भागसूचना
सप्तत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
कुन्तीका पाण्डवोंके लिये संदेश देना और श्रीकृष्णका उनसे विदा लेकर उपप्लव्य नगरमें जाना
मूलम् (वचनम्)
कुन्त्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अर्जुनं केशव ब्रूयास्त्वयि जाते स्म सूतके।
उपोपविष्टा नारीभिराश्रमे परिवारिता ॥ १ ॥
अथान्तरिक्षे वागासीद् दिव्यरूपा मनोरमा।
सहस्राक्षसमः कुन्ति भविष्यत्येष ते सुतः ॥ २ ॥
मूलम्
अर्जुनं केशव ब्रूयास्त्वयि जाते स्म सूतके।
उपोपविष्टा नारीभिराश्रमे परिवारिता ॥ १ ॥
अथान्तरिक्षे वागासीद् दिव्यरूपा मनोरमा।
सहस्राक्षसमः कुन्ति भविष्यत्येष ते सुतः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्ती बोली— केशव! तुम अर्जुनसे जाकर कहना, तुम्हारे जन्मके समय जब मैं नारियोंसे घिरी हुई आश्रमके सूतिकागारमें बैठी थी, उसी समय आकाशमें यह दिव्यरूपा मनोरम वाणी सुनायी दी—‘कुन्ती! तेरा यह पुत्र इन्द्रके समान पराक्रमी होगा॥१-२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष जेष्यति संग्रामे कुरून् सर्वान् समागतान्।
भीमसेनद्वितीयश्च लोकमुद्वर्तयिष्यति ॥ ३ ॥
मूलम्
एष जेष्यति संग्रामे कुरून् सर्वान् समागतान्।
भीमसेनद्वितीयश्च लोकमुद्वर्तयिष्यति ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘यह भीमसेनके साथ रहकर युद्धमें आये हुए समस्त कौरवोंको जीत लेगा और शत्रु-समुदायको व्याकुल कर देगा॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुत्रस्ते पृथिवीं जेता यशश्चास्य दिवं स्पृशेत्।
हत्वा कुरूंश्च संग्रामे वासुदेवसहायवान् ॥ ४ ॥
पित्र्यमंशं प्रणष्टं च पुनरप्युद्धरिष्यति।
भ्रातृभिः सहितः श्रीमांस्त्रीन् मेधानाहरिष्यति ॥ ५ ॥
मूलम्
पुत्रस्ते पृथिवीं जेता यशश्चास्य दिवं स्पृशेत्।
हत्वा कुरूंश्च संग्रामे वासुदेवसहायवान् ॥ ४ ॥
पित्र्यमंशं प्रणष्टं च पुनरप्युद्धरिष्यति।
भ्रातृभिः सहितः श्रीमांस्त्रीन् मेधानाहरिष्यति ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तेरा यह पुत्र भगवान् श्रीकृष्णके साथ रहकर इस भूमण्डलको जीत लेगा, इसका यश स्वर्गलोकतक फैल जायगा और यह संग्राममें विपक्षी कौरवोंको मारकर अपने पैतृक राज्यभागका पुनरुद्धार करेगा। यह शोभासम्पन्न बालक अपने भाइयोंके साथ तीन अश्वमेधयज्ञोंका अनुष्ठान करेगा’॥४-५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स सत्यसंधो बीभत्सुः सव्यसाची यथाच्युत।
तथा त्वमेव जानासि बलवन्तं दुरासदम् ॥ ६ ॥
मूलम्
स सत्यसंधो बीभत्सुः सव्यसाची यथाच्युत।
तथा त्वमेव जानासि बलवन्तं दुरासदम् ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अच्युत! सव्यसाची अर्जुन जैसा सत्यप्रतिज्ञ है तथा उसमें जितना बल एवं दुर्जय शक्ति है, उसे तुम्हीं जानते हो॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तथा तदस्तु दाशार्ह यथा वागभ्यभाषत।
धर्मश्चेदस्ति वार्ष्णेय तथा सत्यं भविष्यति ॥ ७ ॥
मूलम्
तथा तदस्तु दाशार्ह यथा वागभ्यभाषत।
धर्मश्चेदस्ति वार्ष्णेय तथा सत्यं भविष्यति ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दशार्हकुलनन्दन श्रीकृष्ण! आकाशवाणीने जैसा कहा है, वैसा ही हो, यही मेरी भी इच्छा है। वृष्णिनन्दन! यदि धर्मकी सत्ता है तो वह सब उसी रूपमें सत्य होगा॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वं चापि तत् तथा कृष्ण सर्वं सम्पादयिष्यसि।
नाहं तदभ्यसूयामि यथा वागभ्यभाषत ॥ ८ ॥
मूलम्
त्वं चापि तत् तथा कृष्ण सर्वं सम्पादयिष्यसि।
नाहं तदभ्यसूयामि यथा वागभ्यभाषत ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! तुम स्वयं भी वह सब कुछ उसी रूपमें पूर्ण करोगे। आकाशवाणीने जैसा कहा है, उसमें मैं किसी दोषकी उद्भावना नहीं करती हूँ॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नमो धर्माय महते धर्मो धारयति प्रजाः।
एतद् धनंजयो वाच्यो नित्योद्युक्तो वृकोदरः ॥ ९ ॥
यदर्थं क्षत्रिया सूते तस्य कालोऽयमागतः।
न हि वैरं समासाद्य सीदन्ति पुरुषर्षभाः ॥ १० ॥
मूलम्
नमो धर्माय महते धर्मो धारयति प्रजाः।
एतद् धनंजयो वाच्यो नित्योद्युक्तो वृकोदरः ॥ ९ ॥
यदर्थं क्षत्रिया सूते तस्य कालोऽयमागतः।
न हि वैरं समासाद्य सीदन्ति पुरुषर्षभाः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं तो उस महान् धर्मको नमस्कार करती हूँ, क्योंकि धर्म ही समस्त प्रजाको धारण करता है। तुम अर्जुनसे तथा युद्धके लिये सदा उद्यत रहनेवाले भीमसेनसे भी जाकर कहना—‘क्षत्राणी जिसके लिये पुत्रको जन्म देती है, उसका यह उपयुक्त अवसर आ गया है। श्रेष्ठ मनुष्य किसीसे वैर ठन जानेपर उत्साहहीन नहीं होते’॥९-१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदिता ते सदा बुद्धिर्भीमस्य न स शाम्यति।
यावदन्तं न कुरुते शत्रूणां शत्रुकर्शन ॥ ११ ॥
मूलम्
विदिता ते सदा बुद्धिर्भीमस्य न स शाम्यति।
यावदन्तं न कुरुते शत्रूणां शत्रुकर्शन ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुदमन श्रीकृष्ण! तुम्हें भीमसेनका विचार तो सदासे ज्ञात ही है, वह जबतक शत्रुओंका अन्त नहीं कर लेगा, तबतक शान्त नहीं होगा॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वधर्मविशेषज्ञां स्नुषां पाण्डोर्महात्मनः ।
ब्रूया माधव कल्याणीं कृष्ण कृष्णां यशस्विनीम् ॥ १२ ॥
युक्तमेतन्महाभागे कुले जाते यशस्विनि।
यन्मे पुत्रेषु सर्वेषु यथावत् त्वमवर्तिथाः ॥ १३ ॥
मूलम्
सर्वधर्मविशेषज्ञां स्नुषां पाण्डोर्महात्मनः ।
ब्रूया माधव कल्याणीं कृष्ण कृष्णां यशस्विनीम् ॥ १२ ॥
युक्तमेतन्महाभागे कुले जाते यशस्विनि।
यन्मे पुत्रेषु सर्वेषु यथावत् त्वमवर्तिथाः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माधव! श्रीकृष्ण! तुम सब धर्मोंको विशेषरूपसे जाननेवाली महात्मा पाण्डुकी पुत्रवधू कल्याणमयी, यशस्विनी द्रौपदीसे कहना—‘बेटी! तू परम सौभाग्यशाली यशस्वी कुलमें उत्पन्न हुई है। तूने मेरे सभी पुत्रोंके साथ जो धर्मानुसार यथोचित बर्ताव किया है, यह तेरे ही योग्य है’॥१२-१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
माद्रीपुत्रौ च वक्तव्यौ क्षत्रधर्मरतावुभौ।
विक्रमेणार्जितान् भोगान् वृणीतं जीवितादपि ॥ १४ ॥
विक्रमाधिगता ह्यर्थाः क्षत्रधर्मेण जीवतः।
मनो मनुष्यस्य सदा प्रीणन्ति पुरुषोत्तम ॥ १५ ॥
मूलम्
माद्रीपुत्रौ च वक्तव्यौ क्षत्रधर्मरतावुभौ।
विक्रमेणार्जितान् भोगान् वृणीतं जीवितादपि ॥ १४ ॥
विक्रमाधिगता ह्यर्थाः क्षत्रधर्मेण जीवतः।
मनो मनुष्यस्य सदा प्रीणन्ति पुरुषोत्तम ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुरुषोत्तम! तदनन्तर क्षत्रियधर्ममें तत्पर रहनेवाले दोनों माद्रीकुमारोंसे भी मेरा यह संदेश कहना—‘वीरो! तुम प्राणोंकी बाजी लगाकर भी अपने पराक्रमसे प्राप्त हुए भोगोंका ही उपभोग करो। क्षत्रियधर्मसे निर्वाह करनेवाले मनुष्यके मनको पराक्रमद्वारा प्राप्त किये हुए पदार्थ ही सदा संतुष्ट रखते हैं॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यच्च वः प्रेक्षमाणानां सर्वधर्मोपचायिनाम्।
पाञ्चाली परुषाण्युक्ता को नु तत् क्षन्तुमर्हति ॥ १६ ॥
मूलम्
यच्च वः प्रेक्षमाणानां सर्वधर्मोपचायिनाम्।
पाञ्चाली परुषाण्युक्ता को नु तत् क्षन्तुमर्हति ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘पाण्डवो! सब प्रकारसे धर्मकी वृद्धि करनेवाले तुम सब लोगोंके देखते-देखते पांचालराजकुमारी द्रौपदीको जो कटुवचन सुनाये गये हैं, उन्हें कौन वीर क्षमा कर सकता है?’॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न राज्यहरणं दुःखं द्यूते चापि पराजयः।
प्रव्राजनं सुतानां वा न मे तद् दुःखकारणम् ॥ १७ ॥
यत्र सा बृहती श्यामा सभायां रुदती तदा।
अश्रौषीत् परुषा वाचस्तन्मे दुःखतरं महत् ॥ १८ ॥
मूलम्
न राज्यहरणं दुःखं द्यूते चापि पराजयः।
प्रव्राजनं सुतानां वा न मे तद् दुःखकारणम् ॥ १७ ॥
यत्र सा बृहती श्यामा सभायां रुदती तदा।
अश्रौषीत् परुषा वाचस्तन्मे दुःखतरं महत् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! मुझे राज्यके छिन जानेका उतना दुःख नहीं है। जुएमें हारने और पुत्रोंके वनवास होनेका भी मेरे मनमें उतना महान् दुःख नहीं है, परंतु भरी सभामें मेरी सुन्दरी युवती पुत्रवधू द्रौपदीने रोते हुए जो दुर्योधनके कटुवचन सुने थे, वही मेरे लिये महान् दुःखका कारण बन गया है॥१७-१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्त्रीधर्मिणी वरारोहा क्षत्रधर्मरता सदा।
नाध्यगच्छत् तदा नाथं कृष्णा नाथवती सती ॥ १९ ॥
मूलम्
स्त्रीधर्मिणी वरारोहा क्षत्रधर्मरता सदा।
नाध्यगच्छत् तदा नाथं कृष्णा नाथवती सती ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षत्रियधर्ममें सदा तत्पर रहनेवाली मेरी सर्वांग-सुन्दरी सती-साध्वी बहू कृष्णा उन दिनों रजस्वला अवस्थामें थी। वह सब प्रकारसे सनाथ थी, तो भी उस दिन कौरवसभामें उसे कोई रक्षक नहीं मिला (वह अनाथ-सी रोती हुई अपमान सह रही थी)॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तं वै ब्रूहि महाबाहो सर्वशस्त्रभृतां वरम्।
अर्जुनं पुरुषव्याघ्रं द्रौपद्याः पदवीं चर ॥ २० ॥
मूलम्
तं वै ब्रूहि महाबाहो सर्वशस्त्रभृतां वरम्।
अर्जुनं पुरुषव्याघ्रं द्रौपद्याः पदवीं चर ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महाबाहो! समस्त शस्त्रधारियोंमें श्रेष्ठ पुरुषसिंह अर्जुनसे कहना कि ‘तुम द्रौपदीके इच्छित पथपर चलो’॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विदितं हि तवात्यन्तं क्रुद्धाविव यमान्तकौ।
भीमार्जुनौ नयेतां हि देवानपि परां गतिम् ॥ २१ ॥
मूलम्
विदितं हि तवात्यन्तं क्रुद्धाविव यमान्तकौ।
भीमार्जुनौ नयेतां हि देवानपि परां गतिम् ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
श्रीकृष्ण! तुम तो अच्छी तरह जानते ही हो कि भीमसेन और अर्जुन कुपित हो जायँ तो वे यमराज तथा अन्तकके समान भयंकर हो जाते हैं और देवताओंको भी यमलोक पहुँचा सकते हैं॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तयोश्चैतदवज्ञानं यत् सा कृष्णा सभागता।
दुःशासनश्च यद् भीमं कटुकान्यभ्यभाषत ॥ २२ ॥
पश्यतां कुरुवीराणां तच्च संस्मारयेः पुनः।
मूलम्
तयोश्चैतदवज्ञानं यत् सा कृष्णा सभागता।
दुःशासनश्च यद् भीमं कटुकान्यभ्यभाषत ॥ २२ ॥
पश्यतां कुरुवीराणां तच्च संस्मारयेः पुनः।
अनुवाद (हिन्दी)
जुएके समय द्रौपदीको जो सभामें जाना पड़ा और कौरव वीरोंके सामने ही दुर्योधन और दुःशासनने जो उसे गालियाँ दीं, वह सब भीमसेन और अर्जुनका ही तिरस्कार है। मैं पुनः उसकी याद दिला देती हूँ॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पाण्डवान् कुशलं पृच्छेः सपुत्रान् कृष्णया सह ॥ २३ ॥
मां च कुशलिनीं ब्रूयास्तेषु भूयो जनार्दन।
अरिष्टं गच्छ पन्थानं पुत्रान् मे प्रतिपालय ॥ २४ ॥
मूलम्
पाण्डवान् कुशलं पृच्छेः सपुत्रान् कृष्णया सह ॥ २३ ॥
मां च कुशलिनीं ब्रूयास्तेषु भूयो जनार्दन।
अरिष्टं गच्छ पन्थानं पुत्रान् मे प्रतिपालय ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जनार्दन! तुम मेरी ओरसे द्रौपदी और पुत्रोंसहित पाण्डवोंसे कुशल पूछना और फिर मुझे भी सकुशल बताना। जाओ, तुम्हारा मार्ग मंगलमय हो, मेरे पुत्रोंकी रक्षा करना॥२३-२४॥
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिवाद्याथ तां कृष्णः कृत्वा चापि प्रदक्षिणम्।
निश्चक्राम महाबाहुः सिंहखेलगतिस्ततः ॥ २५ ॥
मूलम्
अभिवाद्याथ तां कृष्णः कृत्वा चापि प्रदक्षिणम्।
निश्चक्राम महाबाहुः सिंहखेलगतिस्ततः ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तदनन्तर महाबाहु श्रीकृष्णने कुन्तीदेवीको प्रणाम करके उनकी परिक्रमा भी की और फिर सिंहके समान मस्तानी चालसे वहाँसे निकल गये॥२५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो विसर्जयामास भीष्मादीन् कुरुपुङ्गवान्।
आरोप्याथ रथे कर्णं प्रायात् सात्यकिना सह ॥ २६ ॥
मूलम्
ततो विसर्जयामास भीष्मादीन् कुरुपुङ्गवान्।
आरोप्याथ रथे कर्णं प्रायात् सात्यकिना सह ॥ २६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर भीष्म आदि प्रधान कुरुवंशियोंको उन्होंने विदा कर दिया और कर्णको रथपर बिठाकर सात्यकिके साथ वहाँसे प्रस्थान किया॥२६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततः प्रयाते दाशार्हे कुरवः संगता मिथः।
जजल्पुर्महदाश्चर्यं केशवे परमाद्भुतम् ॥ २७ ॥
मूलम्
ततः प्रयाते दाशार्हे कुरवः संगता मिथः।
जजल्पुर्महदाश्चर्यं केशवे परमाद्भुतम् ॥ २७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दशार्हकुलभूषण श्रीकृष्णके चले जानेपर सब कौरव आपसमें मिले और उनके अत्यन्त अद्भुत एवं महान् आश्चर्यजनक बल-वैभवकी चर्चा करने लगे॥२७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रमूढा पृथिवी सर्वा मृत्युपाशवशीकृता।
दुर्योधनस्य बालिश्यान्नैतदस्तीति चाब्रुवन् ॥ २८ ॥
मूलम्
प्रमूढा पृथिवी सर्वा मृत्युपाशवशीकृता।
दुर्योधनस्य बालिश्यान्नैतदस्तीति चाब्रुवन् ॥ २८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे बोले—‘यह सारी पृथ्वी मृत्युपाशमें आबद्ध हो मोहाच्छन्न हो गयी है। जान पड़ता है, दुर्योधनकी मूर्खतासे इसका विनाश हो जायगा’॥२८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ततो निर्याय नगरात् प्रययौ पुरुषोत्तमः।
मन्त्रयामास च तदा कर्णेन सुचिरं सह ॥ २९ ॥
मूलम्
ततो निर्याय नगरात् प्रययौ पुरुषोत्तमः।
मन्त्रयामास च तदा कर्णेन सुचिरं सह ॥ २९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उधर पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण जब नगरसे निकलकर उपप्लव्यकी ओर चले, तब उन्होंने दीर्घकालतक कर्णके साथ मन्त्रणा की॥२९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विसर्जयित्वा राधेयं सर्वयादवनन्दनः ।
ततो जवेन महता तूर्णमश्वानचोदयत् ॥ ३० ॥
मूलम्
विसर्जयित्वा राधेयं सर्वयादवनन्दनः ।
ततो जवेन महता तूर्णमश्वानचोदयत् ॥ ३० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
फिर राधानन्दन कर्णको विदा करके सम्पूर्ण यदुकुलको आनन्दित करनेवाले श्रीकृष्णने तुरंत ही बड़े वेगसे अपने रथके घोड़े हँकवाये॥३०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते पिबन्त इवाकाशं दारुकेण प्रचोदिताः।
हया जग्मुर्महावेगा मनोमारुतरंहसः ॥ ३१ ॥
मूलम्
ते पिबन्त इवाकाशं दारुकेण प्रचोदिताः।
हया जग्मुर्महावेगा मनोमारुतरंहसः ॥ ३१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दारुकके हाँकनेपर वे महान् वेगशाली अश्व मन और वायुके समान तीव्र गतिसे आकाशको पीते हुए-से चले॥३१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते व्यतीत्य महाध्वानं क्षिप्रं श्येना इवाशुगाः।
उच्चैर्जग्मुरुपप्लव्यं शार्ङ्गधन्वानमावहन् ॥ ३२ ॥
मूलम्
ते व्यतीत्य महाध्वानं क्षिप्रं श्येना इवाशुगाः।
उच्चैर्जग्मुरुपप्लव्यं शार्ङ्गधन्वानमावहन् ॥ ३२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उन्होंने शीघ्रगामी बाज पक्षीकी भाँति उस विशाल पथको तुरंत ही तै कर लिया और शार्ङ्गधनुष धारण करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णको उपप्लव्य नगरमें पहुँचा दिया॥३२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि कुन्तीवाक्ये सप्तत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें कुन्तीवाक्यविषयक एक सौ सैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३७॥