भागसूचना
पञ्चचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कुन्तीका कर्णको अपना प्रथम पुत्र बताकर उससे पाण्डवपक्षमें मिल जानेका अनुरोध
मूलम् (वचनम्)
कर्ण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
राधेयोऽहमाधिरथिः कर्णस्त्वामभिवादये ।
प्राप्ता किमर्थं भवती ब्रूहि किं करवाणि ते ॥ १ ॥
मूलम्
राधेयोऽहमाधिरथिः कर्णस्त्वामभिवादये ।
प्राप्ता किमर्थं भवती ब्रूहि किं करवाणि ते ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण बोला— देवि! मैं राधा तथा अधिरथका पुत्र कर्ण हूँ और आपके चरणोंमें प्रणाम करता हूँ। आपने किसलिये यहाँतक आनेका कष्ट किया है? बताइये, मैं आपकी क्या सेवा करूँ?॥१॥
मूलम् (वचनम्)
कुन्त्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
कौन्तेयस्त्वं न राधेयो न तवाधिरथः पिता।
नासि सूतकुले जातः कर्ण तद् विद्धि मे वचः॥२॥
मूलम्
कौन्तेयस्त्वं न राधेयो न तवाधिरथः पिता।
नासि सूतकुले जातः कर्ण तद् विद्धि मे वचः॥२॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्तीने कहा— कर्ण! तुम राधाके नहीं, कुन्तीके पुत्र हो। तुम्हारे पिता अधिरथ नहीं हैं और तुम सूतकुलमें नहीं उत्पन्न हुए हो। मेरी इस बातको ठीक मानो॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कानीनस्त्वं मया जातः पूर्वजः कुक्षिणा धृतः।
कुन्तिराजस्य भवने पार्थस्त्वमसि पुत्रक ॥ ३ ॥
मूलम्
कानीनस्त्वं मया जातः पूर्वजः कुक्षिणा धृतः।
कुन्तिराजस्य भवने पार्थस्त्वमसि पुत्रक ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तुम कन्यावस्थामें मेरे गर्भसे उत्पन्न हुए प्रथम पुत्र हो। महाराज कुन्तिभोजके घरमें रहते समय मैंने तुम्हें गर्भमें धारण किया था; अतः बेटा! तुम पार्थ हो॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रकाशकर्मा तपनो योऽयं देवो विरोचनः।
अजीजनत् त्वां मय्येष कर्ण शस्त्रभृतां वरम् ॥ ४ ॥
मूलम्
प्रकाशकर्मा तपनो योऽयं देवो विरोचनः।
अजीजनत् त्वां मय्येष कर्ण शस्त्रभृतां वरम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण! ये जो जगत्में प्रकाश और उष्णता प्रदान करनेवाले भगवान् सूर्यदेव हैं, इन्होंने शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ तुम-जैसे वीर पुत्रको मेरे गर्भसे उत्पन्न किया है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुण्डली बद्धकवचो देवगर्भः श्रिया वृतः।
जातस्त्वमसि दुर्धर्ष मया पुत्र पितुर्गृहे ॥ ५ ॥
मूलम्
कुण्डली बद्धकवचो देवगर्भः श्रिया वृतः।
जातस्त्वमसि दुर्धर्ष मया पुत्र पितुर्गृहे ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दुर्धर्ष पुत्र! मैंने पिताके घरमें तुम्हें जन्म दिया था। तुम जन्मकालसे ही कुण्डल और कवच धारण किये देवबालकके समान शोभासम्पन्न रहे हो॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स त्वं भ्रातॄनसम्बुद्ध्य मोहाद् यदुपसेवसे।
धार्तराष्ट्रान् न तद् युक्तं त्वयि पुत्र विशेषतः ॥ ६ ॥
मूलम्
स त्वं भ्रातॄनसम्बुद्ध्य मोहाद् यदुपसेवसे।
धार्तराष्ट्रान् न तद् युक्तं त्वयि पुत्र विशेषतः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! तुम जो अपने भाइयोंसे अपरिचित रहकर मोहवश धृतराष्ट्रके पुत्रोंकी सेवा कर रहे हो, वह तुम्हारे लिये कदापि योग्य नहीं है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एतद् धर्मफलं पुत्र नराणां धर्मनिश्चये।
यत् तुष्यन्त्यस्य पितरो माता चाप्येकदर्शिनी ॥ ७ ॥
मूलम्
एतद् धर्मफलं पुत्र नराणां धर्मनिश्चये।
यत् तुष्यन्त्यस्य पितरो माता चाप्येकदर्शिनी ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
बेटा! धर्मशास्त्रमें मनुष्योंके लिये यही धर्मका उत्तम फल बताया गया है कि उनके पिता आदि गुरुजन तथा एकमात्र पुत्रपर ही दृष्टि रखनेवाली माता उनसे संतुष्ट रहें॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्जुनेनार्जितां पूर्वं हृतां लोभादसाधुभिः।
आच्छिद्य धार्तराष्ट्रेभ्यो भुङ्क्ष्व यौधिष्ठिरीं श्रियम् ॥ ८ ॥
मूलम्
अर्जुनेनार्जितां पूर्वं हृतां लोभादसाधुभिः।
आच्छिद्य धार्तराष्ट्रेभ्यो भुङ्क्ष्व यौधिष्ठिरीं श्रियम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अर्जुनने पूर्वकालमें जिसका उपार्जन किया था और दुष्टोंने लोभवश जिसे हर लिया है, युधिष्ठिरकी उस राज्यलक्ष्मीको तुम धृतराष्ट्रपुत्रोंसे छीनकर भाइयोंसहित उसका उपभोग करो॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अद्य पश्यन्ति कुरवः कर्णार्जुनसमागमम्।
सौभ्रात्रेण समालक्ष्य संनमन्तामसाधवः ॥ ९ ॥
मूलम्
अद्य पश्यन्ति कुरवः कर्णार्जुनसमागमम्।
सौभ्रात्रेण समालक्ष्य संनमन्तामसाधवः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आज उत्तम बन्धुजनोचित स्नेहके साथ कर्ण और अर्जुनका मिलन कौरवलोग देखें और इसे देखकर दुष्टलोग नतमस्तक हों॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्णार्जुनौ वै भवेतां यथा रामजनार्दनौ।
असाध्यं किं तु लोके स्याद् युवयोः संहितात्मनोः ॥ १० ॥
मूलम्
कर्णार्जुनौ वै भवेतां यथा रामजनार्दनौ।
असाध्यं किं तु लोके स्याद् युवयोः संहितात्मनोः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण और अर्जुन दोनों मिलकर वैसे ही बलशाली हैं जैसे बलराम और श्रीकृष्ण। बेटा! तुम दोनों हृदयसे संगठित हो जाओ तो इस जगत्में तुम्हारे लिये कौन-सा कार्य असाध्य होगा?॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कर्ण शोभिष्यसे नूनं पञ्चभिर्भ्रातृभिर्वृतः।
देवैः परिवृतो ब्रह्मा वेद्यामिव महाध्वरे ॥ ११ ॥
मूलम्
कर्ण शोभिष्यसे नूनं पञ्चभिर्भ्रातृभिर्वृतः।
देवैः परिवृतो ब्रह्मा वेद्यामिव महाध्वरे ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कर्ण! जिस प्रकार महान् यज्ञकी वेदीपर देवगणोंसे घिरे हुए ब्रह्माजी सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार अपने पाँचों भाइयोंसे घिरे हुए तुम भी शोभा पाओगे॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपपन्नो गुणैः सर्वैर्ज्येष्ठः श्रेष्ठेषु बन्धुषु।
सूतपुत्रेति मा शब्दः पार्थस्त्वमसि वीर्यवान् ॥ १२ ॥
मूलम्
उपपन्नो गुणैः सर्वैर्ज्येष्ठः श्रेष्ठेषु बन्धुषु।
सूतपुत्रेति मा शब्दः पार्थस्त्वमसि वीर्यवान् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने श्रेष्ठ स्वभाववाले बन्धुओंके बीचमें तुम सर्वगुणसम्पन्न ज्येष्ठ भ्राता परम पराक्रमी कुन्तीपुत्र कर्ण हो। तुम्हारे लिये सूतपुत्र शब्दका प्रयोग नहीं होना चाहिये॥१२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि कुन्तीकर्णसमागमे पञ्चचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४५ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें कुन्ती और कर्णकी भेंटके प्रसंगमें एक सौ पैंतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४५॥