१३५ विदुलापुत्रानुशासने

भागसूचना

पञ्चत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

विदुला और उसके पुत्रका संवाद—विदुलाके द्वारा कार्यमें सफलता प्राप्त करने तथा शत्रुवशीकरणके उपायोंका निर्देश

मूलम् (वचनम्)

पुत्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णायसस्येव च ते संहत्य हृदयं कृतम्।
मम मातस्त्वकरुणे वीरप्रज्ञे ह्यमर्षणे ॥ १ ॥

मूलम्

कृष्णायसस्येव च ते संहत्य हृदयं कृतम्।
मम मातस्त्वकरुणे वीरप्रज्ञे ह्यमर्षणे ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्र बोला— माँ! तेरा हृदय तो ऐसा जान पड़ता है, मानो काले लोहपिण्डको ठोक-पीटकर बनाया गया हो। तू मेरी माता होकर भी इतनी निर्दय है। तेरी बुद्धि वीरोंके समान है और तू सदा अमर्षमें भरी रहती है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहो क्षत्रसमाचारो यत्र मामितरं यथा।
नियोजयसि युद्धाय परमातेव मां तथा ॥ २ ॥

मूलम्

अहो क्षत्रसमाचारो यत्र मामितरं यथा।
नियोजयसि युद्धाय परमातेव मां तथा ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अहो! क्षत्रियोंका आचार-व्यवहार कैसा आश्चर्यजनक है, जिसमें स्थित होकर तू मुझे इस प्रकार युद्धमें लगा रही है, मानो मैं दूसरेका बेटा होऊँ और तू दूसरेकी माँ हो॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईदृशं वचनं ब्रूयाद् भवती पुत्रमेकजम्।
किं नु ते मामपश्यन्त्याः पृथिव्या अपि सर्वया ॥ ३ ॥

मूलम्

ईदृशं वचनं ब्रूयाद् भवती पुत्रमेकजम्।
किं नु ते मामपश्यन्त्याः पृथिव्या अपि सर्वया ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझ इकलौते पुत्रसे तू ऐसी निष्ठुर बात कहे, आश्चर्य है! मुझे न देखनेपर यह सारी पृथ्वी भी तुझे मिल जाय तो इससे तुझे क्या सुख मिलेगा?॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमाभरणकृत्येन किं भोगैर्जीवितेन वा।
मयि वा संगरहते प्रियपुत्रे विशेषतः ॥ ४ ॥

मूलम्

किमाभरणकृत्येन किं भोगैर्जीवितेन वा।
मयि वा संगरहते प्रियपुत्रे विशेषतः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं विशेषतः तेरा प्रिय पुत्र यदि युद्धमें मारा जाऊँ तो तुझे आभूषणोंसे, भोग-सामग्रियोंसे तथा अपने जीवनसे भी कौन-सा सुख प्राप्त होगा?॥४॥

मूलम् (वचनम्)

मातोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वावस्था हि विदुषां तात धर्मार्थकारणात्।
तावेवाभिसमीक्ष्याहं संजय त्वामचूचुदम् ॥ ५ ॥

मूलम्

सर्वावस्था हि विदुषां तात धर्मार्थकारणात्।
तावेवाभिसमीक्ष्याहं संजय त्वामचूचुदम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माता बोली— तात संजय! विद्वानोंकी सारी अवस्था भी धर्म और अर्थके निमित्त ही होती है। उन्हीं दोनोंकी ओर दृष्टि रखकर मैंने भी तुझे युद्धके लिये प्रेरित किया है॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स समीक्ष्यक्रमोपेतो मुख्यः कालोऽयमागतः।
अस्मिंश्चेदागते काले कार्यं न प्रतिपद्यसे ॥ ६ ॥
असम्भावितरूपस्त्वमानृशंस्यं करिष्यसि ।
तं त्वामयशसा स्मृष्टं न ब्रूयां यदि संजय ॥ ७ ॥
खरीवात्सल्यमाहुस्तन्निःसामर्थ्यमहेतुकम् ।
सद्भिर्विगर्हितं मार्गं त्यज मूर्खनिषेवितम् ॥ ८ ॥

मूलम्

स समीक्ष्यक्रमोपेतो मुख्यः कालोऽयमागतः।
अस्मिंश्चेदागते काले कार्यं न प्रतिपद्यसे ॥ ६ ॥
असम्भावितरूपस्त्वमानृशंस्यं करिष्यसि ।
तं त्वामयशसा स्मृष्टं न ब्रूयां यदि संजय ॥ ७ ॥
खरीवात्सल्यमाहुस्तन्निःसामर्थ्यमहेतुकम् ।
सद्भिर्विगर्हितं मार्गं त्यज मूर्खनिषेवितम् ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह तेरे लिये दर्शनीय पराक्रम करके दिखानेका मुख्य समय प्राप्त हुआ है। ऐसे समयमें भी यदि तू अपने कर्तव्यका पालन नहीं करेगा और तुझसे जैसी सम्भावना थी, उसके विपरीत स्वभावका परिचय देकर शत्रुओंके प्रति क्रूरतापूर्ण बर्ताव नहीं करेगा तो उस दशामें सब ओर तेरा अपयश फैल जायगा। संजय! ऐसे अवसरपर भी यदि मैं तुझे कुछ न कहूँ तो मेरा वह वात्सल्य गदहीके स्नेहके समान शक्तिहीन तथा निरर्थक होगा। अतः वत्स! साधु पुरुष जिसकी निन्दा करते हैं और मूर्ख मनुष्य ही जिसपर चलते हैं, उस मार्गको त्याग दे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविद्या वै महत्यस्ति यामिमां संश्रिताः प्रजाः।
तव स्याद् यदि सद्‌वृत्तं तेन मे त्वं प्रियो भवेः॥९॥

मूलम्

अविद्या वै महत्यस्ति यामिमां संश्रिताः प्रजाः।
तव स्याद् यदि सद्‌वृत्तं तेन मे त्वं प्रियो भवेः॥९॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रजाने जिसका आश्रय ले रखा है, वह तो बड़ी भारी अविद्या ही है। तू तो मुझे तभी प्रिय हो सकता है, जब तेरा आचरण सत्पुरुषोंके योग्य हो जाय॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मार्थगुणयुक्तेन नेतरेण कथंचन ।
दैवमानुषयुक्तेन सद्भिराचरितेन च ॥ १० ॥

मूलम्

धर्मार्थगुणयुक्तेन नेतरेण कथंचन ।
दैवमानुषयुक्तेन सद्भिराचरितेन च ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्म, अर्थ और गुणोंसे युक्त, देवलोक तथा मनुष्यलोकमें भी उपयोगी और सत्पुरुषोंद्वारा आचरणमें लाये हुए सत्कर्मसे ही तू मेरा प्रिय हो सकता है, इसके विपरीत असत्कर्मसे किसी प्रकार भी तू मुझे प्रिय नहीं हो सकता॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो ह्येवमविनीतेन रमते पुत्र नप्तृणा।
अनुत्थानवता चापि दुर्विनीतेन दुर्धिया ॥ ११ ॥
रमते यस्तु पुत्रेण मोघं तस्य प्रजाफलम्।
अकुर्वन्तो हि कर्माणि कुर्वन्तो निन्दितानि च ॥ १२ ॥
सुखं नैवेह नामुत्र लभन्ते पुरुषाधमाः।

मूलम्

यो ह्येवमविनीतेन रमते पुत्र नप्तृणा।
अनुत्थानवता चापि दुर्विनीतेन दुर्धिया ॥ ११ ॥
रमते यस्तु पुत्रेण मोघं तस्य प्रजाफलम्।
अकुर्वन्तो हि कर्माणि कुर्वन्तो निन्दितानि च ॥ १२ ॥
सुखं नैवेह नामुत्र लभन्ते पुरुषाधमाः।

अनुवाद (हिन्दी)

बेटा! जो इस प्रकार विनयशून्य एवं अशिक्षित पौत्रसे हर्षको प्राप्त होता है तथा उद्योगरहित, दुर्विनीत एवं दुर्बुद्धि पुत्रसे सुख मानता है, उसका संतानोत्पादन व्यर्थ है; क्योंकि वे अयोग्य पुत्र-पौत्र पहले तो कर्म ही नहीं करते हैं और यदि करते हैं तो निन्दित कर्म ही करते हैं, इससे वे अधम मनुष्य न तो इस लोकमें सुख पाते हैं और न परलोकमें ही॥११-१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युद्धाय क्षत्रियः सृष्टः संजयेह जयाय च ॥ १३ ॥
जयन् वा वध्यमानो वा प्राप्नोतीन्द्रसलोकताम्।
न शक्रभवने पुण्ये दिवि तद् विद्यते सुखम्।
यदमित्रान् वशे कृत्वा क्षत्रियः सुखमश्नुते ॥ १४ ॥

मूलम्

युद्धाय क्षत्रियः सृष्टः संजयेह जयाय च ॥ १३ ॥
जयन् वा वध्यमानो वा प्राप्नोतीन्द्रसलोकताम्।
न शक्रभवने पुण्ये दिवि तद् विद्यते सुखम्।
यदमित्रान् वशे कृत्वा क्षत्रियः सुखमश्नुते ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! इस लोकमें युद्ध एवं विजयके लिये ही विधाताने क्षत्रियकी सृष्टि की है। वह विजय प्राप्त करे या युद्धमें मारा जाय, सभी दशाओंमें उसे इन्द्रलोककी प्राप्ति होती है। पुण्यमय स्वर्गलोकके इन्द्रभवनमें भी वह सुख नहीं मिलता, जिसे क्षत्रिय वीर शत्रुओंको वशमें करके सानन्द अनुभव करता है॥१३-१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मन्युना दह्यमानेन पुरुषेण मनस्विना।
निकृतेनेह बहुशः शत्रून् प्रतिजिगीषया ॥ १५ ॥
आत्मानं वा परित्यज्य शत्रुं वा विनिपात्य च।
अतोऽन्येन प्रकारेण शान्तिरस्य कुतो भवेत् ॥ १६ ॥

मूलम्

मन्युना दह्यमानेन पुरुषेण मनस्विना।
निकृतेनेह बहुशः शत्रून् प्रतिजिगीषया ॥ १५ ॥
आत्मानं वा परित्यज्य शत्रुं वा विनिपात्य च।
अतोऽन्येन प्रकारेण शान्तिरस्य कुतो भवेत् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतएव जो मनस्वी क्षत्रिय अनेक बार पराजित हो क्रोधसे दग्ध हो रहा हो, वह अवश्य ही विजयकी इच्छासे शत्रुओंपर आक्रमण करे। फिर तो वह अपने शरीरका परित्याग करके अथवा शत्रुको मार गिराकर ही शान्ति लाभ करता है। इसके सिवा दूसरे किसी प्रकारसे उसे कैसे शान्ति प्राप्त हो सकती है?॥१५-१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इह प्राज्ञो हि पुरुषः स्वल्पमप्रियमिच्छति।
यस्य स्वल्पं प्रियं लोके ध्रुवं तस्याल्पमप्रियम् ॥ १७ ॥

मूलम्

इह प्राज्ञो हि पुरुषः स्वल्पमप्रियमिच्छति।
यस्य स्वल्पं प्रियं लोके ध्रुवं तस्याल्पमप्रियम् ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बुद्धिमान् पुरुष इस जगत्‌में अत्यन्त अल्पमात्रामें अप्रियकी इच्छा करता है। लोकमें जिसका प्रिय अल्प होता है, उसका अप्रिय भी निश्चय ही अल्प होगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रियाभावाच्च पुरुषो नैव प्राप्नोति शोभनम्।
ध्रुवं चाभावमभ्येति गत्वा गङ्गेव सागरम् ॥ १८ ॥

मूलम्

प्रियाभावाच्च पुरुषो नैव प्राप्नोति शोभनम्।
ध्रुवं चाभावमभ्येति गत्वा गङ्गेव सागरम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

प्रियके अभावमें मनुष्यकी शोभा नहीं होती है। जैसे गंगा समुद्रमें जाकर विलुप्त हो जाती है, उसी प्रकार वह अभावग्रस्त पुरुष भी निश्चय ही लुप्त हो जाता है॥

मूलम् (वचनम्)

पुत्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नेयं मतिस्त्वया वाच्या मातः पुत्रे विशेषतः।
कारुण्यमेवात्र पश्य भूत्वेह जडमूकवत् ॥ १९ ॥

मूलम्

नेयं मतिस्त्वया वाच्या मातः पुत्रे विशेषतः।
कारुण्यमेवात्र पश्य भूत्वेह जडमूकवत् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्रने कहा— माँ! तुझे अपने मुखसे ऐसा विचार नहीं व्यक्त करना चाहिये, अतः तुम जड और मूककी भाँति होकर मुझ अपने पुत्रको विशेषरूपसे करुणापूर्ण दृष्टिसे ही देखो॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

मातोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतो मे भूयसी नन्दिर्यदेवमनुपश्यसि।
चोद्यं मां चोदयस्येतद् भृशं वै चोदयामि ते ॥ २० ॥

मूलम्

अतो मे भूयसी नन्दिर्यदेवमनुपश्यसि।
चोद्यं मां चोदयस्येतद् भृशं वै चोदयामि ते ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माता बोली— तेरे इस कथनसे मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई है। तू इस प्रकार विचार तो करता है। मुझे मेरे कर्तव्य (पुत्रपर दयादृष्टि करने)-की प्रेरणा दे रहा है, इसीलिये मैं भी तुझे बार-बार तेरा कर्तव्य सुझा रही हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ त्वां पूजयिष्यामि हत्वा वै सर्वसैन्धवान्।
अहं पश्यामि विजयं कृच्छ्रभावितमेव ते ॥ २१ ॥

मूलम्

अथ त्वां पूजयिष्यामि हत्वा वै सर्वसैन्धवान्।
अहं पश्यामि विजयं कृच्छ्रभावितमेव ते ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब तू सिन्धुदेशके समस्त योद्धाओंको मारकर आयेगा, उस समय मैं तेरा स्वागत करूँगी। मुझे विश्वास है कि बड़े कष्टसे प्राप्त होनेवाली तेरी विजय मैं अवश्य देखूँगी॥२१॥

मूलम् (वचनम्)

पुत्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकोशस्यासहायस्य कुतः सिद्धिर्जयो मम।
इत्यवस्थां विदित्वैतामात्मनाऽऽत्मनि दारुणाम् ॥ २२ ॥
राज्याद् भावो निवृत्तो मे त्रिदिवादिव दुष्कृतेः।
ईदृशं भवती कंचिदुपायमनुपश्यति ॥ २३ ॥

मूलम्

अकोशस्यासहायस्य कुतः सिद्धिर्जयो मम।
इत्यवस्थां विदित्वैतामात्मनाऽऽत्मनि दारुणाम् ॥ २२ ॥
राज्याद् भावो निवृत्तो मे त्रिदिवादिव दुष्कृतेः।
ईदृशं भवती कंचिदुपायमनुपश्यति ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुत्र बोला— माँ! मेरे पास न तो खजाना है और न सहायता करनेवाले सैनिक ही हैं, फिर मुझे विजयरूप अभीष्टकी सिद्धि कैसे प्राप्त होगी? अपनी इस दारुण अवस्थाके विषयमें स्वयं ही विचार करके मैंने राज्यकी ओरसे अपना अनुराग उसी प्रकार दूर हटा लिया है, जैसे स्वर्गकी ओरसे पापीका भाव हट जाता है। क्या तू ऐसा कोई उपाय देख रही है, जिससे मैं विजय पा सकूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तन्मे परिणतप्रज्ञे सम्यक् प्रब्रूहि पृच्छते।
करिष्यामि हि तत् सर्वं यथावदनुशासनम् ॥ २४ ॥

मूलम्

तन्मे परिणतप्रज्ञे सम्यक् प्रब्रूहि पृच्छते।
करिष्यामि हि तत् सर्वं यथावदनुशासनम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परिपक्व बुद्धिवाली माँ! मेरे इस प्रश्नके अनुसार तू कोई उत्तम उपाय बता दे। मैं तेरे सम्पूर्ण आदेशोंका यथोचित रीतिसे पालन करूँगा॥२४॥

मूलम् (वचनम्)

मातोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुत्र नात्मावमन्तव्यः पूर्वाभिरसमृद्धिभिः ।
अभूत्वा हि भवन्त्यर्था भूत्वा नश्यन्ति चापरे।
अमर्षेणैव चाप्यर्था नारब्धव्याः सुबालिशैः ॥ २५ ॥

मूलम्

पुत्र नात्मावमन्तव्यः पूर्वाभिरसमृद्धिभिः ।
अभूत्वा हि भवन्त्यर्था भूत्वा नश्यन्ति चापरे।
अमर्षेणैव चाप्यर्था नारब्धव्याः सुबालिशैः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माता बोली— बेटा! पहलेकी सम्पत्ति नष्ट हो गयी है—यह सोचकर तुझे अपनी अवज्ञा नहीं करनी चाहिये, क्योंकि धन-वैभव तो नष्ट होकर पुनः प्राप्त हो जाते हैं और प्राप्त होकर भी फिर नष्ट हो जाते हैं; अतः बुद्धिहीन पुरुषोंको ईर्ष्यावश ही धनकी प्राप्तिके लिये कर्मोंका आरम्भ नहीं करना चाहिये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वेषां कर्मणां तात फले नित्यमनित्यता।
अनित्यमिति जानन्तो न भवन्ति भवन्ति च ॥ २६ ॥

मूलम्

सर्वेषां कर्मणां तात फले नित्यमनित्यता।
अनित्यमिति जानन्तो न भवन्ति भवन्ति च ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! सभी कर्मोंके फलमें सदा अनित्यता रहती है—कभी उनका फल मिलता है और कभी नहीं भी मिलता है। इस अनित्यताको जानते हुए भी बुद्धिमान् पुरुष कर्म करते हैं और वे कभी असफल होते हैं, तो कभी सफल भी हो जाते हैं॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ ये नैव कुर्वन्ति नैव जातु भवन्ति ते।
ऐकगुण्यमनीहायामभावः कर्मणां फलम् ॥ २७ ॥
अथ द्वैगुण्यमीहायां फलं भवति वा न वा।

मूलम्

अथ ये नैव कुर्वन्ति नैव जातु भवन्ति ते।
ऐकगुण्यमनीहायामभावः कर्मणां फलम् ॥ २७ ॥
अथ द्वैगुण्यमीहायां फलं भवति वा न वा।

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु जो कर्मोंका आरम्भ ही नहीं करते, वे तो कभी अपने अभीष्टकी सिद्धिमें सफल नहीं होते, अतः कर्मोंको छोड़कर निश्चेष्ट बैठनेका यह एक ही परिणाम होता है कि मनुष्योंको कभी अभीष्ट मनोरथकी प्राप्ति नहीं हो सकती। परंतु कर्मोंमें उत्साहपूर्वक लगे रहनेपर तो दोनों प्रकारके परिणामोंकी सम्भावना रहती है—कर्मोंका वांछनीय फल प्राप्त भी हो सकता है और नहीं भी॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य प्रागेव विदिता सर्वार्थानामनित्यता ॥ २८ ॥
नुदेद् वृद्ध्यसमृद्धी स प्रतिकूले नृपात्मज।

मूलम्

यस्य प्रागेव विदिता सर्वार्थानामनित्यता ॥ २८ ॥
नुदेद् वृद्ध्यसमृद्धी स प्रतिकूले नृपात्मज।

अनुवाद (हिन्दी)

राजकुमार! जिसे पहलेसे ही सभी पदार्थोंकी अनित्यताका ज्ञान होता है, वह ज्ञानी पुरुष अपने प्रतिकूल शत्रुकी उन्नति और अपनी अवनतिसे प्राप्त हुए दुःखका विचारद्वारा निवारण कर सकता है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्थातव्यं जागृतव्यं योक्तव्यं भूतिकर्मसु ॥ २९ ॥
भविष्यतीत्येव मनः कृत्वा सततमव्यथैः।

मूलम्

उत्थातव्यं जागृतव्यं योक्तव्यं भूतिकर्मसु ॥ २९ ॥
भविष्यतीत्येव मनः कृत्वा सततमव्यथैः।

अनुवाद (हिन्दी)

सफलता होगी ही, ऐसा मनमें दृढ़ विश्वास लेकर निरन्तर विषादरहित होकर तुझे उठना, सजग होना और ऐश्वर्यकी प्राप्ति करानेवाले कर्मोंमें लग जाना चाहिये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मङ्गलानि पुरस्कृत्य ब्राह्मणांश्चेश्वरैः सह ॥ ३० ॥
प्राज्ञस्य नृपतेराशु वृद्धिर्भवति पुत्रक।
अभिवर्तति लक्ष्मीस्तं प्राचीमिव दिवाकरः ॥ ३१ ॥

मूलम्

मङ्गलानि पुरस्कृत्य ब्राह्मणांश्चेश्वरैः सह ॥ ३० ॥
प्राज्ञस्य नृपतेराशु वृद्धिर्भवति पुत्रक।
अभिवर्तति लक्ष्मीस्तं प्राचीमिव दिवाकरः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वत्स! देवताओंसहित ब्राह्मणोंका पूजन तथा अन्यान्य मांगलिक कार्य सम्पन्न करके प्रत्येक कार्यका आरम्भ करनेवाले बुद्धिमान् राजाकी शीघ्र उन्नति होती है। जैसे सूर्य अवश्य ही पूर्वदिशाका आश्रय ले उसे प्रकाशित करते हैं, उसी प्रकार राजलक्ष्मी पूर्वोक्त राजाको सब ओरसे प्राप्त होकर उसे यश एवं तेजसे सम्पन्न कर देती है॥३०-३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निदर्शनान्युपायांश्च बहून्युद्धर्षणानि च ।
अनुदर्शितरूपोऽसि पश्यामि कुरु पौरुषम् ॥ ३२ ॥

मूलम्

निदर्शनान्युपायांश्च बहून्युद्धर्षणानि च ।
अनुदर्शितरूपोऽसि पश्यामि कुरु पौरुषम् ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेटा! मैंने तुझे अनेक प्रकारके दृष्टान्त, बहुत-से उपाय और कितने ही उत्साहजनक वचन सुनाये हैं। लोकवृत्तान्तका भी बारंबार दिग्दर्शन कराया है। अब तू पुरुषार्थ कर। मैं तेरा पराक्रम देखूँगी॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरुषार्थमभिप्रेतं समाहर्तुमिहार्हसि ।
क्रुद्धाल्ँलुब्धान्‌ परिक्षीणानवलिप्तान् विमानितान् ॥ ३३ ॥
स्पर्धिनश्चैव ये केचित् तान् युक्त उपधारय।
एतेन त्वं प्रकारेण महतो भेत्स्यसे गणान् ॥ ३४ ॥
महावेग इवोद्भूतो मातरिश्वा बलाहकान्।

मूलम्

पुरुषार्थमभिप्रेतं समाहर्तुमिहार्हसि ।
क्रुद्धाल्ँलुब्धान्‌ परिक्षीणानवलिप्तान् विमानितान् ॥ ३३ ॥
स्पर्धिनश्चैव ये केचित् तान् युक्त उपधारय।
एतेन त्वं प्रकारेण महतो भेत्स्यसे गणान् ॥ ३४ ॥
महावेग इवोद्भूतो मातरिश्वा बलाहकान्।

अनुवाद (हिन्दी)

तुझे यहाँ अभीष्ट पुरुषार्थ प्रकट करना चाहिये। जो लोग सिन्धुराजपर कुपित हों, जिनके मनमें धनका लोभ हो, जो सिन्धुनरेशके आक्रमणसे सर्वथा क्षीण हो गये हों, जिन्हें अपने बल और पौरुषपर गर्व हो तथा जो तेरे शत्रुओंद्वारा अपमानित हों उनसे बदला लेनेके लिये होड़ लगाये बैठे हों, उन सबको तू सावधान होकर दान-मानके द्वारा अपने पक्षमें कर ले। इस प्रकार तू बड़े-से-बड़े समुदायको फोड़ लेगा। ठीक उसी तरह, जैसे महान् वेगशाली वायु वेगपूर्वक उठकर बादलोंको छिन्न-भिन्न कर देती है॥३३-३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषामग्रप्रदायी स्याः कल्योत्थायी प्रियंवदः ॥ ३५ ॥
ते त्वां प्रियं करिष्यन्ति पुरो धास्यन्ति च ध्रुवम्।

मूलम्

तेषामग्रप्रदायी स्याः कल्योत्थायी प्रियंवदः ॥ ३५ ॥
ते त्वां प्रियं करिष्यन्ति पुरो धास्यन्ति च ध्रुवम्।

अनुवाद (हिन्दी)

तू उन्हें अग्रिम वेतन दे दिया कर। प्रतिदिन प्रातःकाल सोकर उठ जा और सबके साथ प्रिय वचन बोल। ऐसा करनेसे वे अवश्य तेरा प्रिय करेंगे और निश्चय ही तुझे अपना अगुआ बना लेंगे॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदैव शत्रुर्जानीयात् सपत्नं त्यक्तजीवितम्।
तदैवास्मादुद्विजते सर्पाद् वेश्मगतादिव ॥ ३६ ॥

मूलम्

यदैव शत्रुर्जानीयात् सपत्नं त्यक्तजीवितम्।
तदैवास्मादुद्विजते सर्पाद् वेश्मगतादिव ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

शत्रुको ज्यों ही यह मालूम हो जाता है कि उसका विपक्षी प्राणोंका मोह छोड़कर युद्ध करनेके लिये तैयार है, तभी घरमें रहनेवाले सर्पकी भाँति उसके भयसे वह उद्विग्न हो उठता है॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं विदित्वा पराक्रान्तं वशे न कुरुते यदि।
निर्वादैर्निर्वदेदेनमन्ततस्तद् भविष्यति ॥ ३७ ॥

मूलम्

तं विदित्वा पराक्रान्तं वशे न कुरुते यदि।
निर्वादैर्निर्वदेदेनमन्ततस्तद् भविष्यति ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि शत्रुको पराक्रमसम्पन्न जानकर अपनी असमर्थताके कारण उसे वशमें न कर सके तो उसे विश्वसनीय दूतोंद्वारा साम एवं दान नीतिका प्रयोग करके अनुकूल बना ले (जिससे वह आक्रमण न करके शान्त बैठा रहे)। ऐसा करनेसे अन्ततोगत्वा उसका वशीकरण हो जायगा॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निर्वादादास्पदं लब्ध्वा धनवृद्धिर्भविष्यति ।
धनवन्तं हि मित्राणि भजन्ते चाश्रयन्ति च ॥ ३८ ॥

मूलम्

निर्वादादास्पदं लब्ध्वा धनवृद्धिर्भविष्यति ।
धनवन्तं हि मित्राणि भजन्ते चाश्रयन्ति च ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार शत्रुको शान्त कर देनेसे निर्भय आश्रय प्राप्त होता है। उसे प्राप्त कर लेनेपर युद्ध आदिमें न फँसनेके कारण अपने धनकी वृद्धि होती है। फिर धनसम्पन्न राजाका बहुत-से मित्र आश्रय लेते और उसकी सेवा करते हैं॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्खलितार्थं पुनस्तात संत्यजन्ति च बान्धवाः।
अप्यस्मिन्‌ नाश्वसन्ते च जुगुप्सन्ते च तादृशम् ॥ ३९ ॥

मूलम्

स्खलितार्थं पुनस्तात संत्यजन्ति च बान्धवाः।
अप्यस्मिन्‌ नाश्वसन्ते च जुगुप्सन्ते च तादृशम् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसके विपरीत जिसका धन नष्ट हो गया है, उसके मित्र और भाई-बन्धु भी उसे त्याग देते हैं। उसपर विश्वास नहीं करते हैं तथा उसके-जैसे लोगोंकी निन्दा भी करते रहते हैं॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शत्रुं कृत्वा यः सहायं विश्वासमुपगच्छति।
स न सम्भाव्यमेवैतद् यद् राज्यं प्राप्नुयादिति ॥ ४० ॥

मूलम्

शत्रुं कृत्वा यः सहायं विश्वासमुपगच्छति।
स न सम्भाव्यमेवैतद् यद् राज्यं प्राप्नुयादिति ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो शत्रुको सहायक बनाकर उसका विश्वास करता है, वह राज्य प्राप्त कर लेगा, इसकी कभी सम्भावना ही नहीं करनी चाहिये॥४०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि विदुलापुत्रानुशासने पञ्चत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें विदुलाको पुत्रका उपदेशविषयक एक सौ पैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३५॥