१३८ भीष्मद्रोणवाक्ये

भागसूचना

अष्टात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भीष्म और द्रोणका दुर्योधनको समझाना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुन्त्यास्तु वचनं श्रुत्वा भीष्मद्रोणौ महारथौ।
दुर्योधनमिदं वाक्यमूचतुः शासनातिगम् ॥ १ ॥

मूलम्

कुन्त्यास्तु वचनं श्रुत्वा भीष्मद्रोणौ महारथौ।
दुर्योधनमिदं वाक्यमूचतुः शासनातिगम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कुन्तीका कथन सुनकर महारथी भीष्म और द्रोणने अपनी आज्ञाका उल्लंघन करनेवाले दुर्योधनसे इस प्रकार कहा—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतं ते पुरुषव्याघ्र कुन्त्याः कृष्णस्य संनिधौ।
वाक्यमर्थवदत्युग्रमुक्तं धर्म्यमनुत्तमम् ॥ २ ॥

मूलम्

श्रुतं ते पुरुषव्याघ्र कुन्त्याः कृष्णस्य संनिधौ।
वाक्यमर्थवदत्युग्रमुक्तं धर्म्यमनुत्तमम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पुरुषसिंह! कुन्तीने श्रीकृष्णके समीप जो अर्थयुक्त, धर्मसंगत, परम उत्तम एवं अत्यन्त भयंकर बात कही है, उसे तुमने भी सुना ही होगा॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत् करिष्यन्ति कौन्तेया वासुदेवस्य सम्मतम्।
न हि ते जातु शाम्येरन्नृते राज्येन कौरव ॥ ३ ॥

मूलम्

तत् करिष्यन्ति कौन्तेया वासुदेवस्य सम्मतम्।
न हि ते जातु शाम्येरन्नृते राज्येन कौरव ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुनन्दन! कुन्तीके पुत्र श्रीकृष्णकी सम्मतिके अनुसार वह सब कार्य करेंगे। अब राज्य लिये बिना वे कदापि शान्त नहीं रह सकते॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्लेशिता हि त्वया पार्था धर्मपाशसितास्तदा।
सभायां द्रौपदी चैव तैश्च तन्मर्षितं तव ॥ ४ ॥

मूलम्

क्लेशिता हि त्वया पार्था धर्मपाशसितास्तदा।
सभायां द्रौपदी चैव तैश्च तन्मर्षितं तव ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुमने द्यूतक्रीड़ाके समय धर्मके बन्धनमें बँधे हुए पाण्डवोंको तथा कौरवसभामें द्रौपदीको भी भारी क्लेश पहुँचाया था; किंतु उन्होंने तुम्हारा वह सब अपराध चुपचाप सह लिया॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृतास्त्रं ह्यर्जुनं प्राप्य भीमं च कृतनिश्चयम्।
गाण्डीवं चेषुधी चैव रथं च ध्वजमेव च ॥ ५ ॥
नकुलं सहदेवं च बलवीर्यसमन्वितौ।
सहायं वासुदेवं च न क्षंस्यति युधिष्ठिरः ॥ ६ ॥

मूलम्

कृतास्त्रं ह्यर्जुनं प्राप्य भीमं च कृतनिश्चयम्।
गाण्डीवं चेषुधी चैव रथं च ध्वजमेव च ॥ ५ ॥
नकुलं सहदेवं च बलवीर्यसमन्वितौ।
सहायं वासुदेवं च न क्षंस्यति युधिष्ठिरः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अब अस्त्रविद्यामें पारंगत अर्जुन और युद्धका दृढ़ निश्चय रखनेवाले भीमसेनको पाकर गाण्डीव धनुष, अक्षय बाणोंसे भरे हुए दो तरकस, दिव्य रथ और ध्वजको हस्तगत करके, बल और पराक्रमसे सम्पन्न नकुल और सहदेवको युद्धके लिये उद्यत देखकर तथा भगवान् श्रीकृष्णको भी अपनी सहायताके रूपमें पाकर युधिष्ठिर तुम्हारे पूर्व अपराधोंको क्षमा नहीं करेंगे॥५-६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्यक्षं ते महाबाहो यथा पार्थेन धीमता।
विराटनगरे पूर्वं सर्वे स्म युधि निर्जिताः ॥ ७ ॥

मूलम्

प्रत्यक्षं ते महाबाहो यथा पार्थेन धीमता।
विराटनगरे पूर्वं सर्वे स्म युधि निर्जिताः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! थोड़े ही दिनों पहलेकी बात है; परम बुद्धिमान् अर्जुनने विराटनगरके युद्धमें हम सब लोगोंको परास्त कर दिया था और वह सब घटना तुम्हारी आँखोंके सामने घटित हुई थी॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दानवा घोरकर्माणो निवातकवचा युधि।
रौद्रमस्त्रं समादाय दग्धा वानरकेतुना ॥ ८ ॥

मूलम्

दानवा घोरकर्माणो निवातकवचा युधि।
रौद्रमस्त्रं समादाय दग्धा वानरकेतुना ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कपिध्वज अर्जुनने युद्धमें भयंकर कर्म करनेवाले निवातकवच नामक दानवोंको रुद्रदेवतासम्बन्धी पाशुपत अस्त्र लेकर दग्ध कर डाला था॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कर्णप्रभृतयश्चेमे त्वं चापि कवची रथी।
मोक्षितो घोषयात्रायां पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ ९ ॥
प्रशाम्य भरतश्रेष्ठ भ्रातृभिः सह पाण्डवैः।

मूलम्

कर्णप्रभृतयश्चेमे त्वं चापि कवची रथी।
मोक्षितो घोषयात्रायां पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ ९ ॥
प्रशाम्य भरतश्रेष्ठ भ्रातृभिः सह पाण्डवैः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘घोषयात्राके समय ये कर्ण आदि योद्धा तुम्हारे साथ थे। तुम स्वयं भी रथ और कवच आदिसे सम्पन्न थे, तथापि अर्जुनने ही तुम्हें गन्धर्वोंके हाथसे छुड़ाया था। उनकी शक्तिको समझनेके लिये यही उदाहरण पर्याप्त होगा। अतः भरतश्रेष्ठ! तुम अपने ही भाई पाण्डवोंके साथ संधि कर लो॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रक्षेमां पृथिवीं सर्वां मृत्योर्दंष्ट्रान्तरं गताम् ॥ १० ॥
ज्येष्ठो भ्राता धर्मशीलो वत्सलः श्लक्ष्णवाक् कविः।
तं गच्छ पुरुषव्याघ्रं व्यपनीयेह किल्बिषम् ॥ ११ ॥

मूलम्

रक्षेमां पृथिवीं सर्वां मृत्योर्दंष्ट्रान्तरं गताम् ॥ १० ॥
ज्येष्ठो भ्राता धर्मशीलो वत्सलः श्लक्ष्णवाक् कविः।
तं गच्छ पुरुषव्याघ्रं व्यपनीयेह किल्बिषम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह सारी पृथ्वी मौतकी दाढ़ोंके बीचमें जा पहुँची है। तुम संधिके द्वारा इसकी रक्षा करो। तुम्हारे बड़े भाई युधिष्ठिर धर्मात्मा, दयालु, मधुरभाषी और विद्वान् हैं। तुम अपने मनका सारा कलुष यहीं धो-बहाकर उन पुरुषसिंह युधिष्ठिरकी शरणमें जाओ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृष्टश्च त्वं पाण्डवेन व्यपनीतशरासनः।
प्रशान्तभृकुटिः श्रीमान् कृता शान्तिः कुलस्य नः ॥ १२ ॥

मूलम्

दृष्टश्च त्वं पाण्डवेन व्यपनीतशरासनः।
प्रशान्तभृकुटिः श्रीमान् कृता शान्तिः कुलस्य नः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जब पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर यह देख लेंगे कि तुमने धनुष उतार दिया है और तुम्हारी टेढ़ी भौंहें शान्त एवं सीधी हो गयी हैं तथा तुम क्रोध त्यागकर अपनी सहज शोभासे सम्पन्न हो रहे हो, तब हमें विश्वास हो जायगा कि तुमने हमारे कुलमें शान्ति स्थापित कर दी॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमभ्येत्य सहामात्यः परिष्वज्य नृपात्मजम्।
अभिवादय राजानं यथापूर्वमरिंदम ॥ १३ ॥

मूलम्

तमभ्येत्य सहामात्यः परिष्वज्य नृपात्मजम्।
अभिवादय राजानं यथापूर्वमरिंदम ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुदमन! तुम अपने मन्त्रियोंके साथ पाण्डुकुमार राजा युधिष्ठिरके पास जाओ और पहलेहीकी भाँति उनके हृदयसे लगकर उन्हें प्रणाम करो॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिवादयमानं त्वां पाणिभ्यां भीमपूर्वजः।
प्रतिगृह्णातु सौहार्दात् कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ १४ ॥

मूलम्

अभिवादयमानं त्वां पाणिभ्यां भीमपूर्वजः।
प्रतिगृह्णातु सौहार्दात् कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भीमके बड़े भाई कुन्तीपुत्र युधिष्ठिर तुम्हें प्रणाम करते देख सौहार्दवश अपने दोनों हाथोंसे पकड़कर हृदयसे लगा लें॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिंहस्कन्धोरुबाहुस्त्वां वृत्तायतमहाभुजः ।
परिष्वजतु बाहुभ्यां भीमः प्रहरतां वरः ॥ १५ ॥

मूलम्

सिंहस्कन्धोरुबाहुस्त्वां वृत्तायतमहाभुजः ।
परिष्वजतु बाहुभ्यां भीमः प्रहरतां वरः ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिनके कंधे सिंहके समान और भुजाएँ बड़ी, गोलाकार तथा अधिक मोटी हैं, वे योद्धाओंमें श्रेष्ठ भीमसेन भी तुम्हें अपनी दोनों भुजाओंमें भरकर छातीसे चिपका लें॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कम्बुग्रीवो गुडाकेशस्ततस्त्वां पुष्करेक्षणः ।
अभिवादयतां पार्थः कुन्तीपुत्रो धनंजयः ॥ १६ ॥

मूलम्

कम्बुग्रीवो गुडाकेशस्ततस्त्वां पुष्करेक्षणः ।
अभिवादयतां पार्थः कुन्तीपुत्रो धनंजयः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शंखके समान ग्रीवा और कमलसदृश नेत्रोंवाले निद्राविजयी कुन्तीपुत्र धनंजय तुम्हें हाथ जोड़कर प्रणाम करें॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आश्विनेयौ नरव्याघ्रौ रूपेणाप्रतिमौ भुवि।
तौ च त्वां गुरुवत् प्रेम्णा पूजया प्रत्युदीयताम् ॥ १७ ॥

मूलम्

आश्विनेयौ नरव्याघ्रौ रूपेणाप्रतिमौ भुवि।
तौ च त्वां गुरुवत् प्रेम्णा पूजया प्रत्युदीयताम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस भूतलपर जिनके रूपकी कहीं तुलना नहीं है, वे अश्विनीकुमारोंके पुत्र नरश्रेष्ठ नकुल-सहदेव तुम्हारे प्रति गुरुजनोचित प्रेम और आदरका भाव लेकर तुम्हारी सेवामें उपस्थित हों॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुञ्चन्त्वानन्दजाश्रूणि दाशार्हप्रमुखा नृपाः ।
संगच्छ भ्रातृभिः सार्धं मानं संत्यज्य पार्थिव ॥ १८ ॥

मूलम्

मुञ्चन्त्वानन्दजाश्रूणि दाशार्हप्रमुखा नृपाः ।
संगच्छ भ्रातृभिः सार्धं मानं संत्यज्य पार्थिव ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भूपाल! तुम अभिमान छोड़कर अपने उन बिछुड़े हुए भाइयोंसे मिल जाओ और यह अपूर्व मिलन देखकर श्रीकृष्ण आदि सब नरेश अपने नेत्रोंसे आनन्दके आँसू बहावें॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रशाधि पृथिवीं कृत्स्नां ततस्त्वं भ्रातृभिः सह।
समालिङ्‌ग्य च हर्षेण नृपा यान्तु परस्परम् ॥ १९ ॥

मूलम्

प्रशाधि पृथिवीं कृत्स्नां ततस्त्वं भ्रातृभिः सह।
समालिङ्‌ग्य च हर्षेण नृपा यान्तु परस्परम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तदनन्तर तुम अपने भाइयोंके साथ इस सारी पृथ्वीका शासन करो और ये राजा लोग एक-दूसरेसे मिल-जुलकर हर्षपूर्वक यहाँसे पधारें॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलं युद्धेन राजेन्द्र सुहृदां शृणु वारणम्।
ध्रुवं विनाशो युद्धे हि क्षत्रियाणां प्रदृश्यते ॥ २० ॥

मूलम्

अलं युद्धेन राजेन्द्र सुहृदां शृणु वारणम्।
ध्रुवं विनाशो युद्धे हि क्षत्रियाणां प्रदृश्यते ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजेन्द्र! इस युद्धसे तुम्हें कोई लाभ नहीं होगा। तुम्हारे हितैषी सुहृद् जो तुम्हें युद्धसे रोकते हैं, उनकी वह बात सुनो और मानो; क्योंकि युद्ध छिड़ जानेपर क्षत्रियोंका निश्चय ही विनाश दिखायी दे रहा है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्योतींषि प्रतिकूलानि दारुणा मृगपक्षिणः।
उत्पाता विविधा वीर दृश्यन्ते क्षत्रनाशनाः ॥ २१ ॥

मूलम्

ज्योतींषि प्रतिकूलानि दारुणा मृगपक्षिणः।
उत्पाता विविधा वीर दृश्यन्ते क्षत्रनाशनाः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वीर! ग्रह और नक्षत्र प्रतिकूल हो रहे हैं। पशु और पक्षी भयंकर शब्द कर रहे हैं तथा नाना प्रकारके ऐसे उत्पात (अपशकुन) दिखायी देते हैं, जो क्षत्रियोंके विनाशकी सूचना देते हैं॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विशेषत इहास्माकं निमित्तानि निवेशने।
उल्काभिर्हि प्रदीप्ताभिर्बाध्यते पृतना तव ॥ २२ ॥

मूलम्

विशेषत इहास्माकं निमित्तानि निवेशने।
उल्काभिर्हि प्रदीप्ताभिर्बाध्यते पृतना तव ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विशेषतः यहाँ हमारे घरमें बुरे निमित्त दृष्टिगोचर होते हैं। जलती हुई उल्काएँ गिरकर तुम्हारी सेनाको पीड़ित कर रही हैं॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वाहनान्यप्रहृष्टानि रुदन्तीव विशाम्पते ।
गृध्रास्ते पर्युपासन्ते सैन्यानि च समन्ततः ॥ २३ ॥

मूलम्

वाहनान्यप्रहृष्टानि रुदन्तीव विशाम्पते ।
गृध्रास्ते पर्युपासन्ते सैन्यानि च समन्ततः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रजानाथ! हमारे सारे वाहन अप्रसन्न एवं रोते-से दिखायी देते हैं। गीध तुम्हारी सेनाओंको चारों ओरसे घेरकर बैठते हैं॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नगरं न यथापूर्वं तथा राजनिवेशनम्।
शिवाश्चाशिवनिर्घोषा दीप्तां सेवन्ति वै दिशम् ॥ २४ ॥

मूलम्

नगरं न यथापूर्वं तथा राजनिवेशनम्।
शिवाश्चाशिवनिर्घोषा दीप्तां सेवन्ति वै दिशम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस नगर तथा राजभवनकी शोभा अब पहले-जैसी नहीं रही। सारी दिशाएँ जलती-सी प्रतीत होती हैं और उनमें अमंगलसूचक शब्द करती हुई गीदड़ियाँ फिर रही हैं॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुरु वाक्यं पितुर्मातुरस्माकं च हितैषिणाम्।
त्वय्यायत्तो महाबाहो शमो व्यायाम एव च ॥ २५ ॥

मूलम्

कुरु वाक्यं पितुर्मातुरस्माकं च हितैषिणाम्।
त्वय्यायत्तो महाबाहो शमो व्यायाम एव च ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहो! तुम पिता, माता तथा हम हितैषियों-का कहना मानो। अब शान्तिस्थापन और युद्ध दोनों तुम्हारे ही अधीन हैं॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चेत् करिष्यसि वचः सुहृदामरिकर्शन।
तप्स्यसे वाहिनीं दृष्ट्वा पार्थबाणप्रपीडिताम् ॥ २६ ॥

मूलम्

न चेत् करिष्यसि वचः सुहृदामरिकर्शन।
तप्स्यसे वाहिनीं दृष्ट्वा पार्थबाणप्रपीडिताम् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुसूदन! यदि तुम सुहृदोंकी बातें नहीं मानोगे तो अपनी सेनाको अर्जुनके बाणोंसे अत्यन्त पीड़ित होती देखकर पछताओगे॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमस्य च महानादं नदतः शुष्मिणो रणे।
श्रुत्वा स्मर्तासि मे वाक्यं गाण्डीवस्य च निःस्वनम्।
यद्येतदपसव्यं ते वचो मम भविष्यति ॥ २७ ॥

मूलम्

भीमस्य च महानादं नदतः शुष्मिणो रणे।
श्रुत्वा स्मर्तासि मे वाक्यं गाण्डीवस्य च निःस्वनम्।
यद्येतदपसव्यं ते वचो मम भविष्यति ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि हमारी ये बातें तुम्हें विपरीत जान पड़ती हैं तो जिस समय युद्धमें गर्जना करनेवाले महाबली भीमसेनका विकट सिंहनाद और अर्जुनके गाण्डीव धनुषकी टंकार सुनोगे, उस समय तुम्हें ये बातें याद आयेंगी’॥२७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि भीष्मद्रोणवाक्ये अष्टात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें भीष्म-द्रोण-वाक्यविषयक एक सौ अड़तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३८॥