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रोधस्तेजश्च तपसा सम्भृतोऽऽश्रमवासिनाम् ।
द्रोणेनानुगृहीतश्च दिव्यैरस्त्रैरुदारधीः ॥ ६ ॥

मूलम्

क्रोधस्तेजश्च तपसा सम्भृतोऽऽश्रमवासिनाम् ।
द्रोणेनानुगृहीतश्च दिव्यैरस्त्रैरुदारधीः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसमें क्रोध है, तेज है और आश्रमवासी महर्षियोंके योग्य तपस्या भी संचित है। इसकी बुद्धि उदार है। द्रोणाचार्यने सम्पूर्ण दिव्यास्त्रोंका ज्ञान देकर इसपर महान् अनुग्रह किया है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दोषस्त्वस्य महानेको येनैव भरतर्षभ।
न मे रथो नातिरथो मतः पार्थिवसत्तम ॥ ७ ॥

मूलम्

दोषस्त्वस्य महानेको येनैव भरतर्षभ।
न मे रथो नातिरथो मतः पार्थिवसत्तम ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

किंतु भरतश्रेष्ठ! नृपशिरोमणे! इसमें एक ही बहुत बड़ा दोष है, जिससे मैं इसे न तो अतिरथी मानता हूँ और न रथी ही॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीवितं प्रियमत्यर्थमायुष्कामः सदा द्विजः।
न ह्यस्य सदृशः कश्चिदुभयोः सेनयोरपि ॥ ८ ॥

मूलम्

जीवितं प्रियमत्यर्थमायुष्कामः सदा द्विजः।
न ह्यस्य सदृशः कश्चिदुभयोः सेनयोरपि ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस ब्राह्मणको अपना जीवन बहुत प्रिय है, अतः यह सदा दीर्घायु बना रहना चाहता है (यही इसका दोष है)। अन्यथा दोनों सेनाओंमें इसके समान शक्तिशाली कोई नहीं है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्यादेकरथेनैव देवानामपि वाहिनीम् ।
वपुष्मांस्तलघोषेण स्फोटयेदपि पर्वतान् ॥ ९ ॥

मूलम्

हन्यादेकरथेनैव देवानामपि वाहिनीम् ।
वपुष्मांस्तलघोषेण स्फोटयेदपि पर्वतान् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह एकमात्र रथका सहारा लेकर देवताओंकी सेनाका भी संहार कर सकता है। इसका शरीर हृष्ट-पुष्ट एवं विशाल है। यह अपनी तालीकी आवाजसे पर्वतोंको भी विदीर्ण कर सकता है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असंख्येयगुणो वीरः प्रहर्ता दारुणद्युतिः।
दण्डपाणिरिवासह्यः कालवत् प्रचरिष्यति ॥ १० ॥

मूलम्

असंख्येयगुणो वीरः प्रहर्ता दारुणद्युतिः।
दण्डपाणिरिवासह्यः कालवत् प्रचरिष्यति ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस वीरमें असंख्य गुण हैं। यह प्रहार करनेमें कुशल और भयंकर तेजसे सम्पन्न है; अतः दण्डधारी कालके समान असह्य होकर युद्धभूमिमें विचरण करेगा॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युगान्ताग्निसमः क्रोधात् सिंहग्रीवो महाद्युतिः।
एष भारतयुद्धस्य पृष्ठं संशमयिष्यति ॥ ११ ॥

मूलम्

युगान्ताग्निसमः क्रोधात् सिंहग्रीवो महाद्युतिः।
एष भारतयुद्धस्य पृष्ठं संशमयिष्यति ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रोधमें यह प्रलयकालकी अग्निके समान जान पड़ता है। इसकी ग्रीवा सिंहके समान है। यह महातेजस्वी अश्वत्थामा महाभारत-युद्धके शेषभागका शमन करेगा॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पिता त्वस्य महातेजा वृद्धोऽपि युवभिर्वरः।
रणे कर्म महत् कर्ता अत्र मे नास्ति संशयः॥१२॥

मूलम्

पिता त्वस्य महातेजा वृद्धोऽपि युवभिर्वरः।
रणे कर्म महत् कर्ता अत्र मे नास्ति संशयः॥१२॥

अनुवाद (हिन्दी)

अश्वत्थामाके पिता द्रोणाचार्य महान् तेजस्वी हैं। ये बूढ़े होनेपर भी नवयुवकोंसे अच्छे हैं। इस युद्धमें ये अपना महान् पराक्रम प्रकट करेंगे, इसमें मुझे संशय नहीं है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्त्रवेगानिलोद्‌धूतः सेनाकक्षेन्धनोत्थितः ।
पाण्डुपुत्रस्य सैन्यानि प्रधक्ष्यति रणे धृतः ॥ १३ ॥

मूलम्

अस्त्रवेगानिलोद्‌धूतः सेनाकक्षेन्धनोत्थितः ।
पाण्डुपुत्रस्य सैन्यानि प्रधक्ष्यति रणे धृतः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समरभूमिमें डटे हुए द्रोणाचार्य अग्निके समान हैं। अस्त्रवेगरूपी वायुका सहारा पाकर ये उद्दीप्त होंगे और सेनारूपी घास-फूस तथा ईंधनोंको पाकर प्रज्वलित हो उठेंगे। इस प्रकार ये प्रज्वलित होकर पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरकी सेनाओंको जलाकर भस्म कर डालेंगे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथयूथपयूथानां यूथपोऽयं नरर्षभः ।
भारद्वाजात्मजः कर्ता कर्म तीव्रं हितं तव ॥ १४ ॥

मूलम्

रथयूथपयूथानां यूथपोऽयं नरर्षभः ।
भारद्वाजात्मजः कर्ता कर्म तीव्रं हितं तव ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये नरश्रेष्ठ भरद्वाजनन्दन रथयूथपतियोंके समुदायके भी यूथपति हैं। ये तुम्हारे हितके लिये तीव्र पराक्रम प्रकट करेंगे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वमूर्धाभिषिक्तानामाचार्यः स्थविरो गुरुः ।
गच्छेदन्तं सृंजयानां प्रियस्त्वस्य धनंजयः ॥ १५ ॥

मूलम्

सर्वमूर्धाभिषिक्तानामाचार्यः स्थविरो गुरुः ।
गच्छेदन्तं सृंजयानां प्रियस्त्वस्य धनंजयः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सम्पूर्ण मूर्धाभिषिक्त राजाओंके ये आचार्य एवं वृद्ध गुरु हैं। ये सृंजयवंशी क्षत्रियोंका विनाश कर डालेंगे; परंतु अर्जुन इन्हें बहुत प्रिय हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैष जातु महेष्वासः पार्थमक्लिष्टकारिणम्।
हन्यादाचार्यकं दीप्तं संस्मृत्य गुणनिर्जितम् ॥ १६ ॥

मूलम्

नैष जातु महेष्वासः पार्थमक्लिष्टकारिणम्।
हन्यादाचार्यकं दीप्तं संस्मृत्य गुणनिर्जितम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाधनुर्धर द्रोणाचार्यका समुज्ज्वल आचार्यभाव अर्जुनके गुणोंद्वारा जीत लिया गया है। उसका स्मरण करके ये अनायास ही महान् कर्म करनेवाले कुन्तीपुत्र अर्जुनको कदापि नहीं मारेंगे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्लाघतेऽयं सदा वीर पार्थस्य गुणविस्तरैः।
पुत्रादभ्यधिकं चैनं भारद्वाजोऽनुपश्यति ॥ १७ ॥

मूलम्

श्लाघतेऽयं सदा वीर पार्थस्य गुणविस्तरैः।
पुत्रादभ्यधिकं चैनं भारद्वाजोऽनुपश्यति ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीर! ये आचार्य द्रोण अर्जुनके गुणोंका विस्तारपूर्वक उल्लेख करते हुए सदा उनकी प्रशंसा करते हैं और उन्हें पुत्रसे भी अधिक प्रिय मानते हैं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हन्यादेकरथेनैव देवगन्धर्वमानुषान् ।
एकीभूतानपि रणे दिव्यैरस्त्रैः प्रतापवान् ॥ १८ ॥

मूलम्

हन्यादेकरथेनैव देवगन्धर्वमानुषान् ।
एकीभूतानपि रणे दिव्यैरस्त्रैः प्रतापवान् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रतापी द्रोणाचार्य एकमात्र रथका ही आश्रय ले रणभूमिमें एकत्र एवं एकीभूत हुए सम्पूर्ण देवताओं, गन्धर्वों और मनुष्योंको अपने दिव्यास्त्रोंद्वारा नष्ट कर सकते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पौरवो राजशार्दूलस्तव राजन् महारथः।
मतो मम रथोदारः परवीररथारुजः ॥ १९ ॥

मूलम्

पौरवो राजशार्दूलस्तव राजन् महारथः।
मतो मम रथोदारः परवीररथारुजः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तुम्हारी सेनामें जो नृपश्रेष्ठ पौरव हैं, वे मेरे मतमें रथियोंमें उदार महारथी हैं। वे विपक्षके वीर रथियोंको पीड़ा देनेमें समर्थ हैं॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वेन सैन्येन महता प्रतपन् शत्रुवाहिनीम्।
प्रधक्ष्यति स पञ्चालान् कक्षमग्निगतिर्यथा ॥ २० ॥

मूलम्

स्वेन सैन्येन महता प्रतपन् शत्रुवाहिनीम्।
प्रधक्ष्यति स पञ्चालान् कक्षमग्निगतिर्यथा ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा पौरव अपनी विशाल सेनाके द्वारा शत्रुवाहिनीको संतप्त करते हुए पांचालोंको उसी प्रकार भस्म कर डालेंगे, जैसे आग घास-फूसको॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यश्रवा रथस्त्वेको राजपुत्रो बृहद्बलः।
तव राजन् रिपुबले कालवत् प्रचरिष्यति ॥ २१ ॥

मूलम्

सत्यश्रवा रथस्त्वेको राजपुत्रो बृहद्बलः।
तव राजन् रिपुबले कालवत् प्रचरिष्यति ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! राजकुमार बृहद्बल भी एक रथी हैं। संसारमें उनकी सच्ची कीर्तिका विस्तार हुआ है। वे तुम्हारे शत्रुओंकी सेनामें कालके समान विचरेंगे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्य योधा राजेन्द्र विचित्रकवचायुधाः।
विचरिष्यन्ति संग्रामे निघ्नन्तः शात्रवांस्तव ॥ २२ ॥

मूलम्

एतस्य योधा राजेन्द्र विचित्रकवचायुधाः।
विचरिष्यन्ति संग्रामे निघ्नन्तः शात्रवांस्तव ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! उनके सैनिक विचित्र कवच और अस्त्र-शस्त्र धारण करके तुम्हारे शत्रुओंका संहार करते हुए संग्रामभूमिमें विचरण करेंगे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृषसेनो रथस्तेऽग्र्यः कर्णपुत्रो महारथः।
प्रधक्ष्यति रिपूणां ते बलं तु बलिनां वरः ॥ २३ ॥

मूलम्

वृषसेनो रथस्तेऽग्र्यः कर्णपुत्रो महारथः।
प्रधक्ष्यति रिपूणां ते बलं तु बलिनां वरः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कर्णका पुत्र वृषसेन भी तुम्हारी सेनाका एक श्रेष्ठ रथी है। इसे महारथी भी कह सकते हैं। बलवानोंमें श्रेष्ठ वृषसेन तुम्हारे वैरियोंकी विशाल वाहिनीको भस्म कर डालेगा॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जलसंधो महातेजा राजन् रथवरस्तव।
त्यक्ष्यते समरे प्राणान् माधवः परवीरहा ॥ २४ ॥

मूलम्

जलसंधो महातेजा राजन् रथवरस्तव।
त्यक्ष्यते समरे प्राणान् माधवः परवीरहा ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! शत्रुवीरोंका संहार करनेवाले मधुवंशी महातेजस्वी जलसंध तुम्हारी सेनामें श्रेष्ठ रथी हैं। ये तुम्हारे लिये युद्धमें अपने प्राणतक दे डालेंगे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष योत्स्यति संग्रामे गजस्कन्धविशारदः।
रथेन वा महाबाहुः क्षपयन् शत्रुवाहिनीम् ॥ २५ ॥

मूलम्

एष योत्स्यति संग्रामे गजस्कन्धविशारदः।
रथेन वा महाबाहुः क्षपयन् शत्रुवाहिनीम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहु जलसंध रथ अथवा हाथीकी पीठपर बैठकर युद्ध करनेमें कुशल हैं। ये संग्राममें शत्रुसेनाका संहार करते हुए लड़ेंगे॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथ एष महाराज मतो मे राजसत्तम।
त्वदर्थे त्यक्ष्यते प्राणान् सहसैन्यो महारणे ॥ २६ ॥

मूलम्

रथ एष महाराज मतो मे राजसत्तम।
त्वदर्थे त्यक्ष्यते प्राणान् सहसैन्यो महारणे ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! नृपश्रेष्ठ! ये मेरे मतमें रथी ही हैं और इस महायुद्धमें तुम्हारे लिये अपनी सेनासहित प्राणत्याग करेंगे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष विक्रान्तयोधी च चित्रयोधी च सङ्गरे।
वीतभीश्चापि ते राजन् शत्रुभिः सह योत्स्यते ॥ २७ ॥

मूलम्

एष विक्रान्तयोधी च चित्रयोधी च सङ्गरे।
वीतभीश्चापि ते राजन् शत्रुभिः सह योत्स्यते ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! ये समरांगणमें महान् पराक्रम प्रकट करते हुए विचित्र ढंगसे युद्ध करनेवाले हैं। ये तुम्हारे शत्रुओंके साथ निर्भय होकर युद्ध करेंगे॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाह्लीकोऽतिरथश्चैव समरे चानिवर्तनः ।
मम राजन् मतो युद्धे शूरो वैवस्वतोपमः ॥ २८ ॥

मूलम्

बाह्लीकोऽतिरथश्चैव समरे चानिवर्तनः ।
मम राजन् मतो युद्धे शूरो वैवस्वतोपमः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बाह्लीक अतिरथी वीर हैं। ये युद्धसे कभी पीछे नहीं हटते हैं। राजन्! मैं समरभूमिमें इन्हें यमराजके समान शूरवीर मानता हूँ॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्येष समरं प्राप्य निवर्तेत कथञ्चन।
यथा सततगो राजन् स हि हन्यात् परान् रणे॥२९॥

मूलम्

न ह्येष समरं प्राप्य निवर्तेत कथञ्चन।
यथा सततगो राजन् स हि हन्यात् परान् रणे॥२९॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये रणक्षेत्रमें पहुँचकर किसी तरह पीछे पैर नहीं हटा सकते। राजन्! ये वायुके समान वेगसे रणभूमिमें शत्रुओंको मारेंगे॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेनापतिर्महाराज सत्यवांस्ते महारथः ।
रणेष्वद्भुतकर्मा च रथी पररथारुजः ॥ ३० ॥

मूलम्

सेनापतिर्महाराज सत्यवांस्ते महारथः ।
रणेष्वद्भुतकर्मा च रथी पररथारुजः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! रथारूढ हो युद्धमें अद्भुत पराक्रम दिखाने और शत्रुपक्षके रथियोंको मार भगानेवाले तुम्हारे सेनापति सत्यवान् भी महारथी हैं॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्य समरं दृष्ट्‌वा न व्यथास्ति कथञ्चन।
उत्स्मयन्नुत्पतत्येष परान् रथपथे स्थितान् ॥ ३१ ॥

मूलम्

एतस्य समरं दृष्ट्‌वा न व्यथास्ति कथञ्चन।
उत्स्मयन्नुत्पतत्येष परान् रथपथे स्थितान् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्ध देखकर इनके मनमें किसी प्रकार भी भय एवं दुःख नहीं होता। ये रथके मार्गमें खड़े हुए शत्रुओंपर हँसते-हँसते कूद पड़ते हैं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष चारिषु विक्रान्तः कर्म सत्पुरुषोचितम्।
कर्ता विमर्दे सुमहत् त्वदर्थे पुरुषोत्तमः ॥ ३२ ॥

मूलम्

एष चारिषु विक्रान्तः कर्म सत्पुरुषोचितम्।
कर्ता विमर्दे सुमहत् त्वदर्थे पुरुषोत्तमः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुरुषश्रेष्ठ सत्यवान् शत्रुओंपर महान् पराक्रम दिखाते हैं। ये युद्धमें तुम्हारे लिये श्रेष्ठ पुरुषोंके योग्य महान् कर्म करेंगे॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलम्बुषो राक्षसेन्द्रः क्रूरकर्मा महारथः।
हनिष्यति परान् राजन् पूर्ववैरमनुस्मरन् ॥ ३३ ॥

मूलम्

अलम्बुषो राक्षसेन्द्रः क्रूरकर्मा महारथः।
हनिष्यति परान् राजन् पूर्ववैरमनुस्मरन् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्रूरकर्मा राक्षसराज अलम्बुष भी महारथी है। राजन्! यह पहलेके वैरको याद करके शत्रुओंका संहार करेगा॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष राक्षससैन्यानां सर्वेषां रथसत्तमः।
मायावी दृढवैरश्च समरे विचरिष्यति ॥ ३४ ॥

मूलम्

एष राक्षससैन्यानां सर्वेषां रथसत्तमः।
मायावी दृढवैरश्च समरे विचरिष्यति ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मायावी, वैरभावको दृढ़तापूर्वक सुरक्षित रखनेवाला तथा समस्त राक्षस सैनिकोंमें श्रेष्ठ रथी यह अलम्बुष संग्रामभूमिमें (निर्भय होकर) विचरेगा॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राग्ज्योतिषाधिपो वीरो भगदत्तः प्रतापवान्।
गजाङ्कुशधरश्रेष्ठो रथे चैव विशारदः ॥ ३५ ॥

मूलम्

प्राग्ज्योतिषाधिपो वीरो भगदत्तः प्रतापवान्।
गजाङ्कुशधरश्रेष्ठो रथे चैव विशारदः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्राग्ज्योतिषपुरके राजा भगदत्त बड़े वीर और प्रतापी हैं। हाथमें अंकुश लेकर हाथियोंको काबूमें रखनेवाले वीरोंमें इनका सबसे ऊँचा स्थान है। ये रथयुद्धमें भी कुशल हैं॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतेन युद्धमभवत् पुरा गाण्डीवधन्वनः।
दिवसान् सुबहून् राजन्नुभयोर्जयगृद्धिनोः ॥ ३६ ॥

मूलम्

एतेन युद्धमभवत् पुरा गाण्डीवधन्वनः।
दिवसान् सुबहून् राजन्नुभयोर्जयगृद्धिनोः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! पहले इनके साथ गाण्डीवधारी अर्जुनका युद्ध हुआ था। उस संग्राममें दोनों अपनी-अपनी विजय चाहते हुए बहुत दिनोंतक लड़ते रहे॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सखायं गान्धारे मानयन् पाकशासनम्।
अकरोत् संविदं तेन पाण्डवेन महात्मना ॥ ३७ ॥

मूलम्

ततः सखायं गान्धारे मानयन् पाकशासनम्।
अकरोत् संविदं तेन पाण्डवेन महात्मना ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गान्धारीकुमार! कुछ दिनों बाद भगदत्तने अपने सखा इन्द्रका सम्मान करते हुए महात्मा पाण्डुनन्दन अर्जुनके साथ संधि कर ली थी॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष योत्स्यति संग्रामे गजस्कन्धविशारदः।
ऐरावतगतो राजा देवानामिव वासवः ॥ ३८ ॥

मूलम्

एष योत्स्यति संग्रामे गजस्कन्धविशारदः।
ऐरावतगतो राजा देवानामिव वासवः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा भगदत्त हाथीकी पीठपर बैठकर युद्ध करनेमें अत्यन्त कुशल हैं। ये ऐरावतपर बैठे हुए देवराज इन्द्रके समान संग्राममें तुम्हारे शत्रुओंके साथ युद्ध करेंगे॥३८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि रथातिरथसंख्यानपर्वणि सप्तषष्ट्‌यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १६७ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत रथातिरथसंख्यानपर्वमें एक सौ सरसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१६७॥