भागसूचना
षट्पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
दुर्योधनके द्वारा भीष्मजीका प्रधान सेनापतिके पदपर अभिषेक और कुरुक्षेत्रमें पहुँचकर शिविर-निर्माण
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शान्तनवं भीष्मं प्राञ्जलिर्धृतराष्ट्रजः।
सह सर्वैर्महीपालैरिदं वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥
मूलम्
ततः शान्तनवं भीष्मं प्राञ्जलिर्धृतराष्ट्रजः।
सह सर्वैर्महीपालैरिदं वचनमब्रवीत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन समस्त राजाओंके साथ शान्तनु-नन्दन भीष्मके पास जा हाथ जोड़कर इस प्रकार बोला—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ऋते सेनाप्रणेतारं पृतना सुमहत्यपि।
दीर्यते युद्धमासाद्य पिपीलिकपुटं यथा ॥ २ ॥
मूलम्
ऋते सेनाप्रणेतारं पृतना सुमहत्यपि।
दीर्यते युद्धमासाद्य पिपीलिकपुटं यथा ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पितामह! कितनी ही बड़ी सेना क्यों न हो? किसी योग्य सेनापतिके बिना युद्धमें जाकर चींटियोंकी पंक्तिके समान छिन्न-भिन्न हो जाती है॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि जातु द्वयोर्बुद्धिः समा भवति कर्हिचित्।
शौर्यं च बलनेतॄणां स्पर्धते च परस्परम् ॥ ३ ॥
मूलम्
न हि जातु द्वयोर्बुद्धिः समा भवति कर्हिचित्।
शौर्यं च बलनेतॄणां स्पर्धते च परस्परम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘दो पुरुषोंकी बुद्धि कभी समान नहीं होती। यदि दोनों ओर योग्य सेनापति हों तो उनका शौर्य एक-दूसरेकी होड़में बढ़ता है॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रूयते च महाप्राज्ञ हैहयानमितौजसः।
अभ्ययुर्ब्राह्मणाः सर्वे समुच्छ्रितकुशध्वजाः ॥ ४ ॥
मूलम्
श्रूयते च महाप्राज्ञ हैहयानमितौजसः।
अभ्ययुर्ब्राह्मणाः सर्वे समुच्छ्रितकुशध्वजाः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महामते! सुना जाता है कि समस्त ब्राह्मणोंने अपनी कुशमयी ध्वजा फहराते हुए पहले कभी अमिततेजस्वी हैहयवंशके क्षत्रियोंपर आक्रमण किया था॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तानभ्ययुस्तदा वैश्याः शूद्राश्चैव पितामह।
एकतस्तु त्रयो वर्णा एकतः क्षत्रियर्षभाः ॥ ५ ॥
मूलम्
तानभ्ययुस्तदा वैश्याः शूद्राश्चैव पितामह।
एकतस्तु त्रयो वर्णा एकतः क्षत्रियर्षभाः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पितामह! उस समय ब्राह्मणोंके साथ वैश्यों और शूद्रोंने भी उनपर धावा किया था। एक ओर तीनों वर्णके लोग थे और दूसरी ओर चुने हुए श्रेष्ठ क्षत्रिय॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो युद्धेष्वभज्यन्त त्रयो वर्णाः पुनः पुनः।
क्षत्रियाश्च जयन्त्येव बहुलं चैकतो बलम् ॥ ६ ॥
मूलम्
ततो युद्धेष्वभज्यन्त त्रयो वर्णाः पुनः पुनः।
क्षत्रियाश्च जयन्त्येव बहुलं चैकतो बलम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तदनन्तर जब युद्ध आरम्भ हुआ, तब तीनों वर्णोंके लोग बारंबार पीठ दिखाकर भागने लगे। यद्यपि इनकी सेना अधिक थी तो भी क्षत्रियोंने एकमत होकर उनपर विजय पायी॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते क्षत्रियानेव पप्रच्छुर्द्विजसत्तमाः ।
तेभ्यः शशंसुर्धर्मज्ञा याथातथ्यं पितामह ॥ ७ ॥
मूलम्
ततस्ते क्षत्रियानेव पप्रच्छुर्द्विजसत्तमाः ।
तेभ्यः शशंसुर्धर्मज्ञा याथातथ्यं पितामह ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पितामह! तब उन श्रेष्ठ ब्राह्मणोंने क्षत्रियोंसे ही पूछा—हमारी पराजयका क्या कारण है? उस समय धर्मज्ञ क्षत्रियोंने उनसे यथार्थ कारण बता दिया॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयमेकस्य शृण्वाना महाबुद्धिमतो रणे।
भवन्तस्तु पृथक् सर्वे स्वबुद्धिवशवर्तिनः ॥ ८ ॥
मूलम्
वयमेकस्य शृण्वाना महाबुद्धिमतो रणे।
भवन्तस्तु पृथक् सर्वे स्वबुद्धिवशवर्तिनः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वे बोले—हमलोग एक परम बुद्धिमान् पुरुषको सेनापति बनाकर युद्धमें उसीका आदेश सुनते और मानते हैं। परंतु आप सब लोग पृथक्-पृथक् अपनी ही बुद्धिके अधीन हो मनमाना बर्ताव करते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततस्ते ब्राह्मणाश्चक्रुरेकं सेनापतिं द्विजम्।
नये सुकुशलं शूरमजयन् क्षत्रियांस्ततः ॥ ९ ॥
मूलम्
ततस्ते ब्राह्मणाश्चक्रुरेकं सेनापतिं द्विजम्।
नये सुकुशलं शूरमजयन् क्षत्रियांस्ततः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह सुनकर उन ब्राह्मणोंने एक शूरवीर एवं नीति-निपुण ब्राह्मणको सेनापति बनाया और क्षत्रियोंपर विजय प्राप्त की॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं ये कुशलं शूरं हितेप्सितमकल्मषम्।
सेनापतिं प्रकुर्वन्ति ते जयन्ति रणे रिपून् ॥ १० ॥
मूलम्
एवं ये कुशलं शूरं हितेप्सितमकल्मषम्।
सेनापतिं प्रकुर्वन्ति ते जयन्ति रणे रिपून् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इस प्रकार जो लोग किसी हितैषी, पापरहित तथा युद्ध-कुशल शूरवीरको सेनापति बना लेते हैं, वे संग्राममें शत्रुओंपर अवश्य विजय पाते हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवानुशनसा तुल्यो हितैषी च सदा मम।
असंहार्यः स्थितो धर्मे स नः सेनापतिर्भव ॥ ११ ॥
मूलम्
भवानुशनसा तुल्यो हितैषी च सदा मम।
असंहार्यः स्थितो धर्मे स नः सेनापतिर्भव ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘आप सदा मेरा हित चाहनेवाले तथा नीतिमें शुक्राचार्यके समान हैं। आपको आपकी इच्छाके बिना कोई मार नहीं सकता। आप सदा धर्ममें ही स्थित रहते हैं, अतः हमारे प्रधान सेनापति हो जाइये॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
रश्मिवतामिवादित्यो वीरुधामिव चन्द्रमाः ।
कुबेर इव यक्षाणां देवानामिव वासवः ॥ १२ ॥
पर्वतानां यथा मेरुः सुपर्णः पक्षिणां यथा।
कुमार इव देवानां वसूनामिव हव्यवाट् ॥ १३ ॥
मूलम्
रश्मिवतामिवादित्यो वीरुधामिव चन्द्रमाः ।
कुबेर इव यक्षाणां देवानामिव वासवः ॥ १२ ॥
पर्वतानां यथा मेरुः सुपर्णः पक्षिणां यथा।
कुमार इव देवानां वसूनामिव हव्यवाट् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे किरणोंवाले तेजस्वी पदार्थोंके सूर्य, वृक्ष और ओषधियोंके चन्द्रमा, यक्षोंके कुबेर, देवताओंके इन्द्र, पर्वतोंके मेरु, पक्षियोंके गरुड़, समस्त देवयोनियोंके कार्तिकेय और वसुओंके अग्निदेव अधिपति एवं संरक्षक हैं (उसी प्रकार आप हमारी समस्त सेनाओंके अधिनायक और संरक्षक हों)॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवता हि वंय गुप्ताः शक्रेणेव दिवौकसः।
अनाधृष्या भविष्यामस्त्रिदशानामपि ध्रुवम् ॥ १४ ॥
मूलम्
भवता हि वंय गुप्ताः शक्रेणेव दिवौकसः।
अनाधृष्या भविष्यामस्त्रिदशानामपि ध्रुवम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इन्द्रके द्वारा सुरक्षित देवताओंकी भाँति आपके संरक्षणमें रहकर हमलोग निश्चय ही देवगणोंके लिये भी अजेय हो जायँगे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रयातु नो भवानग्रे देवानामिव पावकिः।
वयं त्वामनुयास्यामः सौरभेया इवर्षभम् ॥ १५ ॥
मूलम्
प्रयातु नो भवानग्रे देवानामिव पावकिः।
वयं त्वामनुयास्यामः सौरभेया इवर्षभम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जैसे कार्तिकेय देवताओंके आगे-आगे चलते हैं, वैसे ही आप हमारे अगुआ हों। जैसे बछड़े साँड़के पीछे चलते हैं, उसी प्रकार हम आपका अनुसरण करेंगे’॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत।
यथैव हि भवन्तो मे तथैव मम पाण्डवाः ॥ १६ ॥
मूलम्
एवमेतन्महाबाहो यथा वदसि भारत।
यथैव हि भवन्तो मे तथैव मम पाण्डवाः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्मने कहा— भारत! तुम जैसा कहते हो वह ठीक है, पर मेरे लिये जैसे तुम हो, वैसे ही पाण्डव हैं॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपि चैव मया श्रेयो वाच्यं तेषां नराधिप।
संयोद्धव्यं तवार्थाय यथा मे समयः कृतः ॥ १७ ॥
मूलम्
अपि चैव मया श्रेयो वाच्यं तेषां नराधिप।
संयोद्धव्यं तवार्थाय यथा मे समयः कृतः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! मैं पाण्डवोंको उनके पूछनेपर अवश्य ही हितकी बात बताऊँगा और तुम्हारे लिये युद्ध करूँगा। ऐसी ही मैंने प्रतिज्ञा की है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न तु पश्यामि योद्धारमात्मनः सदृशं भुवि।
ऋते तस्मान्नरव्याघ्रात् कुन्तीपुत्राद् धनंजयात् ॥ १८ ॥
मूलम्
न तु पश्यामि योद्धारमात्मनः सदृशं भुवि।
ऋते तस्मान्नरव्याघ्रात् कुन्तीपुत्राद् धनंजयात् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं इस भूतलपर नरश्रेष्ठ कुन्तीपुत्र अर्जुनके सिवा दूसरे किसी योद्धाको अपने समान नहीं देखता हूँ॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स हि वेद महाबुद्धिर्दिव्यान्यस्त्राण्यनेकशः।
न तु मां विवृतो युद्धे जातु युध्येत पाण्डवः॥१९॥
मूलम्
स हि वेद महाबुद्धिर्दिव्यान्यस्त्राण्यनेकशः।
न तु मां विवृतो युद्धे जातु युध्येत पाण्डवः॥१९॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबुद्धिमान् पाण्डुकुमार अर्जुन अनेक दिव्यास्त्रोंका ज्ञान रखते हैं; परंतु वे मेरे सामने आकर प्रकट रूपमें कभी युद्ध नहीं कर सकते॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं चैव क्षणेनैव निर्मनुष्यमिदं जगत्।
कुर्यां शस्त्रबलेनैव ससुरासुरराक्षसम् ॥ २० ॥
मूलम्
अहं चैव क्षणेनैव निर्मनुष्यमिदं जगत्।
कुर्यां शस्त्रबलेनैव ससुरासुरराक्षसम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनकी ही भाँति मैं भी यदि चाहूँ तो अपने शस्त्रोंके बलसे देवता, मनुष्य, असुर तथा राक्षसोंसहित इस सम्पूर्ण जगत्को क्षणभरमें निर्जीव बना दूँ॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न त्वेवोत्सादनीया मे पाण्डोः पुत्रा जनाधिप।
तस्माद् योधान् हनिष्यामि प्रयोगेणायुतं सदा ॥ २१ ॥
एवमेषां करिष्यामि निधनं कुरुनन्दन।
न चेत् ते मां हनिष्यन्ति पूर्वमेव समागमे ॥ २२ ॥
मूलम्
न त्वेवोत्सादनीया मे पाण्डोः पुत्रा जनाधिप।
तस्माद् योधान् हनिष्यामि प्रयोगेणायुतं सदा ॥ २१ ॥
एवमेषां करिष्यामि निधनं कुरुनन्दन।
न चेत् ते मां हनिष्यन्ति पूर्वमेव समागमे ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु जनेश्वर! मैं पाण्डुके पुत्रोंकी किसी तरह हत्या नहीं करूँगा। कुरुनन्दन! यदि पाण्डव इस युद्धमें मुझे पहले ही नहीं मार डालेंगे तो मैं अपने अस्त्रोंके प्रयोगद्वारा प्रतिदिन उनके पक्षके दस हजार योद्धाओंका वध करता रहूँगा, मैं इस प्रकार इनकी सेनाका संहार करूँगा॥२१-२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सेनापतिस्त्वहं राजन् समये नापरेण ते।
भविष्यामि यथाकामं तन्मे श्रोतुमिहार्हसि ॥ २३ ॥
मूलम्
सेनापतिस्त्वहं राजन् समये नापरेण ते।
भविष्यामि यथाकामं तन्मे श्रोतुमिहार्हसि ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! मैं अपनी इच्छाके अनुसार एक शर्तपर तुम्हारा सेनापति होऊँगा। उसके बदले दूसरी शर्त नहीं मानूँगा। उस शर्तको तुम मुझसे यहाँ सुन लो॥२३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णो वा युध्यतां पूर्वमहं वा पृथिवीपते।
स्पर्धते हि सदात्यर्थं सूतपुत्रो मया रणे ॥ २४ ॥
मूलम्
कर्णो वा युध्यतां पूर्वमहं वा पृथिवीपते।
स्पर्धते हि सदात्यर्थं सूतपुत्रो मया रणे ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीपते! या तो पहले कर्ण ही युद्ध कर ले या मैं ही युद्ध करूँ; क्योंकि यह सूतपुत्र सदा युद्धमें मुझसे अत्यन्त स्पर्धा रखता है॥२४॥
मूलम् (वचनम्)
कर्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नाहं जीवति गाङ्गेये राजन् योत्स्ये कथंचन।
हते भीष्मे तु योत्स्यामि सह गाण्डीवधन्वना ॥ २५ ॥
मूलम्
नाहं जीवति गाङ्गेये राजन् योत्स्ये कथंचन।
हते भीष्मे तु योत्स्यामि सह गाण्डीवधन्वना ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण बोला— राजन्! मैं गंगानन्दन भीष्मके जीते-जी किसी प्रकार युद्ध नहीं करूँगा। इनके मारे जानेपर ही गाण्डीवधारी अर्जुनके साथ लड़ूँगा॥२५॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सेनापतिं चक्रे विधिवद् भूरिदक्षिणम्।
धृतराष्ट्रात्मजो भीष्मं सोऽभिषिक्तो व्यरोचत ॥ २६ ॥
मूलम्
ततः सेनापतिं चक्रे विधिवद् भूरिदक्षिणम्।
धृतराष्ट्रात्मजो भीष्मं सोऽभिषिक्तो व्यरोचत ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनने प्रचुर दक्षिणा देनेवाले भीष्मजीका प्रधान सेनापतिके पदपर विधिपूर्वक अभिषेक किया। अभिषेक हो जानेपर उनकी बड़ी शोभा हुई॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो भेरीश्च शङ्खांश्च शतशोऽथ सहस्रशः।
वादयामासुरव्यग्रा वादका राजशासनात् ॥ २७ ॥
मूलम्
ततो भेरीश्च शङ्खांश्च शतशोऽथ सहस्रशः।
वादयामासुरव्यग्रा वादका राजशासनात् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर बाजा बजानेवालोंने राजाकी आज्ञासे निर्भय होकर सैकड़ों और हजारों भेरियों तथा शंखोंको बजाया॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सिंहनादाश्च विविधा वाहनानां च निःस्वनाः।
प्रादुरासन्ननभ्रे च वर्षं रुधिरकर्दमम् ॥ २८ ॥
मूलम्
सिंहनादाश्च विविधा वाहनानां च निःस्वनाः।
प्रादुरासन्ननभ्रे च वर्षं रुधिरकर्दमम् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उस समय वीरोंके सिंहनाद तथा वाहनोंके नाना प्रकारके शब्द सब ओर गूँज उठे। बिना बादलके ही आकाशसे रक्तकी वर्षा होने लगी, जिसकी कीच जम गयी॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निर्घाताः पृथिवीकम्पा गजबृंहितनिःस्वनाः ।
आसंश्च सर्वयोधानां पातयन्तो मनांस्युत ॥ २९ ॥
मूलम्
निर्घाताः पृथिवीकम्पा गजबृंहितनिःस्वनाः ।
आसंश्च सर्वयोधानां पातयन्तो मनांस्युत ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हाथियोंके चिग्घाड़नेके साथ ही बिजलीकी गड़गड़ाहटके समान भयंकर शब्द होने लगे। धरती डोलने लगी। इन सब उत्पातोंने प्रकट होकर समस्त योद्धाओंके मानसिक उत्साहको दबा दिया॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वाचश्चाप्यशरीरिण्यो दिवश्चोल्काः प्रपेदिरे ।
शिवाश्च भयवेदिन्यो नेदुर्दीप्ततरा भृशम् ॥ ३० ॥
मूलम्
वाचश्चाप्यशरीरिण्यो दिवश्चोल्काः प्रपेदिरे ।
शिवाश्च भयवेदिन्यो नेदुर्दीप्ततरा भृशम् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अशुभ आकाशवाणी सुनायी देने लगी, आकाशसे उल्काएँ गिरने लगीं, भयकी सूचना देनेवाली सियारिनियाँ जोर-जोरसे अमंगलजनक शब्द करने लगीं॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सैनापत्ये यदा राजा गाङ्गेयमभिषिक्तवान्।
तदैतान्युग्ररूपाणि बभूवुः शतशो नृप ॥ ३१ ॥
मूलम्
सैनापत्ये यदा राजा गाङ्गेयमभिषिक्तवान्।
तदैतान्युग्ररूपाणि बभूवुः शतशो नृप ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नरेश्वर! राजा दुर्योधनने जब गंगानन्दन भीष्मको सेनापतिके पदपर अभिषिक्त किया, उसी समय ये सैकड़ों भयानक उत्पात प्रकट हुए॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः सेनापतिं कृत्वा भीष्मं परबलार्दनम्।
वाचयित्वा द्विजश्रेष्ठान् गोभिर्निष्कैश्च भूरिशः ॥ ३२ ॥
वर्धमानो जयाशीर्भिर्निर्ययौ सैनिकैर्वृतः ।
आपगेयं पुरस्कृत्य भ्रातृभिः सहितस्तदा ॥ ३३ ॥
स्कन्धावारेण महता कुरुक्षेत्रं जगाम ह ॥ ३४ ॥
मूलम्
ततः सेनापतिं कृत्वा भीष्मं परबलार्दनम्।
वाचयित्वा द्विजश्रेष्ठान् गोभिर्निष्कैश्च भूरिशः ॥ ३२ ॥
वर्धमानो जयाशीर्भिर्निर्ययौ सैनिकैर्वृतः ।
आपगेयं पुरस्कृत्य भ्रातृभिः सहितस्तदा ॥ ३३ ॥
स्कन्धावारेण महता कुरुक्षेत्रं जगाम ह ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार शत्रुसेनाको पीड़ित करनेवाले भीष्मको सेनापति बनाकर दुर्योधनने श्रेष्ठ ब्राह्मणोंसे स्वस्तिवाचन कराया और उन्हें गौओं तथा सुवर्णमुद्राओंकी भूरि-भूरि दक्षिणाएँ दीं। उस समय ब्राह्मणोंने विजयसूचक आशीर्वादोंद्वारा राजाका अभ्युदय मनाया और वह सैनिकोंसे घिरकर भीष्मजीको आगे करके भाइयोंके साथ हस्तिनापुरसे बाहर निकला तथा विशाल तम्बू-शामियानोंके साथ कुरुक्षेत्रको गया॥३२—३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
परिक्रम्य कुरुक्षेत्रं कर्णेन सह कौरवः।
शिबिरं मापयामास समे देशे जनाधिप ॥ ३५ ॥
मूलम्
परिक्रम्य कुरुक्षेत्रं कर्णेन सह कौरवः।
शिबिरं मापयामास समे देशे जनाधिप ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनमेजय! कर्णके साथ कुरुक्षेत्रमें जाकर दुर्योधनने एक समतल प्रदेशमें शिविरके लिये भूमिको नपवाया॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मधुरानूषरे देशे प्रभूतयवसेन्धने ।
यथैव हास्तिनपुरं तद्वच्छिबिरमाबभौ ॥ ३६ ॥
मूलम्
मधुरानूषरे देशे प्रभूतयवसेन्धने ।
यथैव हास्तिनपुरं तद्वच्छिबिरमाबभौ ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ऊसररहित मनोहर प्रदेशमें जहाँ घास और ईंधनकी बहुतायत थी, दुर्योधनकी सेनाका शिविर हस्तिनापुरकी भाँति सुशोभित होने लगा॥३६॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि सैन्यनिर्याणपर्वणि भीष्मसैनापत्ये षट्पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत सैन्यनिर्याणपर्वमें भीष्मका सेनापतित्वविषयक एक सौ छप्पनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५६॥