१४४ कुन्तीकर्णसमागमे

भागसूचना

चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

विदुरकी बात सुनकर युद्धके भावी दुष्परिणामसे व्यथित हुई कुन्तीका बहुत सोच-विचारके बाद कर्णके पास जाना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

असिद्धानुनये कृष्णे कुरुभ्यः पाण्डवान् गते।
अभिगम्य पृथां क्षत्ता शनैः शोचन्निवाब्रवीत् ॥ १ ॥

मूलम्

असिद्धानुनये कृष्णे कुरुभ्यः पाण्डवान् गते।
अभिगम्य पृथां क्षत्ता शनैः शोचन्निवाब्रवीत् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! जब श्रीकृष्णका अनुनय असफल हो गया और वे कौरवोंके यहाँसे पाण्डवोंके पास चले गये, तब विदुरजी कुन्तीके पास जाकर शोकमग्न-से हो धीरे-धीरे इस प्रकार बोले—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानासि मे जीवपुत्रि भावं नित्यमविग्रहे।
क्रोशतो न च गृह्णीते वचनं मे सुयोधनः ॥ २ ॥

मूलम्

जानासि मे जीवपुत्रि भावं नित्यमविग्रहे।
क्रोशतो न च गृह्णीते वचनं मे सुयोधनः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘चिरंजीवी पुत्रोंको जन्म देनेवाली देवि! तुम तो जानती ही हो कि मेरी इच्छा सदासे यही रही है कि कौरवों और पाण्डवोंमें युद्ध न हो। इसके लिये मैं पुकार-पुकारकर कहता रह गया; परंतु दुर्योधन मेरी बात मानता ही नहीं है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपपन्नो ह्यसौ राजा चेदिपाञ्चालकेकयैः।
भीमार्जुनाभ्यां कृष्णेन युयुधानयमैरपि ॥ ३ ॥

मूलम्

उपपन्नो ह्यसौ राजा चेदिपाञ्चालकेकयैः।
भीमार्जुनाभ्यां कृष्णेन युयुधानयमैरपि ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजा युधिष्ठिर चेदि, पांचाल तथा केकयदेशके वीर सैनिकगण, भीमसेन, अर्जुन, श्रीकृष्ण, सात्यकि तथा नकुल-सहदेव आदि श्रेष्ठ सहायकोंसे सम्पन्न हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपप्लव्ये निविष्टोऽपि धर्ममेव युधिष्ठिरः।
काङ्क्षते ज्ञाति सौहार्दाद् बलवान् दुर्बलो यथा ॥ ४ ॥

मूलम्

उपप्लव्ये निविष्टोऽपि धर्ममेव युधिष्ठिरः।
काङ्क्षते ज्ञाति सौहार्दाद् बलवान् दुर्बलो यथा ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वे युद्धके लिये उद्यत हो उपप्लव्य नगरमें छावनी डालकर बैठे हुए हैं, तथापि भाई-बन्धुओंके सौहार्दवश धर्मकी ही आकांक्षा रखते हैं। बलवान् होकर भी दुर्बलकी भाँति संधि करना चाहते हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजा तु धृतराष्ट्रोऽयं वयोवृद्धो न शाम्यति।
मत्तः पुत्रमदेनैव विधर्मे पथि वर्तते ॥ ५ ॥

मूलम्

राजा तु धृतराष्ट्रोऽयं वयोवृद्धो न शाम्यति।
मत्तः पुत्रमदेनैव विधर्मे पथि वर्तते ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह राजा धृतराष्ट्र बूढ़े हो जानेपर भी शान्त नहीं हो रहे हैं। पुत्रोंके मदसे उन्मत्त हो अधर्मके मार्गपर ही चलते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जयद्रथस्य कर्णस्य तथा दुःशासनस्य च।
सौबलस्य च दुर्बुद्ध्या मिथो भेदः प्रपत्स्यते ॥ ६ ॥

मूलम्

जयद्रथस्य कर्णस्य तथा दुःशासनस्य च।
सौबलस्य च दुर्बुद्ध्या मिथो भेदः प्रपत्स्यते ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जयद्रथ, कर्ण, दुःशासन तथा शकुनिकी खोटी बुद्धिसे कौरव-पाण्डवोंमें परस्पर फूट होकर ही रहेगी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्मेण हि धर्मिष्ठं कृतं वैकार्यमीदृशम्।
येषां तेषामयं धर्मः सानुबन्धो भविष्यति ॥ ७ ॥

मूलम्

अधर्मेण हि धर्मिष्ठं कृतं वैकार्यमीदृशम्।
येषां तेषामयं धर्मः सानुबन्धो भविष्यति ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘(कौरवोंने चौदहवें वर्षमें पाण्डवोंको राज्य लौटा देनेकी प्रतिज्ञा करके भी उसका पालन नहीं किया।) जिन्हें ऐसा अधर्मजनित कार्य भी, जो परस्पर बिगाड़ करनेवाला है, धर्मसंगत प्रतीत होता है, उनका यह विकृत धर्म सफल होकर ही रहेगा (अधर्मका फल है दुःख और विनाश। वह उन्हें प्राप्त होगा ही)॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रियमाणे बलाद् धर्मे कुरुभिः को न संज्वरेत्।
असाम्ना केशवे याते समुद्योक्ष्यन्ति पाण्डवाः ॥ ८ ॥

मूलम्

क्रियमाणे बलाद् धर्मे कुरुभिः को न संज्वरेत्।
असाम्ना केशवे याते समुद्योक्ष्यन्ति पाण्डवाः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कौरवोंके द्वारा धर्म मानकर किये जानेवाले इस बलात् किसको चिन्ता नहीं होगी। भगवान् श्रीकृष्ण संधिके प्रयत्नमें असफल होकर गये हैं; अतः पाण्डव भी अब युद्धके लिये महान् उद्योग करेंगे॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः कुरूणामनयो भविता वीरनाशनः।
चिन्तयन् न लभे निद्रामहःसु च निशासु च ॥ ९ ॥

मूलम्

ततः कुरूणामनयो भविता वीरनाशनः।
चिन्तयन् न लभे निद्रामहःसु च निशासु च ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस प्रकार यह कौरवोंका अन्याय समस्त वीरोंका विनाश करनेवाला होगा। इन सब बातोंको सोचते हुए मुझे न तो दिनमें नींद आती है और न रातमें ही’॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा तु कुन्ती तद्वाक्यमर्थकामेन भाषितम्।
सा निःश्वसन्ती दुःखार्ता मनसा विममर्श ह ॥ १० ॥

मूलम्

श्रुत्वा तु कुन्ती तद्वाक्यमर्थकामेन भाषितम्।
सा निःश्वसन्ती दुःखार्ता मनसा विममर्श ह ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुरजीने उभय पक्षके हितकी इच्छासे ही यह बात कही थी। इसे सुनकर कुन्ती दुःखसे आतुर हो उठी और लम्बी साँस खींचती हुई मन-ही-मन इस प्रकार विचार करने लगी—॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धिगस्त्वर्थं यत्कृतेऽयं महान् ज्ञातिवधः कृतः।
वर्त्स्यते सुहृदां चैव युद्धेऽस्मिन् वै पराभवः ॥ ११ ॥

मूलम्

धिगस्त्वर्थं यत्कृतेऽयं महान् ज्ञातिवधः कृतः।
वर्त्स्यते सुहृदां चैव युद्धेऽस्मिन् वै पराभवः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अहो! इस धनको धिक्कार है, जिसके लिये परस्पर बन्धु-बान्धवोंका यह महान् संहार किया जानेवाला है। इस युद्धमें अपने सगे-सम्बन्धियोंका भी पराभव होगा ही॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवाश्चेदिपञ्चाला यादवाश्च समागताः ।
भारतैः सह योत्स्यन्ति किं नु दुःखमतः परम् ॥ १२ ॥

मूलम्

पाण्डवाश्चेदिपञ्चाला यादवाश्च समागताः ।
भारतैः सह योत्स्यन्ति किं नु दुःखमतः परम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डव, चेदि, पांचाल और यादव एकत्र होकर भरतवंशियोंके साथ युद्ध करेंगे, इससे बढ़कर दुःखकी बात और क्या हो सकती है?॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्ये दोषं ध्रुवं युद्धे तथायुद्धे पराभवम्।
अधनस्य मृतं श्रेयो न हि ज्ञातिक्षयो जयः ॥ १३ ॥

मूलम्

पश्ये दोषं ध्रुवं युद्धे तथायुद्धे पराभवम्।
अधनस्य मृतं श्रेयो न हि ज्ञातिक्षयो जयः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘युद्धमें निश्चय ही मुझे बड़ा भारी दोष दिखायी देता है; परंतु युद्ध न होनेपर भी पाण्डवोंका पराभव स्पष्ट है। निर्धन होकर मृत्युको वरण कर लेना अच्छा है; परंतु बन्धु-बान्धवोंका विनाश करके विजय पाना कदापि अच्छा नहीं है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति मे चिन्तयन्त्या वै हृदि दुःखं प्रवर्तते।
पितामहः शान्तनव आचार्यश्च युधां पतिः ॥ १४ ॥
कर्णश्च धार्तराष्ट्रार्थं वर्धयन्ति भयं मम।

मूलम्

इति मे चिन्तयन्त्या वै हृदि दुःखं प्रवर्तते।
पितामहः शान्तनव आचार्यश्च युधां पतिः ॥ १४ ॥
कर्णश्च धार्तराष्ट्रार्थं वर्धयन्ति भयं मम।

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह सब सोचकर मेरे हृदयमें बड़ा दुःख हो रहा है। शान्तनुनन्दन पितामह भीष्म, योद्धाओंमें श्रेष्ठ आचार्य द्रोण तथा कर्ण भी दुर्योधनके लिये ही युद्धभूमिमें उतरेंगे; अतः ये मेरे भयकी ही वृद्धि कर रहे हैं॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाचार्यः कामवान्‌ शिष्यैर्द्रोणो युद्ध्येत जातुचित् ॥ १५ ॥
पाण्डवेषु कथं हार्दं कुर्यान्न च पितामहः।

मूलम्

नाचार्यः कामवान्‌ शिष्यैर्द्रोणो युद्ध्येत जातुचित् ॥ १५ ॥
पाण्डवेषु कथं हार्दं कुर्यान्न च पितामहः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘आचार्य द्रोण तो सदा हमारे हितकी इच्छा रखनेवाले हैं। वे अपने शिष्योंके साथ कभी युद्ध नहीं कर सकते। इसी प्रकार पितामह भीष्म भी पाण्डवोंके प्रति हार्दिक स्नेह कैसे नहीं रखेंगे?॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं त्वेको वृथादृष्टिर्धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः ॥ १६ ॥
मोहानुवर्ती सततं पापो द्वेष्टि च पाण्डवान्।

मूलम्

अयं त्वेको वृथादृष्टिर्धार्तराष्ट्रस्य दुर्मतेः ॥ १६ ॥
मोहानुवर्ती सततं पापो द्वेष्टि च पाण्डवान्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतु यह एकमात्र मिथ्यादर्शी कर्ण मोहवश सदा दुर्बुद्धि दुर्योधनका ही अनुसरण करनेवाला है। इसीलिये यह पापात्मा सर्वदा पाण्डवोंसे द्वेष ही रखता है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महत्यनर्थे निर्बन्धी बलवांश्च विशेषतः ॥ १७ ॥
कर्णः सदा पाण्डवानां तन्मे दहति सम्प्रति।
आशंसे त्वद्य कर्णस्य मनोऽहं पाण्डवान् प्रति ॥ १८ ॥
प्रसादयितुमासाद्य दर्शयन्ती यथातथम् ।

मूलम्

महत्यनर्थे निर्बन्धी बलवांश्च विशेषतः ॥ १७ ॥
कर्णः सदा पाण्डवानां तन्मे दहति सम्प्रति।
आशंसे त्वद्य कर्णस्य मनोऽहं पाण्डवान् प्रति ॥ १८ ॥
प्रसादयितुमासाद्य दर्शयन्ती यथातथम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसने सदा पाण्डवोंका बड़ा भारी अनर्थ करनेके लिये हठ ठान लिया है। साथ ही कर्ण अत्यन्त बलवान् भी है। यह बात इस समय मेरे हृदयको दग्ध किये देती है। अच्छा, आज मैं कर्णके मनको पाण्डवोंके प्रति प्रसन्न करनेके लिये उसके पास जाऊँगी और यथार्थ सम्बन्धका परिचय देती हुई उससे बातचीत करूँगी॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तोषितो भगवान् यत्र दुर्वासा मे वरं ददौ ॥ १९ ॥
आह्वानं मन्त्रसंयुक्तं वसन्त्याः पितृवेश्मनि।
साहमन्तःपुरे राज्ञः कुन्तिभोजपुरस्कृता ॥ २० ॥
चिन्तयन्ती बहुविधं हृदयेन विदूयता।
बलाबलं च मन्त्राणां ब्राह्मणस्य च वाग्बलम् ॥ २१ ॥

मूलम्

तोषितो भगवान् यत्र दुर्वासा मे वरं ददौ ॥ १९ ॥
आह्वानं मन्त्रसंयुक्तं वसन्त्याः पितृवेश्मनि।
साहमन्तःपुरे राज्ञः कुन्तिभोजपुरस्कृता ॥ २० ॥
चिन्तयन्ती बहुविधं हृदयेन विदूयता।
बलाबलं च मन्त्राणां ब्राह्मणस्य च वाग्बलम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जब मैं पिताके घर रहती थी, उन्हीं दिनों अपनी सेवाओंद्वारा मैंने भगवान् दुर्वासाको संतुष्ट किया और उन्होंने मुझे यह वर दिया कि मन्त्रोच्चारणपूर्वक आवाहन करनेपर मैं किसी भी देवताको अपने पास बुला सकती हूँ। मेरे पिता कुन्तिभोज मेरा बड़ा आदर करते थे। मैं राजाके अन्तःपुरमें रहकर व्यथित हृदयसे मन्त्रोंके बलाबल और ब्राह्मणकी वाक्‌शक्तिके विषयमें अनेक प्रकारका विचार करने लगी॥१९—२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्त्रीभावाद् बालभावाच्च चिन्तयन्ती पुनः पुनः।
धात्र्या विस्रब्धया गुप्ता सखीजनवृता तदा ॥ २२ ॥

मूलम्

स्त्रीभावाद् बालभावाच्च चिन्तयन्ती पुनः पुनः।
धात्र्या विस्रब्धया गुप्ता सखीजनवृता तदा ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘स्त्री-स्वभाव और बाल्यावस्थाके कारण मैं बार-बार इस प्रश्नको लेकर चिन्तामग्न रहने लगी। उन दिनों एक विश्वस्त धाय मेरी रक्षा करती थी और सखियाँ मुझे सदा घेरे रहती थीं’॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दोषं परिहरन्ती च पितुश्चारित्र्यरक्षिणी।
कथं नु सुकृतं मे स्यान्नापराधवती कथम् ॥ २३ ॥
भवेयमिति संचिन्त्य ब्राह्मणं तं नमस्य च।
कौतूहलात् तु तं लब्ध्वा बालिश्यादाचरं तदा।
कन्या सती देवमर्कमासादयमहं ततः ॥ २४ ॥

मूलम्

दोषं परिहरन्ती च पितुश्चारित्र्यरक्षिणी।
कथं नु सुकृतं मे स्यान्नापराधवती कथम् ॥ २३ ॥
भवेयमिति संचिन्त्य ब्राह्मणं तं नमस्य च।
कौतूहलात् तु तं लब्ध्वा बालिश्यादाचरं तदा।
कन्या सती देवमर्कमासादयमहं ततः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं अपने ऊपर आनेवाले सब प्रकारके दोषोंका निवारण करती हुई पिताकी दृष्टिमें अपने सदाचारकी रक्षा करती रहती थी। मैंने सोचा, क्या करूँ, जिससे मुझे पुण्य हो और मैं अपराधिनी न होऊँ। यह सोचकर मैंने मन-ही-मन उन ब्राह्मणदेवताको नमस्कार किया और उस मन्त्रको पाकर कौतूहल तथा अविवेकके कारण मैंने उसका प्रयोग आरम्भ कर दिया। उसका परिणाम यह हुआ कि कन्यावस्थामें ही मुझे भगवान् सूर्यदेवका संयोग प्राप्त हुआ॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽसौ कानीनगर्भो मे पुत्रवत् परिरक्षितः।
कस्मान्न कुर्याद् वचनं पथ्यं भ्रातृहितं तथा ॥ २५ ॥

मूलम्

योऽसौ कानीनगर्भो मे पुत्रवत् परिरक्षितः।
कस्मान्न कुर्याद् वचनं पथ्यं भ्रातृहितं तथा ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो मेरा कानीन गर्भ है, इसे मैंने पुत्रकी भाँति अपने उदरमें पाला है। वह कर्ण अपने भाइयोंके हितके लिये कही हुई मेरी लाभदायक बात क्यों नहीं मानेगा?’॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति कुन्ती विनिश्चित्य कार्यनिश्चयमुत्तमम्।
कार्यार्थमभिनिश्चित्य ययौ भागीरथीं प्रति ॥ २६ ॥

मूलम्

इति कुन्ती विनिश्चित्य कार्यनिश्चयमुत्तमम्।
कार्यार्थमभिनिश्चित्य ययौ भागीरथीं प्रति ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार उत्तम कर्तव्यका निश्चय करके अभीष्ट प्रयोजनकी सिद्धिके लिये एक निर्णयपर पहुँचकर कुन्ती भागीरथी गंगाके तटपर गयी॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मजस्य ततस्तस्य घृणिनः सत्यसङ्गिनः।
गङ्गातीरे पृथाश्रौषीद् वेदाध्ययननिःस्वनम् ॥ २७ ॥

मूलम्

आत्मजस्य ततस्तस्य घृणिनः सत्यसङ्गिनः।
गङ्गातीरे पृथाश्रौषीद् वेदाध्ययननिःस्वनम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ गंगाके किनारे पहुँचकर कुन्तीने अपने दयालु और सत्यपरायण पुत्र कर्णके मुखसे वेदपाठकी गम्भीर ध्वनि सुनी॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राङ्‌मुखस्योर्ध्वबाहोः सा पर्यतिष्ठत पृष्ठतः।
जप्यावसानं कार्यार्थं प्रतीक्षन्ती तपस्विनी ॥ २८ ॥

मूलम्

प्राङ्‌मुखस्योर्ध्वबाहोः सा पर्यतिष्ठत पृष्ठतः।
जप्यावसानं कार्यार्थं प्रतीक्षन्ती तपस्विनी ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह अपनी दोनों बाँहें ऊपर उठाकर पूर्वाभिमुख हो जप कर रहा था और तपस्विनी कुन्ती उसके जपकी समाप्तिकी प्रतीक्षा करती हुई कार्यवश उसके पीछेकी ओर खड़ी रही॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिष्ठत् सूर्यतापार्ता कर्णस्योत्तरवाससि ।
कौरव्यपत्नी वार्ष्णेयी पद्ममालेव शुष्यती ॥ २९ ॥

मूलम्

अतिष्ठत् सूर्यतापार्ता कर्णस्योत्तरवाससि ।
कौरव्यपत्नी वार्ष्णेयी पद्ममालेव शुष्यती ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वृष्णिकुलनन्दिनी पाण्डुपत्नी कुन्ती वहाँ सूर्यदेवके तापसे पीड़ित हो कुम्हलाती हुई कमलमालाके समान कर्णके उत्तरीय वस्त्रकी छायामें खड़ी हो गयी॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आपृष्ठतापाज्जप्त्वा स परिवृत्य यतव्रतः।
दृष्ट्वा कुन्तीमुपातिष्ठदभिवाद्य कृताञ्जलिः ॥ ३० ॥

मूलम्

आपृष्ठतापाज्जप्त्वा स परिवृत्य यतव्रतः।
दृष्ट्वा कुन्तीमुपातिष्ठदभिवाद्य कृताञ्जलिः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जबतक सूर्यदेव पीठकी ओर ताप न देने लगे (जबतक वे पूर्वसे पश्चिमकी ओर चले नहीं गये); तबतक जप करके नियमपूर्वक व्रतका पालन करनेवाला कर्ण जब पीछेकी ओर घूमा, तब कुन्तीको सामने पाकर उसने हाथ जोड़कर प्रणाम किया और उनके पास खड़ा हो गया॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथान्यायं महातेजा मानी धर्मभृतां वरः।
उत्स्मयन् प्रणतः प्राह कुन्तीं वैकर्तनो वृषः ॥ ३१ ॥

मूलम्

यथान्यायं महातेजा मानी धर्मभृतां वरः।
उत्स्मयन् प्रणतः प्राह कुन्तीं वैकर्तनो वृषः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ, अभिमानी और महातेजस्वी सूर्यपुत्र कर्ण जिसका दूसरा नाम वृष भी था, कुन्तीको यथोचित रीतिसे प्रणाम करके मुसकराता हुआ बोला॥३१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि कुन्तीकर्णसमागमे चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें कुन्ती और कर्णका भेंटविषयक एक सौ चौवालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१४४॥