१२४ भगवद्वाक्ये

भागसूचना

चतुर्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

धृतराष्ट्रके अनुरोधसे भगवान् श्रीकृष्णका दुर्योधनको समझाना

मूलम् (वचनम्)

धृतराष्ट्र उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन्नेवमेवैतद् यथा वदसि नारद।
इच्छामि चाहमप्येवं न त्वीशो भगवन्नहम् ॥ १ ॥

मूलम्

भगवन्नेवमेवैतद् यथा वदसि नारद।
इच्छामि चाहमप्येवं न त्वीशो भगवन्नहम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धृतराष्ट्र बोले— भगवन् नारद! आप जैसा कहते हैं, वह ठीक है। मैं भी यही चाहता हूँ; परंतु मेरा कोई वश नहीं चलता है॥१॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्त्वा ततः कृष्णमभ्यभाषत कौरवः।
स्वर्ग्यं लोक्यं च मामात्थ धर्म्यं न्याय्यं च केशव॥२॥

मूलम्

एवमुक्त्वा ततः कृष्णमभ्यभाषत कौरवः।
स्वर्ग्यं लोक्यं च मामात्थ धर्म्यं न्याय्यं च केशव॥२॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! नारदजीसे ऐसा कहकर धृतराष्ट्रने भगवान् श्रीकृष्णसे कहा—‘केशव! आपने मुझसे जो बात कही है, वह इहलोक और स्वर्गलोकमें हितकर, धर्मसम्मत और न्यायसंगत है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वहं स्ववशस्तात क्रियमाणं न मे प्रियम्।
(न मंस्यन्ते दुरात्मानः पुत्रा मम जनार्दन।)
अङ्गं दुर्योधनं कृष्ण मन्दं शास्त्रातिगं मम ॥ ३ ॥
अनुनेतुं महाबाहो यतस्व पुरुषोत्तम।

मूलम्

न त्वहं स्ववशस्तात क्रियमाणं न मे प्रियम्।
(न मंस्यन्ते दुरात्मानः पुत्रा मम जनार्दन।)
अङ्गं दुर्योधनं कृष्ण मन्दं शास्त्रातिगं मम ॥ ३ ॥
अनुनेतुं महाबाहो यतस्व पुरुषोत्तम।

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात जनार्दन! मैं अपने वशमें नहीं हूँ। जो कुछ किया जा रहा है, वह मुझे प्रिय नहीं है। किंतु क्या कहूँ? मेरे दुरात्मा पुत्र मेरी बात नहीं मानेंगे। प्रिय श्रीकृष्ण! महाबाहु पुरुषोत्तम! शास्त्रकी आज्ञाका उल्लंघन करनेवाले मेरे इस मूर्ख पुत्र दुर्योधनको आप ही समझा-बुझाकर राहपर लानेका प्रयत्न कीजिये॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न शृणोति महाबाहो वचनं साधुभाषितम् ॥ ४ ॥
गान्धार्याश्च हृषीकेश विदुरस्य च धीमतः।
अन्येषां चैव सुहृदां भीष्मादीनां हितैषिणाम् ॥ ५ ॥

मूलम्

न शृणोति महाबाहो वचनं साधुभाषितम् ॥ ४ ॥
गान्धार्याश्च हृषीकेश विदुरस्य च धीमतः।
अन्येषां चैव सुहृदां भीष्मादीनां हितैषिणाम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महाबाहु हृषीकेश! यह सत्पुरुषोंकी कही हुई बातें नहीं सुनता है। गान्धारी, बुद्धिमान् विदुर तथा हित चाहनेवाले भीष्म आदि अन्यान्य सुहृदोंकी भी बातें नहीं सुनता है॥४-५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वं पापमतिं क्रूरं पापचित्तमचेतनम्।
अनुशाधि दुरात्मानं स्वयं दुर्योधनं नृपम् ॥ ६ ॥
सुहृत्कार्यं तु सुमहत् कृतं ते स्याज्जनार्दन।

मूलम्

स त्वं पापमतिं क्रूरं पापचित्तमचेतनम्।
अनुशाधि दुरात्मानं स्वयं दुर्योधनं नृपम् ॥ ६ ॥
सुहृत्कार्यं तु सुमहत् कृतं ते स्याज्जनार्दन।

अनुवाद (हिन्दी)

‘जनार्दन! दुरात्मा राजा दुर्योधनकी बुद्धि पापमें लगी हुई है। यह पापका ही चिन्तन करनेवाला, क्रूर और विवेकशून्य है। आप ही इसे समझाइये। यदि आप इसे संधिके लिये राजी कर लें तो आपके द्वारा सुहृदोंका यह बहुत बड़ा कार्य सम्पन्न हो जायगा’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततोऽभ्यावृत्य वार्ष्णेयो दुर्योधनममर्षणम् ॥ ७ ॥
अब्रवीन्मधुरां वाचं सर्वधर्मार्थतत्त्ववित् ।

मूलम्

ततोऽभ्यावृत्य वार्ष्णेयो दुर्योधनममर्षणम् ॥ ७ ॥
अब्रवीन्मधुरां वाचं सर्वधर्मार्थतत्त्ववित् ।

अनुवाद (हिन्दी)

तब सम्पूर्ण धर्म और अर्थके तत्त्वको जाननेवाले वृष्णिनन्दन भगवान् श्रीकृष्ण अमर्षशील दुर्योधनकी ओर घूमकर मधुर वाणीमें उससे बोले—॥७२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधन निबोधेदं मद्वाक्यं कुरुसत्तम ॥ ८ ॥
शर्मार्थं ते विशेषेण सानुबन्धस्य भारत।

मूलम्

दुर्योधन निबोधेदं मद्वाक्यं कुरुसत्तम ॥ ८ ॥
शर्मार्थं ते विशेषेण सानुबन्धस्य भारत।

अनुवाद (हिन्दी)

‘कुरुश्रेष्ठ दुर्योधन! तुम मेरी यह बात सुनो। भारत! मैं विशेषतः सगे-सम्बन्धियोंसहित तुम्हारे कल्याणके लिये ही तुम्हें कुछ परामर्श दे रहा हूँ॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

महाप्राज्ञकुले जातः साध्वेतत् कर्तुमर्हसि ॥ ९ ॥
श्रुतवृत्तोपसम्पन्नः सर्वैः समुदितो गुणैः।

मूलम्

महाप्राज्ञकुले जातः साध्वेतत् कर्तुमर्हसि ॥ ९ ॥
श्रुतवृत्तोपसम्पन्नः सर्वैः समुदितो गुणैः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम परम ज्ञानी महापुरुषोंके कुलमें उत्पन्न हुए हो। स्वयं भी शास्त्रोंके ज्ञान तथा सद्व्यवहारसे सम्पन्न हो। तुममें सभी उत्तम गुण विद्यमान हैं; अतः तुम्हें मेरी यह अच्छी सलाह अवश्य माननी चाहिये॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दौष्कुलेया दुरात्मानो नृशंसा निरपत्रपाः ॥ १० ॥
त एतदीदृशं कुर्युर्यथा त्वं तात मन्यसे।

मूलम्

दौष्कुलेया दुरात्मानो नृशंसा निरपत्रपाः ॥ १० ॥
त एतदीदृशं कुर्युर्यथा त्वं तात मन्यसे।

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! जिसे तुम ठीक समझते हो, ऐसा अधम कार्य तो वे लोग करते हैं, जो नीच कुलमें उत्पन्न हुए हैं तथा जो दुष्टचित्त, क्रूर एवं निर्लज्ज हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

धर्मार्थयुक्ता लोकेऽस्मिन् प्रवृत्तिर्लक्ष्यते सताम् ॥ ११ ॥
असतां विपरीता तु लक्ष्यते भरतर्षभ।

मूलम्

धर्मार्थयुक्ता लोकेऽस्मिन् प्रवृत्तिर्लक्ष्यते सताम् ॥ ११ ॥
असतां विपरीता तु लक्ष्यते भरतर्षभ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! इस जगत्‌में सत्पुरुषोंका व्यवहार धर्म और अर्थसे युक्त देखा जाता है और दुष्टोंका बर्ताव ठीक इसके विपरीत दृष्टिगोचर होता है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विपरीता त्वियं वृत्तिरसकृल्लक्ष्यते त्वयि ॥ १२ ॥
अधर्मश्चानुबन्धोऽत्र घोरः प्राणहरो महान्।
अनिष्टश्चानिमित्तश्च न च शक्यश्च भारत ॥ १३ ॥

मूलम्

विपरीता त्वियं वृत्तिरसकृल्लक्ष्यते त्वयि ॥ १२ ॥
अधर्मश्चानुबन्धोऽत्र घोरः प्राणहरो महान्।
अनिष्टश्चानिमित्तश्च न च शक्यश्च भारत ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारे भीतर यह विपरीत वृत्ति बारंबार देखनेमें आती है। भारत! इस समय तुम्हारा जो दुराग्रह है, वह अधर्ममय ही है। उसके होनेका कोई समुचित कारण भी नहीं है। यह भयंकर हठ अनिष्टकारक तथा महान् प्राणनाशक है। तुम इसे सफल बना सको, यह सम्भव नहीं है॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमनर्थं परिहरन्नात्मश्रेयः करिष्यसि ।
भ्रातॄणामथ भृत्यानां मित्राणां च परंतप ॥ १४ ॥

मूलम्

तमनर्थं परिहरन्नात्मश्रेयः करिष्यसि ।
भ्रातॄणामथ भृत्यानां मित्राणां च परंतप ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘परंतप! यदि तुम उस अनर्थकारी दुराग्रहको छोड़ दो तो अपने कल्याणके साथ ही भाइयों, सेवकों तथा मित्रोंका भी महान् हित-साधन करोगे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अधर्म्यादयशस्याच्च कर्मणस्त्वं प्रमोक्ष्यसे ।
प्राज्ञैः शूरैर्महोत्साहैरात्मवद्भिर्बहुश्रुतैः ॥ १५ ॥
संधत्स्व पुरुषव्याघ्र पाण्डवैर्भरतर्षभ ।

मूलम्

अधर्म्यादयशस्याच्च कर्मणस्त्वं प्रमोक्ष्यसे ।
प्राज्ञैः शूरैर्महोत्साहैरात्मवद्भिर्बहुश्रुतैः ॥ १५ ॥
संधत्स्व पुरुषव्याघ्र पाण्डवैर्भरतर्षभ ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘ऐसा करनेपर तुम्हें अधर्म और अपयशकी प्राप्ति करानेवाले कर्मसे छुटकारा मिल जायगा। अतः भरतकुल-भूषण पुरुषसिंह! तुम ज्ञानी, परम उत्साही, शूरवीर, मनस्वी एवं अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता पाण्डवोंके साथ संधि कर लो॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तद्धितं च प्रियं चैव धृतराष्ट्रस्य धीमतः ॥ १६ ॥
पितामहस्य द्रोणस्य विदुरस्य महामतेः।
कृपस्य सोमदत्तस्य बाह्लीकस्य च धीमतः ॥ १७ ॥
अश्वत्थाम्नो विकर्णस्य संजयस्य विविंशतेः।
ज्ञातीनां चैव भूयिष्ठं मित्राणां च परंतप ॥ १८ ॥

मूलम्

तद्धितं च प्रियं चैव धृतराष्ट्रस्य धीमतः ॥ १६ ॥
पितामहस्य द्रोणस्य विदुरस्य महामतेः।
कृपस्य सोमदत्तस्य बाह्लीकस्य च धीमतः ॥ १७ ॥
अश्वत्थाम्नो विकर्णस्य संजयस्य विविंशतेः।
ज्ञातीनां चैव भूयिष्ठं मित्राणां च परंतप ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यही परम बुद्धिमान् राजा धृतराष्ट्रको भी प्रिय एवं हितकर जान पड़ता है। परंतप! पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण, महामति विदुर, कृपाचार्य, सोमदत्त, बुद्धिमान् बाह्लीक, अश्वत्थामा, विकर्ण, संजय, विविंशति तथा अन्यान्य कुटुम्बीजनों एवं मित्रोंको भी यही अधिक प्रिय है॥१६—१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शमे शर्म भवेत् तात सर्वस्य जगतस्तथा।
ह्रीमानसि कुले जातः श्रुतवाननृशंसवान्।
तिष्ठ तात पितुः शास्त्रे मातुश्च भरतर्षभ ॥ १९ ॥

मूलम्

शमे शर्म भवेत् तात सर्वस्य जगतस्तथा।
ह्रीमानसि कुले जातः श्रुतवाननृशंसवान्।
तिष्ठ तात पितुः शास्त्रे मातुश्च भरतर्षभ ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! संधि होनेपर ही सम्पूर्ण जगत्‌का भला हो सकता है। तुम श्रेष्ठ कुलमें उत्पन्न, लज्जाशील, शास्त्रज्ञ और क्रूरतासे रहित हो। अतः भरतश्रेष्ठ! तुम पिता और माताके शासनके अधीन रहो॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रेयो हि मन्यन्ते पिता यच्छास्ति भारत।
उत्तमापद्‌गतः सर्वः पितुः स्मरति शासनम् ॥ २० ॥

मूलम्

एतच्छ्रेयो हि मन्यन्ते पिता यच्छास्ति भारत।
उत्तमापद्‌गतः सर्वः पितुः स्मरति शासनम् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! पिता जो कुछ शिक्षा देते हैं, उसीको श्रेष्ठ पुरुष अपने लिये कल्याणकारी मानते हैं। भारी आपत्तिमें पड़नेपर सब लोग अपने पिताके उपदेशका ही स्मरण करते हैं॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

रोचते ते पितुस्तात पाण्डवैः सह संगमः।
सामात्यस्य कुरुश्रेष्ठ तत् तुभ्यं तात रोचताम् ॥ २१ ॥

मूलम्

रोचते ते पितुस्तात पाण्डवैः सह संगमः।
सामात्यस्य कुरुश्रेष्ठ तत् तुभ्यं तात रोचताम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! मन्त्रियोंसहित तुम्हारे पिताको पाण्डवोंके साथ संधि कर लेना ही अच्छा जान पड़ता है। कुरुश्रेष्ठ! यही तुम्हें भी पसंद आना चाहिये॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुत्वा यः सुहृदां शास्त्रं मर्त्यो न प्रतिपद्यते।
विपाकान्ते दहत्येनं किम्पाकमिव भक्षितम् ॥ २२ ॥

मूलम्

श्रुत्वा यः सुहृदां शास्त्रं मर्त्यो न प्रतिपद्यते।
विपाकान्ते दहत्येनं किम्पाकमिव भक्षितम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो मनुष्य सुहृदोंके मुखसे शास्त्रसम्मत उपदेश सुनकर भी उसे स्वीकार नहीं करता है, उसका यह अस्वीकार उसे परिणाममें उसी प्रकार शोकदग्ध करता है, जैसे खाया हुआ इन्द्रायण फल पाचनके अन्तमें दाह उत्पन्न करनेवाला होता है॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु निःश्रेयसं वाक्यं मोहान्न प्रतिपद्यते।
स दीर्घसूत्रो हीनार्थः पश्चात्तापेन युज्यते ॥ २३ ॥

मूलम्

यस्तु निःश्रेयसं वाक्यं मोहान्न प्रतिपद्यते।
स दीर्घसूत्रो हीनार्थः पश्चात्तापेन युज्यते ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो मोहवश अपने हितकी बात नहीं मानता है, वह दीर्घसूत्री मनुष्य अपने स्वार्थसे भ्रष्ट होकर केवल पश्चात्तापका भागी होता है॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्तु निःश्रेयसं श्रुत्वा प्राक् तदेवाभिपद्यते।
आत्मनो मतमुत्सृज्य स लोके सुखमेधते ॥ २४ ॥

मूलम्

यस्तु निःश्रेयसं श्रुत्वा प्राक् तदेवाभिपद्यते।
आत्मनो मतमुत्सृज्य स लोके सुखमेधते ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो मानव अपने कल्याणकी बात सुनकर अपने मतका आग्रह छोड़कर पहले उसीको ग्रहण करता है, वह संसारमें सुखपूर्वक उन्नतिशील होता है॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽर्थकामस्य वचनं प्रातिकूल्यान्न मृष्यते।
शृणोति प्रतिकूलानि द्विषतां वशमेति सः ॥ २५ ॥

मूलम्

योऽर्थकामस्य वचनं प्रातिकूल्यान्न मृष्यते।
शृणोति प्रतिकूलानि द्विषतां वशमेति सः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो अपनी ही भलाई चाहनेवाले अपने सुहृद्‌के वचनोंको मनके प्रतिकूल होनेके कारण नहीं सहन करता है और उन असुहृदोंके प्रतिकूल कहे हुए वचनोंको ही सुनता है, वह शत्रुओंके अधीन हो जाता है॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सतां मतमतिक्रम्य योऽसतां वर्तते मते।
शोचन्ते व्यसने तस्य सुहृदो नचिरादिव ॥ २६ ॥

मूलम्

सतां मतमतिक्रम्य योऽसतां वर्तते मते।
शोचन्ते व्यसने तस्य सुहृदो नचिरादिव ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो मनुष्य सत्पुरुषोंकी सम्मतिका उल्लंघन करके दुष्टोंके मतके अनुसार चलता है, उसके सुहृद् उसे शीघ्र ही विपत्तिमें पड़ा देख शोकके भागी होते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुख्यानमात्यानुत्सृज्य योनिहीनान् निषेवते ।
स घोरामापदं प्राप्य नोत्तारमधिगच्छति ॥ २७ ॥

मूलम्

मुख्यानमात्यानुत्सृज्य योनिहीनान् निषेवते ।
स घोरामापदं प्राप्य नोत्तारमधिगच्छति ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो अपने मुख्य मन्त्रियोंको छोड़कर नीच प्रकृतिके लोगोंका सेवन करता है, वह भयंकर विपत्तिमें फँसकर अपने उद्धारका कोई मार्ग नहीं देख पाता है॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

योऽसत्सेवी वृथाचारो न श्रोता सुहृदां सताम्।
परान् वृणीते स्वान् द्वेष्टि तं गौस्त्यजति भारत ॥ २८ ॥

मूलम्

योऽसत्सेवी वृथाचारो न श्रोता सुहृदां सताम्।
परान् वृणीते स्वान् द्वेष्टि तं गौस्त्यजति भारत ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! जो दुष्ट पुरुषोंका संग करनेवाला और मिथ्याचारी होकर अपने श्रेष्ठ सुहृदोंकी बात नहीं सुनता है, दूसरोंको अपनाता और आत्मीयजनोंसे द्वेष रखता है, उसे यह पृथ्वी त्याग देती है॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वं विरुध्य तैर्वीरैरन्येभ्यस्त्राणमिच्छसि।
अशिष्टेभ्योऽसमर्थेभ्यो मूढेभ्यो भरतर्षभ ॥ २९ ॥

मूलम्

स त्वं विरुध्य तैर्वीरैरन्येभ्यस्त्राणमिच्छसि।
अशिष्टेभ्योऽसमर्थेभ्यो मूढेभ्यो भरतर्षभ ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! तुम उन वीर पाण्डवोंसे विरोध करके दूसरे अशिष्ट, असमर्थ और मूढ़ मनुष्योंसे अपनी रक्षा चाहते हो॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

को हि शक्रसमान् ज्ञातीनतिक्रम्य महारथान्।
अन्येभ्यस्त्राणमाशंसेत् त्वदन्यो भुवि मानवः ॥ ३० ॥

मूलम्

को हि शक्रसमान् ज्ञातीनतिक्रम्य महारथान्।
अन्येभ्यस्त्राणमाशंसेत् त्वदन्यो भुवि मानवः ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस भूतलपर तुम्हारे सिवा दूसरा कौन मनुष्य है, जो इन्द्रके समान पराक्रमी एवं महारथी बन्धु-बान्धवोंको त्यागकर दूसरोंसे अपनी रक्षाकी आशा करेगा?॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जन्मप्रभृति कौन्तेया नित्यं विनिकृतास्त्वया।
न च ते जातु कुप्यन्ति धर्मात्मानो हि पाण्डवाः॥३१॥

मूलम्

जन्मप्रभृति कौन्तेया नित्यं विनिकृतास्त्वया।
न च ते जातु कुप्यन्ति धर्मात्मानो हि पाण्डवाः॥३१॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुमने जन्मसे ही कुन्तीपुत्रोंके साथ सदा शठतापूर्ण बर्ताव किया है, परंतु वे इसके लिये कभी कुपित नहीं हुए हैं; क्योंकि पाण्डव धर्मात्मा हैं॥३१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मिथ्योपचरितास्तात जन्मप्रभृति बान्धवाः ।
त्वयि सम्यङ्‌महाबाहो प्रतिपन्ना यशस्विनः ॥ ३२ ॥

मूलम्

मिथ्योपचरितास्तात जन्मप्रभृति बान्धवाः ।
त्वयि सम्यङ्‌महाबाहो प्रतिपन्ना यशस्विनः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात महाबाहो! यद्यपि तुमने अपने ही भाई पाण्डवोंके साथ जन्मसे ही छल-कपटका बर्ताव किया है, तथापि वे यशस्वी पाण्डव तुम्हारे प्रति सदा सद्भाव ही रखते आये हैं॥३२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वयापि प्रतिपत्तव्यं तथैव भरतर्षभ।
स्वेषु बन्धुषु मुख्येषु मा मन्युवशमन्वगाः ॥ ३३ ॥

मूलम्

त्वयापि प्रतिपत्तव्यं तथैव भरतर्षभ।
स्वेषु बन्धुषु मुख्येषु मा मन्युवशमन्वगाः ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! तुम्हें भी अपने उन श्रेष्ठ बन्धुओंके प्रति वैसा ही बर्ताव करना चाहिये। तुम क्रोधके वशीभूत न होओ॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रिवर्गयुक्तः प्राज्ञानामारम्भो भरतर्षभ ।
धर्मार्थावनुरुध्यन्ते त्रिवर्गासम्भवे नराः ॥ ३४ ॥

मूलम्

त्रिवर्गयुक्तः प्राज्ञानामारम्भो भरतर्षभ ।
धर्मार्थावनुरुध्यन्ते त्रिवर्गासम्भवे नराः ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतभूषण! विद्वान् एवं बुद्धिमान् पुरुषोंका प्रत्येक कार्य धर्म, अर्थ और काम इन तीनोंकी सिद्धिके अनुकूल ही होता है। यदि तीनोंकी सिद्धि असम्भव हो तो बुद्धिमान् मानव धर्म और अर्थका ही अनुसरण करते हैं॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पृथक् च विनिविष्टानां धर्मं धीरोऽनुरुध्यते।
मध्यमोऽर्थं कलिं बालः काममेवानुरुध्यते ॥ ३५ ॥

मूलम्

पृथक् च विनिविष्टानां धर्मं धीरोऽनुरुध्यते।
मध्यमोऽर्थं कलिं बालः काममेवानुरुध्यते ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पृथक्-पृथक् स्थित हुए धर्म, अर्थ और काममेंसे किसी एकको चुनना हो तो धीर पुरुष धर्मका ही अनुसरण करता है, मध्यम श्रेणीका मनुष्य कलहके कारणभूत अर्थको ही ग्रहण करता है और अधम श्रेणीका अज्ञानी पुरुष कामको ही पाना चाहता है॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इन्द्रियैः प्राकृतो लोभाद् धर्मं विप्रजहाति यः।
कामार्थावनुपायेन लिप्समानो विनश्यति ॥ ३६ ॥

मूलम्

इन्द्रियैः प्राकृतो लोभाद् धर्मं विप्रजहाति यः।
कामार्थावनुपायेन लिप्समानो विनश्यति ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो अधम मनुष्य इन्द्रियोंके वशीभूत होकर लोभवश धर्मको छोड़ देता है, वह अयोग्य उपायोंसे अर्थ और कामकी लिप्सामें पड़कर नष्ट हो जाता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कामार्थौ लिप्समानस्तु धर्ममेवादितश्चरेत् ।
न हि धर्मादपैत्यर्थः कामो वापि कदाचन ॥ ३७ ॥

मूलम्

कामार्थौ लिप्समानस्तु धर्ममेवादितश्चरेत् ।
न हि धर्मादपैत्यर्थः कामो वापि कदाचन ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो अर्थ और काम प्राप्त करना चाहता हो, उसे पहले धर्मका ही आचरण करना चाहिये; क्योंकि अर्थ या काम कभी धर्मसे पृथक् नहीं होता है॥३७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उपायं धर्ममेवाहुस्त्रिवर्गस्य विशाम्पते ।
लिप्समानो हि तेनाशु कक्षेऽग्निरिव वर्धते ॥ ३८ ॥

मूलम्

उपायं धर्ममेवाहुस्त्रिवर्गस्य विशाम्पते ।
लिप्समानो हि तेनाशु कक्षेऽग्निरिव वर्धते ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘प्रजानाथ! विद्वान् पुरुष धर्मको ही त्रिवर्गकी प्राप्तिका एकमात्र उपाय बताते हैं। अतः जो धर्मके द्वारा अर्थ और कामको पाना चाहता है, वह शीघ्र ही उसी प्रकार उन्नतिकी दिशामें आगे बढ़ जाता है, जैसे सूखे तिनकोंमें लगी हुई आग बढ़ जाती है॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स त्वं तातानुपायेन लिप्ससे भरतर्षभ।
आधिराज्यं महद् दीप्तं प्रथितं सर्वराजसु ॥ ३९ ॥

मूलम्

स त्वं तातानुपायेन लिप्ससे भरतर्षभ।
आधिराज्यं महद् दीप्तं प्रथितं सर्वराजसु ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात भरतश्रेष्ठ! तुम समस्त राजाओंमें विख्यात इस विशाल एवं उज्ज्वल साम्राज्यको अनुचित उपायसे पाना चाहते हो॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आत्मानं तक्षति ह्येष वनं परशुना यथा।
यः सम्यग्वर्तमानेषु मिथ्या राजन् प्रवर्तते ॥ ४० ॥

मूलम्

आत्मानं तक्षति ह्येष वनं परशुना यथा।
यः सम्यग्वर्तमानेषु मिथ्या राजन् प्रवर्तते ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजन्! जो उत्तम व्यवहार करनेवाले सत्पुरुषोंके साथ असद्व्यवहार करता है, वह कुल्हाड़ीसे जंगलकी भाँति उस दुर्व्यवहारसे अपने-आपको ही काटता है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न तस्य हि मतिं छिन्द्याद् यस्य नेच्छेत्‌ पराभवम्।
अविच्छिन्नमतेरस्य कल्याणे धीयते मतिः।
आत्मवान् नावमन्येत त्रिषु लोकेषु भारत ॥ ४१ ॥
अप्यन्यं प्राकृतं किंचित्‌ किमु तान् पाण्डवर्षभान्।
अमर्षवशमापन्नो न किंचिद् बुध्यते जनः ॥ ४२ ॥

मूलम्

न तस्य हि मतिं छिन्द्याद् यस्य नेच्छेत्‌ पराभवम्।
अविच्छिन्नमतेरस्य कल्याणे धीयते मतिः।
आत्मवान् नावमन्येत त्रिषु लोकेषु भारत ॥ ४१ ॥
अप्यन्यं प्राकृतं किंचित्‌ किमु तान् पाण्डवर्षभान्।
अमर्षवशमापन्नो न किंचिद् बुध्यते जनः ॥ ४२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘मनुष्य जिसका पराभव न करना चाहे, उसकी बुद्धिका उच्छेद न करे। जिसकी बुद्धि नष्ट नहीं हुई है, उसी पुरुषका मन कल्याणकारी कार्योंमें प्रवृत्त होता है। भरतनन्दन! मनस्वी पुरुषको चाहिये कि वह तीनों लोकोंमें किसी प्राकृत (निम्न श्रेणीके) पुरुषका भी अपमान न करे, फिर इन श्रेष्ठ पाण्डवोंके अपमान-की तो बात ही क्या है? ईर्ष्याके वशमें रहनेवाला मनुष्य किसी बातको ठीकसे समझ नहीं पाता॥४१-४२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

छिद्यते ह्याततं सर्वं प्रमाणं पश्य भारत।
श्रेयस्ते दुर्जनात् तात पाण्डवैः सह संगतम् ॥ ४३ ॥

मूलम्

छिद्यते ह्याततं सर्वं प्रमाणं पश्य भारत।
श्रेयस्ते दुर्जनात् तात पाण्डवैः सह संगतम् ॥ ४३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतनन्दन! देखो, ईर्ष्यालु मनुष्यके समक्ष प्रस्तुत किये हुए सम्पूर्ण विस्तृत प्रमाण भी उच्छिन्न-से हो जाते हैं। तात! किसी दुष्ट मनुष्यका साथ करनेकी अपेक्षा पाण्डवोंके साथ मेल-मिलाप रखना तुम्हारे लिये विशेष कल्याणकारी है॥४३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तैर्हि सम्प्रीयमाणस्त्वं सर्वान् कामानवाप्स्यसि।
पाण्डवैर्निर्मितां भूमिं भुञ्जानो राजसत्तम ॥ ४४ ॥
पाण्डवान् पृष्ठतः कृत्वा त्राणमाशंससेऽन्यतः।

मूलम्

तैर्हि सम्प्रीयमाणस्त्वं सर्वान् कामानवाप्स्यसि।
पाण्डवैर्निर्मितां भूमिं भुञ्जानो राजसत्तम ॥ ४४ ॥
पाण्डवान् पृष्ठतः कृत्वा त्राणमाशंससेऽन्यतः।

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डवोंसे प्रेम रखनेपर तुम सम्पूर्ण मनोरथोंको प्राप्त कर लोगे। नृपश्रेष्ठ! तुम पाण्डवोंद्वारा स्थापित राज्यका उपभोग कर रहे हो, तो भी उन्हींको पीछे करके अर्थात् उनकी अवहेलना करके दूसरोंसे अपनी रक्षाकी आशा रखते हो॥४४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुःशासने दुर्विषहे कर्णे चापि ससौबले ॥ ४५ ॥
एतेष्वैश्वर्यमाधाय भूतिमिच्छसि भारत ।

मूलम्

दुःशासने दुर्विषहे कर्णे चापि ससौबले ॥ ४५ ॥
एतेष्वैश्वर्यमाधाय भूतिमिच्छसि भारत ।

अनुवाद (हिन्दी)

‘भारत! तुम दुःशासन, दुर्विषह, कर्ण और शकुनि-इन सबपर अपने ऐश्वर्यका भार रखकर उन्नतिकी इच्छा रखते हो?॥४५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न चैते तव पर्याप्ता ज्ञाने धर्मार्थयोस्तथा ॥ ४६ ॥
विक्रमे चाप्यपर्याप्ताः पाण्डवान् प्रति भारत।

मूलम्

न चैते तव पर्याप्ता ज्ञाने धर्मार्थयोस्तथा ॥ ४६ ॥
विक्रमे चाप्यपर्याप्ताः पाण्डवान् प्रति भारत।

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतनन्दन! ये तुम्हें ज्ञान, धर्म और अर्थकी प्राप्ति करानेमें समर्थ नहीं हैं और पाण्डवोंके सामने पराक्रम प्रकट करनेमें भी ये असमर्थ ही हैं॥४६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हीमे सर्वराजानः पर्याप्ताः सहितास्त्वया ॥ ४७ ॥
क्रुद्धस्य भीमसेनस्य प्रेक्षितुं मुखमाहवे।

मूलम्

न हीमे सर्वराजानः पर्याप्ताः सहितास्त्वया ॥ ४७ ॥
क्रुद्धस्य भीमसेनस्य प्रेक्षितुं मुखमाहवे।

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हारे सहित ये सब राजालोग भी युद्धमें कुपित हुए भीमसेनके मुखकी ओर आँख उठाकर देख ही नहीं सकते हैं॥४७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इदं संनिहितं तात समग्रं पार्थिवं बलम् ॥ ४८ ॥
अयं भीष्मस्तथा द्रोणः कर्णश्चायं तथा कृपः।
भूरिश्रवाः सौमदत्तिरश्वत्थामा जयद्रथः ॥ ४९ ॥
अशक्ताः सर्व एवैते प्रतियोद्‌धुं धनंजयम्।

मूलम्

इदं संनिहितं तात समग्रं पार्थिवं बलम् ॥ ४८ ॥
अयं भीष्मस्तथा द्रोणः कर्णश्चायं तथा कृपः।
भूरिश्रवाः सौमदत्तिरश्वत्थामा जयद्रथः ॥ ४९ ॥
अशक्ताः सर्व एवैते प्रतियोद्‌धुं धनंजयम्।

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! तुम्हारे निकट जो यह समस्त राजाओंकी सेना एकत्र हुई है, यह तथा भीष्म, द्रोण, कर्ण, कृपाचार्य, सोमदत्तपुत्र भूरिश्रवा, अश्वत्थामा और जयद्रथ—ये सभी मिलकर भी अर्जुनका सामना करनेमें समर्थ नहीं हैं॥४८-४९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अजेयो ह्यर्जुनः संख्ये सर्वैरपि सुरासुरैः।
मानुषैरपि गन्धर्वैर्मा युद्धे चेत आधिथाः ॥ ५० ॥

मूलम्

अजेयो ह्यर्जुनः संख्ये सर्वैरपि सुरासुरैः।
मानुषैरपि गन्धर्वैर्मा युद्धे चेत आधिथाः ॥ ५० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सम्पूर्ण देवता और असुर भी युद्धमें अर्जुनको जीत नहीं सकते। वे समस्त मनुष्यों और गन्धर्वोंके द्वारा भी अजेय हैं, अतः तुम युद्धका विचार मत करो॥५०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

दृश्यतां वा पुमान् कश्चित् समग्रे पार्थिवे बले।
योऽर्जुनं समरे प्राप्य स्वस्तिमानाव्रजेद् गृहान् ॥ ५१ ॥

मूलम्

दृश्यतां वा पुमान् कश्चित् समग्रे पार्थिवे बले।
योऽर्जुनं समरे प्राप्य स्वस्तिमानाव्रजेद् गृहान् ॥ ५१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजाओंकी इन सम्पूर्ण सेनाओंमें किसी ऐसे पुरुषपर दृष्टिपात तो करो, जो युद्धमें अर्जुनका सामना करके कुशलपूर्वक अपने घर लौट सके?॥५१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं ते जनक्षयेणेह कृतेन भरतर्षभ।
यस्मिञ्जिते जितं तत् स्यात् पुमानेकः स दृश्यताम् ॥ ५२ ॥

मूलम्

किं ते जनक्षयेणेह कृतेन भरतर्षभ।
यस्मिञ्जिते जितं तत् स्यात् पुमानेकः स दृश्यताम् ॥ ५२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भरतश्रेष्ठ! यह नरसंहार करनेसे तुम्हें क्या लाभ होगा? तुम अपने पक्षमें किसी ऐसे पुरुषको ढूँढ़ निकालो, जो उस अर्जुनपर विजय पा सके, जिसके जीते जानेपर तुम्हारे पक्षकी विजय मान ली जाय॥५२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यः स देवान् सगन्धर्वान् सयक्षासुरपन्नगान्।
अजयत् खाण्डवप्रस्थे कस्तं युध्येत मानवः ॥ ५३ ॥

मूलम्

यः स देवान् सगन्धर्वान् सयक्षासुरपन्नगान्।
अजयत् खाण्डवप्रस्थे कस्तं युध्येत मानवः ॥ ५३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिन्होंने खाण्डववनमें गन्धर्वों, यक्षों, असुरों और नागोंसहित सम्पूर्ण देवताओंको जीत लिया था, उन अर्जुनके साथ कौन मनुष्य युद्ध कर सकेगा?॥५३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा विराटनगरे श्रूयते महदद्‌भुतम्।
एकस्य च बहूनां च पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ ५४ ॥

मूलम्

तथा विराटनगरे श्रूयते महदद्‌भुतम्।
एकस्य च बहूनां च पर्याप्तं तन्निदर्शनम् ॥ ५४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इसके सिवा विराटनगरमें जो बहुत-से महारथी योद्धाओंके साथ एक अर्जुनके युद्धकी अत्यन्त अद्भुत घटना सुनी जाती है, वह एक ही युद्धके भावी परिणामको बतानेके लिये पर्याप्त है॥५४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

युद्धे येन महादेवः साक्षात् संतोषितः शिवः।
तमजेयमनाधृष्यं विजेतुं जिष्णुमच्युतम् ।
आशंससीह समरे वीरमर्जुनमूर्जितम् ॥ ५५ ॥

मूलम्

युद्धे येन महादेवः साक्षात् संतोषितः शिवः।
तमजेयमनाधृष्यं विजेतुं जिष्णुमच्युतम् ।
आशंससीह समरे वीरमर्जुनमूर्जितम् ॥ ५५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जिन्होंने युद्धमें साक्षात् महादेव शिवको अपने पराक्रमसे संतुष्ट किया है, अपनी मर्यादासे कभी च्युत न होनेवाले उन अजेय, दुर्धर्ष एवं विजयशील बलशाली वीर अर्जुनको तुम युद्धमें जीतनेकी आशा रखते हो, यह बड़े आश्चर्यकी बात है!॥५५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मद् द्वितीयं पुनः पार्थं कः प्रार्थयितुमर्हति।
युद्धे प्रतीपमायान्तमपि साक्षात् पुरंदरः ॥ ५६ ॥

मूलम्

मद् द्वितीयं पुनः पार्थं कः प्रार्थयितुमर्हति।
युद्धे प्रतीपमायान्तमपि साक्षात् पुरंदरः ॥ ५६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘फिर मैं जिसका सारथि बनकर साथ रहूँ और वह अर्जुन प्रतिपक्षी होकर युद्धके लिये आये, उस समय साक्षात् इन्द्र ही क्यों न हों, कौन अर्जुनके साथ युद्ध करना चाहेगा?॥५६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

बाहुभ्यामुद्वहेद् भूमिं दहेत् क्रुद्ध इमाः प्रजाः।
पातयेत् त्रिदिवाद् देवान् योऽर्जुनं समरे जयेत् ॥ ५७ ॥

मूलम्

बाहुभ्यामुद्वहेद् भूमिं दहेत् क्रुद्ध इमाः प्रजाः।
पातयेत् त्रिदिवाद् देवान् योऽर्जुनं समरे जयेत् ॥ ५७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘जो समरभूमिमें अर्जुनको जीत सकता है, वह मानो अपनी दोनों भुजाओंपर पृथ्वीको उठा सकता है, कुपित होनेपर इस समस्त प्रजाको दग्ध कर सकता है और देवताओंको स्वर्गसे नीचे गिरा सकता है॥५७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पश्य पुत्रांस्तथा भ्रातॄञ्ज्ञातीन् सम्बन्धिनस्तथा।
त्वत्कृते न विनश्येयुरिमे भरतसत्तमाः ॥ ५८ ॥

मूलम्

पश्य पुत्रांस्तथा भ्रातॄञ्ज्ञातीन् सम्बन्धिनस्तथा।
त्वत्कृते न विनश्येयुरिमे भरतसत्तमाः ॥ ५८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘दुर्योधन! अपने इन पुत्रों, भाइयों, कुटुम्बीजनों और सगे-सम्बन्धियोंकी ओर तो देखो। ये श्रेष्ठ भरत-वंशी तुम्हारे कारण नष्ट न हो जायँ॥५८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्तु शेषं कौरवाणां मा पराभूदिदं कुलम्।
कुलघ्न इति नोच्येथा नष्टकीर्तिर्नराधिप ॥ ५९ ॥

मूलम्

अस्तु शेषं कौरवाणां मा पराभूदिदं कुलम्।
कुलघ्न इति नोच्येथा नष्टकीर्तिर्नराधिप ॥ ५९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरेश्वर! कौरववंश बचा रहे, इस कुलका पराभव न हो और तुम भी अपनी कीर्तिका नाश करके कुलघाती न कहलाओ॥५९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वामेव स्थापयिष्यन्ति यौवराज्ये महारथाः।
महाराज्येऽपि पितरं धृतराष्ट्रं जनेश्वरम् ॥ ६० ॥

मूलम्

त्वामेव स्थापयिष्यन्ति यौवराज्ये महारथाः।
महाराज्येऽपि पितरं धृतराष्ट्रं जनेश्वरम् ॥ ६० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महारथी पाण्डव तुम्हींको युवराजके पदपर स्थापित करेंगे और तुम्हारे पिता राजा धृतराष्ट्रको महाराजके पदपर बनाये रखेंगे॥६०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मा तात श्रियमायान्तीमवमंस्थाः समुद्यताम्।
अर्धं प्रदाय पार्थेभ्यो महतीं श्रियमाप्नुहि ॥ ६१ ॥

मूलम्

मा तात श्रियमायान्तीमवमंस्थाः समुद्यताम्।
अर्धं प्रदाय पार्थेभ्यो महतीं श्रियमाप्नुहि ॥ ६१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तात! अपने घरमें आनेको उद्यत हुई राजलक्ष्मीका अपमान न करो। कुन्तीके पुत्रोंको आधा राज्य देकर स्वयं विशाल सम्पत्तिका उपभोग करो॥६१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पाण्डवैः संशमं कृत्वा कृत्वा च सुहृदां वचः।
सम्प्रीयमाणो मित्रैश्च चिरं भद्राण्यवाप्स्यसि ॥ ६२ ॥

मूलम्

पाण्डवैः संशमं कृत्वा कृत्वा च सुहृदां वचः।
सम्प्रीयमाणो मित्रैश्च चिरं भद्राण्यवाप्स्यसि ॥ ६२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘पाण्डवोंके साथ संधि करके और अपने हितैषी सुहृदोंकी बात मानकर मित्रोंके साथ प्रसन्नता-पूर्वक रहते हुए तुम दीर्घकालतक कल्याणके भागी बने रहोगे’॥६२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि भगवद्वाक्ये चतुर्विंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें भगवद्वाक्यसम्बन्धी एक सौ चौबीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२४॥

सूचना (हिन्दी)

[दाक्षिणात्य अधिक पाठका श्लोक मिलाकर कुल ६२ श्लोक हैं।]