१२८ कृष्णवाक्ये

भागसूचना

अष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

श्रीकृष्णका दुर्योधनको फटकारना और उसे कुपित होकर सभासे जाते देख उसे कैद करनेकी सलाह देना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः प्रशम्य दाशार्हः क्रोधपर्याकुलेक्षणः।
दुर्योधनमिदं वाक्यमब्रवीत् कुरुसंसदि ॥ १ ॥

मूलम्

ततः प्रशम्य दाशार्हः क्रोधपर्याकुलेक्षणः।
दुर्योधनमिदं वाक्यमब्रवीत् कुरुसंसदि ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वेशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! दुर्योधनकी बातें सुनकर श्रीकृष्णके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये। वे कुछ विचार करके कौरवसभामें दुर्योधनसे पुनः इस प्रकार बोले—॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लप्स्यसे वीरशयनं काममेतदवाप्स्यसि ।
स्थिरो भव सहामात्यो विमर्दो भविता महान् ॥ २ ॥

मूलम्

लप्स्यसे वीरशयनं काममेतदवाप्स्यसि ।
स्थिरो भव सहामात्यो विमर्दो भविता महान् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्योधन! तुझे रणभूमिमें वीर-शय्या प्राप्त होगी। तेरी यह इच्छा पूर्ण होगी। तू मन्त्रियोंसहित धैर्यपूर्वक रह। अब बहुत बड़ा नरसंहार होनेवाला है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्चैवं मन्यसे मूढ न मे कश्चिद् व्यतिक्रमः।
पाण्डवेष्विति तत् सर्वं निबोधत नराधिपाः ॥ ३ ॥

मूलम्

यच्चैवं मन्यसे मूढ न मे कश्चिद् व्यतिक्रमः।
पाण्डवेष्विति तत् सर्वं निबोधत नराधिपाः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मूढ़! तू जो ऐसा मानता है कि पाण्डवोंके प्रति मेरा कोई अपराध ही नहीं है तो इसके सम्बन्धमें मैं सब बातें बताता हूँ। राजाओ! आपलोग भी ध्यान देकर सुनें॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रिया संतप्यमानेन पाण्डवानां महात्मनाम्।
त्वया दुर्मन्त्रितं द्यूतं सौबलेन च भारत ॥ ४ ॥

मूलम्

श्रिया संतप्यमानेन पाण्डवानां महात्मनाम्।
त्वया दुर्मन्त्रितं द्यूतं सौबलेन च भारत ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! महात्मा पाण्डवोंकी बढ़ती हुई समृद्धिसे संतप्त होकर तूने ही शकुनिके साथ यह खोटा विचार किया था कि पाण्डवोंके साथ जूआ खेला जाय॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कथं च ज्ञातयस्तात श्रेयांसः साधुसम्मताः।
अथान्याय्यमुपस्थातुं जिह्मेनाजिह्मचारिणः ॥ ५ ॥

मूलम्

कथं च ज्ञातयस्तात श्रेयांसः साधुसम्मताः।
अथान्याय्यमुपस्थातुं जिह्मेनाजिह्मचारिणः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! अन्यथा सदा सरलतापूर्ण बर्ताव करनेवाले और साधु-सम्मानित तेरे श्रेष्ठ बन्धु पाण्डव यहाँ तुम-जैसे कपटीके साथ अन्याययुक्त द्यूतके लिये कैसे उपस्थित हो सकते थे?॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अक्षद्यूतं महाप्राज्ञ सतां मतिविनाशनम्।
असतां तत्र जायन्ते भेदाश्च व्यसनानि च ॥ ६ ॥

मूलम्

अक्षद्यूतं महाप्राज्ञ सतां मतिविनाशनम्।
असतां तत्र जायन्ते भेदाश्च व्यसनानि च ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महामते! जूएका खेल तो सत्पुरुषोंकी बुद्धिको भी नाश करनेवाला है और यदि दुष्ट पुरुष उसमें प्रवृत्त हों तो उनमें बड़ा भारी कलह होता है तथा उन सबपर बहुत-से संकट छा जाते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदिदं व्यसनं घोरं त्वया द्यूतमुखं कृतम्।
असमीक्ष्य सदाचारान् सार्धं पापानुबन्धनैः ॥ ७ ॥

मूलम्

तदिदं व्यसनं घोरं त्वया द्यूतमुखं कृतम्।
असमीक्ष्य सदाचारान् सार्धं पापानुबन्धनैः ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तूने ही सदाचारकी ओर लक्ष्य न रखकर पापासक्त पुरुषोंके सहित भयंकर विपत्तिके कारणभूत ये द्यूतक्रीड़ा आदि कार्य किये हैं॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कश्चान्यो भ्रातृभार्यां वै विप्रकर्तुं तथार्हति।
आनीय च सभां व्यक्तं यथोक्ता द्रौपदी त्वया ॥ ८ ॥

मूलम्

कश्चान्यो भ्रातृभार्यां वै विप्रकर्तुं तथार्हति।
आनीय च सभां व्यक्तं यथोक्ता द्रौपदी त्वया ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तेरे सिवा दूसरा कौन ऐसा अधम होगा, जो अपने बड़े भाईकी पत्नीको सभामें लाकर उसके साथ वैसा अनुचित बर्ताव करेगा। जैसा कि तूने द्रौपदीके प्रति स्पष्टरूपसे न कहने योग्य बातें कहकर दुर्व्यवहार किया है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कुलीना शीलसम्पन्ना प्राणेभ्योऽपि गरीयसी।
महिषी पाण्डुपुत्राणां तथा विनिकृता त्वया ॥ ९ ॥

मूलम्

कुलीना शीलसम्पन्ना प्राणेभ्योऽपि गरीयसी।
महिषी पाण्डुपुत्राणां तथा विनिकृता त्वया ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘द्रौपदी उत्तम कुलमें उत्पन्न, शील और सदाचारसे सम्पन्न तथा पाण्डवोंके लिये प्राणोंसे भी अधिक आदरणीय उन सबकी महारानी है। तथापि तूने उसके प्रति अत्याचार किया॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जानन्ति कुरवः सर्वे यथोक्ताः कुरुसंसदि।
दुःशासनेन कौन्तेयाः प्रव्रजन्तः परंतपाः ॥ १० ॥

मूलम्

जानन्ति कुरवः सर्वे यथोक्ताः कुरुसंसदि।
दुःशासनेन कौन्तेयाः प्रव्रजन्तः परंतपाः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिस समय शत्रुओंको संताप देनेवाले कुन्तीकुमार पाण्डव वनको जा रहे थे, उस समय दुःशासनने कौरवसभामें उनके प्रति जैसी कठोर बातें कही थीं, उन्हें सभी कौरव जानते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सम्यग्वृत्तेष्वलुब्धेषु सततं धर्मचारिषु ।
स्वेषु बन्धुषु कः साधुश्चरेदेवमसाम्प्रतम् ॥ ११ ॥

मूलम्

सम्यग्वृत्तेष्वलुब्धेषु सततं धर्मचारिषु ।
स्वेषु बन्धुषु कः साधुश्चरेदेवमसाम्प्रतम् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सदा धर्ममें ही तत्पर रहनेवाले लोभरहित सदाचारी अपने बन्धुओंके प्रति कौन साधु पुरुष ऐसा अयोग्य बर्ताव करेगा?॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नृशंसानामनार्याणां पुरुषाणां च भाषणम्।
कर्णदुःशासनाभ्यां च त्वया च बहुशः कृतम् ॥ १२ ॥

मूलम्

नृशंसानामनार्याणां पुरुषाणां च भाषणम्।
कर्णदुःशासनाभ्यां च त्वया च बहुशः कृतम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्योधन! तूने कर्ण और दुःशासनके साथ अनेक बार निर्दयी तथा अनार्य पुरुषोंकी-सी बातें कही हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सह मात्रा प्रदग्धुं तान् बालकान् वारणावते।
आस्थितः परमं यत्नं न समृद्धं च तत् तव॥१३॥

मूलम्

सह मात्रा प्रदग्धुं तान् बालकान् वारणावते।
आस्थितः परमं यत्नं न समृद्धं च तत् तव॥१३॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तूने वारणावत नगरमें बाल्यावस्थामें पाण्डवोंको उनकी मातासहित जला डालनेका महान् प्रयत्न किया था, परंतु तेरा वह उद्देश्य सफल न हो सका॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऊषुश्च सुचिरं कालं प्रच्छन्नाः पाण्डवास्तदा।
मात्रा सहैकचक्रायां ब्राह्मणस्य निवेशने ॥ १४ ॥

मूलम्

ऊषुश्च सुचिरं कालं प्रच्छन्नाः पाण्डवास्तदा।
मात्रा सहैकचक्रायां ब्राह्मणस्य निवेशने ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उन दिनों पाण्डव अपनी माताके साथ सुदीर्घ-कालतक एकचक्रा नगरीमें किसी ब्राह्मणके घरमें छिपे रहे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विषेण सर्पबन्धैश्च यतिताः पाण्डवास्त्वया।
सर्वोपायैर्विनाशाय न समृद्धं च तत् तव ॥ १५ ॥

मूलम्

विषेण सर्पबन्धैश्च यतिताः पाण्डवास्त्वया।
सर्वोपायैर्विनाशाय न समृद्धं च तत् तव ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तूने (भीमसेनको) विष देकर, सर्पसे कटाकर और बँधे हुए हाथ-पैरोंसहित जलमें डुबाकर इन सभी उपायोंद्वारा पाण्डवोंको नष्ट कर देनेका प्रयत्न किया है, परंतु तेरा यह प्रयास भी सफल न हो सका॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवंबुद्धिः पाण्डवेषु मिथ्यावृत्तिः सदा भवान्।
कथं ते नापराधोऽस्ति पाण्डवेषु महात्मसु ॥ १६ ॥

मूलम्

एवंबुद्धिः पाण्डवेषु मिथ्यावृत्तिः सदा भवान्।
कथं ते नापराधोऽस्ति पाण्डवेषु महात्मसु ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ऐसे ही विचार रखकर तू पाण्डवोंके प्रति सदा कपटपूर्ण बर्ताव करता आया है, फिर कैसे मान लिया जाय कि महात्मा पाण्डवोंके प्रति तेरा कोई अपराध ही नहीं है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यच्चैभ्यो याचमानेभ्यः पित्र्यमंशं न दित्ससि।
तच्च पाप प्रदातासि भ्रष्टैश्वर्यो निपातितः ॥ १७ ॥

मूलम्

यच्चैभ्यो याचमानेभ्यः पित्र्यमंशं न दित्ससि।
तच्च पाप प्रदातासि भ्रष्टैश्वर्यो निपातितः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पापात्मन्! तू याचना करनेपर इन पाण्डवोंको जो पैतृक राज्य-भाग नहीं देना चाहता है, वही तुझे उस समय देना पड़ेगा, जब कि रणभूमिमें धराशायी होकर तू ऐश्वर्यसे भ्रष्ट हो जायगा॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृत्वा बहून्यकार्याणि पाण्डवेषु नृशंसवत्।
मिथ्यावृत्तिरनार्यः सन्नद्य विप्रतिपद्यसे ॥ १८ ॥

मूलम्

कृत्वा बहून्यकार्याणि पाण्डवेषु नृशंसवत्।
मिथ्यावृत्तिरनार्यः सन्नद्य विप्रतिपद्यसे ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्रूरकर्मी मनुष्योंकी भाँति तू पाण्डवोंके प्रति बहुत-से अयोग्य बर्ताव करके मिथ्याचारी और अनार्य होकर भी आज अपने उन अपराधोंके प्रति अनभिज्ञता प्रकट करता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातापितृभ्यां भीष्मेण द्रोणेन विदुरेण च।
शाम्येति मुहुरुक्तोऽसि न च शाम्यसि पार्थिव ॥ १९ ॥

मूलम्

मातापितृभ्यां भीष्मेण द्रोणेन विदुरेण च।
शाम्येति मुहुरुक्तोऽसि न च शाम्यसि पार्थिव ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘माता-पिता, भीष्म, द्रोण और विदुर सबने तुझसे बार-बार कहा है कि तू संधि कर ले—शान्त हो जा, परंतु भूपाल! तू शान्त होनेका नाम ही नहीं लेता॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शमे हि सुमहाल्ँलाभस्तव पार्थस्य चोभयोः।
न च रोचयसे राजन् किमन्यद् बुद्धिलाघवात् ॥ २० ॥

मूलम्

शमे हि सुमहाल्ँलाभस्तव पार्थस्य चोभयोः।
न च रोचयसे राजन् किमन्यद् बुद्धिलाघवात् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! शान्ति स्थापित होनेपर तेरा और युधिष्ठिरका दोनोंका ही महान् लाभ है, परंतु तुझे यह प्रस्ताव अच्छा नहीं लगता। इसे बुद्धिकी मन्दताके सिवा और क्या कहा जा सकता है?॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न शर्म प्राप्स्यसे राजन्नुत्क्रम्य सुहृदां वचः।
अधर्म्यमयशस्यं च क्रियते पार्थिव त्वया ॥ २१ ॥

मूलम्

न शर्म प्राप्स्यसे राजन्नुत्क्रम्य सुहृदां वचः।
अधर्म्यमयशस्यं च क्रियते पार्थिव त्वया ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! तू हितैषी सुहृदोंकी आज्ञाका उल्लंघन करके कल्याणका भागी नहीं हो सकेगा। भूपाल! तू सदा अधर्म और अपयशका कार्य करता है’॥२१॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं ब्रुवति दाशार्हे दुर्योधनममर्षणम्।
दुःशासन इदं वाक्यमब्रवीत् कुरुसंसदि ॥ २२ ॥

मूलम्

एवं ब्रुवति दाशार्हे दुर्योधनममर्षणम्।
दुःशासन इदं वाक्यमब्रवीत् कुरुसंसदि ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जिस समय भगवान् श्रीकृष्ण ये सब बातें कह रहे थे, उसी समय दुःशासनने बीचमें ही अमर्षशील दुर्योधनसे कौरवसभामें ही कहा—॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चेत् संधास्यसे राजन् स्वेन कामेन पाण्डवैः।
बद्‌ध्वा किल त्वां दास्यन्ति कुन्तीपुत्राय कौरवाः ॥ २३ ॥

मूलम्

न चेत् संधास्यसे राजन् स्वेन कामेन पाण्डवैः।
बद्‌ध्वा किल त्वां दास्यन्ति कुन्तीपुत्राय कौरवाः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! यदि आप अपनी इच्छासे पाण्डवोंके साथ संधि नहीं करेंगे तो जान पड़ता है, कौरवलोग आपको बाँधकर कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरके हाथमें सौंप देंगे॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वैकर्तनं त्वां च मां च त्रीनेतान् मनुजर्षभ।
पाण्डवेभ्यः प्रदास्यन्ति भीष्मो द्रोणः पिता च ते ॥ २४ ॥

मूलम्

वैकर्तनं त्वां च मां च त्रीनेतान् मनुजर्षभ।
पाण्डवेभ्यः प्रदास्यन्ति भीष्मो द्रोणः पिता च ते ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरश्रेष्ठ! पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण और पिताजी—ये कर्णको, आपको और मुझे—इन तीनोंको ही पाण्डवोंके अधिकारमें दे देंगे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भ्रातुरेतद् वचः श्रुत्वा धार्तराष्ट्रः सुयोधनः।
क्रुद्धः प्रातिष्ठतोत्थाय महानाग इव श्वसन् ॥ २५ ॥
विदुरं धृतराष्ट्रं च महाराजं च बाह्लिकम्।
कृपं च सोमदत्तं च भीष्मं द्रोणं जनार्दनम् ॥ २६ ॥
सर्वानेताननादृत्य दुर्मतिर्निरपत्रपः ।
अशिष्टवदमर्यादो मानी मान्यावमानिता ॥ २७ ॥

मूलम्

भ्रातुरेतद् वचः श्रुत्वा धार्तराष्ट्रः सुयोधनः।
क्रुद्धः प्रातिष्ठतोत्थाय महानाग इव श्वसन् ॥ २५ ॥
विदुरं धृतराष्ट्रं च महाराजं च बाह्लिकम्।
कृपं च सोमदत्तं च भीष्मं द्रोणं जनार्दनम् ॥ २६ ॥
सर्वानेताननादृत्य दुर्मतिर्निरपत्रपः ।
अशिष्टवदमर्यादो मानी मान्यावमानिता ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भाईकी यह बात सुनकर धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधन अत्यन्त कुपित हो फुफकारते हुए महान् सर्पकी भाँति लंबी साँसें खींचता हुआ वहाँसे उठकर चल दिया। वह दुर्बुद्धि, निर्लज्ज, अशिष्ट पुरुषोंकी भाँति मर्यादाशून्य, अभिमानी तथा माननीय पुरुषोंका अपमान करनेवाला था। वह विदुर, धृतराष्ट्र, महाराज बाह्लीक, कृपाचार्य, सोमदत्त, भीष्म, द्रोणाचार्य और भगवान् श्रीकृष्ण—इन सबका अनादर करके वहाँसे चल पड़ा॥२५—२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तं प्रस्थितमभिप्रेक्ष्य भ्रातरो मनुजर्षभम्।
अनुजग्मुः सहामात्या राजानश्चापि सर्वशः ॥ २८ ॥

मूलम्

तं प्रस्थितमभिप्रेक्ष्य भ्रातरो मनुजर्षभम्।
अनुजग्मुः सहामात्या राजानश्चापि सर्वशः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नरश्रेष्ठ दुर्योधनको वहाँसे जाते देख उसके भाई, मन्त्री तथा सहयोगी नरेश सब-के-सब उठकर उसके साथ चल दिये॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सभायामुत्थितं क्रुद्धं प्रस्थितं भ्रातृभिः सह।
दुर्योधनमभिप्रेक्ष्य भीष्मः शान्तनवोऽब्रवीत् ॥ २९ ॥

मूलम्

सभायामुत्थितं क्रुद्धं प्रस्थितं भ्रातृभिः सह।
दुर्योधनमभिप्रेक्ष्य भीष्मः शान्तनवोऽब्रवीत् ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इस प्रकार क्रोधमें भरे हुए दुर्योधनको भाइयों-सहित सभासे उठकर जाते देख शान्तनुनन्दन भीष्मने कहा—॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मार्थावभिसंत्यज्य संरम्भं योऽनुमन्यते ।
हसन्ति व्यसने तस्य दुर्हृदो नचिरादिव ॥ ३० ॥

मूलम्

धर्मार्थावभिसंत्यज्य संरम्भं योऽनुमन्यते ।
हसन्ति व्यसने तस्य दुर्हृदो नचिरादिव ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो धर्म और अर्थका परित्याग करके क्रोधका ही अनुसरण करता है, उसे शीघ्र ही विपत्तिमें पड़ा देख उसके शत्रुगण हँसी उड़ाते हैं॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुरात्मा राजपुत्रोऽयं धार्तराष्ट्रोऽनुपायकृत् ।
मिथ्याभिमानी राज्यस्य क्रोधलोभवशानुगः ॥ ३१ ॥

मूलम्

दुरात्मा राजपुत्रोऽयं धार्तराष्ट्रोऽनुपायकृत् ।
मिथ्याभिमानी राज्यस्य क्रोधलोभवशानुगः ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजा धृतराष्ट्रका यह दुरात्मा पुत्र दुर्योधन लक्ष्य-सिद्धिके उपायके विपरीत कार्य करनेवाला तथा क्रोध और लोभके वशीभूत रहनेवाला है। इसे राजा होनेका मिथ्या अभिमान है॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कालपक्वमिदं मन्ये सर्वं क्षत्रं जनार्दन।
सर्वे ह्यनुसृता मोहात् पार्थिवाः सह मन्त्रिभिः ॥ ३२ ॥

मूलम्

कालपक्वमिदं मन्ये सर्वं क्षत्रं जनार्दन।
सर्वे ह्यनुसृता मोहात् पार्थिवाः सह मन्त्रिभिः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जनार्दन! मैं समझता हूँ कि ये समस्त क्षत्रियगण कालसे पके हुए फलकी भाँति मौतके मुँहमें जानेवाले हैं। तभी तो ये सब-के-सब मोहवश अपने मन्त्रियोंके साथ दुर्योधनका अनुसरण करते हैं’॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीष्मस्याथ वचः श्रुत्वा दाशार्हः पुष्करेक्षणः।
भीष्मद्रोणमुखान् सर्वानभ्यभाषत वीर्यवान् ॥ ३३ ॥

मूलम्

भीष्मस्याथ वचः श्रुत्वा दाशार्हः पुष्करेक्षणः।
भीष्मद्रोणमुखान् सर्वानभ्यभाषत वीर्यवान् ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भीष्मका यह कथन सुनकर महापराक्रमी दशार्हकुलनन्दन कमलनयन श्रीकृष्णने भीष्म और द्रोण आदि सब लोगोंसे इस प्रकार कहा—॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सर्वेषां कुरुवृद्धानां महानयमतिक्रमः ।
प्रसह्य मन्दमैश्वर्ये न नियच्छत यन्नृपम् ॥ ३४ ॥

मूलम्

सर्वेषां कुरुवृद्धानां महानयमतिक्रमः ।
प्रसह्य मन्दमैश्वर्ये न नियच्छत यन्नृपम् ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुकुलके सभी बड़े-बूढ़े लोगोंका यह बहुत बड़ा अन्याय है कि आपलोग इस मूर्ख दुर्योधनको राजाके पदपर बिठाकर अब इसका बलपूर्वक नियन्त्रण नहीं कर रहे हैं॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तत्र कार्यमहं मन्ये कालप्राप्तमरिंदमाः।
क्रियमाणे भवेच्छ्रेयस्तत् सर्वं शृणुतानघाः ॥ ३५ ॥

मूलम्

तत्र कार्यमहं मन्ये कालप्राप्तमरिंदमाः।
क्रियमाणे भवेच्छ्रेयस्तत् सर्वं शृणुतानघाः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘शत्रुओंका दमन करनेवाले निष्पाप कौरवो! इस विषयमें मैंने समयोचित कर्तव्यका निश्चय कर लिया है, जिसका पालन करनेपर सबका भला होगा। वह सब मैं बता रहा हूँ, आपलोग सुनें॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्यक्षमेतद् भवतां यद् वक्ष्यामि हितं वचः।
भवतामानुकूल्येन यदि रोचेत भारताः ॥ ३६ ॥

मूलम्

प्रत्यक्षमेतद् भवतां यद् वक्ष्यामि हितं वचः।
भवतामानुकूल्येन यदि रोचेत भारताः ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मैं तो हितकी बात बताने जा रहा हूँ। उसका आपलोगोंको भी प्रत्यक्ष अनुभव है। भरतवंशियो! यदि वह आपके अनुकूल होनेके कारण ठीक जान पड़े तो आप उसे काममें ला सकते हैं॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भोजराजस्य वृद्धस्य दुराचारो ह्यनात्मवान्।
जीवतः पितुरैश्वर्यं हृत्वा मृत्युवशं गतः ॥ ३७ ॥

मूलम्

भोजराजस्य वृद्धस्य दुराचारो ह्यनात्मवान्।
जीवतः पितुरैश्वर्यं हृत्वा मृत्युवशं गतः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बूढ़े भोजराज उग्रसेनका पुत्र कंस बड़ा दुराचारी एवं अजितेन्द्रिय था। वह अपने पिताके जीते-जी उनका सारा ऐश्वर्य लेकर स्वयं राजा बन बैठा था, जिसका परिणाम यह हुआ कि वह मृत्युके अधीन हो गया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उग्रसेनसुतः कंसः परित्यक्तः स बान्धवैः।
ज्ञातीनां हितकामेन मया शस्तो महामृधे ॥ ३८ ॥

मूलम्

उग्रसेनसुतः कंसः परित्यक्तः स बान्धवैः।
ज्ञातीनां हितकामेन मया शस्तो महामृधे ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘समस्त भाई-बन्धुओंने उसका त्याग कर दिया था, अतः सजातीय बन्धुओंके हितकी इच्छासे मैंने महान् युद्धमें उस उग्रसेनपुत्र कंसको मार डाला॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आहुकः पुनरस्माभिर्ज्ञातिभिश्चापि सत्कृतः ।
उग्रसेनः कृतो राजा भोजराजन्यवर्धनः ॥ ३९ ॥

मूलम्

आहुकः पुनरस्माभिर्ज्ञातिभिश्चापि सत्कृतः ।
उग्रसेनः कृतो राजा भोजराजन्यवर्धनः ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तदनन्तर हम सब कुटुम्बीजनोंने मिलकर भोज-वंशी क्षत्रियोंकी उन्नति करनेवाले आहुक उग्रसेनको सत्कारपूर्वक पुनः राजा बना दिया॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कंसमेकं परित्यज्य कुलार्थे सर्वयादवाः।
सम्भूय सुखमेधन्ते भारतान्धकवृष्णयः ॥ ४० ॥

मूलम्

कंसमेकं परित्यज्य कुलार्थे सर्वयादवाः।
सम्भूय सुखमेधन्ते भारतान्धकवृष्णयः ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतनन्दन! कुलकी रक्षाके लिये एकमात्र कंसका परित्याग करके अन्धक और वृष्णि आदि कुलोंके समस्त यादव परस्पर संगठित हो सुखसे रहते और उत्तरोत्तर उन्नति कर रहे हैं॥४०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अपि चाप्यवदद् राजन् परमेष्ठी प्रजापतिः।
व्यूढे देवासुरे युद्धेऽभ्युद्यतेष्वायुधेषु च ॥ ४१ ॥
द्वैधीभूतेषु लोकेषु विनश्यत्सु च भारत।
अब्रवीत् सृष्टिमान् देवो भगवाल्ँलोकभावनः ॥ ४२ ॥
पराभविष्यन्त्यसुरा दैतेया दानवैः सह।
आदित्या वसवो रुद्रा भविष्यन्ति दिवौकसः ॥ ४३ ॥
देवासुरमनुष्याश्च गन्धर्वोरगराक्षसाः ।
अस्मिन् युद्धे सुसंक्रुद्धा हनिष्यन्ति परस्परम् ॥ ४४ ॥

मूलम्

अपि चाप्यवदद् राजन् परमेष्ठी प्रजापतिः।
व्यूढे देवासुरे युद्धेऽभ्युद्यतेष्वायुधेषु च ॥ ४१ ॥
द्वैधीभूतेषु लोकेषु विनश्यत्सु च भारत।
अब्रवीत् सृष्टिमान् देवो भगवाल्ँलोकभावनः ॥ ४२ ॥
पराभविष्यन्त्यसुरा दैतेया दानवैः सह।
आदित्या वसवो रुद्रा भविष्यन्ति दिवौकसः ॥ ४३ ॥
देवासुरमनुष्याश्च गन्धर्वोरगराक्षसाः ।
अस्मिन् युद्धे सुसंक्रुद्धा हनिष्यन्ति परस्परम् ॥ ४४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! इसके सिवा एक और उदाहरण लीजिये। एक समय प्रजापति ब्रह्माजीने जो बात कही थी, वही बता रहा हूँ। देवता और असुर युद्धके लिये मोर्चे बाँधकर खड़े थे। सबके अस्त्र-शस्त्र प्रहारके लिये ऊपर उठ गये थे। सारा संसार दो भागोंमें बँटकर विनाशके गर्तमें गिरना चाहता था। भारत! उस अवस्थामें सृष्टिकी रचना करनेवाले लोकभावन भगवान् ब्रह्माजीने स्पष्टरूपसे बता दिया कि इस युद्धमें दानवोंसहित दैत्यों तथा असुरोंकी पराजय होगी। आदित्य, वसु तथा रुद्र आदि देवता विजयी होंगे। देवता, असुर, मनुष्य, गन्धर्व, नाग तथा राक्षस—ये युद्धमें अत्यन्त कुपित होकर एक-दूसरेका वध करेंगे॥४१—४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इति मत्वाब्रवीद् धर्मं परमेष्ठी प्रजापतिः।
वरुणाय प्रयच्छैतान् बद्‌ध्वा दैतेयदानवान् ॥ ४५ ॥

मूलम्

इति मत्वाब्रवीद् धर्मं परमेष्ठी प्रजापतिः।
वरुणाय प्रयच्छैतान् बद्‌ध्वा दैतेयदानवान् ॥ ४५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह भावी परिणाम जानकर परमेष्ठी प्रजापति ब्रह्माने धर्मराजसे यह बात कही—‘तुम इन दैत्यों और दानवोंको बाँधकर वरुणदेवको सौंप दो’॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्ततो धर्मो नियोगात् परमेष्ठिनः।
वरुणाय ददौ सर्वान् बद्‌ध्वा दैतेयदानवान् ॥ ४६ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्ततो धर्मो नियोगात् परमेष्ठिनः।
वरुणाय ददौ सर्वान् बद्‌ध्वा दैतेयदानवान् ॥ ४६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘उनके ऐसा कहनेपर धर्मने ब्रह्माजीकी आज्ञाके अनुसार सम्पूर्ण दैत्यों और दानवोंको बाँधकर वरुणको सौंप दिया॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तान् बद्‌ध्वा धर्मपाशैश्च स्वैश्च पाशैर्जलेश्वरः।
वरुणः सागरे यत्तो नित्यं रक्षति दानवान् ॥ ४७ ॥

मूलम्

तान् बद्‌ध्वा धर्मपाशैश्च स्वैश्च पाशैर्जलेश्वरः।
वरुणः सागरे यत्तो नित्यं रक्षति दानवान् ॥ ४७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तबसे जलके स्वामी वरुण उन्हें धर्मपाश एवं वारुणपाशमें बाँधकर प्रतिदिन सावधान रहकर उन दानवोंको समुद्रकी सीमामें ही रखते हैं॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा दुर्योधनं कर्णं शकुनिं चापि सौबलम्।
बद्‌ध्वा दुःशासनं चापि पाण्डवेभ्यः प्रयच्छथ ॥ ४८ ॥

मूलम्

तथा दुर्योधनं कर्णं शकुनिं चापि सौबलम्।
बद्‌ध्वा दुःशासनं चापि पाण्डवेभ्यः प्रयच्छथ ॥ ४८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतवंशियो! उसी प्रकार आपलोग दुर्योधन, कर्ण, सुबलपुत्र शकुनि तथा दुःशासनको बंदी बनाकर पाण्डवोंके हाथमें दे दें॥४८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्यजेत् कुलार्थे पुरुषं ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥ ४९ ॥

मूलम्

त्यजेत् कुलार्थे पुरुषं ग्रामस्यार्थे कुलं त्यजेत्।
ग्रामं जनपदस्यार्थे आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत् ॥ ४९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘समस्त कुलकी भलाईके लिये एक पुरुषको, एक गाँवके हितके लिये एक कुलको, जनपदके भलेके लिये एक गाँवको और आत्मकल्याणके लिये समस्त भूमण्डलको त्याग दे॥४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

राजन् दुर्योधनं बद्‌ध्वा ततः संशाम्य पाण्डवैः।
त्वत्कृते न विनश्येयुः क्षत्रियाः क्षत्रियर्षभ ॥ ५० ॥

मूलम्

राजन् दुर्योधनं बद्‌ध्वा ततः संशाम्य पाण्डवैः।
त्वत्कृते न विनश्येयुः क्षत्रियाः क्षत्रियर्षभ ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! आप दुर्योधनको कैद करके पाण्डवोंसे संधि कर लें। क्षत्रियशिरोमणे! ऐसा न हो कि आपके कारण समस्त क्षत्रियोंका विनाश हो जाय’॥५०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि कृष्णवाक्ये अष्टाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२८ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें श्रीकृष्णवाक्यविषयक एक सौ अट्ठाईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२८॥