१४८ श्रीकृष्णवाक्ये

भागसूचना

अष्टचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

द्रोणाचार्य, विदुर तथा गान्धारीके युक्तियुक्त एवं महत्त्वपूर्ण वचनोंका भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा कथन

मूलम् (वचनम्)

वासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मेणोक्ते ततो द्रोणो दुर्योधनमभाषत।
मध्ये नृपाणां भद्रं ते वचनं वचनक्षमः ॥ १ ॥

मूलम्

भीष्मेणोक्ते ततो द्रोणो दुर्योधनमभाषत।
मध्ये नृपाणां भद्रं ते वचनं वचनक्षमः ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं— राजन्! तुम्हारा कल्याण हो। भीष्मजीकी बात समाप्त होनेपर प्रवचन करनेमें समर्थ द्रोणाचार्यने राजाओंके बीचमें दुर्योधनसे इस प्रकार कहा—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रातीपः शान्तनुस्तात कुलस्यार्थे यथा स्थितः।
यथा देवव्रतो भीष्मः कुलस्यार्थे स्थितोऽभवत् ॥ २ ॥
तथा पाण्डुर्नरपतिः सत्यसंधो जितेन्द्रियः।
राजा कुरूणां धर्मात्मा सुव्रतः सुसमाहितः ॥ ३ ॥

मूलम्

प्रातीपः शान्तनुस्तात कुलस्यार्थे यथा स्थितः।
यथा देवव्रतो भीष्मः कुलस्यार्थे स्थितोऽभवत् ॥ २ ॥
तथा पाण्डुर्नरपतिः सत्यसंधो जितेन्द्रियः।
राजा कुरूणां धर्मात्मा सुव्रतः सुसमाहितः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! जैसे प्रतीपपुत्र शान्तनु इस कुलकी भलाईमें ही लगे रहे, जैसे देवव्रत भीष्म इस कुलकी वृद्धिके लिये ही यहाँ स्थित हैं, उसी प्रकार सत्य-प्रतिज्ञ एवं जितेन्द्रिय राजा पाण्डु भी रहे हैं। वे कुरुकुलके राजा होते हुए भी सदा धर्ममें ही मन लगाये रहते थे। वे उत्तम व्रतके पालक तथा चित्तको एकाग्र रखनेवाले थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्येष्ठाय राज्यमददाद् धृतराष्ट्राय धीमते।
यवीयसे तथा क्षत्त्रे कुरूणां वंशवर्धनः ॥ ४ ॥

मूलम्

ज्येष्ठाय राज्यमददाद् धृतराष्ट्राय धीमते।
यवीयसे तथा क्षत्त्रे कुरूणां वंशवर्धनः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुवंशकी वृद्धि करनेवाले पाण्डुने अपने बड़े भाई बुद्धिमान् धृतराष्ट्रको तथा छोटे भाई विदुरको अपना राज्य धरोहररूपसे दिया॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सिंहासने राजन् स्थापयित्वैनमच्युतम्।
वनं जगाम कौरव्यो भार्याभ्यां सहितो नृपः ॥ ५ ॥

मूलम्

ततः सिंहासने राजन् स्थापयित्वैनमच्युतम्।
वनं जगाम कौरव्यो भार्याभ्यां सहितो नृपः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! कुरुकुलरत्न पाण्डुने अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले धृतराष्ट्रको सिंहासनपर बिठाकर स्वयं अपनी दोनों स्त्रियोंके साथ वनको प्रस्थान किया था॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नीचैः स्थित्वा तु विदुर उपास्ते स्म विनीतवत्।
प्रेष्यवत् पुरुषव्याघ्रो वालव्यजनमुत्क्षिपन् ॥ ६ ॥

मूलम्

नीचैः स्थित्वा तु विदुर उपास्ते स्म विनीतवत्।
प्रेष्यवत् पुरुषव्याघ्रो वालव्यजनमुत्क्षिपन् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तदनन्तर पुरुषसिंह विदुर सेवककी भाँति नीचे खड़े होकर चँवर डुलाते हुए विनीतभावसे धृतराष्ट्रकी सेवामें रहने लगे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः सर्वाः प्रजास्तात धृतराष्ट्रं जनेश्वरम्।
अन्वपद्यन्त विधिवद् यथा पाण्डुं जनाधिपम् ॥ ७ ॥

मूलम्

ततः सर्वाः प्रजास्तात धृतराष्ट्रं जनेश्वरम्।
अन्वपद्यन्त विधिवद् यथा पाण्डुं जनाधिपम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! तदनन्तर सारी प्रजा जैसे राजा पाण्डुके अनुगत रहती थी, उसी प्रकार विधिपूर्वक राजा धृतराष्ट्रके अधीन रहने लगी॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विसृज्य धृतराष्ट्राय राज्यं सविदुराय च।
चचार पृथिवीं पाण्डुः सर्वां परपुरञ्जयः ॥ ८ ॥

मूलम्

विसृज्य धृतराष्ट्राय राज्यं सविदुराय च।
चचार पृथिवीं पाण्डुः सर्वां परपुरञ्जयः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस प्रकार शत्रुओंकी राजधानीपर विजय पाने-वाले पाण्डु विदुरसहित धृतराष्ट्रको अपना राज्य सौंपकर सारी पृथ्वीपर विचरने लगे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोशसंवनने दाने भृत्यानां चान्ववेक्षणे।
भरणे चैव सर्वस्य विदुरः सत्यसङ्गरः ॥ ९ ॥

मूलम्

कोशसंवनने दाने भृत्यानां चान्ववेक्षणे।
भरणे चैव सर्वस्य विदुरः सत्यसङ्गरः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सत्यप्रतिज्ञ विदुर कोषको सँभालने, दान देने, भृत्यवर्गकी देखभाल करने तथा सबके भरण-पोषणके कार्यमें संलग्न रहते थे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संधिविग्रहसंयुक्तो राज्ञां संवाहनक्रियाः ।
अवैक्षत महातेजा भीष्मः परपुरञ्जयः ॥ १० ॥

मूलम्

संधिविग्रहसंयुक्तो राज्ञां संवाहनक्रियाः ।
अवैक्षत महातेजा भीष्मः परपुरञ्जयः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुनगरीको जीतनेवाले महातेजस्वी भीष्म संधि-विग्रहके कार्यमें संयुक्त हो राजाओंसे सेवा और कर आदि लेनेका काम सँभालते थे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिंहासनस्थो नृपतिर्धृतराष्ट्रो महाबलः ।
अन्वास्यमानः सततं विदुरेण महात्मना ॥ ११ ॥

मूलम्

सिंहासनस्थो नृपतिर्धृतराष्ट्रो महाबलः ।
अन्वास्यमानः सततं विदुरेण महात्मना ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबली राजा धृतराष्ट्र केवल सिंहासनपर बैठे रहते और महात्मा विदुर सदा उनकी सेवामें उपस्थित रहते थे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं तस्य कुले जातः कुलभेदं व्यवस्यसि।
सम्भूय भ्रातृभिः सार्धं भुङ्क्ष्व भोगान्‌ जनाधिप ॥ १२ ॥

मूलम्

कथं तस्य कुले जातः कुलभेदं व्यवस्यसि।
सम्भूय भ्रातृभिः सार्धं भुङ्क्ष्व भोगान्‌ जनाधिप ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन्हींके वंशमें उत्पन्न होकर तुम इस कुलमें फूट क्यों डालते हो? राजन्! भाइयोंके साथ मिलकर मनोवांछित भोगोंका उपभोग करो॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्रवीम्यहं न कार्पण्यान्नार्थहेतोः कथंचन।
भीष्मेण दत्तमिच्छामि न त्वया राजसत्तम ॥ १३ ॥

मूलम्

ब्रवीम्यहं न कार्पण्यान्नार्थहेतोः कथंचन।
भीष्मेण दत्तमिच्छामि न त्वया राजसत्तम ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नृपश्रेष्ठ! मैं दीनतासे या धन पानेके लिये किसी प्रकार कोई बात नहीं कहता हूँ। मैं भीष्मका दिया हुआ पाना चाहता हूँ, तुम्हारा दिया नहीं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं त्वत्तोऽभिकाङ्क्षिष्ये वृत्त्युपायं जनाधिप।
यतो भीष्मस्ततो द्रोणो यद् भीष्मस्त्वाह तत् कुरु ॥ १४ ॥

मूलम्

नाहं त्वत्तोऽभिकाङ्क्षिष्ये वृत्त्युपायं जनाधिप।
यतो भीष्मस्ततो द्रोणो यद् भीष्मस्त्वाह तत् कुरु ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जनेश्वर! मैं तुमसे कोई जीविकाका साधन प्राप्त करनेकी इच्छा नहीं करूँगा। जहाँ भीष्म हैं, वहीं द्रोण हैं। जो भीष्म कहते हैं, उसका पालन करो॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दीयतां पाण्डुपुत्रेभ्यो राज्यार्धमरिकर्शन ।
सममाचार्यकं तात तव तेषां च मे सदा ॥ १५ ॥

मूलम्

दीयतां पाण्डुपुत्रेभ्यो राज्यार्धमरिकर्शन ।
सममाचार्यकं तात तव तेषां च मे सदा ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुसूदन! तुम पाण्डवोंका आधा राज्य दे दो। तात! मेरा यह आचार्यत्व तुम्हारे और पाण्डवोंके लिये सदा समान है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अश्वत्थामा यथा मह्यं तथा श्वेतहयो मम।
बहुना किं प्रलापेन यतो धर्मस्ततो जयः ॥ १६ ॥

मूलम्

अश्वत्थामा यथा मह्यं तथा श्वेतहयो मम।
बहुना किं प्रलापेन यतो धर्मस्ततो जयः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मेरे लिये जैसा अश्वत्थामा है वैसा ही श्वेत घोड़ोंवाला अर्जुन भी है। अधिक बकवाद करनेसे क्या लाभ? जहाँ धर्म है, उसी पक्षकी विजय निश्चित है’॥१६॥

मूलम् (वचनम्)

वासुदेव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्ते महाराज द्रोणेनामिततेजसा ।
व्याजहार ततो वाक्यं विदुरः सत्यसङ्गरः।
पितुर्वदनमन्वीक्ष्य परिवृत्य च धर्मवित् ॥ १७ ॥

मूलम्

एवमुक्ते महाराज द्रोणेनामिततेजसा ।
व्याजहार ततो वाक्यं विदुरः सत्यसङ्गरः।
पितुर्वदनमन्वीक्ष्य परिवृत्य च धर्मवित् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं— महाराज! अमित-तेजस्वी द्रोणाचार्यके इस प्रकार कहनेपर सत्यप्रतिज्ञ धर्मज्ञ विदुरने ज्येष्ठ पिता भीष्मकी ओर घूमकर उनके मुँहकी ओर देखते हुए इस प्रकार कहा॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

विदुर उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

देवव्रत निबोधेदं वचनं मम भाषतः।
प्रणष्टः कौरवो वंशस्त्वयायं पुनरुद्‌धृतः ॥ १८ ॥

मूलम्

देवव्रत निबोधेदं वचनं मम भाषतः।
प्रणष्टः कौरवो वंशस्त्वयायं पुनरुद्‌धृतः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुर बोले— देवव्रतजी! मेरी यह बात सुनिये। यह कौरववंश नष्ट हो चला था, जिसका आपने पुनः उद्धार किया था॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तन्मे विलपमानस्य वचनं समुपेक्षसे।
कोऽयं दुर्योधनो नाम कुलेऽस्मिन् कुलपांसनः ॥ १९ ॥
यस्य लोभाभिभूतस्य मतिं समनुवर्तसे।
अनार्यस्याकृतज्ञस्य लोभेन हृतचेतसः ॥ २० ॥

मूलम्

तन्मे विलपमानस्य वचनं समुपेक्षसे।
कोऽयं दुर्योधनो नाम कुलेऽस्मिन् कुलपांसनः ॥ १९ ॥
यस्य लोभाभिभूतस्य मतिं समनुवर्तसे।
अनार्यस्याकृतज्ञस्य लोभेन हृतचेतसः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं भी उसी वंशकी रक्षाके लिये विलाप कर रहा हूँ; परंतु न जाने क्यों आप मेरे कथनकी उपेक्षा कर रहे हैं। मैं पूछता हूँ, यह कुलांगार दुर्योधन इस कुलका कौन है? जिसके लोभके वशीभूत होनेपर भी आप उसकी बुद्धिका अनुसरण कर रहे हैं। लोभने इसकी विवेकशक्ति हर ली है। इसकी बुद्धि दूषित हो गयी है तथा यह पूरा अनार्य बन गया है॥१९-२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिक्रामति यः शास्त्रं पितुर्धर्मार्थदर्शिनः।
एते नश्यन्ति कुरवो दुर्योधनकृतेन वै ॥ २१ ॥

मूलम्

अतिक्रामति यः शास्त्रं पितुर्धर्मार्थदर्शिनः।
एते नश्यन्ति कुरवो दुर्योधनकृतेन वै ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह शास्त्रकी आज्ञाका तो उल्लंघन करता ही है। धर्म और अर्थपर दृष्टि रखनेवाले अपने पिताकी भी बात नहीं मानता है। निश्चय ही एकमात्र दुर्योधनके कारण ये समस्त कौरव नष्ट हो रहे हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा ते न प्रणश्येयुर्महाराज तथा कुरु।
मां चैव धृतराष्ट्रं च पूर्वमेव महामते ॥ २२ ॥
चित्रकार इवालेख्यं कृत्वा स्थापितवानसि।

मूलम्

यथा ते न प्रणश्येयुर्महाराज तथा कुरु।
मां चैव धृतराष्ट्रं च पूर्वमेव महामते ॥ २२ ॥
चित्रकार इवालेख्यं कृत्वा स्थापितवानसि।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे इनका नाश न हो। महामते! जैसे चित्रकार किसी चित्रको बनाकर एक जगह रख देता है, उसी प्रकार आपने मुझको और धृतराष्ट्रको पहलेसे ही निकम्मा बनाकर रख दिया है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रजापतिः प्रजाः सृष्ट्वा यथा संहरते तथा ॥ २३ ॥
नोपेक्षस्व महाबाहो पश्यमानः कुलक्षयम्।

मूलम्

प्रजापतिः प्रजाः सृष्ट्वा यथा संहरते तथा ॥ २३ ॥
नोपेक्षस्व महाबाहो पश्यमानः कुलक्षयम्।

अनुवाद (हिन्दी)

महाबाहो! जैसे प्रजापति प्रजाकी सृष्टि करके पुनः उसका संहार करते हैं, उसी प्रकार आप भी अपने कुलका विनाश देखकर उसकी उपेक्षा न कीजिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ तेऽद्य मतिर्नष्टा विनाशे प्रत्युपस्थिते ॥ २४ ॥
वनं गच्छ मया सार्धं धृतराष्ट्रेण चैव ह।

मूलम्

अथ तेऽद्य मतिर्नष्टा विनाशे प्रत्युपस्थिते ॥ २४ ॥
वनं गच्छ मया सार्धं धृतराष्ट्रेण चैव ह।

अनुवाद (हिन्दी)

यदि इन दिनों विनाशकाल उपस्थित होनेके कारण आपकी बुद्धि नष्ट हो गयी हो तो मेरे और धृतराष्ट्रके साथ वनमें पधारिये॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बद्ध्‌वा वा निकृतिप्रज्ञं धार्तराष्ट्रं सुदुर्मतिम् ॥ २५ ॥
शाधीदं राज्यमद्याशु पाण्डवैरभिरक्षितम् ।

मूलम्

बद्ध्‌वा वा निकृतिप्रज्ञं धार्तराष्ट्रं सुदुर्मतिम् ॥ २५ ॥
शाधीदं राज्यमद्याशु पाण्डवैरभिरक्षितम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

अथवा जिसकी बुद्धि सदा छल-कपटमें ही लगी रहती है उस परम दुर्बुद्धि धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनको शीघ्र ही बाँधकर पाण्डवोंद्वारा सुरक्षित इस राज्यका शासन कीजिये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रसीद राजशार्दूल विनाशो दृश्यते महान् ॥ २६ ॥
पाण्डवानां कुरूणां च राज्ञाममिततेजसाम्।
विररामैवमुक्त्वा तु विदुरो दीनमानसः।
प्रध्यायमानः स तदा निःश्वसंश्च पुनः पुनः ॥ २७ ॥

मूलम्

प्रसीद राजशार्दूल विनाशो दृश्यते महान् ॥ २६ ॥
पाण्डवानां कुरूणां च राज्ञाममिततेजसाम्।
विररामैवमुक्त्वा तु विदुरो दीनमानसः।
प्रध्यायमानः स तदा निःश्वसंश्च पुनः पुनः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नृपश्रेष्ठ! प्रसन्न होइये। पाण्डवों, कौरवों तथा अमिततेजस्वी राजाओंका महान् विनाश दृष्टिगोचर हो रहा है। ऐसा कहकर दीनचित्त विदुरजी चुप हो गये और विशेष चिन्तामें मग्न होकर उस समय बार-बार लंबी साँसें खींचने लगे॥२६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽथ राज्ञः सुबलस्य पुत्री
धर्मार्थयुक्तं कुलनाशभीता ।
दुर्योधनं पापमतिं नृशंसं
राज्ञां समक्षं सुतमाह कोपात् ॥ २८ ॥

मूलम्

ततोऽथ राज्ञः सुबलस्य पुत्री
धर्मार्थयुक्तं कुलनाशभीता ।
दुर्योधनं पापमतिं नृशंसं
राज्ञां समक्षं सुतमाह कोपात् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर राजा सुबलकी पुत्री गान्धारी अपने कुलके विनाशसे भयभीत हो क्रूर स्वभाववाले पापबुद्धि पुत्र दुर्योधनसे समस्त राजाओंके समक्ष क्रोधपूर्वक यह धर्म और अर्थसे युक्त वचन बोली—॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये पार्थिवा राजसभां प्रविष्टा
ब्रह्मर्षयो ये च सभासदोऽन्ये।
शृण्वन्तु वक्ष्यामि तवापराधं
पापस्य सामात्यपरिच्छदस्य ॥ २९ ॥

मूलम्

ये पार्थिवा राजसभां प्रविष्टा
ब्रह्मर्षयो ये च सभासदोऽन्ये।
शृण्वन्तु वक्ष्यामि तवापराधं
पापस्य सामात्यपरिच्छदस्य ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो-जो राजा, ब्रह्मर्षि तथा अन्य सभासद् इस राजसभाके भीतर आये हैं, वे सब लोग मन्त्री और सेवकोंसहित तुझ पापी दुर्योधनके अपराधोंको सुनें। मैं वर्णन करती हूँ॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्यं कुरूणामनुपूर्वभोज्यं
क्रमागतो नः कुलधर्म एषः।
त्वं पापबुद्धेऽतिनृशंसकर्मन्
राज्यं कुरूणामनयाद् विहंसि ॥ ३० ॥

मूलम्

राज्यं कुरूणामनुपूर्वभोज्यं
क्रमागतो नः कुलधर्म एषः।
त्वं पापबुद्धेऽतिनृशंसकर्मन्
राज्यं कुरूणामनयाद् विहंसि ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘हमारे यहाँ परम्परासे चला आनेवाला कुलधर्म यही है कि यह कुरुराज्य पूर्व-पूर्व अधिकारीके कमसे उपभोगमें आवे (अर्थात् पहले पिताके अधिकारमें रहे, फिर पुत्रके, पिताके जीते-जी पुत्र राज्यका अधिकारी नहीं हो सकता); परंतु अत्यन्त क्रूर कर्म करनेवाले पापबुद्धि दुर्योधन! तू अपने अन्यायसे इस कौरवराज्यका विनाश कर रहा है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्ये स्थितो धृतराष्ट्रो मनीषी
तस्यानुजो विदुरो दीर्घदर्शी ।
एतावतिक्रम्य कथं नृपत्वं
दुर्योधन प्रार्थयसेऽद्य मोहात् ॥ ३१ ॥

मूलम्

राज्ये स्थितो धृतराष्ट्रो मनीषी
तस्यानुजो विदुरो दीर्घदर्शी ।
एतावतिक्रम्य कथं नृपत्वं
दुर्योधन प्रार्थयसेऽद्य मोहात् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस राज्यपर अधिकारीके रूपमें परम बुद्धिमान् धृतराष्ट्र और उनके छोटे भाई दूरदर्शी विदुर स्थापित किये गये थे। दुर्योधन! इन दोनोंका उल्लंघन करके तू आज मोहवश अपना प्रभुत्व कैसे जमाना चाहता है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजा च क्षत्ता च महानुभावौ
भीष्मे स्थिते परवन्तौ भवेताम्।
अयं तु धर्मज्ञतया महात्मा
न कामयेद् यो नृवरो नदीजः ॥ ३२ ॥

मूलम्

राजा च क्षत्ता च महानुभावौ
भीष्मे स्थिते परवन्तौ भवेताम्।
अयं तु धर्मज्ञतया महात्मा
न कामयेद् यो नृवरो नदीजः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजा धृतराष्ट्र और विदुर—ये दोनों महानुभाव भी भीष्मके जीते-जी पराधीन ही रहेंगे (भीष्मके रहते इन्हें राज्य लेनेका कोई अधिकार नहीं है); परंतु धर्मज्ञ होनेके कारण ये नरश्रेष्ठ महात्मा गंगानन्दन राज्य लेनेकी इच्छा ही नहीं रखते हैं॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्यं तु पाण्डोरिदमप्रधृष्यं
तस्याद्य पुत्राः प्रभवन्ति नान्ये।
राज्यं तदेतन्निखिलं पाण्डवानां
पैतामहं पुत्रपौत्रानुगामि ॥ ३३ ॥

मूलम्

राज्यं तु पाण्डोरिदमप्रधृष्यं
तस्याद्य पुत्राः प्रभवन्ति नान्ये।
राज्यं तदेतन्निखिलं पाण्डवानां
पैतामहं पुत्रपौत्रानुगामि ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वास्तवमें यह दुर्धर्ष राज्य महाराज पाण्डुका है। उन्हींके पुत्र इसके अधिकारी हो सकते हैं, दूसरे नहीं। अतः यह सारा राज्य पाण्डवोंका है; क्योंकि बाप-दादोंका राज्य पुत्र-पौत्रोंके पास ही जाता है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यद् वै ब्रूते कुरुमुख्यो महात्मा
देवव्रतः सत्यसंधो मनीषी ।
सर्वं तदस्माभिरहत्य कार्यं
राज्यं स्वधर्मान् परिपालयद्भिः ॥ ३४ ॥

मूलम्

यद् वै ब्रूते कुरुमुख्यो महात्मा
देवव्रतः सत्यसंधो मनीषी ।
सर्वं तदस्माभिरहत्य कार्यं
राज्यं स्वधर्मान् परिपालयद्भिः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुकुलके श्रेष्ठ पुरुष सत्यप्रतिज्ञ एवं बुद्धिमान् महात्मा देवव्रत जो कुछ कहते हैं, उसे राज्य और स्वधर्मका पालन करनेवाले हम सब लोगोंको बिना काट-छाँट किये पूर्णरूपसे मान लेना चाहिये॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुज्ञया चाथ महाव्रतस्य
ब्रूयान्नृपोऽयं विदुरस्तथैव ।
कार्यं भवेत् तत् सुहृद्भिर्नियोज्यं
धर्मं पुरस्कृत्य सुदीर्घकालम् ॥ ३५ ॥

मूलम्

अनुज्ञया चाथ महाव्रतस्य
ब्रूयान्नृपोऽयं विदुरस्तथैव ।
कार्यं भवेत् तत् सुहृद्भिर्नियोज्यं
धर्मं पुरस्कृत्य सुदीर्घकालम् ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अथवा इन महान् व्रतधारी भीष्मजीकी आज्ञासे यह राजा धृतराष्ट्र तथा विदुर भी इस विषयमें कुछ कह सकते हैं और अन्य सुहृदोंको भी धर्मको सामने रखते हुए उसीका सुदीर्घ कालतक पालन करना चाहिये॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न्यायागतं राज्यमिदं कुरूणां
युधिष्ठिरः शास्तु वै धर्मपुत्रः।
प्रचोदितो धृतराष्ट्रेण राज्ञा
पुरस्कृतः शान्तनवेन चैव ॥ ३६ ॥

मूलम्

न्यायागतं राज्यमिदं कुरूणां
युधिष्ठिरः शास्तु वै धर्मपुत्रः।
प्रचोदितो धृतराष्ट्रेण राज्ञा
पुरस्कृतः शान्तनवेन चैव ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कौरवोंके इस न्यायतः प्राप्त राज्यका धर्मपुत्र युधिष्ठिर ही शासन करें और वे राजा धृतराष्ट्र तथा शान्तनुनन्दन भीष्मसे कर्तव्यकी शिक्षा लेते रहें’॥३६॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि श्रीकृष्णवाक्ये अष्टचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें श्रीकृष्णवाक्यविषयक एक सौ अड़तालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४८॥