१२५ भीष्मादिवाक्ये

भागसूचना

पञ्चविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भीष्म, द्रोण, विदुर और धृतराष्ट्रका दुर्योधनको समझाना

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः शान्तनवो भीष्मो दुर्योधनममर्षणम्।
केशवस्य वचः श्रुत्वा प्रोवाच भरतर्षभ ॥ १ ॥

मूलम्

ततः शान्तनवो भीष्मो दुर्योधनममर्षणम्।
केशवस्य वचः श्रुत्वा प्रोवाच भरतर्षभ ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— भरतश्रेष्ठ जनमेजय! भगवान् श्रीकृष्णका पूर्वोक्त वचन सुनकर शान्तनुनन्दन भीष्मने ईर्ष्या और क्रोधमें भरे रहनेवाले दुर्योधनसे इस प्रकार कहा—॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कृष्णेन वाक्यमुक्तोऽसि सुहृदां शममिच्छता।
अन्वपद्यस्व तत् तात मा मन्युवशमन्वगाः ॥ २ ॥

मूलम्

कृष्णेन वाक्यमुक्तोऽसि सुहृदां शममिच्छता।
अन्वपद्यस्व तत् तात मा मन्युवशमन्वगाः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! भगवान् श्रीकृष्णने सुहृदोंमें परस्पर शान्ति बनाये रखनेकी इच्छासे जो बात कही है, उसे स्वीकार करो। क्रोधके वशीभूत न होओ॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अकृत्वा वचनं तात केशवस्य महात्मनः।
श्रेयो न जातु न सुखं न कल्याणमवाप्स्यसि ॥ ३ ॥

मूलम्

अकृत्वा वचनं तात केशवस्य महात्मनः।
श्रेयो न जातु न सुखं न कल्याणमवाप्स्यसि ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! महात्मा केशवकी बात न माननेसे तुम कभी श्रेय, सुख और कल्याण नहीं पा सकोगे॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्म्यमर्थ्यं महाबाहुराह त्वां तात केशवः।
तदर्थमभिपद्यस्व मा राजन् नीनशः प्रजाः ॥ ४ ॥

मूलम्

धर्म्यमर्थ्यं महाबाहुराह त्वां तात केशवः।
तदर्थमभिपद्यस्व मा राजन् नीनशः प्रजाः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वत्स! महाबाहु केशवने तुमसे धर्म और अर्थके अनुकूल ही बात कही है। राजन्! तुम उसे स्वीकार कर लो; प्रजाका विनाश न करो॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ज्वलितां त्वमिमां लक्ष्मीं भारतीं सर्वराजसु।
जीवतो धृतराष्ट्रस्य दौरात्म्याद् भ्रंशयिष्यसि ॥ ५ ॥

मूलम्

ज्वलितां त्वमिमां लक्ष्मीं भारतीं सर्वराजसु।
जीवतो धृतराष्ट्रस्य दौरात्म्याद् भ्रंशयिष्यसि ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘बेटा! यह भरतवंशकी राजलक्ष्मी समस्त राजाओंमें प्रकाशित हो रही है; किंतु मैं देखता हूँ कि तुम अपनी दुष्टताके कारण इसे धृतराष्ट्रके जीते-जी ही नष्ट कर दोगे॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मानं च सहामात्यं सपुत्रभ्रातृबान्धवम्।
अहमित्यनया बुद्ध्या जीविताद् भ्रंशयिष्यसि ॥ ६ ॥

मूलम्

आत्मानं च सहामात्यं सपुत्रभ्रातृबान्धवम्।
अहमित्यनया बुद्ध्या जीविताद् भ्रंशयिष्यसि ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘साथ ही अपनी इस अहंकारयुक्त बुद्धिके कारण तुम पुत्र, भाई, बान्धवजन तथा मन्त्रियोंसहित अपने-आपको भी जीवनसे वंचित कर दोगे॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतिक्रामन् केशवस्य तथ्यं वचनमर्थवत्।
पितुश्च भरतश्रेष्ठ विदुरस्य च धीमतः ॥ ७ ॥
मा कुलघ्नः कुपुरुषो दुर्मतिः कापथं गमः।
मातरं पितरं चैव मा मज्जीः शोकसागरे ॥ ८ ॥

मूलम्

अतिक्रामन् केशवस्य तथ्यं वचनमर्थवत्।
पितुश्च भरतश्रेष्ठ विदुरस्य च धीमतः ॥ ७ ॥
मा कुलघ्नः कुपुरुषो दुर्मतिः कापथं गमः।
मातरं पितरं चैव मा मज्जीः शोकसागरे ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! केशवका वचन सत्य और सार्थक है। तुम उनके, अपने पिताके तथा बुद्धिमान् विदुरके वचनोंकी अवहेलना करके कुमार्गपर न चलो। कुलघाती, कुपुरुष और कुबुद्धिसे कलंकित न बनो तथा माता-पिताको शोकके समुद्रमें न डुबाओ’॥७-८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ द्रोणोऽब्रवीत् तत्र दुर्योधनमिदं वचः।
अमर्षवशमापन्नं निःश्वसन्तं पुनः पुनः ॥ ९ ॥

मूलम्

अथ द्रोणोऽब्रवीत् तत्र दुर्योधनमिदं वचः।
अमर्षवशमापन्नं निःश्वसन्तं पुनः पुनः ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर रोषके वशीभूत होकर बारंबार लंबी साँस खींचनेवाले दुर्योधनसे द्रोणाचार्यने इस प्रकार कहा—॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मार्थयुक्तं वचनमाह त्वां तात केशवः।
तथा भीष्मः शान्तनवस्तज्जुषस्व नराधिप ॥ १० ॥

मूलम्

धर्मार्थयुक्तं वचनमाह त्वां तात केशवः।
तथा भीष्मः शान्तनवस्तज्जुषस्व नराधिप ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! भगवान् श्रीकृष्ण और शान्तनुनन्दन भीष्मने धर्म और अर्थसे युक्त बात कही है। नरेश्वर! तुम उसे स्वीकार करो॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्राज्ञौ मेधाविनौ दान्तावर्थकामौ बहुश्रुतौ।
आहतुस्त्वां हितं वाक्यं तज्जुषस्व नराधिप ॥ ११ ॥

मूलम्

प्राज्ञौ मेधाविनौ दान्तावर्थकामौ बहुश्रुतौ।
आहतुस्त्वां हितं वाक्यं तज्जुषस्व नराधिप ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! ये दोनों महापुरुष विद्वान्, मेधावी, जितेन्द्रिय, तुम्हारा भला चाहनेवाले और अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता हैं। इन्होंने तुमसे हितकी ही बात कही है, अतः तुम इसका सेवन करो॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुतिष्ठ महाप्राज्ञ कृष्णभीष्मौ यदूचतुः।
(मा वचो लघुबुद्धीनां समास्थास्त्वं परंतप।)
माधवं बुद्धिमोहेन मावमंस्थाः परंतप ॥ १२ ॥

मूलम्

अनुतिष्ठ महाप्राज्ञ कृष्णभीष्मौ यदूचतुः।
(मा वचो लघुबुद्धीनां समास्थास्त्वं परंतप।)
माधवं बुद्धिमोहेन मावमंस्थाः परंतप ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महामते! श्रीकृष्ण और भीष्मने जो कुछ कहा है, उसका पालन करो। परंतप! तुम तुच्छ बुद्धिवाले लोगोंकी बातपर आस्था मत रखो। शत्रुदमन! अपनी बुद्धिके मोहसे माधवका तिरस्कार न करो॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ये त्वां प्रोत्साहयन्त्येते नैते कृत्याय कर्हिचित्।
वैरं परेषां ग्रीवायां प्रतिमोक्ष्यन्ति संयुगे ॥ १३ ॥

मूलम्

ये त्वां प्रोत्साहयन्त्येते नैते कृत्याय कर्हिचित्।
वैरं परेषां ग्रीवायां प्रतिमोक्ष्यन्ति संयुगे ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो लोग तुम्हें युद्धके लिये उत्साहित कर रहे हैं, ये कभी तुम्हारे काम नहीं आ सकते। ये युद्धका अवसर आनेपर वैरका बोझ दूसरेके कंधेपर डाल देंगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा जीघनः प्रजाः सर्वाः पुत्रान् भ्रातॄंस्तथैव च।
वासुदेवार्जुनौ यत्र विद्ध्यजेयानलं हि तान् ॥ १४ ॥

मूलम्

मा जीघनः प्रजाः सर्वाः पुत्रान् भ्रातॄंस्तथैव च।
वासुदेवार्जुनौ यत्र विद्ध्यजेयानलं हि तान् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘समस्त प्रजाओं, पुत्रों और भाइयोंकी हत्या न कराओ। जिनकी ओर भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन हैं, उन्हें युद्धमें अजेय समझो॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्चैव मतं सत्यं सुहृदोः कृष्णभीष्मयोः।
यदि नादास्यसे तात पश्चात् तप्स्यसि भारत ॥ १५ ॥

मूलम्

एतच्चैव मतं सत्यं सुहृदोः कृष्णभीष्मयोः।
यदि नादास्यसे तात पश्चात् तप्स्यसि भारत ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! भरतनन्दन! तुम्हारा वास्तविक हित चाहनेवाले श्रीकृष्ण और भीष्मका यही यथार्थ मत है। यदि तुम इसे ग्रहण नहीं करोगे तो पीछे पछताओगे॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथोक्तं जामदग्न्येन भूयानेष ततोऽर्जुनः।
कृष्णो हि देवकीपुत्रो देवैरपि सुदुःसहः।
किं ते सुखप्रियेणेह प्रोक्तेन भरतर्षभ ॥ १६ ॥
एतत् ते सर्वमाख्यातं यथेच्छसि तथा कुरु।
न हि त्वामुत्सहे वक्तुं भूयो भरतसत्तम ॥ १७ ॥

मूलम्

यथोक्तं जामदग्न्येन भूयानेष ततोऽर्जुनः।
कृष्णो हि देवकीपुत्रो देवैरपि सुदुःसहः।
किं ते सुखप्रियेणेह प्रोक्तेन भरतर्षभ ॥ १६ ॥
एतत् ते सर्वमाख्यातं यथेच्छसि तथा कुरु।
न हि त्वामुत्सहे वक्तुं भूयो भरतसत्तम ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जमदग्निनन्दन परशुरामजीने जैसा बताया है, ये अर्जुन उससे भी महान् हैं और देवकीनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण तो देवताओंके लिये भी अत्यन्त दुःसह हैं। भरतश्रेष्ठ! तुम्हें सुखद और प्रिय लगनेवाली अधिक बातें कहनेसे क्या लाभ? ये सब बातें जो हमें कहनी थीं, मैंने कह दीं। अब तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वैसा करो। भरतवंशविभूषण! अब तुमसे और कुछ कहनेके लिये मेरे मनमें उत्साह नहीं है’॥१६-१७॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्मिन्‌ वाक्यान्तरे वाक्यं क्षत्तापि विदुरोऽब्रवीत्।
दुर्योधनमभिप्रेक्ष्य धार्तराष्ट्रममर्षणम् ॥ १८ ॥

मूलम्

तस्मिन्‌ वाक्यान्तरे वाक्यं क्षत्तापि विदुरोऽब्रवीत्।
दुर्योधनमभिप्रेक्ष्य धार्तराष्ट्रममर्षणम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! जब द्रोणाचार्य अपनी बात कह रहे थे, उसी समय विदुरजी भी अमर्षमें भरे हुए धृतराष्ट्रपुत्र दुर्योधनकी ओर देखकर बीचमें ही कहने लगे—॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधन न शोचामि त्वामहं भरतर्षभ।
इमौ तु वृद्धौ शोचामि गान्धारीं पितरं च ते॥१९॥

मूलम्

दुर्योधन न शोचामि त्वामहं भरतर्षभ।
इमौ तु वृद्धौ शोचामि गान्धारीं पितरं च ते॥१९॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतभूषण दुर्योधन! मैं तुम्हारे लिये शोक नहीं करता। मुझे तो तुम्हारे इन बूढ़े माता-पिता गान्धारी और धृतराष्ट्रके लिये भारी शोक हो रहा है॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावनाथौ चरिष्येते त्वया नाथेन दुर्हृदा।
हतमित्रौ हतामात्यौ लूनपक्षाविवाण्डजौ ॥ २० ॥

मूलम्

यावनाथौ चरिष्येते त्वया नाथेन दुर्हृदा।
हतमित्रौ हतामात्यौ लूनपक्षाविवाण्डजौ ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘क्योंकि ये दोनों तुम-जैसे दुष्ट सहायकके कारण मित्रों और मन्त्रियोंके मारे जानेपर पंख कटे हुए पक्षियोंकी भाँति अनाथ (असहाय) होकर विचरेंगे॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भिक्षुकौ विचरिष्येते शोचन्तौ पृथिवीमिमाम्।
कुलघ्नमीदृशं पापं जनयित्वा कुपूरुषम् ॥ २१ ॥

मूलम्

भिक्षुकौ विचरिष्येते शोचन्तौ पृथिवीमिमाम्।
कुलघ्नमीदृशं पापं जनयित्वा कुपूरुषम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारे-जैसे पापी और कुलघाती कुपुरुष पुत्रको जन्म देनेके कारण ये दोनों शोकमग्न हो भिक्षुककी भाँति इस पृथ्वीपर इधर-उधर भटकते फिरेंगे’॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ दुर्योधनं राजा धृतराष्ट्रोऽभ्यभाषत।
आसीनं भ्रातृभिः सार्धं राजभिः परिवारितम् ॥ २२ ॥

मूलम्

अथ दुर्योधनं राजा धृतराष्ट्रोऽभ्यभाषत।
आसीनं भ्रातृभिः सार्धं राजभिः परिवारितम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् राजा धृतराष्ट्रने राजाओंसे घिरकर भाइयोंके साथ बैठे हुए दुर्योधनसे कहा—॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधन निबोधेदं शौरिणोक्तं महात्मना।
आदत्स्व शिवमत्यन्तं योगक्षेमवदव्ययम् ॥ २३ ॥

मूलम्

दुर्योधन निबोधेदं शौरिणोक्तं महात्मना।
आदत्स्व शिवमत्यन्तं योगक्षेमवदव्ययम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्योधन! मेरी इस बातपर ध्यान दो। महात्मा श्रीकृष्णने जो बात बतायी है, वह अत्यन्त कल्याणकारक, योगक्षेमकी प्राप्ति करानेवाली तथा दीर्घकालतक स्थिर रहनेवाली है, तुम इसे स्वीकार करो॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेन हि सहायेन कृष्णेनाक्लिष्टकर्मणा।
इष्टान् सर्वानभिप्रायान् प्राप्स्यामः सर्वराजसु ॥ २४ ॥

मूलम्

अनेन हि सहायेन कृष्णेनाक्लिष्टकर्मणा।
इष्टान् सर्वानभिप्रायान् प्राप्स्यामः सर्वराजसु ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अनायास ही महान् कर्म करनेवाले इन भगवान् श्रीकृष्णकी सहायतासे हमलोग समस्त राजाओंमें सम्मानित रहकर अपने सभी अभीष्ट मनोरथोंको प्राप्त कर लेंगे॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुसंहतः केशवेन तात गच्छ युधिष्ठिरम्।
चर स्वस्त्ययनं कृत्स्नं भरतानामनामयम् ॥ २५ ॥

मूलम्

सुसंहतः केशवेन तात गच्छ युधिष्ठिरम्।
चर स्वस्त्ययनं कृत्स्नं भरतानामनामयम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! भगवान् श्रीकृष्णसे मिलकर तुम युधिष्ठिरके पास जाओ और पूर्णरूपसे मंगल सम्पादन करो, जिससे भरतवंशियोंको कोई क्षति न उठानी पड़े॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वासुदेवेन तीर्थेन तात गच्छस्व संशमम्।
कालप्राप्तमिदं मन्ये मा त्वं दुर्योधनातिगाः ॥ २६ ॥

मूलम्

वासुदेवेन तीर्थेन तात गच्छस्व संशमम्।
कालप्राप्तमिदं मन्ये मा त्वं दुर्योधनातिगाः ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! भगवान् श्रीकृष्णको मध्यस्थ बनाकर अब शान्ति धारण करो। मैं तुम्हारे लिये यही समयोचित कर्तव्य मानता हूँ। दुर्योधन! तुम मेरी इस आज्ञाका उल्लंघन न करो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शमं चेद् याचमानं त्वं प्रत्याख्यास्यसि केशवम्।
त्वदर्थमभिजल्पन्तं न तवास्त्यपराभवः ॥ २७ ॥

मूलम्

शमं चेद् याचमानं त्वं प्रत्याख्यास्यसि केशवम्।
त्वदर्थमभिजल्पन्तं न तवास्त्यपराभवः ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यदि तुम शान्तिके लिये प्रार्थना करनेवाले भगवान् श्रीकृष्णका जो तुम्हारे हितकी बात बता रहे हैं, तिरस्कार करोगे—इनकी आज्ञा नहीं मानोगे तो तुम्हारा पराभव हुए बिना नहीं रह सकता’॥२७॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि भीष्मादिवाक्ये पञ्चविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें भीष्म आदिके वचनोंसे सम्बन्ध रखनेवाला एक सौ पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२५॥

सूचना (हिन्दी)

[दाक्षिणात्य अधिक पाठका आधा श्लोक मिलाकर कुल २७ श्लोक हैं।]