भागसूचना
(सैन्यनिर्याणपर्व)
एकपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
पाण्डवपक्षके सेनापतिका चुनाव तथा पाण्डव-सेनाका कुरुक्षेत्रमें प्रवेश
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
जनार्दनवचः श्रुत्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः।
भ्रातॄनुवाच धर्मात्मा समक्षं केशवस्य ह ॥ १ ॥
मूलम्
जनार्दनवचः श्रुत्वा धर्मराजो युधिष्ठिरः।
भ्रातॄनुवाच धर्मात्मा समक्षं केशवस्य ह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! भगवान् श्रीकृष्णकी यह बात सुनकर धर्ममें ही मन लगाये रखनेवाले धर्मराज युधिष्ठिरने भगवान्के सामने ही अपने भाइयोंसे कहा—॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुतं भवद्भिर्यद् वृत्तं सभायां कुरुसंसदि।
केशवस्यापि यद् वाक्यं तत् सर्वमवधारितम् ॥ २ ॥
मूलम्
श्रुतं भवद्भिर्यद् वृत्तं सभायां कुरुसंसदि।
केशवस्यापि यद् वाक्यं तत् सर्वमवधारितम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कौरवसभामें जो कुछ हुआ है वह सब वृत्तान्त तुमलोगोंने सुन लिया। फिर भगवान् श्रीकृष्णने भी जो बात कही है, उसे भी अच्छी तरह समझ लिया होगा॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् सेनाविभागं मे कुरुध्वं नरसत्तमाः।
अक्षौहिण्यश्च सप्तैताः समेता विजयाय वै ॥ ३ ॥
मूलम्
तस्मात् सेनाविभागं मे कुरुध्वं नरसत्तमाः।
अक्षौहिण्यश्च सप्तैताः समेता विजयाय वै ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः नरश्रेष्ठ वीरो! अब तुमलोग भी अपनी सेनाका विभाग करो। ये सात अक्षौहिणी सेनाएँ एकत्र हो गयी हैं, जो अवश्य ही हमारी विजय करानेवाली होंगी॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तासां ये पतयः सप्त विख्यातास्तान् निबोधत।
द्रुपदश्च विराटश्च धृष्टद्युम्नशिखण्डिनौ ॥ ४ ॥
सात्यकिश्चेकितानश्च भीमसेनश्च वीर्यवान् ।
एते सेनाप्रणेतारो वीराः सर्वे तनुत्यजः ॥ ५ ॥
मूलम्
तासां ये पतयः सप्त विख्यातास्तान् निबोधत।
द्रुपदश्च विराटश्च धृष्टद्युम्नशिखण्डिनौ ॥ ४ ॥
सात्यकिश्चेकितानश्च भीमसेनश्च वीर्यवान् ।
एते सेनाप्रणेतारो वीराः सर्वे तनुत्यजः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इन सातों अक्षौहिणियोंके जो सात विख्यात सेनापति हैं, उनके नाम बताता हूँ, सुनो। द्रुपद, विराट, धृष्टद्युम्न, शिखण्डी, सात्यकि, चेकितान और पराक्रमी भीमसेन। ये सभी वीर हमारे लिये अपने शरीरका भी त्याग कर देनेको उद्यत हैं; अतः ये ही पाण्डवसेनाके संचालक होनेयोग्य हैं॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वे वेदविदः शूराः सर्वे सुचरितव्रताः।
ह्रीमन्तो नीतिमन्तश्च सर्वे युद्धविशारदाः ॥ ६ ॥
मूलम्
सर्वे वेदविदः शूराः सर्वे सुचरितव्रताः।
ह्रीमन्तो नीतिमन्तश्च सर्वे युद्धविशारदाः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ये सब-के-सब वेदवेत्ता, शूरवीर, उत्तम व्रतका पालन करनेवाले, लज्जाशील, नीतिज्ञ और युद्धकुशल हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इष्वस्त्रकुशलाः सर्वे तथा सर्वास्त्रयोधिनः।
सप्तानामपि यो नेता सेनानां प्रविभागवित् ॥ ७ ॥
यः सहेत रणे भीष्मं शरार्चिः पावकोपमम्।
तं तावत् सहदेवात्र प्रब्रूहि कुरुनन्दन।
स्वमतं पुरुषव्याघ्र को नः सेनापतिः क्षमः ॥ ८ ॥
मूलम्
इष्वस्त्रकुशलाः सर्वे तथा सर्वास्त्रयोधिनः।
सप्तानामपि यो नेता सेनानां प्रविभागवित् ॥ ७ ॥
यः सहेत रणे भीष्मं शरार्चिः पावकोपमम्।
तं तावत् सहदेवात्र प्रब्रूहि कुरुनन्दन।
स्वमतं पुरुषव्याघ्र को नः सेनापतिः क्षमः ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘इन सबने धनुर्वेदमें निपुणता प्राप्त की है तथा ये सब प्रकारके अस्त्रोंद्वारा युद्ध करनेमें समर्थ हैं। अब यह विचार करना चाहिये कि इन सातोंका भी नेता कौन हो? जो सभी सेना-विभागोंको अच्छी तरह जानता हो तथा युद्धमें बाणरूपी ज्वालाओंसे प्रज्वलित अग्निके समान तेजस्वी भीष्मका आक्रमण सह सकता हो। पुरुषसिंह कुरुनन्दन सहदेव! पहले तुम अपना विचार प्रकट करो। हमारा प्रधान सेनापति होनेयोग्य कौन है॥७-८॥
मूलम् (वचनम्)
सहदेव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
संयुक्त एकदुःखश्च वीर्यवांश्च महीपतिः।
यं समाश्रित्य धर्मज्ञं स्वमंशमनुयुञ्ज्महे ॥ ९ ॥
मत्स्यो विराटो बलवान् कृतास्त्रो युद्धदुर्मदः।
प्रसहिष्यति संग्रामे भीष्मं तांश्च महारथान् ॥ १० ॥
मूलम्
संयुक्त एकदुःखश्च वीर्यवांश्च महीपतिः।
यं समाश्रित्य धर्मज्ञं स्वमंशमनुयुञ्ज्महे ॥ ९ ॥
मत्स्यो विराटो बलवान् कृतास्त्रो युद्धदुर्मदः।
प्रसहिष्यति संग्रामे भीष्मं तांश्च महारथान् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सहदेव बोले— जो हमारे सम्बन्धी हैं, दुःखमें हमारे साथ एक होकर रहनेवाले और पराक्रमी भूपाल हैं, जिन धर्मज्ञ वीरका आश्रय लेकर हम अपना राज्यभाग प्राप्त कर सकते हैं तथा जो बलवान्, अस्त्रविद्यामें निपुण और युद्धमें उन्मत्त होकर लड़नेवाले हैं, वे मत्स्यनरेश विराट संग्रामभूमिमें भीष्म तथा अन्य महारथियोंका सामना अच्छी तरह सहन कर सकेंगे॥९-१०॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथोक्ते सहदेवेन वाक्ये वाक्यविशारदः।
नकुलोऽनन्तरं तस्मादिदं वचनमाददे ॥ ११ ॥
मूलम्
तथोक्ते सहदेवेन वाक्ये वाक्यविशारदः।
नकुलोऽनन्तरं तस्मादिदं वचनमाददे ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! सहदेवके इस प्रकार कहनेपर प्रवचनकुशल नकुलने उनके बाद यह बात कही—॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वयसा शास्त्रतो धैर्यात् कुलेनाभिजनेन च।
ह्रीमान् बलान्वितः श्रीमान् सर्वशास्त्रविशारदः ॥ १२ ॥
वेद चास्त्रं भरद्वाजाद् दुर्धर्षः सत्यसङ्गरः।
यो नित्यं स्पर्धते द्रोणं भीष्मं चैव महाबलम् ॥ १३ ॥
श्लाघ्यः पार्थिववंशस्य प्रमुखे वाहिनीपतिः।
पुत्रपौत्रैः परिवृतः शतशाख इव द्रुमः ॥ १४ ॥
यस्तताप तपो घोरं सदारः पृथिवीपतिः।
रोषाद् द्रोणविनाशाय वीरः समितिशोभनः ॥ १५ ॥
पितेवास्मान् समाधत्ते यः सदा पार्थिवर्षभः।
श्वशुरो द्रुपदोऽस्माकं सेनाग्रं स प्रकर्षतु ॥ १६ ॥
स द्रोणभीष्मावायातौ सहेदिति मतिर्मम।
स हि दिव्यास्त्रविद् राजा सखा चाङ्गिरसो नृपः ॥ १७ ॥
मूलम्
वयसा शास्त्रतो धैर्यात् कुलेनाभिजनेन च।
ह्रीमान् बलान्वितः श्रीमान् सर्वशास्त्रविशारदः ॥ १२ ॥
वेद चास्त्रं भरद्वाजाद् दुर्धर्षः सत्यसङ्गरः।
यो नित्यं स्पर्धते द्रोणं भीष्मं चैव महाबलम् ॥ १३ ॥
श्लाघ्यः पार्थिववंशस्य प्रमुखे वाहिनीपतिः।
पुत्रपौत्रैः परिवृतः शतशाख इव द्रुमः ॥ १४ ॥
यस्तताप तपो घोरं सदारः पृथिवीपतिः।
रोषाद् द्रोणविनाशाय वीरः समितिशोभनः ॥ १५ ॥
पितेवास्मान् समाधत्ते यः सदा पार्थिवर्षभः।
श्वशुरो द्रुपदोऽस्माकं सेनाग्रं स प्रकर्षतु ॥ १६ ॥
स द्रोणभीष्मावायातौ सहेदिति मतिर्मम।
स हि दिव्यास्त्रविद् राजा सखा चाङ्गिरसो नृपः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो अवस्था, शास्त्रज्ञान, धैर्य, कुल और स्वजनसमूह सभी दृष्टियोंसे बड़े हैं, जिनमें लज्जा, बल और श्री तीनों विद्यमान हैं, जो समस्त शास्त्रोंके ज्ञानमें प्रवीण हैं, जिन्हें महर्षि भरद्वाजसे अस्त्रोंकी शिक्षा प्राप्त हुई है, जो सत्यप्रतिज्ञ एवं दुर्धर्ष योद्धा हैं, महाबली भीष्म और द्रोणाचार्यसे सदा स्पर्धा रखते हैं, जो समस्त राजाओंके समूहकी प्रशंसाके पात्र हैं और युद्धके मुहानेपर खड़े हो समस्त सेनाओंकी रक्षा करनेमें समर्थ हैं, बहुत-से पुत्र-पौत्रोंद्वारा घिरे रहनेके कारण जिनकी सैकड़ों शाखाओंसे सम्पन्न वृक्षकी भाँति शोभा होती है, जिन महाराजने रोषपूर्वक द्रोणाचार्यके विनाशके लिये पत्नीसहित घोर तपस्या की है, जो संग्रामभूमिमें सुशोभित होनेवाले शूरवीर हैं और हमलोगोंपर सदा ही पिताके समान स्नेह रखते हैं, वे हमारे श्वशुर भूपालशिरोमणि द्रुपद हमारी सेनाके प्रमुख भागका संचालन करें। मेरे विचारसे राजा द्रुपद ही युद्धके लिये सम्मुख आये हुए द्रोणाचार्य और भीष्मपितामहका सामना कर सकते हैं; क्योंकि वे दिव्यास्त्रोंके ज्ञाता और द्रोणाचार्यके सखा हैं॥१२—१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
माद्रीसुताभ्यामुक्ते तु स्वमते कुरुनन्दनः।
वासविर्वासवसमः सव्यसाच्यब्रवीद् वचः ॥ १८ ॥
मूलम्
माद्रीसुताभ्यामुक्ते तु स्वमते कुरुनन्दनः।
वासविर्वासवसमः सव्यसाच्यब्रवीद् वचः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माद्रीकुमारोंके इस प्रकार अपना विचार प्रकट करनेपर कुरुकुलको आनन्दित करनेवाले इन्द्रके समान पराक्रमी, इन्द्रपुत्र सव्यसाची अर्जुनने इस प्रकार कहा—॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
योऽयं तपःप्रभावेण ऋषिसंतोषणेन च।
दिव्यः पुरुष उत्पन्नो ज्वालावर्णो महाभुजः ॥ १९ ॥
धनुष्मान् कवची खड्गी रथमारुह्य दंशितः।
दिव्यैर्हयवरैर्युक्तमग्निकुण्डात् समुत्थितः ॥ २० ॥
गर्जन्निव महामेघो रथघोषेण वीर्यवान्।
सिंहसंहननो वीरः सिंहतुल्यपराक्रमः ॥ २१ ॥
सिंहोरस्कः सिंहभुजः सिंहवक्षा महाबलः।
सिंहप्रगर्जनो वीरः सिंहस्कन्धो महाद्युतिः ॥ २२ ॥
सुभ्रूः सुदंष्ट्रः सुहनुः सुबाहुः सुमुखोऽकृशः।
सुजत्रुः सुविशालाक्षः सुपादः सुप्रतिष्ठितः ॥ २३ ॥
अभेद्यः सर्वशस्त्राणां प्रभिन्न इव वारणः।
जज्ञे द्रोणविनाशाय सत्यवादी जितेन्द्रियः ॥ २४ ॥
धृष्टद्युम्नमहं मन्ये सहेद् भीष्मस्य सायकान्।
वज्राशनिसमस्पर्शान् दीप्तास्यानुरगानिव ॥ २५ ॥
मूलम्
योऽयं तपःप्रभावेण ऋषिसंतोषणेन च।
दिव्यः पुरुष उत्पन्नो ज्वालावर्णो महाभुजः ॥ १९ ॥
धनुष्मान् कवची खड्गी रथमारुह्य दंशितः।
दिव्यैर्हयवरैर्युक्तमग्निकुण्डात् समुत्थितः ॥ २० ॥
गर्जन्निव महामेघो रथघोषेण वीर्यवान्।
सिंहसंहननो वीरः सिंहतुल्यपराक्रमः ॥ २१ ॥
सिंहोरस्कः सिंहभुजः सिंहवक्षा महाबलः।
सिंहप्रगर्जनो वीरः सिंहस्कन्धो महाद्युतिः ॥ २२ ॥
सुभ्रूः सुदंष्ट्रः सुहनुः सुबाहुः सुमुखोऽकृशः।
सुजत्रुः सुविशालाक्षः सुपादः सुप्रतिष्ठितः ॥ २३ ॥
अभेद्यः सर्वशस्त्राणां प्रभिन्न इव वारणः।
जज्ञे द्रोणविनाशाय सत्यवादी जितेन्द्रियः ॥ २४ ॥
धृष्टद्युम्नमहं मन्ये सहेद् भीष्मस्य सायकान्।
वज्राशनिसमस्पर्शान् दीप्तास्यानुरगानिव ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो अग्निकी ज्वालाके समान कान्तिमान् महाबाहु वीर अपने पिताकी तपस्याके प्रभावसे तथा महर्षियोंके कृपा-प्रसादसे उत्पन्न हुआ दिव्य पुरुष है, जो अग्निकुण्डसे कवच, धनुष और खड्ग धारण किये प्रकट हुआ और तत्काल ही दिव्य एवं उत्तम अश्वोंसे जुते हुए रथपर आरूढ़ हो युद्धके लिये सुसज्जित देखा गया था, जो पराक्रमी वीर अपने रथकी घरघराहटसे गर्जते हुए महामेघके समान जान पड़ता है, जिसके शरीरकी गठन, पराक्रम, हृदय, वक्षःस्थल, बाहु, कंधे और गर्जना—ये सभी सिंहके समान हैं, जो महाबली, महातेजस्वी और महान् वीर है, जिसकी भौंहें, दन्तपंक्ति, ठोड़ी, भुजाएँ और मुख बहुत सुन्दर हैं, जो सर्वथा हृष्ट-पुष्ट है, जिसके गलेकी हँसुली सुन्दर दिखायी देती है, जिसके बड़े-बड़े नेत्र और चरण परम सुन्दर हैं, जिसका किसी भी अस्त्र-शस्त्रसे भेद नहीं हो सकता, जो मदकी धारा बहानेवाले गजराजके सदृश पराक्रमी वीर द्रोणाचार्यका विनाश करनेके लिये उत्पन्न हुआ है तथा जो सत्यवादी एवं जितेन्द्रिय है, उस धृष्टद्युम्नको ही मैं प्रधान सेनापति बनानेके योग्य मानता हूँ। पितामह भीष्मके बाण प्रज्वलित मुखवाले सर्पोंके समान भयंकर हैं, उनका स्पर्श वज्र और अशनिके समान दुःसह है, वीर धृष्टद्युम्न ही उन बाणोंका आघात सह सकता है॥१९—२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यमदूतसमान् वेगे निपाते पावकोपमान्।
रामेणाजौ विषहितान् वज्रनिष्पेषदारुणान् ॥ २६ ॥
पुरुषं तं न पश्यामि यः सहेत महाव्रतम्।
धृष्टद्युम्नमृते राजन्निति मे धीयते मतिः ॥ २७ ॥
मूलम्
यमदूतसमान् वेगे निपाते पावकोपमान्।
रामेणाजौ विषहितान् वज्रनिष्पेषदारुणान् ॥ २६ ॥
पुरुषं तं न पश्यामि यः सहेत महाव्रतम्।
धृष्टद्युम्नमृते राजन्निति मे धीयते मतिः ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पितामह भीष्मके बाण आघात करनेमें अग्निके समान तेजस्वी एवं यमदूतोंके समान प्राणोंका हरण करनेवाले हैं। वज्रकी गड़गड़ाहटके समान गम्भीर शब्द करनेवाले उन बाणोंको पहले युद्धमें परशुरामजीने ही सहा था। राजन्! मैं धृष्टद्युम्नके सिवा ऐसे किसी पुरुषको नहीं देखता, जो महान् व्रतधारी भीष्मका वेग सह सके। मेरा तो यही निश्चय है॥२६-२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षिप्रहस्तश्चित्रयोधी मतः सेनापतिर्मम ।
अभेद्यकवचः श्रीमान् मातङ्ग इव यूथपः ॥ २८ ॥
मूलम्
क्षिप्रहस्तश्चित्रयोधी मतः सेनापतिर्मम ।
अभेद्यकवचः श्रीमान् मातङ्ग इव यूथपः ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो शीघ्रतापूर्वक हस्तसंचालन करनेवाला, विचित्र पद्धतिसे युद्ध करनेमें कुशल, अभेद्य कवचसे सम्पन्न एवं यूथपति गजराजकी भाँति सुशोभित होनेवाला है, मेरी सम्मतिमें वह श्रीमान् धृष्टद्युम्न ही सेनापति होनेके योग्य है’॥२८॥
मूलम् (वचनम्)
(वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्जुनेनैवमुक्ते तु भीमो वाक्यं समाददे॥)
मूलम्
अर्जुनेनैवमुक्ते तु भीमो वाक्यं समाददे॥)
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! अर्जुनके ऐसा कहनेपर भीमसेनने अपना विचार इस प्रकार प्रकट किया।
मूलम् (वचनम्)
भीमसेन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
वधार्थं यः समुत्पन्नः शिखण्डी द्रुपदात्मजः।
वदन्ति सिद्धा राजेन्द्र ऋषयश्च समागताः ॥ २९ ॥
यस्य संग्राममध्ये तु दिव्यमस्त्रं प्रकुर्वतः।
रूपं द्रक्ष्यन्ति पुरुषा रामस्येव महात्मनः ॥ ३० ॥
न तं युद्धे प्रपश्यामि यो भिन्द्यात् तु शिखण्डिनम्।
शस्त्रेण समरे राजन् संनद्धं स्यन्दने स्थितम् ॥ ३१ ॥
द्वैरथे समरे नान्यो भीष्मं हन्यान्महाव्रतम्।
शिखण्डिनमृते वीरं स मे सेनापतिर्मतः ॥ ३२ ॥
मूलम्
वधार्थं यः समुत्पन्नः शिखण्डी द्रुपदात्मजः।
वदन्ति सिद्धा राजेन्द्र ऋषयश्च समागताः ॥ २९ ॥
यस्य संग्राममध्ये तु दिव्यमस्त्रं प्रकुर्वतः।
रूपं द्रक्ष्यन्ति पुरुषा रामस्येव महात्मनः ॥ ३० ॥
न तं युद्धे प्रपश्यामि यो भिन्द्यात् तु शिखण्डिनम्।
शस्त्रेण समरे राजन् संनद्धं स्यन्दने स्थितम् ॥ ३१ ॥
द्वैरथे समरे नान्यो भीष्मं हन्यान्महाव्रतम्।
शिखण्डिनमृते वीरं स मे सेनापतिर्मतः ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीमसेनने कहा— राजेन्द्र! द्रुपदकुमार शिखण्डी पितामह भीष्मका वध करनेके लिये ही उत्पन्न हुआ है। यह बात यहाँ पधारे हुए सिद्धों एवं महर्षियोंने बतायी है! संग्रामभूमिमें जब वह अपना दिव्यास्त्र प्रकट करता है, उस समय लोगोंको उसका स्वरूप महात्मा परशुरामके समान दिखायी देता है। मैं ऐसे किसी वीरको नहीं देखता, जो युद्धमें शिखण्डीको मार सके। राजन्! जब महाव्रती भीष्म रथपर बैठकर अस्त्र-शस्त्रोंसे सुसज्जित हो सामने आयेंगे, उस समय द्वैरथ युद्धमें शूरवीर शिखण्डीके सिवा दूसरा कोई योद्धा उन्हें नहीं मार सकता। अतः मेरे मतमें वही प्रधान सेनापति होनेके योग्य है॥२९—३२॥
मूलम् (वचनम्)
युधिष्ठिर उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वस्य जगतस्तात सारासारं बलाबलम्।
सर्वं जानाति धर्मात्मा मतमेषां च केशवः ॥ ३३ ॥
मूलम्
सर्वस्य जगतस्तात सारासारं बलाबलम्।
सर्वं जानाति धर्मात्मा मतमेषां च केशवः ॥ ३३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
युधिष्ठिर बोले— तात! धर्मात्मा भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण जगत्के समस्त सारासार और बलाबलको जानते हैं तथा इस विषयमें इन सब राजाओंका क्या मत है—इससे भी ये पूर्ण परिचित हैं॥३३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यमाह कृष्णो दाशार्हः सोऽस्तु सेनापतिर्मम।
कृतास्त्रोऽप्यकृतास्त्रो वा वृद्धो वा यदि वा युवा ॥ ३४ ॥
मूलम्
यमाह कृष्णो दाशार्हः सोऽस्तु सेनापतिर्मम।
कृतास्त्रोऽप्यकृतास्त्रो वा वृद्धो वा यदि वा युवा ॥ ३४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः दशार्हकुलभूषण श्रीकृष्ण जिसका नाम बतावें, वही हमारी सेनाका प्रधान सेनापति हो। फिर वह अस्त्र-विद्यामें निपुण हो या न हो, वृद्ध हो या युवा हो (इसकी चिन्ता अपने लोगोंको नहीं करनी चाहिये)॥३४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष नो विजये मूलमेष तात विपर्यये।
अत्र प्राणाश्च राज्यं च भावाभावौ सुखासुखे ॥ ३५ ॥
मूलम्
एष नो विजये मूलमेष तात विपर्यये।
अत्र प्राणाश्च राज्यं च भावाभावौ सुखासुखे ॥ ३५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात! ये भगवान् ही हमारी विजय अथवा पराजयके मूल कारण हैं। हमारे प्राण, राज्य, भाव, अभाव तथा सुख और दुःख इन्हींपर अवलम्बित हैं॥३५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष धाता विधाता च सिद्धिरत्र प्रतिष्ठिता।
यमाह कृष्णो दाशार्हः सोऽस्तु नो वाहिनीपतिः ॥ ३६ ॥
मूलम्
एष धाता विधाता च सिद्धिरत्र प्रतिष्ठिता।
यमाह कृष्णो दाशार्हः सोऽस्तु नो वाहिनीपतिः ॥ ३६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यही सबके कर्ता-धर्ता हैं। हमारे समस्त कार्योंकी सिद्धि इन्हींपर निर्भर करती है। अतः भगवान् श्रीकृष्ण जिसके लिये प्रस्ताव करें, वही हमारी विशाल वाहिनीका प्रधान अधिनायक हो॥३६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ब्रवीतु वदतां श्रेष्ठो निशा समभिवर्तते।
ततः सेनापतिं कृत्वा कृष्णस्य वशवर्तिनः ॥ ३७ ॥
रात्रेः शेषे व्यतिक्रान्ते प्रयास्यामो रणाजिरम्।
अधिवासितशस्त्राश्च कृतकौतुकमङ्गलाः ॥ ३८ ॥
मूलम्
ब्रवीतु वदतां श्रेष्ठो निशा समभिवर्तते।
ततः सेनापतिं कृत्वा कृष्णस्य वशवर्तिनः ॥ ३७ ॥
रात्रेः शेषे व्यतिक्रान्ते प्रयास्यामो रणाजिरम्।
अधिवासितशस्त्राश्च कृतकौतुकमङ्गलाः ॥ ३८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः वक्ताओंमें श्रेष्ठ श्रीकृष्ण अपना विचार प्रकट करें। इस समय रात्रि है। हम अभी सेनापतिका निर्वाचन करके रात बीतनेपर अस्त्र-शस्त्रोंका अधिवासन (गन्ध आदि उपचारोंद्वारा पूजन), कौतुक (रक्षाबन्धन आदि) तथा मंगलकृत्य (स्वस्तिवाचन आदि) करनेके अनन्तर श्रीकृष्णके अधीन हो समरांगणकी यात्रा करेंगे॥३७-३८॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा धर्मराजस्य धीमतः।
अब्रवीत् पुण्डरीकाक्षो धनंजयमवेक्ष्य ह ॥ ३९ ॥
ममाप्येते महाराज भवद्भिर्य उदाहृताः।
नेतारस्तव सेनाया मता विक्रान्तयोधिनः ॥ ४० ॥
मूलम्
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा धर्मराजस्य धीमतः।
अब्रवीत् पुण्डरीकाक्षो धनंजयमवेक्ष्य ह ॥ ३९ ॥
ममाप्येते महाराज भवद्भिर्य उदाहृताः।
नेतारस्तव सेनाया मता विक्रान्तयोधिनः ॥ ४० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! बुद्धिमान् धर्मराज युधिष्ठिरकी यह बात सुनकर कमलनयन भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनकी ओर देखते हुए कहा—‘महाराज! आपलोगोंने जिन-जिन वीरोंके नाम लिये हैं, ये सभी मेरी रायमें भी सेनापति होनेके योग्य हैं; क्योंकि ये सभी बड़े पराक्रमी योद्धा हैं॥३९-४०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्व एव समर्था हि तव शत्रुं प्रबाधितुम्।
इन्द्रस्यापि भयं ह्येते जनयेयुर्महाहवे ॥ ४१ ॥
किं पुनर्धार्तराष्ट्राणां लुब्धानां पापचेतसाम्।
मूलम्
सर्व एव समर्था हि तव शत्रुं प्रबाधितुम्।
इन्द्रस्यापि भयं ह्येते जनयेयुर्महाहवे ॥ ४१ ॥
किं पुनर्धार्तराष्ट्राणां लुब्धानां पापचेतसाम्।
अनुवाद (हिन्दी)
‘आपके शत्रुओंको परास्त करनेकी शक्ति इन सबमें विद्यमान है। ये महान् संग्राममें इन्द्रके मनमें भी भय उत्पन्न कर सकते हैं; फिर पापात्मा और लोभी धृतराष्ट्रपुत्रोंकी तो बात ही क्या है?॥४१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मयापि हि महाबाहो त्वत्प्रियार्थं महाहवे ॥ ४२ ॥
कृतो यत्नो महांस्तत्र शमः स्यादिति भारत।
धर्मस्य गतमानृण्यं न स्म वाच्या विवक्षताम् ॥ ४३ ॥
मूलम्
मयापि हि महाबाहो त्वत्प्रियार्थं महाहवे ॥ ४२ ॥
कृतो यत्नो महांस्तत्र शमः स्यादिति भारत।
धर्मस्य गतमानृण्यं न स्म वाच्या विवक्षताम् ॥ ४३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘महाबाहु भरतनन्दन! मैंने भी महान् युद्धकी सम्भावना देखकर तुम्हारा प्रिय करनेके लिये शान्ति-स्थापनके निमित्त महान् प्रयत्न किया था। इससे हमलोग धर्मके ऋणसे भी उऋण हो गये हैं। दूसरोंके दोष बतानेवाले लोग भी अब हमारे ऊपर दोषारोपण नहीं कर सकते॥४२-४३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृतास्त्रं मन्यते बाल आत्मानमविचक्षणः।
धार्तराष्ट्रो बलस्थं च पश्यत्यात्मानमातुरः ॥ ४४ ॥
मूलम्
कृतास्त्रं मन्यते बाल आत्मानमविचक्षणः।
धार्तराष्ट्रो बलस्थं च पश्यत्यात्मानमातुरः ॥ ४४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन युद्धके लिये आतुर हो रहा है। वह मूर्ख और अयोग्य होकर भी अपनेको अस्त्रविद्यामें पारंगत मानता है और दुर्बल होकर भी अपनेको बलवान् समझता है॥४४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
युज्यतां वाहिनी साधु वधसाध्या हि मे मताः।
न धार्तराष्ट्राः शक्ष्यन्ति स्थातुं दृष्ट्वा धनंजयम् ॥ ४५ ॥
भीमसेनं च संक्रुद्धं यमौ चापि यमोपमौ।
युयुधानद्वितीयं च धृष्टद्युम्नममर्षणम् ॥ ४६ ॥
अभिमन्युं द्रौपदेयान् विराटद्रुपदावपि ।
अक्षौहिणीपतींश्चान्यान् नरेन्द्रान् भीमविक्रमान् ॥ ४७ ॥
मूलम्
युज्यतां वाहिनी साधु वधसाध्या हि मे मताः।
न धार्तराष्ट्राः शक्ष्यन्ति स्थातुं दृष्ट्वा धनंजयम् ॥ ४५ ॥
भीमसेनं च संक्रुद्धं यमौ चापि यमोपमौ।
युयुधानद्वितीयं च धृष्टद्युम्नममर्षणम् ॥ ४६ ॥
अभिमन्युं द्रौपदेयान् विराटद्रुपदावपि ।
अक्षौहिणीपतींश्चान्यान् नरेन्द्रान् भीमविक्रमान् ॥ ४७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः आप अपनी सेनाको युद्धके लिये अच्छी तरहसे सुसज्जित कीजिये; क्योंकि मेरे मतमें वे शत्रुवधसे ही वशीभूत हो सकते हैं। वीर अर्जुन, क्रोधमें भरे हुए भीमसेन, यमराजके समान नकुल-सहदेव, सात्यकिसहित अमर्षशील धृष्टद्युम्न, अभिमन्यु, द्रौपदीके पाँचों पुत्र, विराट, द्रुपद तथा अक्षौहिणी सेनाओंके अधिपति अन्यान्य भयंकर पराक्रमी नरेशोंको युद्धके लिये उद्यत देखकर धृतराष्ट्रके पुत्र रणभूमिमें टिक नहीं सकेंगे॥४५—४७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सारवद् बलमस्माकं दुष्प्रधर्षं दुरासदम्।
धार्तराष्ट्रबलं संख्ये हनिष्यति न संशयः ॥ ४८ ॥
धृष्टद्युम्नमहं मन्ये सेनापतिमरिंदम ।
मूलम्
सारवद् बलमस्माकं दुष्प्रधर्षं दुरासदम्।
धार्तराष्ट्रबलं संख्ये हनिष्यति न संशयः ॥ ४८ ॥
धृष्टद्युम्नमहं मन्ये सेनापतिमरिंदम ।
अनुवाद (हिन्दी)
‘हमारी सेना अत्यन्त शक्तिशाली, दुर्धर्ष और दुर्गम है। वह युद्धमें धृतराष्ट्रपुत्रोंकी सेनाका संहार कर डालेगी, इसमें संशय नहीं है। शत्रुदमन! मैं धृष्टद्युम्नको ही प्रधान सेनापति होनेयोग्य मानता हूँ’॥४८॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ते तु कृष्णेन सम्प्राहृष्यन्नरोत्तमाः ॥ ४९ ॥
तेषां प्रहृष्टमनसां नादः समभवन्महान्।
योग इत्यथ सैन्यानां त्वरतां सम्प्रधावताम् ॥ ५० ॥
मूलम्
एवमुक्ते तु कृष्णेन सम्प्राहृष्यन्नरोत्तमाः ॥ ४९ ॥
तेषां प्रहृष्टमनसां नादः समभवन्महान्।
योग इत्यथ सैन्यानां त्वरतां सम्प्रधावताम् ॥ ५० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— राजन्! भगवान् श्रीकृष्णके ऐसा कहनेपर वे नरश्रेष्ठ पाण्डव बड़े प्रसन्न हुए। फिर तो युद्धके लिये ‘सुसज्जित हो जाओ, सुसज्जित हो जाओ’ ऐसा कहते हुए समस्त सैनिक बड़ी उतावलीके साथ दौड़-धूप करने लगे। उस समय प्रसन्न चित्तवाले उन वीरोंका महान् हर्षनाद सब ओर गूँज उठा॥४९-५०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
हयवारणशब्दाश्च नेमिघोषाश्च सर्वतः ।
शङ्खदुन्दुभिघोषाश्च तुमुलाः सर्वतोऽभवन् ॥ ५१ ॥
मूलम्
हयवारणशब्दाश्च नेमिघोषाश्च सर्वतः ।
शङ्खदुन्दुभिघोषाश्च तुमुलाः सर्वतोऽभवन् ॥ ५१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सब ओर घोड़े, हाथी और रथोंका घोष होने लगा। सभी ओर शंख और दुन्दुभियोंकी भयानक ध्वनि गूँजने लगी॥५१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदुग्रं सागरनिभं क्षुब्धं बलसमागमम्।
रथपात्तिगजोदग्रं महोर्मिभिरिवाकुलम् ॥ ५२ ॥
मूलम्
तदुग्रं सागरनिभं क्षुब्धं बलसमागमम्।
रथपात्तिगजोदग्रं महोर्मिभिरिवाकुलम् ॥ ५२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
रथ, पैदल और हाथियोंसे भरी हुई वह भयंकर सेना उत्ताल तरंगोंसे व्याप्त महासागरके समान क्षुब्ध हो उठी॥५२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
धावतामाह्वयानानां तनुत्राणि च बध्नताम्।
प्रयास्यतां पाण्डवानां ससैन्यानां समन्ततः ॥ ५३ ॥
गङ्गेव पूर्णा दुर्धर्षा समदृश्यत वाहिनी।
मूलम्
धावतामाह्वयानानां तनुत्राणि च बध्नताम्।
प्रयास्यतां पाण्डवानां ससैन्यानां समन्ततः ॥ ५३ ॥
गङ्गेव पूर्णा दुर्धर्षा समदृश्यत वाहिनी।
अनुवाद (हिन्दी)
रणयात्राके लिये उद्यत हुए पाण्डव और उनके सैनिक सब ओर दौड़ते, पुकारते और कवच बाँधते दिखायी दिये। उनकी वह विशाल वाहिनी जलसे परिपूर्ण गंगाके समान दुर्गम दिखायी देती थी॥५३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अग्रानीके भीमसेनो माद्रीपुत्रौ च दंशितौ ॥ ५४ ॥
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च धृष्टद्युम्नश्च पार्षतः।
प्रभद्रकाश्च पञ्चाला भीमसेनमुखा ययुः ॥ ५५ ॥
मूलम्
अग्रानीके भीमसेनो माद्रीपुत्रौ च दंशितौ ॥ ५४ ॥
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च धृष्टद्युम्नश्च पार्षतः।
प्रभद्रकाश्च पञ्चाला भीमसेनमुखा ययुः ॥ ५५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सेनाके आगे-आगे भीमसेन, कवचधारी माद्रीकुमार नकुल-सहदेव, सुभद्राकुमार अभिमन्यु, द्रौपदीके सभी पुत्र, द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न, प्रभद्रकगण और पांचालदेशीय क्षत्रिय वीर चले। इन सबने भीमसेनको अपने आगे कर लिया था॥५४-५५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः शब्दः समभवत् समुद्रस्येव पर्वणि।
हृष्टानां सम्प्रयातानां घोषो दिवमिवास्पृशत् ॥ ५६ ॥
मूलम्
ततः शब्दः समभवत् समुद्रस्येव पर्वणि।
हृष्टानां सम्प्रयातानां घोषो दिवमिवास्पृशत् ॥ ५६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तदनन्तर जैसे पूर्णिमाके दिन बढ़ते हुए समुद्रका कोलाहल सुनायी देता है, उसी प्रकार हर्ष और उत्साहमें भरकर युद्धके लिये यात्रा करनेवाले उन सैनिकोंका महान् घोष सब ओर फैलकर मानो स्वर्गलोकतक जा पहुँचा॥५६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रहृष्टा दंशिता योधाः परानीकविदारणाः।
तेषां मध्ये ययौ राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ ५७ ॥
मूलम्
प्रहृष्टा दंशिता योधाः परानीकविदारणाः।
तेषां मध्ये ययौ राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ ५७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हर्षमें भरे हुए और कवच आदिसे सुसज्जित वे समस्त सैनिक शत्रु-सेनाको विदीर्ण करनेका उत्साह रखते थे। कुन्तीपुत्र राजा युधिष्ठिर समस्त सैनिकोंके बीचमें होकर चले॥५७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शकटापणवेशाश्च यानयुग्यं च सर्वशः।
कोशं यन्त्रायुधं चैव ये च वैद्याश्चिकित्सकाः ॥ ५८ ॥
मूलम्
शकटापणवेशाश्च यानयुग्यं च सर्वशः।
कोशं यन्त्रायुधं चैव ये च वैद्याश्चिकित्सकाः ॥ ५८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सामान ढोनेवाली गाड़ी, बाजार, डेरे-तम्बू, रथ आदि सवारी, खजाना, यन्त्रचालित अस्त्र और चिकित्साकुशल वैद्य भी उनके साथ-साथ चले॥५८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
फल्गु यच्च बलं किंचिद् यच्चापि कृशदुर्बलम्।
तत् संगृह्य ययौ राजा ये चापि परिचारकाः ॥ ५९ ॥
मूलम्
फल्गु यच्च बलं किंचिद् यच्चापि कृशदुर्बलम्।
तत् संगृह्य ययौ राजा ये चापि परिचारकाः ॥ ५९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजा युधिष्ठिरने जो कोई भी सेना सारहीन, कृशकाय अथवा दुर्बल थी, सबको एवं अन्य परिचारकोंको उपप्लव्यमें एकत्र करके वहाँसे प्रस्थान कर दिया॥५९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपप्लव्ये तु पाञ्चाली द्रौपदी सत्यवादिनी।
सह स्त्रीभिर्निववृते दासीदाससमावृता ॥ ६० ॥
मूलम्
उपप्लव्ये तु पाञ्चाली द्रौपदी सत्यवादिनी।
सह स्त्रीभिर्निववृते दासीदाससमावृता ॥ ६० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पांचालराजकुमारी सत्यवादिनी द्रौपदी दास-दासियोंसे घिरी हुई कुछ दूरतक महाराजके साथ गयी। फिर सभी स्त्रियोंके साथ उपप्लव्य नगरमें लौट आयी॥६०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कृत्वा मूलप्रतीकारं गुल्मैः स्थावरजङ्गमैः।
स्कन्धावारेण महता प्रययुः पाण्डुनन्दनाः ॥ ६१ ॥
मूलम्
कृत्वा मूलप्रतीकारं गुल्मैः स्थावरजङ्गमैः।
स्कन्धावारेण महता प्रययुः पाण्डुनन्दनाः ॥ ६१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाण्डवलोग दुर्गकी रक्षाके लिये आवश्यक स्थावर (परकोटे और खाईं आदि) तथा जंगम (पहरेदार सैनिकोंकी नियुक्ति आदि) उपायोंद्वारा स्त्रियों और धन आदिकी सुरक्षाकी समुचित व्यवस्था करके बहुत-से खेमे और तम्बू आदि साथ लेकर प्रस्थित हुए॥६१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददतो गां हिरण्यं च ब्राह्मणैरभिसंवृताः।
स्तूयमाना ययू राजन् रथैर्मणिविभूषितैः ॥ ६२ ॥
मूलम्
ददतो गां हिरण्यं च ब्राह्मणैरभिसंवृताः।
स्तूयमाना ययू राजन् रथैर्मणिविभूषितैः ॥ ६२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! ब्राह्मणलोग चारों ओरसे घेरकर पाण्डवोंके गुण गाते और पाण्डवलोग उन्हें गौओं तथा सुवर्ण आदिका दान देते थे। इस प्रकार वे मणिभूषित रथोंपर बैठकर यात्रा कर रहे थे॥६२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केकया धृष्टकेतुश्च पुत्रः काश्यस्य चाभिभूः।
श्रेणिमान् वसुदानश्च शिखण्डी चापराजितः ॥ ६३ ॥
हृष्टास्तुष्टाः कवचिनः सशस्त्राः समलंकृताः।
राजानमन्वयुः सर्वे परिवार्य युधिष्ठिरम् ॥ ६४ ॥
मूलम्
केकया धृष्टकेतुश्च पुत्रः काश्यस्य चाभिभूः।
श्रेणिमान् वसुदानश्च शिखण्डी चापराजितः ॥ ६३ ॥
हृष्टास्तुष्टाः कवचिनः सशस्त्राः समलंकृताः।
राजानमन्वयुः सर्वे परिवार्य युधिष्ठिरम् ॥ ६४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(पाँचों भाई) केकयराजकुमार, धृष्टकेतु, काशिराजके पुत्र अभिभू, श्रेणिमान्, वसुदान और अपराजित वीर शिखण्डी—ये सब लोग आभूषण और कवच धारण करके हाथोंमें शस्त्र लिये हर्ष और उल्लासमें भरकर राजा युधिष्ठिरको सब ओरसे घेरकर उनके साथ-साथ जा रहे थे॥६३-६४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जघनार्धे विराटश्च याज्ञसेनिश्च सौमकिः।
सुधर्मा कुन्तिभोजश्च धृष्टद्युम्नस्य चात्मजाः ॥ ६५ ॥
रथायुतानि चत्वारि हयाः पञ्चगुणास्तथा।
पत्तिसैन्यं दशगुणं गजानामयुतानि षट् ॥ ६६ ॥
मूलम्
जघनार्धे विराटश्च याज्ञसेनिश्च सौमकिः।
सुधर्मा कुन्तिभोजश्च धृष्टद्युम्नस्य चात्मजाः ॥ ६५ ॥
रथायुतानि चत्वारि हयाः पञ्चगुणास्तथा।
पत्तिसैन्यं दशगुणं गजानामयुतानि षट् ॥ ६६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सेनाके पिछले आधे भागमें राजा विराट, सोमकवंशी द्रुपदकुमार धृष्टद्युम्न, सुधर्मा, कुन्तिभोज और धृष्टद्युम्नके पुत्र जा रहे थे। इनके साथ चालीस हजार रथ, दो लाख घोड़े, चार लाख पैदल और साठ हजार हाथी थे॥६५-६६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अनाधृष्टिश्चेकितानो धृष्टकेतुश्च सात्यकिः ।
परिवार्य ययुः सर्वे वासुदेवधनंजयौ ॥ ६७ ॥
मूलम्
अनाधृष्टिश्चेकितानो धृष्टकेतुश्च सात्यकिः ।
परिवार्य ययुः सर्वे वासुदेवधनंजयौ ॥ ६७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अनाधृष्टि, चेकितान, धृष्टकेतु तथा सात्यकि—ये सब लोग भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनको घेरकर चल रहे थे॥६७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसाद्य तु कुरुक्षेत्रं व्यूढानीकाः प्रहारिणः।
पाण्डवाः समदृश्यन्त नर्दन्तो वृषभा इव ॥ ६८ ॥
मूलम्
आसाद्य तु कुरुक्षेत्रं व्यूढानीकाः प्रहारिणः।
पाण्डवाः समदृश्यन्त नर्दन्तो वृषभा इव ॥ ६८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार सेनाकी व्यूहरचना करके प्रहार करनेके लिये उद्यत हुए पाण्डवसैनिक कुरुक्षेत्रमें पहुँचकर साँड़ोंके समान गर्जन करते हुए दिखायी देने लगे॥६८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेऽवगाह्य कुरुक्षेत्रं शङ्खान् दध्मुररिंदमाः।
तथैव दध्मतुः शङ्खं वासुदेवधनंजयौ ॥ ६९ ॥
मूलम्
तेऽवगाह्य कुरुक्षेत्रं शङ्खान् दध्मुररिंदमाः।
तथैव दध्मतुः शङ्खं वासुदेवधनंजयौ ॥ ६९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन शत्रुदमन वीरोंने कुरुक्षेत्रकी सीमामें पहुँचकर अपने-अपने शंख बजाये। इसी प्रकार श्रीकृष्ण और अर्जुनने भी शंखध्वनि की॥६९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाञ्चजन्यस्य निर्घोषं विस्फूर्जितमिवाशनेः ।
निशम्य सर्वसैन्यानि समहृष्यन्त सर्वशः ॥ ७० ॥
मूलम्
पाञ्चजन्यस्य निर्घोषं विस्फूर्जितमिवाशनेः ।
निशम्य सर्वसैन्यानि समहृष्यन्त सर्वशः ॥ ७० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बिजलीकी गड़गड़ाहटके समान पांचजन्यका गम्भीर घोष सुनकर सब ओर फैले हुए समस्त पाण्डवसैनिक हर्षसे उल्लसित एवं रोमांचित हो उठे॥७०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शङ्खदुन्दुभिसंसृष्टः सिंहनादस्तरस्विनाम् ।
पृथिवीं चान्तरिक्षं च सागरांश्चान्वनादयत् ॥ ७१ ॥
मूलम्
शङ्खदुन्दुभिसंसृष्टः सिंहनादस्तरस्विनाम् ।
पृथिवीं चान्तरिक्षं च सागरांश्चान्वनादयत् ॥ ७१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शंख और दुन्दुभियोंकी ध्वनिसे मिला हुआ वेगवान् वीरोंका सिंहनाद पृथ्वी, आकाश तथा समुद्रोंतक फैलकर उन सबको प्रतिध्वनित करने लगा॥७१॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि सैन्यनिर्याणपर्वणि कुरुक्षेत्रप्रवेशे एकपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १५१ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत सैन्यनिर्याणपर्वमें पाण्डवसेनाका कुरुक्षेत्रमें प्रवेशविषयक एक सौ इक्यावनवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१५१॥
सूचना (हिन्दी)
[दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ७१ श्लोक हैं।]