भागसूचना
एकोनषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
धृतराष्ट्र और संजयका संवाद
मूलम् (वचनम्)
जनमेजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा व्यूढेष्वनीकेषु कुरुक्षेत्रे द्विजर्षभ।
किमकुर्वंश्च कुरवः कालेनाभिप्रचोदिताः ॥ १ ॥
मूलम्
तथा व्यूढेष्वनीकेषु कुरुक्षेत्रे द्विजर्षभ।
किमकुर्वंश्च कुरवः कालेनाभिप्रचोदिताः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजयने पूछा— द्विजश्रेष्ठ! जब इस प्रकार कुरुक्षेत्रमें सेनाएँ मोर्चा बाँधकर खड़ी हो गयीं, तब कालप्रेरित कौरवोंने क्या किया?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा व्यूढेष्वनीकेषु यत्तेषु भरतर्षभ।
धृतराष्ट्रो महाराज संजयं वाक्यमब्रवीत् ॥ २ ॥
मूलम्
तथा व्यूढेष्वनीकेषु यत्तेषु भरतर्षभ।
धृतराष्ट्रो महाराज संजयं वाक्यमब्रवीत् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजीने कहा— भरतकुलभूषण महाराज! जब वे सभी सेनाएँ कुरुक्षेत्रमें व्यूहरचनापूर्वक डट गयीं, तब धृतराष्ट्रने संजयसे कहा—॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एहि संजय सर्वं मे आचक्ष्वानवशेषतः।
सेनानिवेशे यद् वृत्तं कुरुपाण्डवसेनयोः ॥ ३ ॥
मूलम्
एहि संजय सर्वं मे आचक्ष्वानवशेषतः।
सेनानिवेशे यद् वृत्तं कुरुपाण्डवसेनयोः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘संजय! यहाँ आओ और कौरवों तथा पाण्डवोंकी सेनाके पड़ाव पड़ जानेपर वहाँ जो कुछ हुआ हो, वह सब मुझे पूर्णरूपसे बताओ॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दिष्टमेव परं मन्ये पौरुषं चाप्यनर्थकम्।
यदहं बुद्ध्यमानोऽपि युद्धदोषान् क्षयोदयान् ॥ ४ ॥
तथापि निकृतिप्रज्ञं पुत्रं दुर्द्यूतदेविनम्।
न शक्नोमि नियन्तुं वा कर्तुं वा हितमात्मनः ॥ ५ ॥
मूलम्
दिष्टमेव परं मन्ये पौरुषं चाप्यनर्थकम्।
यदहं बुद्ध्यमानोऽपि युद्धदोषान् क्षयोदयान् ॥ ४ ॥
तथापि निकृतिप्रज्ञं पुत्रं दुर्द्यूतदेविनम्।
न शक्नोमि नियन्तुं वा कर्तुं वा हितमात्मनः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं तो समझता हूँ’ दैव ही प्रबल है। उसके सामने पुरुषार्थ व्यर्थ है; क्योंकि मैं युद्धके दोषोंको अच्छी तरह जानता हूँ। वे दोष भयंकर संहार उपस्थित करनेवाले हैं, इस बातको भी समझता हूँ, तथापि ठगवि द्याके पण्डित तथा कपटद्यूत करनेवाले अपने पुत्रको न तो रोक सकता हूँ और न अपना हित-साधन ही कर सकता हूँ॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवत्येव हि मे सूत बुद्धिर्दोषानुदर्शिनी।
दुर्योधनं समासाद्य पुनः सा परिवर्तते ॥ ६ ॥
मूलम्
भवत्येव हि मे सूत बुद्धिर्दोषानुदर्शिनी।
दुर्योधनं समासाद्य पुनः सा परिवर्तते ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सूत! मेरी बुद्धि उपर्युक्त दोषोंको बारंबार देखती और समझती है तो भी दुर्योधनसे मिलनेपर पुनः बदल जाती है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं गते वै यद् भावि तद् भविष्यति संजय।
क्षत्रधर्मः किल रणे तनुत्यागो हि पूजितः ॥ ७ ॥
मूलम्
एवं गते वै यद् भावि तद् भविष्यति संजय।
क्षत्रधर्मः किल रणे तनुत्यागो हि पूजितः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘संजय! ऐसी दशामें अब जो कुछ होनेवाला है, वह होकर ही रहेगा। कहते हैं, युद्धमें शरीरका त्याग करना निश्चय ही सबके द्वारा सम्मानित क्षत्रियधर्म है’॥७॥
मूलम् (वचनम्)
संजय उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वद्युक्तोऽयमनुप्रश्नो महाराज यथेच्छसि ।
न तु दुर्योधने दोषमिममाधातुमर्हसि ॥ ८ ॥
मूलम्
त्वद्युक्तोऽयमनुप्रश्नो महाराज यथेच्छसि ।
न तु दुर्योधने दोषमिममाधातुमर्हसि ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजयने कहा— महाराज! आपने जो कुछ पूछा है और आप जैसा चाहते हैं, वह सब आपके योग्य है; परंतु आपको युद्धका दोष दुर्योधनके माथेपर नहीं मढ़ना चाहिये॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शृणुष्वानवशेषेण वदतो मम पार्थिव।
य आत्मनो दुश्चरितादशुभं प्राप्नुयान्नरः।
न स कालं न वा देवानेनसा गन्तुमर्हति ॥ ९ ॥
मूलम्
शृणुष्वानवशेषेण वदतो मम पार्थिव।
य आत्मनो दुश्चरितादशुभं प्राप्नुयान्नरः।
न स कालं न वा देवानेनसा गन्तुमर्हति ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूपाल! मैं सारी बातें बता रहा हूँ, आप सुनिये। जो मनुष्य अपने बुरे आचरणसे अशुभ फल पाता है, वह काल अथवा देवताओंपर दोषारोपण करनेका अधिकारी नहीं है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महाराज मनुष्येषु निन्द्यं यः सर्वमाचरेत्।
स वध्यः सर्वलोकस्य निन्दितानि समाचरन् ॥ १० ॥
मूलम्
महाराज मनुष्येषु निन्द्यं यः सर्वमाचरेत्।
स वध्यः सर्वलोकस्य निन्दितानि समाचरन् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाराज! जो पुरुष दूसरे मनुष्योंके साथ सर्वथा निन्दनीय व्यवहार करता है, वह निन्दित आचरण करनेवाला पापात्मा सब लोगोंके लिये वध्य है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निकारा मनुजश्रेष्ठ पाण्डवैस्त्वत्प्रतीक्षया ।
अनुभूताः सहामात्यैर्निकृतैरधिदेवने ॥ ११ ॥
मूलम्
निकारा मनुजश्रेष्ठ पाण्डवैस्त्वत्प्रतीक्षया ।
अनुभूताः सहामात्यैर्निकृतैरधिदेवने ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरश्रेष्ठ! जूएके समय जो बारंबार छल-कपट और अपमानके शिकार हुए थे, अपने मन्त्रियोंसहित उन पाण्डवोंने केवल आपका ही मुँह देखकर सब तरहके तिरस्कार सहन किये हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हयानां च गजानां च राज्ञां चामिततेजसाम्।
वैशसं समरे वृत्तं यत् तन्मे शृणु सर्वशः ॥ १२ ॥
मूलम्
हयानां च गजानां च राज्ञां चामिततेजसाम्।
वैशसं समरे वृत्तं यत् तन्मे शृणु सर्वशः ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस समय युद्धके कारण घोड़ों, हाथियों तथा अमिततेजस्वी राजाओंका जो विनाश प्राप्त हुआ है, उसका सम्पूर्ण वृत्तान्त आप मुझसे सुनिये॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थिरो भूत्वा महाप्राज्ञ सर्वलोकक्षयोदयम्।
यथाभूतं महायुद्धे श्रुत्वा चैकमना भव ॥ १३ ॥
मूलम्
स्थिरो भूत्वा महाप्राज्ञ सर्वलोकक्षयोदयम्।
यथाभूतं महायुद्धे श्रुत्वा चैकमना भव ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महामते! इस महायुद्धमें सम्पूर्ण लोकोंके विनाशको सूचित करनेवाला जो-जो वृत्तान्त जैसे-जैसे घटित हुआ है, वह सब स्थिर होकर सुनिये और सुनकर एकचित्त बने रहिये (व्याकुल न होइये)॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न ह्येव कर्ता पुरुषः कर्मणोः शुभपापयोः।
अस्वतन्त्रो हि पुरुषः कार्यते दारुयन्त्रवत् ॥ १४ ॥
मूलम्
न ह्येव कर्ता पुरुषः कर्मणोः शुभपापयोः।
अस्वतन्त्रो हि पुरुषः कार्यते दारुयन्त्रवत् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्योंकि मनुष्य पुण्य और पापके फलभोगकी प्रक्रियामें स्वतन्त्र कर्ता नहीं है; क्योंकि मनुष्य प्रारब्धके अधीन है, उसे तो कठपुतलीकी भाँति उस कार्यमें प्रवृत्त होना पड़ता है॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केचिदीश्वरनिर्दिष्टाः केचिदेव यदृच्छया ।
पूर्वकर्मभिरप्यन्ये त्रैधमेतत् प्रदृश्यते ।
तस्मादनर्थमापन्नः स्थिरो भूत्वा निशामय ॥ १५ ॥
मूलम्
केचिदीश्वरनिर्दिष्टाः केचिदेव यदृच्छया ।
पूर्वकर्मभिरप्यन्ये त्रैधमेतत् प्रदृश्यते ।
तस्मादनर्थमापन्नः स्थिरो भूत्वा निशामय ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कोई ईश्वरकी प्रेरणासे कार्य करते हैं, कुछ लोग आकस्मिक संयोगवश कर्मोंमें प्रवृत्त होते हैं तथा दूसरे बहुत-से लोग अपने पूर्वकर्मोंकी प्रेरणासे कार्य करते हैं। इस प्रकार ये कार्यकी त्रिविध अवस्थाएँ देखी जाती हैं, इसलिये इस महान् संकटमें पड़कर आप स्थिरभावसे (स्वस्थ चित्त होकर) सारा वृत्तान्त सुनिये॥१५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि सैन्यनिर्याणपर्वणि संजयवाक्ये एकोनषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत सैन्यनिर्याणपर्वमें संजयवाक्यविषयक एक सौ उनसठवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५९॥