भागसूचना
षट्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
विदुलाके उपदेशसे उसके पुत्रका युद्धके लिये उद्यत होना
मूलम् (वचनम्)
मातोवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव राज्ञा दरः कार्यो जातु कस्याञ्चिदापदि।
अथ चेदपि दीर्णः स्यान्नैव वर्तेत दीर्णवत् ॥ १ ॥
मूलम्
नैव राज्ञा दरः कार्यो जातु कस्याञ्चिदापदि।
अथ चेदपि दीर्णः स्यान्नैव वर्तेत दीर्णवत् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
माता बोली— पुत्र! कैसी भी आपत्ति क्यों न आ जाय, राजाको कभी भयभीत होना या घबराना नहीं चाहिये। यदि वह डरा हुआ हो तो भी डरे हुएके समान कोई बर्ताव न करे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
दीर्णं हि दृष्ट्वा राजानं सर्वमेवानुदीर्यते।
राष्ट्रं बलममात्याश्च पृथक् कुर्वन्ति ते मतीः ॥ २ ॥
मूलम्
दीर्णं हि दृष्ट्वा राजानं सर्वमेवानुदीर्यते।
राष्ट्रं बलममात्याश्च पृथक् कुर्वन्ति ते मतीः ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजाको भयभीत देखकर उसके पक्षके सभी लोग भयभीत हो जाते हैं। राज्यकी प्रजा, सेना और मन्त्री भी उससे भिन्न विचार रखने लगते हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शत्रूनेके प्रपद्यन्ते प्रजहत्यपरे पुनः।
अन्ये तु प्रजिहीर्षन्ति ये पुरस्ताद् विमानिताः ॥ ३ ॥
मूलम्
शत्रूनेके प्रपद्यन्ते प्रजहत्यपरे पुनः।
अन्ये तु प्रजिहीर्षन्ति ये पुरस्ताद् विमानिताः ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
उनमेंसे कुछ लोग तो उस राजाके शत्रुओंकी शरणमें चले जाते हैं, दूसरे लोग उसका त्यागमात्र कर देते हैं और कुछ लोग जो पहले राजाद्वारा अपमानित हुए होते हैं, वे उस अवस्थामें उसके ऊपर प्रहार करनेकी भी इच्छा कर लेते हैं॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
य एवात्यन्तसुहृदस्त एनं पर्युपासते।
अशक्तयः स्वस्तिकामा बद्धवत्सा इडा इव ॥ ४ ॥
मूलम्
य एवात्यन्तसुहृदस्त एनं पर्युपासते।
अशक्तयः स्वस्तिकामा बद्धवत्सा इडा इव ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो लोग अत्यन्त सुहृद् होते हैं, वे ही उस संकटके समय उस राजाके पास रह जाते हैं; परंतु वे भी असमर्थ होनेके कारण बँधे हुए बछड़ेवाली गायोंकी भाँति कुछ कर नहीं पाते, केवल मन-ही-मन उसकी मंगलकामना करते रहते हैं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शोचन्तमनुशोचन्ति पतितानिव बान्धवान् ।
अपि ते पूजिताः पूर्वमपि ते सुहृदो मताः ॥ ५ ॥
मूलम्
शोचन्तमनुशोचन्ति पतितानिव बान्धवान् ।
अपि ते पूजिताः पूर्वमपि ते सुहृदो मताः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो विपत्तिकी अवस्थामें शोक करते हुए राजाके साथ-साथ स्वयं भी वैसे ही शोकमग्न हो जाते हैं, मानो उनके कोई सगे भाई-बन्धु विपन्न हो गये हों, क्या ऐसे ही लोगोंको तूने सुहृद् माना है? क्या तूने भी पहले ऐसे सुहृदोंका सम्मान किया है?॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ये राष्ट्रमभिमन्यन्ते राज्ञो व्यसनमीयुषः।
मा दीदरस्त्वं सुहृदो मा त्वां दीर्णं प्रहासिषुः ॥ ६ ॥
मूलम्
ये राष्ट्रमभिमन्यन्ते राज्ञो व्यसनमीयुषः।
मा दीदरस्त्वं सुहृदो मा त्वां दीर्णं प्रहासिषुः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो संकटमें पड़े हुए राजाके राज्यको अपना ही मानकर उसकी तथा राजाकी रक्षाके लिये कृतसंकल्प होते हैं, ऐसे सुहृदोंको तू कभी अपनेसे विलग न कर और वे भी भयभीत अवस्थामें तेरा परित्याग न करें॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रभावं पौरुषं बुद्धिं जिज्ञासन्त्या मया तव।
विदधत्या समाश्वासमुक्तं तेजोविवृद्धये ॥ ७ ॥
मूलम्
प्रभावं पौरुषं बुद्धिं जिज्ञासन्त्या मया तव।
विदधत्या समाश्वासमुक्तं तेजोविवृद्धये ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं तेरे प्रभाव, पुरुषार्थ और बुद्धि-बलको जानना चाहती थी, अतः तुझे आश्वासन देते हुए तेरे तेज (उत्साह)-की वृद्धिके लिये मैंने उपर्युक्त बातें कही है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यदेतत् संविजानासि यदि सम्यग् ब्रवीम्यहम्।
कृत्वा सौम्यमिवात्मानं जयायोत्तिष्ठ संजय ॥ ८ ॥
मूलम्
यदेतत् संविजानासि यदि सम्यग् ब्रवीम्यहम्।
कृत्वा सौम्यमिवात्मानं जयायोत्तिष्ठ संजय ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
संजय! यदि मैं यह सब ठीक कह रही हूँ और यदि तू भी मेरी इन बातोंको ठीक समझ रहा है तो अपने-आपको उग्र-सा बनाकर विजयके लिये उठ खड़ा हो॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्ति नः कोशनिचयो महान् ह्यविदितस्तव।
तमहं वेद नान्यस्तमुपसम्पादयामि ते ॥ ९ ॥
मूलम्
अस्ति नः कोशनिचयो महान् ह्यविदितस्तव।
तमहं वेद नान्यस्तमुपसम्पादयामि ते ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अभी हमलोगोंके पास बड़ा भारी खजाना है जिसका तुझे पता नहीं है, उसे मैं ही जानती हूँ, दूसरा नहीं। वह खजाना मैं तुझे सौंपती हूँ॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सन्ति नैकतमा भूयः सुहृदस्तव संजय।
सुखदुःखसहा वीर संग्रामादनिवर्तिनः ॥ १० ॥
मूलम्
सन्ति नैकतमा भूयः सुहृदस्तव संजय।
सुखदुःखसहा वीर संग्रामादनिवर्तिनः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वीर संजय! अभी तो तेरे सैकड़ों सुहृद् हैं। वे सभी सुख-दुःखको सहन करनेवाले तथा युद्धसे पीछे न हटनेवाले हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तादृशा हि सहाया वै पुरुषस्य बुभूषतः।
इष्टं जिहीर्षतः किंचित् सचिवाः शत्रुकर्शन ॥ ११ ॥
मूलम्
तादृशा हि सहाया वै पुरुषस्य बुभूषतः।
इष्टं जिहीर्षतः किंचित् सचिवाः शत्रुकर्शन ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
शत्रुसूदन! जो पुरुष अपनी उन्नति चाहता है और शत्रुके हाथसे अपनी अभीष्ट सम्पत्तिको हर लाना चाहता है, उसके सहायक और मन्त्री पूर्वोक्त गुणोंसे युक्त सुहृद् हुआ करते हैं॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्यास्त्वीदृशकं वाक्यं श्रुत्वापि स्वल्पचेतसः।
तमस्त्वपागमत् तस्य सुचित्रार्थपदाक्षरम् ॥ १२ ॥
मूलम्
यस्यास्त्वीदृशकं वाक्यं श्रुत्वापि स्वल्पचेतसः।
तमस्त्वपागमत् तस्य सुचित्रार्थपदाक्षरम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
(कुन्ती बोली—) श्रीकृष्ण! संजयका हृदय यद्यपि बहुत दुर्बल था तो भी विदुलाका वह विचित्र अर्थ, पद और अक्षरोंसे युक्त वचन सुनकर उसका तमोगुणजनित भय और विषाद भाग गया॥१२॥
मूलम् (वचनम्)
पुत्र उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
उदके भूरियं धार्या मर्तव्यं प्रवणे मया।
यस्य मे भवती नेत्री भविष्यद्भूतिदर्शिनी ॥ १३ ॥
मूलम्
उदके भूरियं धार्या मर्तव्यं प्रवणे मया।
यस्य मे भवती नेत्री भविष्यद्भूतिदर्शिनी ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पुत्र बोला— माँ! मेरा यह राज्य शत्रुरूपी जलमें डूब गया है, अब मुझे इसका उद्धार करना है, नहीं तो युद्धमें शत्रुओंका सामना करते हुए अपने प्राणोंका विसर्जन कर देना है; जब मुझे भावी वैभवका दर्शन करानेवाली तुझ-जैसी संचालिका प्राप्त है, तब मुझमें ऐसा साहस होना ही चाहिये॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं हि वचनं त्वत्तः शुश्रूषुरपरापरम्।
किंचित् किंचित् प्रतिवदंस्तूष्णीमासं मुहुर्मुहुः ॥ १४ ॥
मूलम्
अहं हि वचनं त्वत्तः शुश्रूषुरपरापरम्।
किंचित् किंचित् प्रतिवदंस्तूष्णीमासं मुहुर्मुहुः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं बराबर तेरी नयी-नयी बातें सुनना चाहता था। इसीलिये बारंबार बीच-बीचमें कुछ-कुछ बोलकर फिर मौन हो जाता था॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अतृप्यन्नमृतस्येव कृच्छ्राल्लब्धस्य बान्धवात् ।
उद्यच्छाम्येष शत्रूणां नियमाय जयाय च ॥ १५ ॥
मूलम्
अतृप्यन्नमृतस्येव कृच्छ्राल्लब्धस्य बान्धवात् ।
उद्यच्छाम्येष शत्रूणां नियमाय जयाय च ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
तेरे ये अमृतके समान वचन बड़ी कठिनाईसे सुननेको मिले थे। उन्हें सुनकर मैं तृप्त नहीं होता था। यह देखो, अब मैं शत्रुओंका दमन और विजयकी प्राप्ति करनेके लिये बन्धु-बान्धवोंके साथ उद्योग कर रहा हूँ॥१५॥
मूलम् (वचनम्)
कुन्त्युवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सदश्व इव स क्षिप्तः प्रणुन्नो वाक्यसायकैः।
तच्चकार तथा सर्वं यथावदनुशासनम् ॥ १६ ॥
मूलम्
सदश्व इव स क्षिप्तः प्रणुन्नो वाक्यसायकैः।
तच्चकार तथा सर्वं यथावदनुशासनम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
कुन्ती कहती है— श्रीकृष्ण! माताके वाग्बाणोंसे बिधकर और तिरस्कृत होकर चाबुककी मार खाये हुए अच्छे घोड़ेके समान संजयने माताके उस समस्त उपदेशका यथावत्रूपसे पालन किया॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदमुद्धर्षणं भीमं तेजोवर्धनमुत्तमम् ।
राजानं श्रावयेन्मन्त्री सीदन्तं शत्रुपीडितम् ॥ १७ ॥
मूलम्
इदमुद्धर्षणं भीमं तेजोवर्धनमुत्तमम् ।
राजानं श्रावयेन्मन्त्री सीदन्तं शत्रुपीडितम् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह उत्तम उपाख्यान वीरोंके लिये अत्यन्त उत्साह-वर्धक और कायरोंके लिये भयंकर है। यदि कोई राजा शत्रुसे पीड़ित होकर दुःखी एवं हताश हो रहा हो तो मन्त्रीको चाहिये कि उसे यह प्रसंग सुनाये॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
जयो नामेतिहासोऽयं श्रोतव्यो विजिगीषुणा।
महीं विजयते क्षिप्रं श्रुत्वा शत्रूंश्च मर्दति ॥ १८ ॥
मूलम्
जयो नामेतिहासोऽयं श्रोतव्यो विजिगीषुणा।
महीं विजयते क्षिप्रं श्रुत्वा शत्रूंश्च मर्दति ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह जय नामक इतिहास है। विजयकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको इसका श्रवण करना चाहिये। इसे सुनकर युद्धमें जानेवाला राजा शीघ्र ही पृथ्वीपर विजय पाता और शत्रुओंको रौंद डालता है॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं पुंसवनं चैव वीराजननमेव च।
अभीक्ष्णं गर्भिणी श्रुत्वा ध्रुवं वीरं प्रजायते ॥ १९ ॥
मूलम्
इदं पुंसवनं चैव वीराजननमेव च।
अभीक्ष्णं गर्भिणी श्रुत्वा ध्रुवं वीरं प्रजायते ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह आख्यान पुत्रकी प्राप्ति करानेवाला है तथा साधारण पुरुषमें वीरभाव उत्पन्न करनेवाला है। यदि गर्भवती स्त्री इसे बारंबार सुने तो वह निश्चय ही वीर पुत्रको जन्म देती है॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विद्याशूरं तपःशूरं दानशूरं तपस्विनम्।
ब्राह्म्या श्रिया दीप्यमानं साधुवादे च सम्मतम् ॥ २० ॥
अर्चिष्मन्तं बलोपेतं महाभागं महारथम्।
धृतिमन्तमनाधृष्यं जेतारमपराजितम् ॥ २१ ॥
नियन्तारमसाधूनां गोप्तारं धर्मचारिणाम् ।
ईदृशं क्षत्रिया सूते वीरं सत्यपराक्रमम् ॥ २२ ॥
मूलम्
विद्याशूरं तपःशूरं दानशूरं तपस्विनम्।
ब्राह्म्या श्रिया दीप्यमानं साधुवादे च सम्मतम् ॥ २० ॥
अर्चिष्मन्तं बलोपेतं महाभागं महारथम्।
धृतिमन्तमनाधृष्यं जेतारमपराजितम् ॥ २१ ॥
नियन्तारमसाधूनां गोप्तारं धर्मचारिणाम् ।
ईदृशं क्षत्रिया सूते वीरं सत्यपराक्रमम् ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इसे सुनकर प्रत्येक क्षत्राणी विद्याशूर, तपःशूर, दानशूर, तपस्वी, ब्राह्मी शोभासे सम्पन्न, साधुवादके योग्य, तेजस्वी, बलवान्, परम सौभाग्यशाली, महारथी, धैर्यवान्, दुर्धर्ष विजयी, किसीसे भी पराजित न होनेवाले, दुष्टोंका दमन करनेवाले, धर्मात्माओंके रक्षक तथा सत्य-पराक्रमी वीर पुत्रको उत्पन्न करती है॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि विदुलापुत्रानुशासनसमाप्तौ षट्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३६ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें विदुलाके द्वारा पुत्रको दिये जानेवाले उपदेशका समाप्तिविषयक एक सौ छत्तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३६॥