१५५ दुर्योधनसैन्यविभागे

भागसूचना

पञ्चपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दुर्योधनके द्वारा सेनाओंका विभाजन और पृथक्-पृथक् अक्षौहिणियोंके सेनापतियोंका अभिषेक

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्युष्टायां वै रजन्यां हि राजा दुर्योधनस्ततः।
व्यभजत् तान्यनीकानि दश चैकं च भारत ॥ १ ॥

मूलम्

व्युष्टायां वै रजन्यां हि राजा दुर्योधनस्ततः।
व्यभजत् तान्यनीकानि दश चैकं च भारत ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! रात बीतनेपर जब सबेरा हुआ, तब राजा दुर्योधनने अपनी ग्यारह अक्षौहिणी सेनाओंका विभाग किया॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नरहस्तिरथाश्वानां सारं मध्यं च फल्गु च।
सर्वेष्वेतेष्वनीकेषु संदिदेश नराधिपः ॥ २ ॥

मूलम्

नरहस्तिरथाश्वानां सारं मध्यं च फल्गु च।
सर्वेष्वेतेष्वनीकेषु संदिदेश नराधिपः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा दुर्योधनने पैदल, हाथी, रथ और घुड़सवार—इन सभी सेनाओंमेंसे उत्तम, मध्यम और निकृष्ट श्रेणियोंको पृथक्-पृथक् करके उन्हें यथास्थान नियुक्त कर दिया॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सानुकर्षाः सतूणीराः सवरूथाः सतोमराः।
सोपासङ्गाः सशक्तीकाः सनिषङ्गाः सहर्ष्टयः ॥ ३ ॥
सध्वजाः सपताकाश्च सशरासनतोमराः ।
रज्जुभिश्च विचित्राभिः सपाशाः सपरिच्छदाः ॥ ४ ॥
सकचग्रहविक्षेपाः सतैलगुडवालुकाः ।
साशीविषघटाः सर्वे ससर्जरसपांसवः ॥ ५ ॥
सघण्टफलकाः सर्वे सायोगुडजलोपलाः ।
सशालभिन्दिपालाश्च समधूच्छिष्टमुद्‌गराः ॥ ६ ॥
सकाण्डदण्डकाः सर्वे ससीरविषतोमराः ।
सशूर्पपिटकाः सर्वे सदात्राङ्कुशतोमराः ॥ ७ ॥
सकीलकवचाः सर्वे वासीवृक्षादनान्विताः ।
व्याघ्रचर्मपरीवारा द्वीपिचर्मावृताश्च ते ॥ ८ ॥
सहर्ष्टयः सशृङ्गाश्च सप्रासविविधायुधाः ।
सकुठाराः सकुद्दालाः सतैलक्षौमसर्पिषः ॥ ९ ॥

मूलम्

सानुकर्षाः सतूणीराः सवरूथाः सतोमराः।
सोपासङ्गाः सशक्तीकाः सनिषङ्गाः सहर्ष्टयः ॥ ३ ॥
सध्वजाः सपताकाश्च सशरासनतोमराः ।
रज्जुभिश्च विचित्राभिः सपाशाः सपरिच्छदाः ॥ ४ ॥
सकचग्रहविक्षेपाः सतैलगुडवालुकाः ।
साशीविषघटाः सर्वे ससर्जरसपांसवः ॥ ५ ॥
सघण्टफलकाः सर्वे सायोगुडजलोपलाः ।
सशालभिन्दिपालाश्च समधूच्छिष्टमुद्‌गराः ॥ ६ ॥
सकाण्डदण्डकाः सर्वे ससीरविषतोमराः ।
सशूर्पपिटकाः सर्वे सदात्राङ्कुशतोमराः ॥ ७ ॥
सकीलकवचाः सर्वे वासीवृक्षादनान्विताः ।
व्याघ्रचर्मपरीवारा द्वीपिचर्मावृताश्च ते ॥ ८ ॥
सहर्ष्टयः सशृङ्गाश्च सप्रासविविधायुधाः ।
सकुठाराः सकुद्दालाः सतैलक्षौमसर्पिषः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सब वीर अनुकर्ष (रथकी मरम्मतके लिये उसके नीचे बँधा हुआ काष्ठ), तरकस, वरूथ (रथको ढकनेका बाघ आदिका चमड़ा), उपासंग (जिन्हें हाथी या घोड़े उठा सकें, ऐसे तरकस), तोमर, शक्ति, निषंग (पैदलों-द्वारा ले जाये जानेवाले तरकस), ऋष्टि (एक प्रकारकी लोहेकी लाठी), ध्वजा, पताका, धनुष-बाण, तरह-तरहकी रस्सियाँ, पाश, बिस्तर, कचग्रह-विक्षेप (बाल पकड़कर गिरानेका यन्त्र), तेल, गुड़, बालू, विषधर सर्पोंके घड़े, रालका चूरा, घण्टफलक (घुँघुरुओंवाली ढाल), खड्गादि लोहेके शस्त्र, औंटा हुआ गुड़का पानी, ढेले, साल, भिन्दिपाल (गोफियाँ), मोम चुपड़े हुए मुद्‌गर, काँटीदार लाठियाँ, हल, विष लगे हुए बाण, सूप तथा टोकरियाँ, दरात, अंकुश, तोमर, काँटेदार कवच, बसूले, आरे आदि, बाघ और गैंड़ेके चमड़ेसे मढ़े हुए रथ, ऋष्टि, सींग, प्रास, भाँति-भाँतिके आयुध, कुठार, कुदाल, तेलमें भींगे हुए रेशमी वस्त्र तथा घी लिये हुए थे॥३—९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रुक्मजालप्रतिच्छन्ना नानामणिविभूषिताः ।
चित्रानीकाः सुवपुषो ज्वलिता इव पावकाः ॥ १० ॥

मूलम्

रुक्मजालप्रतिच्छन्ना नानामणिविभूषिताः ।
चित्रानीकाः सुवपुषो ज्वलिता इव पावकाः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे सभी सैनिक सोनेके जालीदार कवच धारण किये नाना प्रकारके मणिमय आभूषणोंसे विभूषित हो समस्त सेनाको ही विचित्र शोभासे सम्पन्न करते हुए अपने सुन्दर शरीरसे प्रज्वलित अग्निके समान प्रकाशित हो रहे थे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा कवचिनः शूराः शस्त्रेषु कृतनिश्चयाः।
कुलीना हययोनिज्ञाः सारथ्ये विनिवेषिताः ॥ ११ ॥

मूलम्

तथा कवचिनः शूराः शस्त्रेषु कृतनिश्चयाः।
कुलीना हययोनिज्ञाः सारथ्ये विनिवेषिताः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार जो शस्त्र-विद्याका निश्चित ज्ञान रखनेवाले, कुलीन तथा घोड़ोंकी नस्लको पहचाननेवाले थे, वे कवचधारी शूरवीर ही सारथिके कामपर नियुक्त किये गये थे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बद्धारिष्टा बद्धकक्षा बद्धध्वजपताकिनः ।
बद्धाभरणनिर्यूहा बद्धचर्मासिपट्टिशाः ॥ १२ ॥

मूलम्

बद्धारिष्टा बद्धकक्षा बद्धध्वजपताकिनः ।
बद्धाभरणनिर्यूहा बद्धचर्मासिपट्टिशाः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस सेनाके रथोंमें अमंगल निवारणके लिये यन्त्र और ओषधियाँ बाँधी गयी थीं। वे रस्सियोंसे खूब कसे गये थे। उन रथोंपर बँधी हुई ध्वजा-पताकाएँ फहरा रही थीं। उनके ऊपर छोटी-छोटी घंटियाँ बँधी थीं और कँगूरे जोड़े गये थे। उन सबमें ढाल-तलवार और पट्टिश आबद्ध थे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्युजो रथाः सर्वे सर्वे चोत्तमवाजिनः।
सप्रासऋष्टिकाः सर्वे सर्वे शतशरासनाः ॥ १३ ॥

मूलम्

चतुर्युजो रथाः सर्वे सर्वे चोत्तमवाजिनः।
सप्रासऋष्टिकाः सर्वे सर्वे शतशरासनाः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन सभी रथोंमें चार-चार घोड़े जुते हुए थे, वे सभी घोड़े अच्छी जातिके थे और सम्पूर्ण रथोंमें प्रास, ऋष्टि एवं सौ-सौ धनुष रखे गये थे॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धुर्ययोर्हययोरेकस्तथान्यौ पार्ष्णिसारथी ।
तौ चापि रथिनां श्रेष्ठौ रथी च हयवित् तथा॥१४॥
नगराणीव गुप्तानि दुराधर्षाणि शत्रुभिः।
आसन् रथसहस्राणि हेममालीनि सर्वशः ॥ १५ ॥

मूलम्

धुर्ययोर्हययोरेकस्तथान्यौ पार्ष्णिसारथी ।
तौ चापि रथिनां श्रेष्ठौ रथी च हयवित् तथा॥१४॥
नगराणीव गुप्तानि दुराधर्षाणि शत्रुभिः।
आसन् रथसहस्राणि हेममालीनि सर्वशः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रत्येक रथके दो-दो घोड़ोंपर एक-एक रक्षक नियुक्त था, एक-एक रथके लिये दो चक्ररक्षक नियत किये गये थे। वे दोनों ही रथियोंमें श्रेष्ठ थे तथा रथी भी अश्वसंचालनकी कलामें निपुण थे। सब ओर सुवर्णमालाओंसे अलंकृत हजारों रथ शोभा पाते थे। शत्रुओंके लिये उनका भेदन करना अत्यन्त कठिन था। वे सब-के-सब नगरोंकी भाँति सुरक्षित थे॥१४-१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा रथास्तथा नागा बद्धकक्षाः स्वलंकृताः।
बभूवुः सप्तपुरुषा रत्नवन्त इवाद्रयः ॥ १६ ॥

मूलम्

यथा रथास्तथा नागा बद्धकक्षाः स्वलंकृताः।
बभूवुः सप्तपुरुषा रत्नवन्त इवाद्रयः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिस प्रकार रथ सजाये गये थे, उसी प्रकार हाथियोंको भी स्वर्णमालाओंसे सुसज्जित किया गया था। उन सबको रस्सोंसे कसा गया था। उनपर सात-सात पुरुष बैठे हुए थे, जिससे वे हाथी रत्नयुक्त पर्वतोंके समान जान पड़ते थे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वावङ्कुशधरौ तत्र द्वावुत्तमधनुर्धरौ ।
द्वौ वरासिधरौ राजन्नेकः शक्तिपिनाकधृक् ॥ १७ ॥

मूलम्

द्वावङ्कुशधरौ तत्र द्वावुत्तमधनुर्धरौ ।
द्वौ वरासिधरौ राजन्नेकः शक्तिपिनाकधृक् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! उनमेंसे दो पुरुष अंकुश लेकर महावतका काम करते थे, दो उत्तम धनुर्धर योद्धा थे, दो पुरुष अच्छी तलवारें लिये रहते थे और एक पुरुष शक्ति तथा त्रिशूल धारण करता था॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गजैर्मत्तैः समाकीर्णं सर्वमायुधकोशकैः ।
तद् बभूव बलं राजन् कौरव्यस्य महात्मनः ॥ १८ ॥

मूलम्

गजैर्मत्तैः समाकीर्णं सर्वमायुधकोशकैः ।
तद् बभूव बलं राजन् कौरव्यस्य महात्मनः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! महामना दुर्योधनकी वह सारी सेना ही अस्त्र-शस्त्रोंके भण्डारसे युक्त मदमत्त गजराजोंसे व्याप्त हो रही थी॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आमुक्तकवचैर्युक्तैः सपताकैः स्वलङ्कृतैः ।
सादिभिश्चोपपन्नास्तु तथा चायुतशो हयाः ॥ १९ ॥

मूलम्

आमुक्तकवचैर्युक्तैः सपताकैः स्वलङ्कृतैः ।
सादिभिश्चोपपन्नास्तु तथा चायुतशो हयाः ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी प्रकार कवचधारी, युद्धके लिये उद्यत, आभूषणोंसे विभूषित तथा पताकाधारी सवारोंसे युक्त हजारों-लाखों घोड़े उस सेनामें मौजूद थे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असंग्राहाः सुसम्पन्ना हेमभाण्डपरिच्छदाः ।
अनेकशतसाहस्राः सर्वे सादिवशे स्थिताः ॥ २० ॥

मूलम्

असंग्राहाः सुसम्पन्ना हेमभाण्डपरिच्छदाः ।
अनेकशतसाहस्राः सर्वे सादिवशे स्थिताः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे घोड़े उछल-कूद मचाने आदि दोषोंसे रहित होनेके कारण सदा अपने सवारोंके वशमें रहते थे। उन्हें अच्छी शिक्षा मिली थी। वे सुनहरे साजोंसे सुसज्जित थे। उनकी संख्या कई लाख थी॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नानारूपविकाराश्च नानाकवचशस्त्रिणः ।
पदातिनो नरास्तत्र बभूविर्हेममालिनः ॥ २१ ॥

मूलम्

नानारूपविकाराश्च नानाकवचशस्त्रिणः ।
पदातिनो नरास्तत्र बभूविर्हेममालिनः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस सेनामें जो पैदल मनुष्य थे, वे भी सोनेके हारोंसे अलंकृत थे। उनके रूप-रंग, कवच और अस्त्र-शस्त्र नाना प्रकारके दिखायी देते थे॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथस्यासन् दश गजा गजस्य दश वाजिनः।
नरा दश हयस्यासन् पादरक्षाः समन्ततः ॥ २२ ॥

मूलम्

रथस्यासन् दश गजा गजस्य दश वाजिनः।
नरा दश हयस्यासन् पादरक्षाः समन्ततः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक-एक रथके पीछे दस-दस हाथी, एक-एक हाथीके पीछे दस-दस घोड़े और एक-एक घोड़ेके पीछे दस-दस पैदल सैनिक सब ओर पादरक्षक नियुक्त किये गये थे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रथस्य नागाः पञ्चाशन्नागस्यासन् शतं हयाः।
हयस्य पुरुषाः सप्त भिन्नसंधानकारिणः ॥ २३ ॥

मूलम्

रथस्य नागाः पञ्चाशन्नागस्यासन् शतं हयाः।
हयस्य पुरुषाः सप्त भिन्नसंधानकारिणः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक-एक रथके पीछे पचास-पचास हाथी, एक-एक हाथीके पीछे सौ-सौ घोड़े और एक-एक घोड़ेके साथ सात-सात पैदल सैनिक इस उद्देश्यसे संगठित किये गये थे कि वे समूहसे बिछुड़ी हुई दो सैनिक टुकड़ियोंको परस्पर मिला दें॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेना पञ्चशतं नागा रथास्तावन्त एव च।
दश सेना च पृतना पृतना दशवाहिनी ॥ २४ ॥

मूलम्

सेना पञ्चशतं नागा रथास्तावन्त एव च।
दश सेना च पृतना पृतना दशवाहिनी ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाँच सौ हाथियों और पाँच सौ रथोंकी एक सेना होती है। दस सेनाओंकी एक पृतना और दस पृतनाओंकी एक वाहिनी होती है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सेना च वाहिनी चैव पृतना ध्वजिनी चमूः।
अक्षौहिणीति पर्यायैर्निरुक्ता च वरूथिनी ॥ २५ ॥

मूलम्

सेना च वाहिनी चैव पृतना ध्वजिनी चमूः।
अक्षौहिणीति पर्यायैर्निरुक्ता च वरूथिनी ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके सिवा सेना, वाहिनी, पृतना, ध्वजिनी, चमू, वरूथिनी और अक्षौहिणी—इन पर्यायवाची (समानार्थक) नामोंद्वारा भी सेनाका वर्णन किया गया है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं व्यूढान्यनीकानि कौरवेयेण धीमता।
अक्षौहिण्यो दशैका च संख्याताः सप्त चैव ह ॥ २६ ॥

मूलम्

एवं व्यूढान्यनीकानि कौरवेयेण धीमता।
अक्षौहिण्यो दशैका च संख्याताः सप्त चैव ह ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार बुद्धिमान् दुर्योधनने अपनी सेनाओंको व्यूहरचनापूर्वक संगठित किया था। कुरुक्षेत्रमें ग्यारह और सात मिलकर अठारह अक्षौहिणी सेनाएँ एकत्र हुईं थीं॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षौहिण्यस्तु सप्तैव पाण्डवानामभूद् बलम्।
अक्षौहिण्यो दशैका च कौरवाणामभूद् बलम् ॥ २७ ॥

मूलम्

अक्षौहिण्यस्तु सप्तैव पाण्डवानामभूद् बलम्।
अक्षौहिण्यो दशैका च कौरवाणामभूद् बलम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पाण्डवोंकी सेना केवल सात अक्षौहिणी थी और कौरवोंके पक्षमें ग्यारह अक्षौहिणी सेनाएँ एकत्र हो गयी थीं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नराणां पञ्चपञ्चाशदेषा पत्तिर्विधीयते ।
सेनामुखं च तिस्रस्ता गुल्म इत्यभिशब्दितम् ॥ २८ ॥

मूलम्

नराणां पञ्चपञ्चाशदेषा पत्तिर्विधीयते ।
सेनामुखं च तिस्रस्ता गुल्म इत्यभिशब्दितम् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पचपन पैदलोंकी एक टुकड़ीको पत्ति कहते हैं। तीन पत्तियाँ मिलकर एक सेनामुख कहलाती हैं। सेनामुखका ही दूसरा नाम गुल्म है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रयो गुल्मा गणस्त्वासीद्‌ गणास्त्वयुतशोऽभवन्।
दुर्योधनस्य सेनासु योत्स्यमानाः प्रहारिणः ॥ २९ ॥

मूलम्

त्रयो गुल्मा गणस्त्वासीद्‌ गणास्त्वयुतशोऽभवन्।
दुर्योधनस्य सेनासु योत्स्यमानाः प्रहारिणः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तीन गुल्मोंका एक गण होता है। दुर्योधनकी सेनाओंमें युद्ध करनेवाले पैदल योद्धाओंके ऐसे-ऐसे गण दस हजारसे भी अधिक थे॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र दुर्योधनो राजा शूरान् बुद्धिमतो नरान्।
प्रसमीक्ष्य महाबाहुश्चक्रे सेनापतींस्तदा ॥ ३० ॥

मूलम्

तत्र दुर्योधनो राजा शूरान् बुद्धिमतो नरान्।
प्रसमीक्ष्य महाबाहुश्चक्रे सेनापतींस्तदा ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय वहाँ महाबाहु राजा दुर्योधनने अच्छी तरह सोच-विचारकर बुद्धिमान् एवं शूरवीर पुरुषोंको सेनापति बनाया॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथगक्षौहिणीनां च प्रणेतॄन् नरसत्तमान्।
विधिवत् पूर्वमानीय पार्थिवानभ्यषेचयत् ॥ ३१ ॥
कृपं द्रोणं च शल्यं च सैन्धवं च जयद्रथम्।
सुदक्षिणं च काम्बोजं कृतवर्माणमेव च ॥ ३२ ॥
द्रोणपुत्रं च कर्णं च भूरिश्रवसमेव च।
शकुनिं सौबलं चैव बाह्लीकं च महाबलम् ॥ ३३ ॥

मूलम्

पृथगक्षौहिणीनां च प्रणेतॄन् नरसत्तमान्।
विधिवत् पूर्वमानीय पार्थिवानभ्यषेचयत् ॥ ३१ ॥
कृपं द्रोणं च शल्यं च सैन्धवं च जयद्रथम्।
सुदक्षिणं च काम्बोजं कृतवर्माणमेव च ॥ ३२ ॥
द्रोणपुत्रं च कर्णं च भूरिश्रवसमेव च।
शकुनिं सौबलं चैव बाह्लीकं च महाबलम् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कृपाचार्य, द्रोणाचार्य और अश्वत्थामा—इन श्रेष्ठ पुरुषोंको एवं मद्रराज शल्य, सिंधुराज जयद्रथ, कम्बोज-राज सुदक्षिण, कृतवर्मा, कर्ण, भूरिश्रवा, सुबलपुत्र शकुनि तथा महाबली बाह्लीक—इन राजाओंको पहले अपने सामने बुलाकर उन सबको पृथक्-पृथक् एक-एक अक्षौहिणी सेनाका नायक निश्चित करके विधि-पूर्वक उनका अभिषेक किया॥३१—३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दिवसे दिवसे तेषां प्रतिवेलं च भारत।
चक्रे स विविधाः पूजाः प्रत्यक्षं च पुनः पुनः॥३४॥

मूलम्

दिवसे दिवसे तेषां प्रतिवेलं च भारत।
चक्रे स विविधाः पूजाः प्रत्यक्षं च पुनः पुनः॥३४॥

अनुवाद (हिन्दी)

भारत! दुर्योधन प्रतिदिन और प्रत्येक वेलामें उन सेनापतियोंका बारंबार विविध प्रकारसे प्रत्यक्ष पूजन करता था॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा विनियताः सर्वे ये च तेषां पदानुगाः।
बभूवुः सैनिका राज्ञां प्रियं राज्ञश्चिकीर्षवः ॥ ३५ ॥

मूलम्

तथा विनियताः सर्वे ये च तेषां पदानुगाः।
बभूवुः सैनिका राज्ञां प्रियं राज्ञश्चिकीर्षवः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनके जो अनुयायी थे, उनको भी उसी प्रकार यथायोग्य स्थानोंपर नियुक्त कर दिया गया। वे राजाओंके सैनिक राजा दुर्योधनका प्रिय करनेकी इच्छा रखकर अपने-अपने कार्यमें तत्पर हो गये॥३५॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि सैन्यनिर्याणपर्वणि दुर्योधनसैन्यविभागे पञ्चपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत सैन्यनिर्याणपर्वमें दुर्योधनकी सेनाका विभागविषयक एक सौ पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५५॥