भागसूचना
एकोनचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
भीष्मसे वार्तालाप आरम्भ करके द्रोणाचार्यका दुर्योधनको पुनः संधिके लिये समझाना
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तु विमनास्तिर्यग्दृष्टिरधोमुखः ।
संहत्य च भ्रुवोर्मध्यं न किंचिद् व्याजहार ह ॥ १ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तु विमनास्तिर्यग्दृष्टिरधोमुखः ।
संहत्य च भ्रुवोर्मध्यं न किंचिद् व्याजहार ह ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! भीष्म और द्रोणाचार्यके इस प्रकार कहनेपर दुर्योधनका मन उदास हो गया। उसने टेढ़ी आँखोंसे देखकर और भौंहोंको बीचसे सिकोड़कर मुँह नीचा कर लिया। वह उन दोनोंसे कुछ बोला नहीं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं वै विमनसं दृष्ट्वा सम्प्रेक्ष्यान्योन्यमन्तिकात्।
पुनरेवोत्तरं वाक्यमुक्तवन्तौ नरर्षभौ ॥ २ ॥
मूलम्
तं वै विमनसं दृष्ट्वा सम्प्रेक्ष्यान्योन्यमन्तिकात्।
पुनरेवोत्तरं वाक्यमुक्तवन्तौ नरर्षभौ ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उसे उदास देख नरश्रेष्ठ भीष्म और द्रोण एक-दूसरेकी ओर देखते हुए उसके निकट ही पुनः इस प्रकार बात करने लगे॥२॥
मूलम् (वचनम्)
भीष्म उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
शुश्रूषुमनसूयं च ब्रह्मण्यं सत्यवादिनम्।
प्रतियोत्स्यामहे पार्थमतो दुःखतरं नु किम् ॥ ३ ॥
मूलम्
शुश्रूषुमनसूयं च ब्रह्मण्यं सत्यवादिनम्।
प्रतियोत्स्यामहे पार्थमतो दुःखतरं नु किम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भीष्म बोले— अहो! जो गुरुजनोंकी सेवाके लिये उत्सुक, किसीके भी दोष न देखनेवाले, ब्राह्मणभक्त और सत्यवादी हैं, उन्हीं युधिष्ठिरसे हमें युद्ध करना पड़ेगा; इससे बढ़कर महान् दुःखकी बात और क्या होगी?॥३॥
मूलम् (वचनम्)
द्रोण उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अश्वत्थाम्नि यथा पुत्रे भूयो मम धनंजये।
बहुमानः परो राजन् संनतिश्च कपिध्वजे ॥ ४ ॥
मूलम्
अश्वत्थाम्नि यथा पुत्रे भूयो मम धनंजये।
बहुमानः परो राजन् संनतिश्च कपिध्वजे ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
द्रोणाचार्यने कहा— राजन्! मेरा अपने पुत्र अश्वत्थामाके प्रति जैसा आदर है, उससे भी अधिक अर्जुनके प्रति है। कपिध्वज अर्जुनमें मेरे प्रति बहुत विनयभाव है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं च पुत्रात् प्रियतमं प्रतियोत्स्ये धनंजयम्।
क्षात्रं धर्ममनुष्ठाय धिगस्तु क्षत्रजीविकाम् ॥ ५ ॥
मूलम्
तं च पुत्रात् प्रियतमं प्रतियोत्स्ये धनंजयम्।
क्षात्रं धर्ममनुष्ठाय धिगस्तु क्षत्रजीविकाम् ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे पुत्रसे भी बढ़कर प्रियतम उन्हीं अर्जुनसे मुझे क्षत्रियधर्मका आश्रय लेकर युद्ध करना पड़ेगा। क्षात्र-वृत्तिको धिक्कार है!॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्य लोके समो नास्ति कश्चिदन्यो धनुर्धरः।
मत्प्रसादात् स बीभत्सुः श्रेयानन्यैर्धनुर्धरैः ॥ ६ ॥
मूलम्
यस्य लोके समो नास्ति कश्चिदन्यो धनुर्धरः।
मत्प्रसादात् स बीभत्सुः श्रेयानन्यैर्धनुर्धरैः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरी ही कृपासे अर्जुन अन्य धनुर्धरोंसे श्रेष्ठ हो गये हैं। इस समय जगत्में उनके समान दूसरा कोई धनुर्धर नहीं है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मित्रध्रुग् दुष्टभावश्च नास्तिकोऽथानृजुः शठः।
न सत्सु लभते पूजां यज्ञे मूर्ख इवागतः ॥ ७ ॥
मूलम्
मित्रध्रुग् दुष्टभावश्च नास्तिकोऽथानृजुः शठः।
न सत्सु लभते पूजां यज्ञे मूर्ख इवागतः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे यज्ञमें आया हुआ मूर्ख ब्राह्मण प्रतिष्ठा नहीं पाता, उसी प्रकार जो मित्रद्रोही, दुर्भावनायुक्त, नास्तिक, कुटिल और शठ है, वह सत्पुरुषोंमें कभी सम्मान नहीं पाता है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वार्यमाणोऽपि पापेभ्यः पापात्मा पापमिच्छति।
चोद्यमानोऽपि पापेन शुभात्मा शुभमिच्छति ॥ ८ ॥
मूलम्
वार्यमाणोऽपि पापेभ्यः पापात्मा पापमिच्छति।
चोद्यमानोऽपि पापेन शुभात्मा शुभमिच्छति ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पापात्मा मनुष्यको पापोंसे रोका जाय तो भी वह पाप ही करना चाहता है और जिसका हृदय शुभ संकल्पसे युक्त है, वह पुण्यात्मा पुरुष किसी पापीके द्वारा पापके लिये प्रेरित होनेपर भी शुभ कर्म करनेकी ही इच्छा रखता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मिथ्योपचरिता ह्येते वर्तमाना ह्यनु प्रिये।
अहितत्वाय कल्पन्ते दोषा भरतसत्तम ॥ ९ ॥
मूलम्
मिथ्योपचरिता ह्येते वर्तमाना ह्यनु प्रिये।
अहितत्वाय कल्पन्ते दोषा भरतसत्तम ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भरतश्रेष्ठ! तुमने पाण्डवोंके साथ सदा मिथ्या बर्ताव—छल-कपट ही किया है तो भी ये सदा तुम्हारा प्रिय करनेमें ही लगे रहे हैं। अतः तुम्हारे ये ईर्ष्या-द्वेष आदि दोष तुम्हारा ही अहित करनेवाले होंगे॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वमुक्तः कुरुवृद्धेन मया च विदुरेण च।
वासुदेवेन च तथा श्रेयो नैवाभिमन्यसे ॥ १० ॥
मूलम्
त्वमुक्तः कुरुवृद्धेन मया च विदुरेण च।
वासुदेवेन च तथा श्रेयो नैवाभिमन्यसे ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुरुकुलके वृद्ध पुरुष भीष्मजीने, मैंने, विदुरजीने तथा भगवान् श्रीकृष्णने भी तुमसे तुम्हारे कल्याणकी ही बात बतायी है; तथापि तुम उसे मान नहीं रहे हो॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्ति मे बलमित्येव सहसा त्वं तितीर्षसि।
सग्राहनक्रमकरं गङ्गावेगमिवोष्णगे ॥ ११ ॥
मूलम्
अस्ति मे बलमित्येव सहसा त्वं तितीर्षसि।
सग्राहनक्रमकरं गङ्गावेगमिवोष्णगे ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कोई अविवेकी मनुष्य वर्षाकालमें बढ़े हुए ग्राह और मकर आदि जलजन्तुओंसे युक्त गंगाजीके वेगको दोनों बाहुओंसे तैरना चाहता हो, उसी प्रकार तुम मेरे पास बल है, ऐसा समझकर पाण्डव-सेनाको सहसा लाँघ जानेकी इच्छा रखते हो॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
वास एव यथा त्यक्तं प्रावृण्वानोऽभिमन्यसे।
स्रजं त्यक्तामिव प्राप्य लोभाद् यौधिष्ठिरीं श्रियम् ॥ १२ ॥
मूलम्
वास एव यथा त्यक्तं प्रावृण्वानोऽभिमन्यसे।
स्रजं त्यक्तामिव प्राप्य लोभाद् यौधिष्ठिरीं श्रियम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जैसे कोई दूसरेका छोड़ा हुआ वस्त्र पहन ले और उसे अपना मानने लगे, उसी प्रकार तुम त्यागी हुई मालाकी भाँति युधिष्ठिरकी राजलक्ष्मीको पाकर अब उसे लोभवश अपनी समझते हो॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौपदीसहितं पार्थं सायुधैर्भ्रातृभिर्वृतम् ।
वनस्थमपि राज्यस्थः पाण्डवं को विजेष्यति ॥ १३ ॥
मूलम्
द्रौपदीसहितं पार्थं सायुधैर्भ्रातृभिर्वृतम् ।
वनस्थमपि राज्यस्थः पाण्डवं को विजेष्यति ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अपने अस्त्र-शस्त्रधारी भाइयोंसे घिरे हुए द्रौपदी-सहित पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर वनमें रहें तो भी उन्हें राज्यसिंहासनपर बैठा हुआ कौन नरेश युद्धमें जीत सकेगा?॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
निदेशे यस्य राजानः सर्वे तिष्ठन्ति किङ्कराः।
तमैलविलमासाद्य धर्मराजो व्यराजत ॥ १४ ॥
मूलम्
निदेशे यस्य राजानः सर्वे तिष्ठन्ति किङ्कराः।
तमैलविलमासाद्य धर्मराजो व्यराजत ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
समस्त राजा जिनकी आज्ञामें किंकरकी भाँति खड़े रहते हैं, उन्हीं राजराज कुबेरसे मिलकर धर्मराज युधिष्ठिर उनके साथ विराजमान हुए थे॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुबेरसदनं प्राप्य ततो रत्नान्यवाप्य च।
स्फीतमाक्रम्य ते राष्ट्रं राज्यमिच्छन्ति पाण्डवाः ॥ १५ ॥
मूलम्
कुबेरसदनं प्राप्य ततो रत्नान्यवाप्य च।
स्फीतमाक्रम्य ते राष्ट्रं राज्यमिच्छन्ति पाण्डवाः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुबेरके भवनमें जाकर उनसे भाँति-भाँतिके रत्न लेकर अब पाण्डव तुम्हारे समृद्धिशाली राष्ट्रपर आक्रमण करके अपना राज्य वापस लेना चाहते हैं॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दत्तं हुतमधीतं च ब्राह्मणास्तर्पिता धनैः।
आवयोर्गतमायुश्च कृतकृत्यौ च विद्धि नौ ॥ १६ ॥
मूलम्
दत्तं हुतमधीतं च ब्राह्मणास्तर्पिता धनैः।
आवयोर्गतमायुश्च कृतकृत्यौ च विद्धि नौ ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
हम दोनोंने तो दान, यज्ञ और स्वाध्याय कर लिये। धनसे ब्राह्मणोंको तृप्त कर लिया। अब हमारी आयु समाप्त हो चुकी है, अतः हमें तो तुम कृतकृत्य ही समझो॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं तु हित्वा सुखं राज्यं मित्राणि च धनानि च।
विग्रहं पाण्डवैः कृत्वा महद् व्यसनमाप्स्यसि ॥ १७ ॥
मूलम्
त्वं तु हित्वा सुखं राज्यं मित्राणि च धनानि च।
विग्रहं पाण्डवैः कृत्वा महद् व्यसनमाप्स्यसि ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
परंतु तुम पाण्डवोंसे युद्ध ठानकर सुख, राज्य, मित्र और धन सब कुछ खोकर बड़े भारी संकटमें पड़ जाओगे॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
द्रौपदी यस्य चाशास्ते विजयं सत्यवादिनी।
तपोघोरव्रता देवी कथं जेष्यसि पाण्डवम् ॥ १८ ॥
मूलम्
द्रौपदी यस्य चाशास्ते विजयं सत्यवादिनी।
तपोघोरव्रता देवी कथं जेष्यसि पाण्डवम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तपस्या एवं घोर व्रतका पालन करनेवाली सत्यवादिनी देवी द्रौपदी जिनकी विजयकी कामना करती है, उन पाण्डुनन्दन युधिष्ठिरको तुम कैसे जीत सकोगे?॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मन्त्री जनार्दनो यस्य भ्राता यस्य धनंजयः।
सर्वशस्त्रभृतां श्रेष्ठः कथं जेष्यसि पाण्डवम् ॥ १९ ॥
मूलम्
मन्त्री जनार्दनो यस्य भ्राता यस्य धनंजयः।
सर्वशस्त्रभृतां श्रेष्ठः कथं जेष्यसि पाण्डवम् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भगवान् श्रीकृष्ण जिनके मन्त्री और समस्त शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन जिनके भाई हैं, उन पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरको तुम कैसे जीतोगे?॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सहाया ब्राह्मणा यस्य धृतिमन्तो जितेन्द्रियाः।
तमुग्रतपसं वीरं कथं जेष्यसि पाण्डवम् ॥ २० ॥
मूलम्
सहाया ब्राह्मणा यस्य धृतिमन्तो जितेन्द्रियाः।
तमुग्रतपसं वीरं कथं जेष्यसि पाण्डवम् ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
धैर्यवान् और जितेन्द्रिय ब्राह्मण जिनके सहायक हैं, उन उग्र तपस्वी वीर पाण्डवको तुम कैसे जीत सकोगे?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनरुक्तं च वक्ष्यामि यत् कार्यं भूतिमिच्छता।
सुहृदा मज्जमानेषु सुहृत्सु व्यसनार्णवे ॥ २१ ॥
मूलम्
पुनरुक्तं च वक्ष्यामि यत् कार्यं भूतिमिच्छता।
सुहृदा मज्जमानेषु सुहृत्सु व्यसनार्णवे ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस समय अपने बहुत-से सुहृद् संकटके समुद्रमें डूब रहे हों, उस समय कल्याणकी इच्छा रखनेवाले एक सुहृद्का जो कर्तव्य है—उस अवसर-पर उसे जैसी बात कहनी चाहिये, वह यद्यपि पहले कही जा चुकी है, तथापि मैं उसे दुबारा कहूँगा॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अलं युद्धेन तैर्वीरैः शाम्य त्वं कुरुवृद्धये।
मा गमः ससुतामात्यः सबलश्च यमक्षयम् ॥ २२ ॥
मूलम्
अलं युद्धेन तैर्वीरैः शाम्य त्वं कुरुवृद्धये।
मा गमः ससुतामात्यः सबलश्च यमक्षयम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! युद्धसे तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा। तुम कुरुकुलकी वृद्धिके लिये उन वीर पाण्डवोंके साथ संधि कर लो। पुत्रों, मन्त्रियों तथा सेनाओंसहित यमलोकमें जानेकी तैयारी न करो॥२२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि भीष्मद्रोणवाक्ये एकोनचत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३९ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें भीष्म-द्रोणवाक्यविषयक एक सौ उनतालीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३९॥