१२९ गान्धारीवाक्ये

भागसूचना

एकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

धृतराष्ट्रका गान्धारीको बुलाना और उसका दुर्योधनको समझाना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णस्य तु वचः श्रुत्वा धृतराष्ट्रो जनेश्वरः।
विदुरं सर्वधर्मज्ञं त्वरमाणोऽभ्यभाषत ॥ १ ॥

मूलम्

कृष्णस्य तु वचः श्रुत्वा धृतराष्ट्रो जनेश्वरः।
विदुरं सर्वधर्मज्ञं त्वरमाणोऽभ्यभाषत ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! श्रीकृष्णका यह कथन सुनकर राजा धृतराष्ट्रने सम्पूर्ण धर्मोंके ज्ञाता विदुरसे शीघ्रतापूर्वक कहा—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

गच्छ तात महाप्राज्ञां गान्धारीं दीर्घदर्शिनीम्।
आनयेह तया सार्धमनुनेष्यामि दुर्मतिम् ॥ २ ॥

मूलम्

गच्छ तात महाप्राज्ञां गान्धारीं दीर्घदर्शिनीम्।
आनयेह तया सार्धमनुनेष्यामि दुर्मतिम् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! जाओ, परम बुद्धिमती और दूरदर्शिनी गान्धारीदेवीको यहाँ बुला लाओ। मैं उसीके साथ इस दुर्बुद्धिको समझा-बुझाकर राहपर लानेकी चेष्टा करूँगा॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि सापि दुरात्मानं शमयेद् दुष्टचेतसम्।
अपि कृष्णस्य सुहृदस्तिष्ठेम वचने वयम् ॥ ३ ॥

मूलम्

यदि सापि दुरात्मानं शमयेद् दुष्टचेतसम्।
अपि कृष्णस्य सुहृदस्तिष्ठेम वचने वयम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि वह भी उस दुष्टचित्त दुरात्माको शान्त कर सके तो हमलोग अपने सुहृद् श्रीकृष्णकी आज्ञाका पालन कर सकते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि लोभाभिभूतस्य पन्थानमनुदर्शयेत् ।
दुर्बुद्धेर्दुःसहायस्य शमार्थं ब्रुवती वचः ॥ ४ ॥

मूलम्

अपि लोभाभिभूतस्य पन्थानमनुदर्शयेत् ।
दुर्बुद्धेर्दुःसहायस्य शमार्थं ब्रुवती वचः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्योधन लोभके अधीन हो रहा है। उसकी बुद्धि दूषित हो गयी है और उसके सहायक दुष्ट स्वभावके ही हैं। सम्भव है, गान्धारी शान्तिस्थापनके लिये कुछ कहकर उसे सन्मार्गका दर्शन करा सके॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि नो व्यसनं घोरं दुर्योधनकृतं महत्।
शमयेच्चिररात्राय योगक्षेमवदव्ययम् ॥ ५ ॥

मूलम्

अपि नो व्यसनं घोरं दुर्योधनकृतं महत्।
शमयेच्चिररात्राय योगक्षेमवदव्ययम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि ऐसा हुआ तो दुर्योधनके द्वारा उपस्थित किया हुआ हमारा महान् एवं भयंकर संकट दीर्घकालके लिये शान्त हो जायगा और चिरस्थायी योगक्षेमकी प्राप्ति सुलभ होगी’॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राज्ञस्तु वचनं श्रुत्वा विदुरो दीर्घदर्शिनीम्।
आनयामास गान्धारीं धृतराष्ट्रस्य शासनात् ॥ ६ ॥

मूलम्

राज्ञस्तु वचनं श्रुत्वा विदुरो दीर्घदर्शिनीम्।
आनयामास गान्धारीं धृतराष्ट्रस्य शासनात् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजाकी यह बात सुनकर विदुर धृतराष्ट्रके आदेशसे दूरदर्शिनी गान्धारीदेवीको वहाँ बुला ले आये॥६॥

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष गान्धारि पुत्रस्ते दुरात्मा शासनातिगः।
ऐश्वर्यलोभादैश्वर्यं जीवितं च प्रहास्यति ॥ ७ ॥

मूलम्

एष गान्धारि पुत्रस्ते दुरात्मा शासनातिगः।
ऐश्वर्यलोभादैश्वर्यं जीवितं च प्रहास्यति ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस समय धृतराष्ट्रने कहा— गान्धारि! तुम्हारा वह दुरात्मा पुत्र गुरुजनोंकी आज्ञाका उल्लंघन कर रहा है। वह ऐश्वर्यके लोभमें पड़कर राज्य और प्राण दोनों गँवा देगा॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अशिष्टवदमर्यादः पापैः सह दुरात्मवान्।
सभाया निर्गतो मूढो व्यतिक्रम्य सुहृद्वचः ॥ ८ ॥

मूलम्

अशिष्टवदमर्यादः पापैः सह दुरात्मवान्।
सभाया निर्गतो मूढो व्यतिक्रम्य सुहृद्वचः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मर्यादाका उल्लंघन करनेवाला वह मूढ़ दुरात्मा अशिष्ट पुरुषकी भाँति हितैषी सुहृदोंकी आज्ञाको ठुकराकर अपने पापी साथियोंके साथ सभासे बाहर निकल गया है॥८॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा भर्तृवचनं श्रुत्वा राजपुत्री यशस्विनी।
अन्विच्छन्ती महच्छ्रेयो गान्धारी वाक्यमब्रवीत् ॥ ९ ॥

मूलम्

सा भर्तृवचनं श्रुत्वा राजपुत्री यशस्विनी।
अन्विच्छन्ती महच्छ्रेयो गान्धारी वाक्यमब्रवीत् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! पतिका यह वचन सुनकर यशस्विनी राजपुत्री गान्धारी महान् कल्याणका अनुसंधान करती हुई इस प्रकार बोली॥

मूलम् (वचनम्)

गान्धार्युवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

आनायय सुतं क्षिप्रं राज्यकामुकमातुरम्।
न हि राज्यमशिष्टेन शक्यं धर्मार्थलोपिना ॥ १० ॥
आप्तुमाप्तं तथापीदमविनीतेन सर्वथा ।

मूलम्

आनायय सुतं क्षिप्रं राज्यकामुकमातुरम्।
न हि राज्यमशिष्टेन शक्यं धर्मार्थलोपिना ॥ १० ॥
आप्तुमाप्तं तथापीदमविनीतेन सर्वथा ।

अनुवाद (हिन्दी)

गान्धारीने कहा— महाराज! राज्यकी कामनासे आतुर हुए अपने पुत्रको शीघ्र बुलवाइये। धर्म और अर्थका लोप करनेवाला कोई भी अशिष्ट पुरुष राज्य नहीं पा सकता, तथापि सर्वथा उद्दण्डताका परिचय देनेवाले उस दुष्टने राज्यको प्राप्त कर लिया है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वं ह्येवात्र भृशं गर्ह्यो धृतराष्ट्र सुतप्रियः ॥ ११ ॥
यो जानन् पापतामस्य तत्प्रज्ञामनुवर्तसे।

मूलम्

त्वं ह्येवात्र भृशं गर्ह्यो धृतराष्ट्र सुतप्रियः ॥ ११ ॥
यो जानन् पापतामस्य तत्प्रज्ञामनुवर्तसे।

अनुवाद (हिन्दी)

महाराज! आपको अपना बेटा बहुत प्रिय है, अतः वर्तमान परिस्थितिके लिये आप ही अत्यन्त निन्दनीय हैं; क्योंकि आप उसके पापपूर्ण विचारोंको जानते हुए भी सदा उसीकी बुद्धिका अनुसरण करते हैं॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स एष काममन्युभ्यां प्रलब्धो लोभमास्थितः ॥ १२ ॥
अशक्योऽद्य त्वया राजन्‌ विनिवर्तयितुं बलात्।

मूलम्

स एष काममन्युभ्यां प्रलब्धो लोभमास्थितः ॥ १२ ॥
अशक्योऽद्य त्वया राजन्‌ विनिवर्तयितुं बलात्।

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस दुर्योधनको काम और क्रोधने अपने वशमें कर लिया है, यह लोभमें फँस गया है; अतः आज आपका इसे बलपूर्वक पीछे लौटाना असम्भव है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राष्ट्रप्रदाने मूढस्य बालिशस्य दुरात्मनः ॥ १३ ॥
दुःसहायस्य लुब्धस्य धृतराष्ट्रोऽश्नुते फलम्।

मूलम्

राष्ट्रप्रदाने मूढस्य बालिशस्य दुरात्मनः ॥ १३ ॥
दुःसहायस्य लुब्धस्य धृतराष्ट्रोऽश्नुते फलम्।

अनुवाद (हिन्दी)

दुष्ट सहायकोंसे युक्त, मूढ़, अज्ञानी, लोभी और दुरात्मा पुत्रको अपना राज्य सौंप देनेका फल महाराज धृतराष्ट्र स्वयं भोग रहे हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं हि स्वजने भेदमुपेक्षेत महीपतिः।
भिन्नं हि स्वजनेन त्वां प्रहसिष्यन्ति शत्रवः ॥ १४ ॥
या हि शक्या महाराज साम्ना भेदेन वा पुनः।
निस्तर्तुमापदः स्वेषु दण्डं कस्तत्र पातयेत् ॥ १५ ॥

मूलम्

कथं हि स्वजने भेदमुपेक्षेत महीपतिः।
भिन्नं हि स्वजनेन त्वां प्रहसिष्यन्ति शत्रवः ॥ १४ ॥
या हि शक्या महाराज साम्ना भेदेन वा पुनः।
निस्तर्तुमापदः स्वेषु दण्डं कस्तत्र पातयेत् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कोई भी राजा स्वजनोंमें फैलती हुई फूटकी उपेक्षा कैसे कर सकता है? राजन्! स्वजनोंमें फूट डालकर उनसे विलग होनेवाले आपकी सभी शत्रु हँसी उड़ायेंगे। महाराज! जिस आपत्तिको साम अथवा भेदनीतिसे पार किया जा सकता है, उसके लिये आत्मीयजनोंपर दण्डका प्रयोग कौन करेगा?॥१४-१५॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

शासनाद् धृतराष्ट्रस्य दुर्योधनममर्षणम् ।
मातुश्च वचनात् क्षत्ता सभां प्रावेशयत् पुनः ॥ १६ ॥

मूलम्

शासनाद् धृतराष्ट्रस्य दुर्योधनममर्षणम् ।
मातुश्च वचनात् क्षत्ता सभां प्रावेशयत् पुनः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! पिता धृतराष्ट्रके आदेश और माता गान्धारीकी आज्ञासे विदुर असहिष्णु दुर्योधनको पुनः सभामें बुला ले आये॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स मातुर्वचनाकाङ्क्षी प्रविवेश पुनः सभाम्।
अभिताम्रेक्षणः क्रोधान्निःश्वसन्निव पन्नगः ॥ १७ ॥

मूलम्

स मातुर्वचनाकाङ्क्षी प्रविवेश पुनः सभाम्।
अभिताम्रेक्षणः क्रोधान्निःश्वसन्निव पन्नगः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दुर्योधनकी आँखें क्रोधसे लाल हो रही थीं। वह फुफकारते हुए सर्पकी भाँति लंबी साँसें खींचता हुआ माताकी बात सुननेकी इच्छासे सभाभवनमें पुनः प्रविष्ट हुआ॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं प्रविष्टमभिप्रेक्ष्य पुत्रमुत्पथमास्थितम् ।
विगर्हमाणा गान्धारी शमार्थं वाक्यमब्रवीत् ॥ १८ ॥

मूलम्

तं प्रविष्टमभिप्रेक्ष्य पुत्रमुत्पथमास्थितम् ।
विगर्हमाणा गान्धारी शमार्थं वाक्यमब्रवीत् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपने कुमार्गगामी पुत्रको पुनः सभाके भीतर आया देख गान्धारी उसकी निन्दा करती हुई शान्ति-स्थापनके लिये इस प्रकार बोली—॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधन निबोधेदं वचनं मम पुत्रक।
हितं ते सानुबन्धस्य तथाऽऽयत्यां सुखोदयम् ॥ १९ ॥

मूलम्

दुर्योधन निबोधेदं वचनं मम पुत्रक।
हितं ते सानुबन्धस्य तथाऽऽयत्यां सुखोदयम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बेटा दुर्योधन! मेरी यह बात सुनो। जो सगे-सम्बन्धियोंसहित तुम्हारे लिये हितकारक और भविष्यमें सुखकी प्राप्ति करानेवाली है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधन यदाह त्वां पिता भरतसत्तम।
भीष्मो द्रोणः कृपः क्षत्ता सुहृदां कुरु तद् वचः॥२०॥

मूलम्

दुर्योधन यदाह त्वां पिता भरतसत्तम।
भीष्मो द्रोणः कृपः क्षत्ता सुहृदां कुरु तद् वचः॥२०॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ दुर्योधन! तुम्हारे पिता, पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, कृपाचार्य और विदुर तुमसे जो कुछ कहते हैं, अपने इन सुहृदोंकी वह बात मान लो॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मस्य तु पितुश्चैव मम चापचितिः कृता।
भवेद् द्रोणमुखानां च सुहृदां शाम्यता त्वया ॥ २१ ॥

मूलम्

भीष्मस्य तु पितुश्चैव मम चापचितिः कृता।
भवेद् द्रोणमुखानां च सुहृदां शाम्यता त्वया ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि तुम शान्त हो जाओगे तो तुम्हारे द्वारा भीष्मकी, पिताजीकी, मेरी तथा द्रोण आदि अन्य हितैषी सुहृदोंकी भी पूजा सम्पन्न हो जायगी॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि राज्यं महाप्राज्ञ स्वेन कामेन शक्यते।
अवाप्तुं रक्षितुं वापि भोक्तुं भरतसत्तम ॥ २२ ॥

मूलम्

न हि राज्यं महाप्राज्ञ स्वेन कामेन शक्यते।
अवाप्तुं रक्षितुं वापि भोक्तुं भरतसत्तम ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! महामते! कोई भी अपनी इच्छामात्रसे राज्यकी प्राप्ति, रक्षा अथवा उपभोग नहीं कर सकता॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न ह्यवश्येन्द्रियो राज्यमश्नीयाद् दीर्घमन्तरम्।
विजितात्मा तु मेधावी स राज्यमभिपालयेत् ॥ २३ ॥

मूलम्

न ह्यवश्येन्द्रियो राज्यमश्नीयाद् दीर्घमन्तरम्।
विजितात्मा तु मेधावी स राज्यमभिपालयेत् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसने अपनी इन्द्रियोंको वशमें नहीं किया है, वह दीर्घकालतक राज्यका उपभोग नहीं कर सकता। जिसने अपने मनको जीत लिया है, वह मेधावी पुरुष ही राज्यकी रक्षा कर सकता है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामक्रोधौ हि पुरुषमर्थेभ्यो व्यपकर्षतः।
तौ तु शत्रू विनिर्जित्य राजा विजयते महीम् ॥ २४ ॥

मूलम्

कामक्रोधौ हि पुरुषमर्थेभ्यो व्यपकर्षतः।
तौ तु शत्रू विनिर्जित्य राजा विजयते महीम् ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘काम और क्रोध मनुष्यको धनसे दूर खींच ले जाते हैं। उन दोनों शत्रुओंको जीत लेनेपर राजा इस पृथ्वीपर विजय पाता है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लोकेश्वर प्रभुत्वं हि महदेतद् दुरात्मभिः।
राज्यं नामेप्सितं स्थानं न शक्यमभिरक्षितुम् ॥ २५ ॥

मूलम्

लोकेश्वर प्रभुत्वं हि महदेतद् दुरात्मभिः।
राज्यं नामेप्सितं स्थानं न शक्यमभिरक्षितुम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जनेश्वर! यह महान् प्रभुत्व ही राज्य नामक अभीष्ट स्थान है। जिनकी अन्तरात्मा दूषित है, वे इसकी रक्षा नहीं कर सकते॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रियाणि महत्प्रेप्सुर्नियच्छेदर्थधर्मयोः ।
इन्द्रियैर्नियतैर्बुद्धिर्वर्धतेऽग्निरिवेन्धनैः ॥ २६ ॥

मूलम्

इन्द्रियाणि महत्प्रेप्सुर्नियच्छेदर्थधर्मयोः ।
इन्द्रियैर्नियतैर्बुद्धिर्वर्धतेऽग्निरिवेन्धनैः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महत्पदको प्राप्त करनेकी इच्छावाला पुरुष अपनी इन्द्रियोंको अर्थ और धर्ममें नियन्त्रित करे। इन्द्रियोंको जीत लेनेपर बुद्धि उसी प्रकार बढ़ती है, जैसे ईंधन डालनेसे आग प्रज्वलित हो उठती है॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविधेयानि हीमानि व्यापादयितुमप्यलम् ।
अविधेया इवादान्ता हयाः पथि कुसारथिम् ॥ २७ ॥

मूलम्

अविधेयानि हीमानि व्यापादयितुमप्यलम् ।
अविधेया इवादान्ता हयाः पथि कुसारथिम् ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जैसे उद्दण्ड घोड़े काबूमें न होनेपर मूर्ख सारथि-को मार्गमें ही मार डालते हैं, उसी प्रकार यदि इन इन्द्रियोंको काबूमें न रखा जाय तो ये मनुष्यका नाश करनेके लिये भी पर्याप्त हैं॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अविजित्य य आत्मानममात्यान् विजिगीषते।
अमित्रान् वाजितामात्यः सोऽवशः परिहीयते ॥ २८ ॥

मूलम्

अविजित्य य आत्मानममात्यान् विजिगीषते।
अमित्रान् वाजितामात्यः सोऽवशः परिहीयते ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो पहले अपने मनको न जीतकर मन्त्रियोंको जीतनेकी इच्छा करता है अथवा मन्त्रियोंको जीते बिना शत्रुओंको जीतना चाहता है, वह विवश होकर राज्य और जीवन दोनोंसे वंचित हो जाता है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मानमेव प्रथमं द्वेष्यरूपेण योजयेत्।
ततोऽमात्यानमित्रांश्च न मोघं विजिगीषते ॥ २९ ॥

मूलम्

आत्मानमेव प्रथमं द्वेष्यरूपेण योजयेत्।
ततोऽमात्यानमित्रांश्च न मोघं विजिगीषते ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः पहले अपने मनको ही शत्रुके स्थानपर रखकर इसे जीते। तत्पश्चात् मन्त्रियों और शत्रुओंपर विजय पानेकी इच्छा करे। ऐसा करनेसे उसकी विजय पानेकी अभिलाषा कभी व्यर्थ नहीं होती है॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वश्येन्द्रियं जितामात्यं धृतदण्डं विकारिषु।
परीक्ष्यकारिणं धीरमत्यर्थं श्रीर्निषेवते ॥ ३० ॥

मूलम्

वश्येन्द्रियं जितामात्यं धृतदण्डं विकारिषु।
परीक्ष्यकारिणं धीरमत्यर्थं श्रीर्निषेवते ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिसने अपनी इन्द्रियोंको वशमें कर रखा है, मन्त्रियोंपर विजय पा ली है तथा जो अपराधियोंको दण्ड प्रदान करता है, खूब सोच-समझकर कार्य करनेवाले उस धीर पुरुषकी लक्ष्मी अत्यन्त सेवा करती है॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षुद्राक्षेणेव जालेन झषावपिहितावुभौ ।
कामक्रोधौ शरीरस्थौ प्रज्ञानं तौ विलुम्पतः ॥ ३१ ॥

मूलम्

क्षुद्राक्षेणेव जालेन झषावपिहितावुभौ ।
कामक्रोधौ शरीरस्थौ प्रज्ञानं तौ विलुम्पतः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘छोटे छिद्रवाले जालसे ढकी हुई दो मछलियोंकी भाँति ये काम और क्रोध भी शरीरके भीतर ही छिपे हुए हैं, जो मनुष्यके ज्ञानको नष्ट कर देते हैं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

याभ्यां हि देवाः स्वर्यातुः स्वर्गस्य पिदधुर्मुखम्।
बिभ्यतोऽनुपरागस्य कामक्रोधौ स्म वर्धितौ ॥ ३२ ॥

मूलम्

याभ्यां हि देवाः स्वर्यातुः स्वर्गस्य पिदधुर्मुखम्।
बिभ्यतोऽनुपरागस्य कामक्रोधौ स्म वर्धितौ ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इन्हीं दोनों (काम और क्रोध)-के द्वारा देवताओंने स्वर्गमें जानेवाले पुरुषके लिये उस लोकका दरवाजा बंद कर रखा है। वीतराग पुरुषसे डरकर ही देवताओंने स्वर्गप्राप्तिके प्रतिबन्धक काम और क्रोधकी वृद्धि की है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामं क्रोधं च लोभं च दम्भं दर्पं च भूमिपः।
सम्यग्विजेतुं यो वेद स महीमभिजायते ॥ ३३ ॥

मूलम्

कामं क्रोधं च लोभं च दम्भं दर्पं च भूमिपः।
सम्यग्विजेतुं यो वेद स महीमभिजायते ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो राजा काम, क्रोध, लोभ, दम्भ और दर्पको अच्छी तरह जीतनेकी कला जानता है, वही इस पृथ्वीका शासन कर सकता है॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सततं निग्रहे युक्त इन्द्रियाणां भवेन्नृपः।
ईप्सन्नर्थं च धर्मं च द्विषतां च पराभवम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

सततं निग्रहे युक्त इन्द्रियाणां भवेन्नृपः।
ईप्सन्नर्थं च धर्मं च द्विषतां च पराभवम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः अर्थ, धर्म तथा शत्रुओंका पराभव चाहनेवाले राजाको सदा अपनी इन्द्रियोंको काबूमें रखनेका प्रयत्न करना चाहिये॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामाभिभूतः क्रोधाद् वा यो मिथ्या प्रतिपद्यते।
स्वेषु चान्येषु वा तस्य न सहाया भवन्त्युत ॥ ३५ ॥

मूलम्

कामाभिभूतः क्रोधाद् वा यो मिथ्या प्रतिपद्यते।
स्वेषु चान्येषु वा तस्य न सहाया भवन्त्युत ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो राजा काम अथवा क्रोधसे अभिभूत होकर स्वजनों या दूसरोंके प्रति मिथ्या बर्ताव (कपट एवं अन्याययुक्त आचरण) करता है, उसके कोई सहायक नहीं होते हैं॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकीभूतैर्महाप्राज्ञैः शूरैररिनिबर्हणैः ।
पाण्डवैः पृथिवीं तात भोक्ष्यसे सहितः सुखी ॥ ३६ ॥

मूलम्

एकीभूतैर्महाप्राज्ञैः शूरैररिनिबर्हणैः ।
पाण्डवैः पृथिवीं तात भोक्ष्यसे सहितः सुखी ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! पाण्डव परस्पर संगठित होनेके कारण एकीभूत हो गये हैं। वे परम ज्ञानी, शूरवीर तथा शत्रुसंहारमें समर्थ हैं। तुम उनके साथ मिलकर सुखपूर्वक इस पृथ्वीका राज्य भोग सकोगे॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा भीष्मः शान्तनवो द्रोणश्चापि महारथः।
आहतुस्तात तत् सत्यमजेयौ कृष्णपाण्डवौ ॥ ३७ ॥

मूलम्

यथा भीष्मः शान्तनवो द्रोणश्चापि महारथः।
आहतुस्तात तत् सत्यमजेयौ कृष्णपाण्डवौ ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! शान्तनुनन्दन भीष्म तथा महारथी द्रोणाचार्य जैसा कह रहे हैं, वह सर्वथा सत्य है। वास्तवमें श्रीकृष्ण और अर्जुन अजेय हैं॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रपद्यस्व महाबाहुं कृष्णमक्लिष्टकारिणम् ।
प्रसन्नो हि सुखाय स्यादुभयोरेव केशवः ॥ ३८ ॥

मूलम्

प्रपद्यस्व महाबाहुं कृष्णमक्लिष्टकारिणम् ।
प्रसन्नो हि सुखाय स्यादुभयोरेव केशवः ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः अनायास ही महान् कर्म करनेवाले महाबाहु भगवान् श्रीकृष्णकी शरण लो; क्योंकि भगवान् केशव प्रसन्न होनेपर दोनों ही पक्षोंको सुखी बना सकते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुहृदामर्थकामानां यो न तिष्ठति शासने।
प्राज्ञानां कृतविद्यानां स नरः शत्रुनन्दनः ॥ ३९ ॥

मूलम्

सुहृदामर्थकामानां यो न तिष्ठति शासने।
प्राज्ञानां कृतविद्यानां स नरः शत्रुनन्दनः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो मनुष्य अपना भला चाहनेवाले ज्ञानी एवं विद्वान् सुहृदोंके शासनमें नहीं रहता—उनके उपदेशके अनुसार नहीं चलता, वह शत्रुओंका आनन्द बढ़ानेवाला होता है॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न युद्धे तात कल्याणं न धर्मार्थौ कुतः सुखम्।
न चापि विजयो नित्यं मा युद्धे चेत आधिथाः॥४०॥

मूलम्

न युद्धे तात कल्याणं न धर्मार्थौ कुतः सुखम्।
न चापि विजयो नित्यं मा युद्धे चेत आधिथाः॥४०॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! युद्ध करनेमें कल्याण नहीं है। उससे धर्म और अर्थकी भी प्राप्ति नहीं हो सकती, फिर सुख तो मिल ही कैसे सकता है? युद्धमें सदा विजय ही हो, यह भी निश्चित नहीं है; अतः उसमें मन न लगाओ॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मेण हि महाप्राज्ञ पित्रा ते बाह्लिकेन च।
दत्तोंऽशः पाण्डुपुत्राणां भेदाद् भीतैररिंदम ॥ ४१ ॥

मूलम्

भीष्मेण हि महाप्राज्ञ पित्रा ते बाह्लिकेन च।
दत्तोंऽशः पाण्डुपुत्राणां भेदाद् भीतैररिंदम ॥ ४१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुदमन! महाप्राज्ञ! आपसकी फूटके भयसे ही पितामह भीष्मने, तुम्हारे पिताने और महाराज बाह्लीकने भी पाण्डवोंको राज्यका भाग प्रदान किया है॥४१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्य चैतत्प्रदानस्य फलमद्यानुपश्यसि ।
यद् भुङ्क्षे पृथिवीं कृत्स्नां शूरैर्निहतकण्टकाम् ॥ ४२ ॥

मूलम्

तस्य चैतत्प्रदानस्य फलमद्यानुपश्यसि ।
यद् भुङ्क्षे पृथिवीं कृत्स्नां शूरैर्निहतकण्टकाम् ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उसीके देनेका आज तुम यह प्रत्यक्ष फल देखते हो कि उन शूरवीर पाण्डवोंद्वारा निष्कण्टक बनायी हुई इस सम्पूर्ण पृथ्वीका राज्य भोग रहे हो॥४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रयच्छ पाण्डुपुत्राणां यथोचितमरिंदम ।
यदीच्छसि सहामात्यो भोक्तुमर्धं प्रदीयताम् ॥ ४३ ॥

मूलम्

प्रयच्छ पाण्डुपुत्राणां यथोचितमरिंदम ।
यदीच्छसि सहामात्यो भोक्तुमर्धं प्रदीयताम् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुओंका दमन करनेवाले पुत्र! यदि तुम अपने मन्त्रियोंसहित राज्य भोगना चाहते हो तो पाण्डवोंको उनका यथोचित भाग—आधा राज्य दे दो॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलमर्धं पृथिव्यास्ते सहामात्यस्य जीवितुम्।
सुहृदां वचने तिष्ठन् यशः प्राप्स्यसि भारत ॥ ४४ ॥

मूलम्

अलमर्धं पृथिव्यास्ते सहामात्यस्य जीवितुम्।
सुहृदां वचने तिष्ठन् यशः प्राप्स्यसि भारत ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! भूमण्डलका आधा राज्य मन्त्रियोंसहित तुम्हारे जीवननिर्वाहके लिये पर्याप्त है। तुम सुहृदोंकी आज्ञाके अनुसार चलकर सुयश प्राप्त करोगे॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रीमद्भिरात्मवद्भिस्तैर्बुद्धिमद्भिर्जितेन्द्रियैः ।
पाण्डवैर्विग्रहस्तात भ्रंशयेन्महतः सुखात् ॥ ४५ ॥

मूलम्

श्रीमद्भिरात्मवद्भिस्तैर्बुद्धिमद्भिर्जितेन्द्रियैः ।
पाण्डवैर्विग्रहस्तात भ्रंशयेन्महतः सुखात् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! श्रीमान्, मनस्वी, बुद्धिमान् तथा जितेन्द्रिय पाण्डवोंके साथ होनेवाला कलह तुम्हें महान् सुखसे वंचित कर देगा॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निगृह्य सुहृदां मन्युं शाधि राज्यं यथोचितम्।
स्वमंशं पाण्डुपुत्रेभ्यः प्रदाय भरतर्षभ ॥ ४६ ॥

मूलम्

निगृह्य सुहृदां मन्युं शाधि राज्यं यथोचितम्।
स्वमंशं पाण्डुपुत्रेभ्यः प्रदाय भरतर्षभ ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! तुम पाण्डवोंको उनका राज्यभाग देकर सुहृदोंके बढ़ते हुए क्रोधको शान्त कर दो और अपने राज्यका यथोचित रीतिसे शासन करते रहो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अलमङ्ग निकारोऽयं त्रयोदश समाः कृतः।
शमयैनं महाप्राज्ञ कामक्रोधसमेधितम् ॥ ४७ ॥

मूलम्

अलमङ्ग निकारोऽयं त्रयोदश समाः कृतः।
शमयैनं महाप्राज्ञ कामक्रोधसमेधितम् ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बेटा! पाण्डवोंको जो तेरह वर्षोंके लिये निर्वासित कर दिया गया, यही उनका महान् अपकार हुआ है। महामते! तुम्हारे काम और क्रोधसे इस अपकारकी और भी वृद्धि हुई है। अब तुम संधिके द्वारा इसे शान्त कर दो॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चैष शक्तः पार्थानां यस्त्वमर्थमभीप्ससि।
सूतपुत्रो दृढक्रोधो भ्राता दुःशासनश्च ते ॥ ४८ ॥

मूलम्

न चैष शक्तः पार्थानां यस्त्वमर्थमभीप्ससि।
सूतपुत्रो दृढक्रोधो भ्राता दुःशासनश्च ते ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम जो कुन्तीके पुत्रोंका धन हड़प लेना चाहते हो, ऐसा करनेकी तुम्हारी शक्ति नहीं है। क्रोधको दृढ़तापूर्वक धारण करनेवाला सूतपुत्र कर्ण तथा तुम्हारा भाई दुःशासन—ये दोनों भी ऐसा करनेमें समर्थ नहीं हैं॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मे द्रोणे कृपे कर्णे भीमसेने धनंजये।
धृष्टद्युम्ने च संक्रुद्धे न स्युः सर्वाः प्रजा ध्रुवम्॥४९॥

मूलम्

भीष्मे द्रोणे कृपे कर्णे भीमसेने धनंजये।
धृष्टद्युम्ने च संक्रुद्धे न स्युः सर्वाः प्रजा ध्रुवम्॥४९॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिस समय भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण तथा भीमसेन, अर्जुन और धृष्टद्युम्न—ये अत्यन्त कुपित होकर परस्पर युद्ध करेंगे, उस समय सारी प्रजाका विनाश अवश्यम्भावी है॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अमर्षवशमापन्नो मा कुरूंस्तात जीघनः।
एषा हि पृथिवी कृत्स्ना मा गमत् त्वत्कृते वधम्॥५०॥

मूलम्

अमर्षवशमापन्नो मा कुरूंस्तात जीघनः।
एषा हि पृथिवी कृत्स्ना मा गमत् त्वत्कृते वधम्॥५०॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! तुम क्रोधके वशीभूत होकर समस्त कौरवोंका वध न कराओ। तुम्हारे लिये इस सम्पूर्ण भूमण्डलका विनाश न हो॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्च त्वं मन्यसे मूढ भीष्मद्रोणकृपादयः।
योत्स्यन्ते सर्वशक्त्येति नैतदद्योपपद्यते ॥ ५१ ॥

मूलम्

यच्च त्वं मन्यसे मूढ भीष्मद्रोणकृपादयः।
योत्स्यन्ते सर्वशक्त्येति नैतदद्योपपद्यते ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मूढ़! तुम जो यह समझ रहे हो कि भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य आदि अपनी पूरी शक्ति लगाकर मेरी ओरसे युद्ध करेंगे, यह इस समय कदापि सम्भव नहीं है॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समं हि राज्यं प्रीतिश्च स्थानं हि विदितात्मनाम्।
पाण्डवेष्वथ युष्मासु धर्मस्त्वभ्यधिकस्ततः ॥ ५२ ॥

मूलम्

समं हि राज्यं प्रीतिश्च स्थानं हि विदितात्मनाम्।
पाण्डवेष्वथ युष्मासु धर्मस्त्वभ्यधिकस्ततः ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्योंकि इन आत्मज्ञानी पुरुषोंकी दृष्टिमें इस राज्यका पाण्डवों अथवा तुमलोगोंके पास रहना समान ही है। इनके हृदयमें दोनोंके लिये एक-सा ही प्रेम और स्थान है तथा राज्यसे भी बढ़कर ये धर्मको महत्त्व देते हैं॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजपिण्डभयादेते यदि हास्यन्ति जीवितम्।
न हि शक्ष्यन्ति राजानं युधिष्ठिरमुदीक्षितुम् ॥ ५३ ॥

मूलम्

राजपिण्डभयादेते यदि हास्यन्ति जीवितम्।
न हि शक्ष्यन्ति राजानं युधिष्ठिरमुदीक्षितुम् ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस राज्यका इन्होंने जो अन्न खाया है, उसके भयसे यद्यपि ये तुम्हारी ओरसे लड़कर अपने प्राणोंका परित्याग कर देंगे, तथापि राजा युधिष्ठिरकी ओर कभी वक्र दृष्टिसे नहीं देख सकेंगे॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न लोभादर्थसम्पत्तिर्नराणामिह दृश्यते ।
तदलं तात लोभेन प्रशाम्य भरतर्षभ ॥ ५४ ॥

मूलम्

न लोभादर्थसम्पत्तिर्नराणामिह दृश्यते ।
तदलं तात लोभेन प्रशाम्य भरतर्षभ ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात भरतश्रेष्ठ! इस संसारमें केवल लोभ करनेसे किसीको धनकी प्राप्ति होती नहीं दिखायी देती; अतः लोभसे कुछ सिद्ध होनेवाला नहीं है। तुम पाण्डवोंके साथ संधि कर लो’॥५४॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि गान्धारीवाक्ये एकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें गान्धारीवाक्यविषयक एक सौ उनतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२९॥