भागसूचना
सप्तविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
श्रीकृष्णको दुर्योधनका उत्तर, उसका पाण्डवोंको राज्य न देनेका निश्चय
मूलम् (वचनम्)
वैशम्पायन उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रुत्वा दुर्योधनो वाक्यमप्रियं कुरुसंसदि।
प्रत्युवाच महाबाहुं वासुदेवं यशस्विनम् ॥ १ ॥
मूलम्
श्रुत्वा दुर्योधनो वाक्यमप्रियं कुरुसंसदि।
प्रत्युवाच महाबाहुं वासुदेवं यशस्विनम् ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कौरवसभामें यह अप्रिय वचन सुनकर दुर्योधनने यशस्वी महाबाहु वसुदेवनन्दन श्रीकृष्णको इस प्रकार उत्तर दिया—॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रसमीक्ष्य भवानेतद् वक्तुमर्हति केशव।
मामेव हि विशेषेण विभाष्य परिगर्हसे ॥ २ ॥
मूलम्
प्रसमीक्ष्य भवानेतद् वक्तुमर्हति केशव।
मामेव हि विशेषेण विभाष्य परिगर्हसे ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘केशव! आपको अच्छी तरह सोच-विचारकर ऐसी बातें कहनी चाहिये। आप तो विशेषरूपसे मुझे ही दोषी ठहराकर मेरी निन्दा कर रहे हैं॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भक्तिवादेन पार्थानामकस्मान्मधुसूदन ।
भवान् गर्हयते नित्यं किं समीक्ष्य बलाबलम् ॥ ३ ॥
मूलम्
भक्तिवादेन पार्थानामकस्मान्मधुसूदन ।
भवान् गर्हयते नित्यं किं समीक्ष्य बलाबलम् ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मधुसूदन! आप पाण्डवोंके प्रेमकी दुहाई देकर जो अकारण ही सदा हमारी निन्दा करते रहते हैं, इसका क्या कारण है? क्या आप हमलोगोंके बलाबलका विचार करके ऐसा करते हैं?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भवान् क्षत्ता च राजा वाप्याचार्यो वा पितामहः।
मामेव परिगर्हन्ते नान्यं कंचन पार्थिवम् ॥ ४ ॥
मूलम्
भवान् क्षत्ता च राजा वाप्याचार्यो वा पितामहः।
मामेव परिगर्हन्ते नान्यं कंचन पार्थिवम् ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं देखता हूँ, आप, विदुरजी, पिताजी, आचार्य अथवा पितामह भीष्म सभी लोग केवल मुझपर ही दोषारोपण करते हैं; दूसरे किसी राजापर नहीं॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चाहं लक्षये कंचिद् व्यभिचारमिहात्मनः।
अथ सर्वे भवन्तो मां विद्विषन्ति सराजकाः ॥ ५ ॥
मूलम्
न चाहं लक्षये कंचिद् व्यभिचारमिहात्मनः।
अथ सर्वे भवन्तो मां विद्विषन्ति सराजकाः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘परंतु मुझे यहाँ अपना कोई दोष नहीं दिखायी देता है। इधर राजा धृतराष्ट्रसहित आप सब लोग अकारण ही मुझसे द्वेष रखने लगे हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चाहं कंचिदत्यर्थमपराधमरिंदम ।
विचिन्तयन् प्रपश्यामि सुसूक्ष्ममपि केशव ॥ ६ ॥
मूलम्
न चाहं कंचिदत्यर्थमपराधमरिंदम ।
विचिन्तयन् प्रपश्यामि सुसूक्ष्ममपि केशव ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुदमन केशव! मैं अत्यन्त सोच-विचारकर दृष्टि डालता हूँ, तो भी मुझे अपना कोई सूक्ष्म-से-सूक्ष्म अपराध भी नहीं दृष्टिगोचर होता है॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रियाभ्युपगते द्यूते पाण्डवा मधुसूदन।
जिताः शकुनिना राज्यं तत्र किं मम दुष्कृतम् ॥ ७ ॥
मूलम्
प्रियाभ्युपगते द्यूते पाण्डवा मधुसूदन।
जिताः शकुनिना राज्यं तत्र किं मम दुष्कृतम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मधुसूदन! पाण्डवोंको जूएका खेल बड़ा प्रिय था। इसीलिये वे उसमें प्रवृत्त हुए। फिर यदि मामा शकुनिने उनका राज्य जीत लिया तो इसमें मेरा क्या अपराध हो गया?॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यत् पुनर्द्रविणं किंचित् तत्राजीयन्त पाण्डवाः।
तेभ्य एवाभ्यनुज्ञातं तत् तदा मधुसूदन ॥ ८ ॥
मूलम्
यत् पुनर्द्रविणं किंचित् तत्राजीयन्त पाण्डवाः।
तेभ्य एवाभ्यनुज्ञातं तत् तदा मधुसूदन ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मधुसूदन! उस जूएमें पाण्डवोंने जो कुछ भी धन हारा था, वह सब उसी समय उन्हींको लौटा दिया गया था॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अपराधो न चास्माकं यत् ते द्यूते पराजिताः।
अजेया जयतां श्रेष्ठ पार्थाः प्रव्राजिता वनम् ॥ ९ ॥
मूलम्
अपराधो न चास्माकं यत् ते द्यूते पराजिताः।
अजेया जयतां श्रेष्ठ पार्थाः प्रव्राजिता वनम् ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘विजयी वीरोंमें श्रेष्ठ श्रीकृष्ण! यदि अजेय पाण्डव जूएमें पुनः पराजित हो गये और वनमें जानेको विवश हुए तो यह हमलोगोंका अपराध नहीं है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
केन वाप्यपराधेन विरुद्ध्यन्त्यरिभिः सह।
अशक्ताः पाण्डवाः कृष्ण प्रहृष्टाः प्रत्यमित्रवत् ॥ १० ॥
मूलम्
केन वाप्यपराधेन विरुद्ध्यन्त्यरिभिः सह।
अशक्ताः पाण्डवाः कृष्ण प्रहृष्टाः प्रत्यमित्रवत् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कृष्ण! हमारे किस अपराधसे असमर्थ पाण्डव शत्रुओंके साथ मिलकर हमारा विरोध करते हैं और ऐसा करके भी सहज शत्रुकी भाँति प्रसन्न हो रहे हैं॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमस्माभिः कृतं तेषां कस्मिन् वा पुनरागसि।
धार्तराष्ट्रान् जिघांसन्ति पाण्डवाः सृंजयैः सह ॥ ११ ॥
मूलम्
किमस्माभिः कृतं तेषां कस्मिन् वा पुनरागसि।
धार्तराष्ट्रान् जिघांसन्ति पाण्डवाः सृंजयैः सह ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हमने उनका क्या बिगाड़ा है? वे पाण्डव हमारे किस अपराधपर सृंजयोंके साथ मिलकर हम धृतराष्ट्र-पुत्रोंका वध करना चाहते हैं?॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न चापि वयमुग्रेण कर्मणा वचनेन वा।
प्रभ्रष्टाः प्रणमामेह भयादपि शतक्रतुम् ॥ १२ ॥
मूलम्
न चापि वयमुग्रेण कर्मणा वचनेन वा।
प्रभ्रष्टाः प्रणमामेह भयादपि शतक्रतुम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘हमलोग किसीके भयंकर कर्म अथवा भयानक वचनसे भयभीत हो क्षत्रियधर्मसे च्युत होकर साक्षात् इन्द्रके सामने भी नतमस्तक नहीं हो सकते॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न च तं कृष्ण पश्यामि क्षत्रधर्ममनुष्ठितम्।
उत्सहेत युधा जेतुं यो नः शत्रुनिबर्हण ॥ १३ ॥
मूलम्
न च तं कृष्ण पश्यामि क्षत्रधर्ममनुष्ठितम्।
उत्सहेत युधा जेतुं यो नः शत्रुनिबर्हण ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘शत्रुओंका संहार करनेवाले श्रीकृष्ण! मैं क्षत्रिय-धर्मका अनुष्ठान करनेवाले किसी भी ऐसे वीरको नहीं देखता, जो युद्धमें हम सब लोगोंको जीतनेका साहस कर सके॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न हि भीष्मकृपद्रोणाः सकर्णा मधुसूदन।
देवैरपि युधा जेतुं शक्याः किमुत पाण्डवैः ॥ १४ ॥
मूलम्
न हि भीष्मकृपद्रोणाः सकर्णा मधुसूदन।
देवैरपि युधा जेतुं शक्याः किमुत पाण्डवैः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मधुसूदन! भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य और कर्णको तो देवता भी युद्धमें नहीं जीत सकते; फिर पाण्डवोंकी तो बात ही क्या है?॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्वधर्ममनुपश्यन्तो यदि माधव संयुगे।
अस्त्रेण निधनं काले प्राप्स्यामः स्वर्ग्यमेव तत् ॥ १५ ॥
मूलम्
स्वधर्ममनुपश्यन्तो यदि माधव संयुगे।
अस्त्रेण निधनं काले प्राप्स्यामः स्वर्ग्यमेव तत् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘माधव! अपने धर्मपर दृष्टि रखते हुए यदि हमलोग युद्धमें किसी समय अस्त्रोंके आघातसे मृत्युको प्राप्त हो जायँ तो वह भी हमारे लिये स्वर्गकी ही प्राप्ति करानेवाली होगी॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
मुख्यश्चैवैष नो धर्मः क्षत्रियाणां जनार्दन।
यच्छयीमहि संग्रामे शरतल्पगता वयम् ॥ १६ ॥
मूलम्
मुख्यश्चैवैष नो धर्मः क्षत्रियाणां जनार्दन।
यच्छयीमहि संग्रामे शरतल्पगता वयम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जनार्दन! हम क्षत्रियोंका यही प्रधान धर्म है कि संग्राममें हमें बाण-शय्यापर सोनेका अवसर प्राप्त हो॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ते वयं वीरशयनं प्राप्स्यामो यदि संयुगे।
अप्रणम्यैव शत्रूणां न नस्तप्स्यन्ति माधव ॥ १७ ॥
मूलम्
ते वयं वीरशयनं प्राप्स्यामो यदि संयुगे।
अप्रणम्यैव शत्रूणां न नस्तप्स्यन्ति माधव ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः माधव! हम अपने शत्रुओंके सामने नतमस्तक न होकर यदि युद्धमें वीरशय्याको प्राप्त हों तो इससे हमारे भाई-बन्धुओंको संताप नहीं होगा॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कश्च जातु कुले जातः क्षत्रधर्मेण वर्तयन्।
भयाद् वृत्तिं समीक्ष्यैवं प्रणमेदिह कर्हिचित् ॥ १८ ॥
मूलम्
कश्च जातु कुले जातः क्षत्रधर्मेण वर्तयन्।
भयाद् वृत्तिं समीक्ष्यैवं प्रणमेदिह कर्हिचित् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘उत्तम कुलमें उत्पन्न होकर क्षत्रियधर्मके अनुसार जीवननिर्वाह करनेवाला कौन ऐसा महापुरुष होगा, जो क्षत्रियोचित वृत्तिपर दृष्टि रखते हुए भी इस प्रकार भयके कारण कभी शत्रुके सामने मस्तक झुकायेगा?॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उद्यच्छेदेव न नमेदुद्यमो ह्येव पौरुषम्।
अप्यपर्वणि भज्येत न नमेदिह कर्हिचित् ॥ १९ ॥
मूलम्
उद्यच्छेदेव न नमेदुद्यमो ह्येव पौरुषम्।
अप्यपर्वणि भज्येत न नमेदिह कर्हिचित् ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वीर पुरुषको चाहिये कि वह सदा उद्योग ही करे, किसीके सामने नतमस्तक न हो; क्योंकि उद्योग करना ही पुरुषका कर्तव्य-पुरुषार्थ है। वीर पुरुष असमयमें ही नष्ट भले ही हो जाय, परंतु कभी शत्रुके सामने सिर न झुकावे॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इति मातङ्गवचनं परीप्सन्ति हितेप्सवः।
धर्माय चैव प्रणमेद् ब्राह्मणेभ्यश्च मद्विधः ॥ २० ॥
मूलम्
इति मातङ्गवचनं परीप्सन्ति हितेप्सवः।
धर्माय चैव प्रणमेद् ब्राह्मणेभ्यश्च मद्विधः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अपना हित चाहनेवाले मनुष्य मातंग मुनिके उपर्युक्त वचनको ही ग्रहण करते हैं; अतः मेरे-जैसा पुरुष केवल धर्म तथा ब्राह्मणको ही प्रणाम कर सकता है (शत्रुओंको नहीं)॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अचिन्तयन् कंचिदन्यं यावज्जीवं तथाऽऽचरेत्।
एष धर्मः क्षत्रियाणां मतमेतच्च मे सदा ॥ २१ ॥
मूलम्
अचिन्तयन् कंचिदन्यं यावज्जीवं तथाऽऽचरेत्।
एष धर्मः क्षत्रियाणां मतमेतच्च मे सदा ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘वह दूसरे किसीको कुछ भी न समझकर जीवनभर ऐसा ही आचरण (उद्योग) करता रहे; यही क्षत्रियोंका धर्म है और सदाके लिये मेरा मत भी यही है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
राज्यांशश्चाभ्यनुज्ञातो यो मे पित्रा पुराभवत्।
न स लभ्यः पुनर्जातु मयि जीवति केशव ॥ २२ ॥
मूलम्
राज्यांशश्चाभ्यनुज्ञातो यो मे पित्रा पुराभवत्।
न स लभ्यः पुनर्जातु मयि जीवति केशव ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘केशव! मेरे पिताजीने पूर्वकालमें जो राज्यभाग मेरे अधीन कर दिया है, उसे कोई मेरे जीते-जी फिर कदापि नहीं पा सकता॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यावच्च राजा ध्रियते धृतराष्ट्रो जनार्दन।
न्यस्तशस्त्रा वयं ते वाप्युपजीवाम माधव।
अप्रदेयं पुरा दत्तं राज्यं परवतो मम ॥ २३ ॥
अज्ञानाद् वा भयाद् वापि मयि बाले जनार्दन।
न तदद्य पुनर्लभ्यं पाण्डवैर्वृष्णिनन्दन ॥ २४ ॥
मूलम्
यावच्च राजा ध्रियते धृतराष्ट्रो जनार्दन।
न्यस्तशस्त्रा वयं ते वाप्युपजीवाम माधव।
अप्रदेयं पुरा दत्तं राज्यं परवतो मम ॥ २३ ॥
अज्ञानाद् वा भयाद् वापि मयि बाले जनार्दन।
न तदद्य पुनर्लभ्यं पाण्डवैर्वृष्णिनन्दन ॥ २४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जनार्दन! जबतक राजा धृतराष्ट्र जीवित हैं, तबतक हमें और पाण्डवोंको हथियार न उठाकर शान्तिपूर्वक जीवन बिताना चाहिये। वृष्णिनन्दन श्रीकृष्ण! पहले भी जो पाण्डवोंको राज्यका अंश दिया गया था, वह उन्हें देना उचित नहीं था; परंतु मैं उन दिनों बालक एवं पराधीन था, अतः अज्ञान अथवा भयसे जो कुछ उन्हें दे दिया गया था, उसे अब पाण्डव पुनः नहीं पा सकते॥२३-२४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ध्रियमाणे महाबाहौ मयि सम्प्रति केशव।
यावद्धि तीक्ष्णया सूच्या विध्येदग्रेण केशव।
तावदप्यपरित्याज्यं भूमेर्नः पाण्डवान् प्रति ॥ २५ ॥
मूलम्
ध्रियमाणे महाबाहौ मयि सम्प्रति केशव।
यावद्धि तीक्ष्णया सूच्या विध्येदग्रेण केशव।
तावदप्यपरित्याज्यं भूमेर्नः पाण्डवान् प्रति ॥ २५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘केशव! इस समय मुझ महाबाहु दुर्योधनके जीते-जी पाण्डवोंको भूमिका उतना अंश भी नहीं दिया जा सकता, जितना कि एक बारीक सूईकी नोकसे छिद सकता है॥२५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि दुर्योधनवाक्ये सप्तविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें दुर्योधनवाक्यविषयक एक सौ सत्ताईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२७॥