१३४ विदुलापुत्रानुशासने

भागसूचना

चतुस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

विदुलाका अपने पुत्रको युद्धके लिये उत्साहित करना

मूलम् (वचनम्)

विदुलोवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैतस्यामवस्थायां पौरुषं हातुमिच्छसि ।
निहीनसेवितं मार्गं गमिष्यस्यचिरादिव ॥ १ ॥

मूलम्

अथैतस्यामवस्थायां पौरुषं हातुमिच्छसि ।
निहीनसेवितं मार्गं गमिष्यस्यचिरादिव ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विदुला बोली— संजय! यदि तू इस दशामें पौरुषको छोड़ देनेकी इच्छा करता है तो शीघ्र ही नीच पुरुषोंके मार्गपर जा पहुँचेगा॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो हि तेजो यथाशक्ति न दर्शयति विक्रमात्।
क्षत्रियो जीविताकाङ्क्षी स्तेन इत्येव तं विदुः ॥ २ ॥

मूलम्

यो हि तेजो यथाशक्ति न दर्शयति विक्रमात्।
क्षत्रियो जीविताकाङ्क्षी स्तेन इत्येव तं विदुः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जो क्षत्रिय अपने जीवनके लोभसे यथाशक्ति पराक्रम प्रकट करके अपने तेजका परिचय नहीं देता है, उसे सब लोग चोर मानते हैं॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अर्थवन्त्युपपन्नानि वाक्यानि गुणवन्ति च।
नैव सम्प्राप्नुवन्ति त्वां मुमूर्षुमिव भेषजम् ॥ ३ ॥

मूलम्

अर्थवन्त्युपपन्नानि वाक्यानि गुणवन्ति च।
नैव सम्प्राप्नुवन्ति त्वां मुमूर्षुमिव भेषजम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे मरणासन्न पुरुषको कोई भी दवा लागू नहीं होती, उसी प्रकार ये युक्तियुक्त, गुणकारी और सार्थक वचन भी तेरे हृदयतक पहुँच नहीं पाते हैं (यह कितने दुःखकी बात है)॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सन्ति वै सिन्धुराजस्य संतुष्टा न तथा जनाः।
दौर्बल्यादासते मूढा व्यसनौघप्रतीक्षिणः ॥ ४ ॥

मूलम्

सन्ति वै सिन्धुराजस्य संतुष्टा न तथा जनाः।
दौर्बल्यादासते मूढा व्यसनौघप्रतीक्षिणः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देख, सिन्धुराजकी प्रजा उससे संतुष्ट नहीं है, तथापि तेरी दुर्बलताके कारण किंकर्तव्यविमूढ़ हो उदासीन बैठी हुई है और सिन्धुराजपर विपत्तियोंके आनेकी बाट जोह रही है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सहायोपचितिं कृत्वा व्यवसाय्य ततस्ततः।
अनुदुष्येयुरपरे पश्यन्तस्तव पौरुषम् ॥ ५ ॥

मूलम्

सहायोपचितिं कृत्वा व्यवसाय्य ततस्ततः।
अनुदुष्येयुरपरे पश्यन्तस्तव पौरुषम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दूसरे राजा भी तेरा पुरुषार्थ देखकर इधर-उधरसे विशेष चेष्टापूर्वक सहायक साधनोंकी वृद्धि करके सिन्धुराजके शत्रु हो सकते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैः कृत्वा सह संघातं गिरिदुर्गालयं चर।
काले व्यसनमाकाङ्क्षन् नैवायमजरामरः ॥ ६ ॥

मूलम्

तैः कृत्वा सह संघातं गिरिदुर्गालयं चर।
काले व्यसनमाकाङ्क्षन् नैवायमजरामरः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तू उन सबके साथ मैत्री करके यथासमय अपने शत्रु सिन्धुराजपर विपत्ति आनेकी प्रतीक्षा करता हुआ पर्वतोंकी दुर्गम गुफामें विचरता रह; क्योंकि यह सिन्धुराज कोई अजर, अमर तो है नहीं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संजयो नामतश्च त्वं न च पश्यामि तत् त्वयि।
अन्वर्थनामा भव मे पुत्र मा व्यर्थनामकः ॥ ७ ॥

मूलम्

संजयो नामतश्च त्वं न च पश्यामि तत् त्वयि।
अन्वर्थनामा भव मे पुत्र मा व्यर्थनामकः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तेरा नाम तो संजय है, परंतु तुझमें इस नामके अनुसार गुण मैं नहीं देख रही हूँ। बेटा! युद्धमें विजय प्राप्त करके अपना नाम सार्थक कर, व्यर्थ संजय नाम न धारण कर॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्यग्दृष्टिर्महाप्राज्ञो बालं त्वां ब्राह्मणोऽब्रवीत्।
अयं प्राप्य महत् कृच्छ्रं पुनर्वृद्धिं गमिष्यति ॥ ८ ॥

मूलम्

सम्यग्दृष्टिर्महाप्राज्ञो बालं त्वां ब्राह्मणोऽब्रवीत्।
अयं प्राप्य महत् कृच्छ्रं पुनर्वृद्धिं गमिष्यति ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब तू बालक था, उस समय एक उत्तम दृष्टिवाले, परम बुद्धिमान् ब्राह्मणने तेरे विषयमें कहा था कि ‘यह महान् संकटमें पड़कर भी पुनः वृद्धिको प्राप्त होगा’॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य स्मरन्ती वचनमाशंसे विजयं तव।
तस्मात् तात ब्रवीमि त्वां वक्ष्यामि च पुनः पुनः॥९॥

मूलम्

तस्य स्मरन्ती वचनमाशंसे विजयं तव।
तस्मात् तात ब्रवीमि त्वां वक्ष्यामि च पुनः पुनः॥९॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस ब्राह्मणकी बातको याद करके मैं यह आशा करती हूँ कि तेरी विजय होगी। तात! इसीलिये मैं बार-बार तुझसे कहती हूँ और कहती रहूँगी॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्य ह्यर्थाभिनिर्वृत्तौ भवन्त्याप्यायिताः परे।
तस्यार्थसिद्धिर्नियता नयेष्वर्थानुसारिणः ॥ १० ॥

मूलम्

यस्य ह्यर्थाभिनिर्वृत्तौ भवन्त्याप्यायिताः परे।
तस्यार्थसिद्धिर्नियता नयेष्वर्थानुसारिणः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसके प्रयोजनकी सिद्धि होनेपर उससे सम्बन्ध रखनेवाले दूसरे लोग भी संतुष्ट एवं उन्नतिको प्राप्त होते हैं, नीतिमार्गपर चलकर अर्थसिद्धिके लिये प्रयत्न करनेवाले उस पुरुषको निश्चय ही अपने अभीष्टकी सिद्धि होती है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समृद्धिरसमृद्धिर्वा पूर्वेषां मम संजय।
एवं विद्वान् युद्धमना भव मा प्रत्युपाहर ॥ ११ ॥

मूलम्

समृद्धिरसमृद्धिर्वा पूर्वेषां मम संजय।
एवं विद्वान् युद्धमना भव मा प्रत्युपाहर ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! युद्धसे हमारे पूर्वजोंका अथवा मेरा कोई लाभ हो या हानि, युद्ध करना क्षत्रियोंका धर्म है, ऐसा समझकर उसीमें मन लगा, युद्ध बंद न कर॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नातः पापीयसीं कांचिदवस्थां शम्बरोऽब्रवीत्।
यत्र नैवाद्य न प्रातर्भोजनं प्रतिदृश्यते ॥ १२ ॥

मूलम्

नातः पापीयसीं कांचिदवस्थां शम्बरोऽब्रवीत्।
यत्र नैवाद्य न प्रातर्भोजनं प्रतिदृश्यते ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जहाँ आजके लिये और कल सबेरेके लिये भी भोजन दिखायी नहीं देता, उससे बढ़कर महान् पापपूर्ण कोई दूसरी अवस्था नहीं है, ऐसा शम्बरासुरका कथन है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतिपुत्रवधादेतत् परमं दुःखमब्रवीत् ।
दारिद्र्यमिति यत् प्रोक्तं पर्यायमरणं हि तत् ॥ १३ ॥

मूलम्

पतिपुत्रवधादेतत् परमं दुःखमब्रवीत् ।
दारिद्र्यमिति यत् प्रोक्तं पर्यायमरणं हि तत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका नाम दरिद्रता है, उसे पति और पुत्रके वधसे भी अधिक दुःखदायक बताया गया है। दरिद्रता मृत्युका समानार्थक शब्द है॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं महाकुले जाता ह्रदाद्‌ध्रदमिवागता।
ईश्वरी सर्वकल्याणी भर्त्रा परमपूजिता ॥ १४ ॥

मूलम्

अहं महाकुले जाता ह्रदाद्‌ध्रदमिवागता।
ईश्वरी सर्वकल्याणी भर्त्रा परमपूजिता ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं उच्चकुलमें उत्पन्न हो हंसीकी भाँति एक सरोवरसे दूसरे सरोवरमें आयी और इस राज्यकी स्वामिनी, समस्त कल्याणमय साधनोंसे सम्पन्न तथा पतिदेवके परम आदरकी पात्र हुई॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महार्हमाल्याभरणां सुमृष्टाम्बरवाससम् ।
पुरा हृष्टः सुहृद्वर्गो मामपश्यत् सुहृद्‌गताम् ॥ १५ ॥

मूलम्

महार्हमाल्याभरणां सुमृष्टाम्बरवाससम् ।
पुरा हृष्टः सुहृद्वर्गो मामपश्यत् सुहृद्‌गताम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें मेरे सुहृदोंने जब मुझे सगे सम्बन्धियोंके बीच बहुमूल्य हार एवं आभूषणोंसे विभूषित तथा परम सुन्दर स्वच्छ वस्त्रोंसे आच्छादित देखा, तब उन्हें बड़ा हर्ष हुआ॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदा मां चैव भार्यां च द्रष्टासि भृशदुर्बलाम्।
न तदा जीवितेनार्थो भविता तव संजय ॥ १६ ॥

मूलम्

यदा मां चैव भार्यां च द्रष्टासि भृशदुर्बलाम्।
न तदा जीवितेनार्थो भविता तव संजय ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! अब जिस समय तू मुझे और अपनी पत्नीको चिन्ताके कारण अत्यन्त दुर्बल देखेगा, उस समय तुझे जीवित रहनेकी इच्छा नहीं होगी॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दासकर्मकरान् भृत्यानाचार्यर्त्विक्‌पुरोहितान् ।
अवृत्त्यास्मान् प्रजहतो दृष्ट्वा किं जीवितेन ते ॥ १७ ॥

मूलम्

दासकर्मकरान् भृत्यानाचार्यर्त्विक्‌पुरोहितान् ।
अवृत्त्यास्मान् प्रजहतो दृष्ट्वा किं जीवितेन ते ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जब सेवाका काम करनेवाले दास, भरण-पोषण पानेवाले कुटुम्बी, आचार्य, ऋत्विक् और पुरोहित जीविकाके अभावमें हमें छोड़कर जाने लगेंगे, उस समय उन्हें देखकर तुझे जीवन-धारणका कोई प्रयोजन नहीं दिखायी देगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि कृत्यं न पश्यामि तवाद्याहं यथा पुरा।
श्लाघनीयं यशस्यं च का शान्तिर्हृदयस्य मे ॥ १८ ॥

मूलम्

यदि कृत्यं न पश्यामि तवाद्याहं यथा पुरा।
श्लाघनीयं यशस्यं च का शान्तिर्हृदयस्य मे ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि पहलेके समान आज भी मैं तेरे यशकी वृद्धि करनेवाले प्रशंसनीय कर्मोंको नहीं देखूँगी तो मेरे हृदयको क्या शान्ति मिलेगी?॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नेति चेद् ब्राह्मणं ब्रूयां दीर्येत हृदयं मम।
न ह्यहं न च मे भर्ता नेति ब्राह्मणमुक्तवान्॥१९॥

मूलम्

नेति चेद् ब्राह्मणं ब्रूयां दीर्येत हृदयं मम।
न ह्यहं न च मे भर्ता नेति ब्राह्मणमुक्तवान्॥१९॥

अनुवाद (हिन्दी)

यदि किसी ब्राह्मणके माँगनेपर मैं उसकी अभीष्ट वस्तुके लिये ‘नाहीं’ कह दूँगी तो उसी समय मेरा हृदय विदीर्ण हो जायगा। आजतक मैंने या मेरे पतिदेवने किसी ब्राह्मणसे नाहीं नहीं की है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वयमाश्रयणीयाः स्म नाश्रितारः परस्य च।
सान्यमासाद्य जीवन्ती परित्यक्ष्यामि जीवितम् ॥ २० ॥

मूलम्

वयमाश्रयणीयाः स्म नाश्रितारः परस्य च।
सान्यमासाद्य जीवन्ती परित्यक्ष्यामि जीवितम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

हम सदा लोगोंके आश्रयदाता रहे हैं, दूसरोंके आश्रित कभी नहीं रहे; परंतु अब यदि दूसरेका आश्रय लेकर जीवन धारण करना पड़े तो मैं ऐसे जीवनका परित्याग ही कर दूँगी॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपारे भव नः पारमप्लवे भव नः प्लवः।
कुरुष्व स्थानमस्थाने मृतान् संजीवयस्व नः ॥ २१ ॥

मूलम्

अपारे भव नः पारमप्लवे भव नः प्लवः।
कुरुष्व स्थानमस्थाने मृतान् संजीवयस्व नः ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बेटा! अपार समुद्रमें डूबते हुए हमलोगोंको तू पार लगानेवाला हो। नौकाविहीन अगाध जलराशि (महान् संकट)-में तू हमारे लिये नौका हो जा। हमारे लिये कोई स्थान नहीं रह गया है, तू स्थान बन जा और हम मृतप्राय हो रहे हैं, तू हमें जीवन दान कर॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वे ते शत्रवः शक्या न चेज्जीवितुमिच्छसि।
अथ चेदीदृशीं वृत्तिं क्लीबामभ्युपपद्यसे ॥ २२ ॥
निर्विण्णात्मा हतमना मुञ्चैतां पापजीविकाम्।

मूलम्

सर्वे ते शत्रवः शक्या न चेज्जीवितुमिच्छसि।
अथ चेदीदृशीं वृत्तिं क्लीबामभ्युपपद्यसे ॥ २२ ॥
निर्विण्णात्मा हतमना मुञ्चैतां पापजीविकाम्।

अनुवाद (हिन्दी)

यदि तुझे जीवनके प्रति अधिक आसक्ति न हो तो तू अपने सभी शत्रुओंको परास्त कर सकता है और यदि इस प्रकार विषादग्रस्त एवं हतोत्साह होकर ऐसी कायरोंकी-सी वृत्ति अपना रहा है तो तुझे इस पापपूर्ण जीविकाको त्याग देना चाहिये॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकशत्रुवधेनैव शूरो गच्छति विश्रुतिम् ॥ २३ ॥
इन्द्रो वृत्रवधेनैव महेन्द्रः समपद्यत।
माहेन्द्रं च गृहं लेभे लोकानां चेश्वरोऽभवत् ॥ २४ ॥

मूलम्

एकशत्रुवधेनैव शूरो गच्छति विश्रुतिम् ॥ २३ ॥
इन्द्रो वृत्रवधेनैव महेन्द्रः समपद्यत।
माहेन्द्रं च गृहं लेभे लोकानां चेश्वरोऽभवत् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

एक शत्रुका वध करनेसे ही शूरवीर पुरुष सम्पूर्ण विश्वमें विख्यात हो जाता है। देवराज इन्द्र केवल वृत्रासुरका वध करके ही ‘महेन्द्र’ नामसे प्रसिद्ध हो गये। उन्हें रहनेके लिये इन्द्रभवन प्राप्त हुआ और वे तीनों लोकोंके अधीश्वर हो गये॥२३-२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाम विश्राव्य वै संख्ये शत्रूनाहूय दंशितान्।
सेनाग्रं चापि विद्राव्य हत्वा वा पुरुषं वरम् ॥ २५ ॥
यदैव लभते वीरः सुयुद्धेन महद् यशः।
तदैव प्रव्यथन्तेऽस्य शत्रवो विनमन्ति च ॥ २६ ॥

मूलम्

नाम विश्राव्य वै संख्ये शत्रूनाहूय दंशितान्।
सेनाग्रं चापि विद्राव्य हत्वा वा पुरुषं वरम् ॥ २५ ॥
यदैव लभते वीरः सुयुद्धेन महद् यशः।
तदैव प्रव्यथन्तेऽस्य शत्रवो विनमन्ति च ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वीर पुरुष युद्धमें अपना नाम सुनाकर, कवचधारी शत्रुओंको ललकारकर, सेनाके अग्रभागको खदेड़कर अथवा शत्रुपक्षके किसी श्रेष्ठ पुरुषका वध करके जभी उत्तम युद्धके द्वारा महान् यश प्राप्त कर लेता है, तभी उसके शत्रु व्यथित होते और उसके सामने मस्तक झुकाते हैं॥२५-२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यक्त्वाऽऽत्मानं रणे दक्षं शूरं कापुरुषा जनाः।
अवशास्तर्पयन्ति स्म सर्वकामसमृद्धिभिः ॥ २७ ॥

मूलम्

त्यक्त्वाऽऽत्मानं रणे दक्षं शूरं कापुरुषा जनाः।
अवशास्तर्पयन्ति स्म सर्वकामसमृद्धिभिः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कायर मनुष्य विवश हो युद्धमें अपने शरीरका त्याग करके युद्धकुशल शूरवीरको सम्पूर्ण मनोरथोंकी पूर्ति करनेवाली अपनी समृद्धियोंके द्वारा तृप्त करते हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्यं चाप्युग्रविभ्रंशं संशयो जीवितस्य वा।
न लब्धस्य हि शत्रोर्वै शेषं कुर्वन्ति साधवः ॥ २८ ॥

मूलम्

राज्यं चाप्युग्रविभ्रंशं संशयो जीवितस्य वा।
न लब्धस्य हि शत्रोर्वै शेषं कुर्वन्ति साधवः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जिसका भयानक रूपसे पतन हुआ है, वह राज्य प्राप्त हो जाय या जीवन ही संकटमें पड़ जाय, किसी भी दशामें अपने हाथमें आये हुए शत्रुको श्रेष्ठ पुरुष शेष नहीं रहने देते हैं॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्वर्गद्वारोपमं राज्यमथवाप्यमृतोपमम् ।
युद्धमेकायनं मत्वा पतोल्मुक इवारिषु ॥ २९ ॥

मूलम्

स्वर्गद्वारोपमं राज्यमथवाप्यमृतोपमम् ।
युद्धमेकायनं मत्वा पतोल्मुक इवारिषु ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

युद्धको स्वर्गद्वारके सदृश उत्तम गति अथवा अमृतके सदृश राज्यकी प्राप्तिका एकमात्र मार्ग मानकर तू जलते हुए काठकी भाँति शत्रुओंपर टूट पड़॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जहि शत्रून् रणे राजन् स्वधर्ममनुपालय।
मा त्वादृशं सुकृपणं शत्रूणां भयवर्धनम् ॥ ३० ॥

मूलम्

जहि शत्रून् रणे राजन् स्वधर्ममनुपालय।
मा त्वादृशं सुकृपणं शत्रूणां भयवर्धनम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तू युद्धमें शत्रुओंको मार और अपने धर्मका पालन कर। शत्रुओंका भय बढ़ानेवाले तुझ वीर पुत्रको मैं अत्यन्त दीन या कायरके रूपमें न देखूँ॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्मदीयैश्च शोचद्भिर्नदद्भिश्च परैर्वृतम् ।
अपि त्वां नानुपश्येयं दीनाद् दीनमिव स्थितम् ॥ ३१ ॥

मूलम्

अस्मदीयैश्च शोचद्भिर्नदद्भिश्च परैर्वृतम् ।
अपि त्वां नानुपश्येयं दीनाद् दीनमिव स्थितम् ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं तुझे दीनसे भी दीनके समान दयनीय अवस्थामें पड़ा हुआ तथा शोकमग्न हुए अपने पक्षके और गर्जन-तर्जन करते हुए शत्रुपक्षके लोगोंसे घिरा हुआ नहीं देखना चाहती॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हृष्य सौवीरकन्याभिः श्लाघस्वार्थैर्यथा पुरा।
मा च सैन्धवकन्यानामवसन्नो वशं गमः ॥ ३२ ॥

मूलम्

हृष्य सौवीरकन्याभिः श्लाघस्वार्थैर्यथा पुरा।
मा च सैन्धवकन्यानामवसन्नो वशं गमः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तू सौवीरदेशकी कन्याओं (अपनी पत्नियों)-के साथ हर्षका अनुभव कर। पहलेकी भाँति अपने धनकी अधिकताके लिये गर्व कर। विपत्तिमें पड़कर सिन्धुदेशीय (शत्रुदेशकी) कन्याओंके वशमें न हो जा॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युवा रूपेण सम्पन्नो विद्ययाभिजनेन च।
यत् त्वादृशो विकुर्वीत यशस्वी लोकविश्रुतः ॥ ३३ ॥
अधुर्यवच्च वोढव्ये मन्ये मरणमेव तत्।

मूलम्

युवा रूपेण सम्पन्नो विद्ययाभिजनेन च।
यत् त्वादृशो विकुर्वीत यशस्वी लोकविश्रुतः ॥ ३३ ॥
अधुर्यवच्च वोढव्ये मन्ये मरणमेव तत्।

अनुवाद (हिन्दी)

तू रूप, यौवन, विद्या और कुलीनतासे सम्पन्न है, यशस्वी तथा लोकमें विख्यात है। तुझ-जैसा वीर पुरुष यदि पराक्रमके अवसरपर डर जाय, भार ढोनेके समय बिना नथे हुए बैलके समान बैठ रहे या भाग जाय तो मैं इसे तेरा मरण ही समझती हूँ॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि त्वामनुपश्यामि परस्य प्रियवादिनम् ॥ ३४ ॥
पृष्ठतोऽनुव्रजन्तं वा का शान्तिर्हृदयस्य मे।

मूलम्

यदि त्वामनुपश्यामि परस्य प्रियवादिनम् ॥ ३४ ॥
पृष्ठतोऽनुव्रजन्तं वा का शान्तिर्हृदयस्य मे।

अनुवाद (हिन्दी)

यदि मैं यह देखूँ कि तू शत्रुसे मीठी-मीठी बातें करता तथा उसके पीछे-पीछे जाता है तो मेरे हृदयमें क्या शान्ति मिलेगी?॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नास्मिन् जातु कुले जातो गच्छेद् योऽन्यस्य पृष्ठतः ॥ ३५ ॥
न त्वं परस्यानुचरस्तात जीवितुमर्हसि।

मूलम्

नास्मिन् जातु कुले जातो गच्छेद् योऽन्यस्य पृष्ठतः ॥ ३५ ॥
न त्वं परस्यानुचरस्तात जीवितुमर्हसि।

अनुवाद (हिन्दी)

इस कुलमें कभी कोई ऐसा पुरुष नहीं उत्पन्न हुआ, जो दूसरेके पीछे-पीछे चला हो। तात! तू दूसरेका सेवक होकर जीवित रहनेके योग्य नहीं है॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अहं हि क्षत्रहृदयं वेद यत् परिशाश्वतम् ॥ ३६ ॥
पूर्वैः पूर्वतरैः प्रोक्तं परैः परतरैरपि।
शाश्वतं चाव्ययं चैव प्रजापतिविनिर्मितम् ॥ ३७ ॥

मूलम्

अहं हि क्षत्रहृदयं वेद यत् परिशाश्वतम् ॥ ३६ ॥
पूर्वैः पूर्वतरैः प्रोक्तं परैः परतरैरपि।
शाश्वतं चाव्ययं चैव प्रजापतिविनिर्मितम् ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वयं विधाताने जिसकी सृष्टि की है, प्राचीन और अत्यन्त प्राचीन पुरुषोंने जिसका वर्णन किया है, परवर्ती और अतिपरवर्ती सत्पुरुष जिसका वर्णन करेंगे तथा जो चिरन्तन एवं अविनाशी है, उस सनातन और उत्तम क्षत्रिय-हृदयको मैं जानती हूँ॥३६-३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यो वै कश्चिदिहाजातः क्षत्रियः क्षत्रकर्मवित्।
भयाद् वृत्तिसमीक्षो वा न नमेदिह कस्यचित् ॥ ३८ ॥

मूलम्

यो वै कश्चिदिहाजातः क्षत्रियः क्षत्रकर्मवित्।
भयाद् वृत्तिसमीक्षो वा न नमेदिह कस्यचित् ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस जगत्‌में जो कोई भी क्षत्रिय उत्पन्न हुआ है और क्षत्रियधर्मको जाननेवाला है, वह भयसे अथवा आजीविकाकी ओर दृष्टि रखकर भी किसीके सामने नतमस्तक नहीं हो सकता॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्यच्छेदेव न नमेदुद्यमो ह्येव पौरुषम्।
अप्यपर्वणि भज्येत न नमेतेह कस्यचित् ॥ ३९ ॥

मूलम्

उद्यच्छेदेव न नमेदुद्यमो ह्येव पौरुषम्।
अप्यपर्वणि भज्येत न नमेतेह कस्यचित् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

सदा उद्यम करे, किसीके आगे सिर न झुकावे। उद्यम ही पुरुषार्थ है। असमयमें नष्ट भले ही हो जाय, परंतु किसीके आगे नतमस्तक न हो॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातङ्गो मत्त इव च परीयात् सुमहामनाः।
ब्राह्मणेभ्यो नमेन्नित्यं धर्मायैव च संजय ॥ ४० ॥

मूलम्

मातङ्गो मत्त इव च परीयात् सुमहामनाः।
ब्राह्मणेभ्यो नमेन्नित्यं धर्मायैव च संजय ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

संजय! महामनस्वी क्षत्रिय मदमत्त हाथीके समान सर्वत्र निर्भय विचरण करे और सदा ब्राह्मणोंको तथा धर्मको ही नमस्कार करे॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नियच्छन्नितरान् वर्णान् विनिघ्नन् सर्वदुष्कृतः।
ससहायोऽसहायो वा यावज्जीवं तथा भवेत् ॥ ४१ ॥

मूलम्

नियच्छन्नितरान् वर्णान् विनिघ्नन् सर्वदुष्कृतः।
ससहायोऽसहायो वा यावज्जीवं तथा भवेत् ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

क्षत्रिय ससहाय हो अथवा असहाय, वह अन्य वर्ण-के लोगोंको काबूमें रखता और समस्त पापियोंको दण्ड देता हुआ जीवनभर वैसा ही उद्यमशील बना रहे॥४१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि विदुलापुत्रानुशासने चतुस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १३४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें विदुलाका अपने पुत्रको उपदेशविषयक एक सौ चौंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१३४॥