भागसूचना
त्रयोविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
स्वर्गलोकमें ययातिका स्वागत, ययातिके पूछनेपर ब्रह्माजीका अभिमानको ही पतनका कारण बताना तथा नारदजीका दुर्योधनको समझाना
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
सद्भिरारोपितः स्वर्गं पार्थिवैर्भूरिदक्षिणैः ।
अभ्यनुज्ञाय दौहित्रान् ययातिर्दिवमास्थितः ॥ १ ॥
मूलम्
सद्भिरारोपितः स्वर्गं पार्थिवैर्भूरिदक्षिणैः ।
अभ्यनुज्ञाय दौहित्रान् ययातिर्दिवमास्थितः ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी कहते हैं— प्रचुर दक्षिणा देनेवाले उन श्रेष्ठ राजाओंने राजा ययातिको स्वर्गपर आरूढ़ कर दिया। राजा ययाति अपने उन दौहित्रोंको विदा देकर स्वर्गलोकमें जा पहुँचे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिवृष्टश्च वर्षेण नानापुष्पसुगन्धिना ।
परिष्वक्तश्च पुण्येन वायुना पुण्यगन्धिना ॥ २ ॥
मूलम्
अभिवृष्टश्च वर्षेण नानापुष्पसुगन्धिना ।
परिष्वक्तश्च पुण्येन वायुना पुण्यगन्धिना ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वहाँ उनके ऊपर नाना प्रकारके सुगन्धयुक्त पुष्पोंकी वर्षा हुई। पवित्र सौरभसे सुवासित पावन समीर उनका सब ओरसे आलिंगन कर रहा था॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अचलं स्थानमासाद्य दौहित्रफलनिर्जितम् ।
कर्मभिः स्वैरुपचितो जज्वाल परया श्रिया ॥ ३ ॥
मूलम्
अचलं स्थानमासाद्य दौहित्रफलनिर्जितम् ।
कर्मभिः स्वैरुपचितो जज्वाल परया श्रिया ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
दौहित्रोंके पुण्यफलसे प्राप्त हुए अविचल स्थानको पाकर अपने सत्कर्मोंसे बढ़े हुए राजा ययाति उत्कृष्ट शोभासे प्रकाशित होने लगे॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
उपगीतोपनृत्तश्च गन्धर्वाप्सरसां गणैः ।
प्रीत्या प्रतिगृहीतश्च स्वर्गे दुन्दुभिनिःस्वनैः ॥ ४ ॥
मूलम्
उपगीतोपनृत्तश्च गन्धर्वाप्सरसां गणैः ।
प्रीत्या प्रतिगृहीतश्च स्वर्गे दुन्दुभिनिःस्वनैः ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गन्धर्वों और अप्सराओंके समुदायोंने ‘उनके सुयशका’ गान करते हुए उनके समीप नृत्य करके उन्हें प्रसन्न किया। स्वर्गलोकमें दुन्दुभि आदि वाद्योंकी गम्भीर ध्वनिके साथ अत्यन्त प्रेमपूर्वक उनको अपनाया गया॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अभिष्टुतश्च विविधैर्देवराजर्षिचारणैः ।
अर्चितश्चोत्तमार्घ्येण दैवतैरभिनन्दितः ॥ ५ ॥
मूलम्
अभिष्टुतश्च विविधैर्देवराजर्षिचारणैः ।
अर्चितश्चोत्तमार्घ्येण दैवतैरभिनन्दितः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नाना प्रकारके देवर्षियों, राजर्षियों तथा चारणोंने उनका स्तवन किया। देवताओंने उत्तम अर्घ्य निवेदन करके उनका पूजन और अभिनन्दन किया॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्राप्तः स्वर्गफलं चैव तमुवाच पितामहः।
निर्वृतं शान्तमनसं वचोभिस्तर्पयन्निव ॥ ६ ॥
मूलम्
प्राप्तः स्वर्गफलं चैव तमुवाच पितामहः।
निर्वृतं शान्तमनसं वचोभिस्तर्पयन्निव ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
इस प्रकार ययातिने उत्तम स्वर्गफल पाया तदनन्तर संतुष्ट एवं शान्तचित्त हुए ययातिको अपने मधुर वचनोंद्वारा पूर्णतः तृप्त करते हुए-से पितामह ब्रह्माजी उनसे इस प्रकार बोले—॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
चतुष्पादस्त्वया धर्मश्चितो लोक्येन कर्मणा।
अक्षयस्तव लोकोऽयं कीर्तिश्चैवाक्षया दिवि ॥ ७ ॥
मूलम्
चतुष्पादस्त्वया धर्मश्चितो लोक्येन कर्मणा।
अक्षयस्तव लोकोऽयं कीर्तिश्चैवाक्षया दिवि ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजन्! तुमने लोकहितकारी सत्कर्मद्वारा चारों चरणोंसे युक्त धर्मका संग्रह किया; अतः तुम्हें यह अक्षय स्वर्गलोक प्राप्त हुआ और स्वर्गमें तुम्हारी क्षीण न होनेवाली कीर्ति फैल गयी॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुनस्त्वयैव राजर्षे सुकृतेन विघातितम्।
आवृतं तमसा चेतः सर्वेषां स्वर्गवासिनाम् ॥ ८ ॥
येन त्वां नाभिजानन्ति ततोऽज्ञातोऽसि पातितः।
प्रीत्यैव चासि दौहित्रैस्तारितस्त्वमिहागतः ॥ ९ ॥
मूलम्
पुनस्त्वयैव राजर्षे सुकृतेन विघातितम्।
आवृतं तमसा चेतः सर्वेषां स्वर्गवासिनाम् ॥ ८ ॥
येन त्वां नाभिजानन्ति ततोऽज्ञातोऽसि पातितः।
प्रीत्यैव चासि दौहित्रैस्तारितस्त्वमिहागतः ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘राजर्षे! फिर तुम्हींने ‘अभिमानपूर्ण बर्तावसे’ अपने पुण्यका नाश किया था। उस समय समस्त स्वर्गवासियोंका चित्त तमोगुणसे व्याप्त हो गया था, जिससे वे तुम्हें नहीं जानते या नहीं पहचानते थे; अतः सबके लिये अज्ञात होनेके कारण तुम स्वर्गसे नीचे गिरा दिये गये। फिर तुम्हारे दौहित्रोंने प्रेमपूर्वक तुम्हें तार दिया है, जिससे तुम पुनः यहाँ आ गये हो॥८-९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स्थानं च प्रतिपन्नोऽसि कर्मणा स्वेन निर्जितम्।
अचलं शाश्वतं पुण्यमुत्तमं ध्रुवमव्ययम् ॥ १० ॥
मूलम्
स्थानं च प्रतिपन्नोऽसि कर्मणा स्वेन निर्जितम्।
अचलं शाश्वतं पुण्यमुत्तमं ध्रुवमव्ययम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब तुमने अपने (दौहित्रोंद्वारा प्राप्त) कर्मसे जीते हुए अविचल, शाश्वत, पुण्यमय, उत्तम, ध्रुव तथा अविनाशी स्थान प्राप्त किया है’॥१०॥
मूलम् (वचनम्)
ययातिरुवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
भगवन् संशयो मेऽस्ति कश्चित् तं छेत्तुमर्हसि।
न ह्यन्यमहमर्हामि प्रष्टुं लोकपितामह ॥ ११ ॥
मूलम्
भगवन् संशयो मेऽस्ति कश्चित् तं छेत्तुमर्हसि।
न ह्यन्यमहमर्हामि प्रष्टुं लोकपितामह ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ययाति बोले— भगवन्! मेरे मनमें कोई संदेह है, जिसका निवारण आप ही कर सकते हैं। लोकपितामह! मैं इस प्रश्नको और किसीके सामने रखना उचित नहीं समझता॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुवर्षसहस्रान्तं प्रजापालनवर्धितम् ।
अनेकक्रतुदानौघैरर्जितं मे महत् फलम् ॥ १२ ॥
कथं तदल्पकालेन क्षीणं येनास्मि पातितः।
भगवन् वेत्थ लोकांश्च शाश्वतान् मम निर्मितान्।
कथं नु मम तत् सर्वं विप्रणष्टं महाद्युते ॥ १३ ॥
मूलम्
बहुवर्षसहस्रान्तं प्रजापालनवर्धितम् ।
अनेकक्रतुदानौघैरर्जितं मे महत् फलम् ॥ १२ ॥
कथं तदल्पकालेन क्षीणं येनास्मि पातितः।
भगवन् वेत्थ लोकांश्च शाश्वतान् मम निर्मितान्।
कथं नु मम तत् सर्वं विप्रणष्टं महाद्युते ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने कई हजार वर्षोंतक अनेकानेक यज्ञों और दानोंके द्वारा जिस महान् पुण्यफलका उपार्जन किया था और जिसे प्रजापालनरूपी धर्मके द्वारा उत्तरोत्तर बढ़ाया था, वह सब थोड़े ही समयमें नष्ट कैसे हो गया? जिससे मैं यहाँसे नीचे गिरा दिया गया। भगवन्! महाद्युते! मुझे मेरे सत्कर्मोंद्वारा जो सनातन लोक प्राप्त हुए थे, उन्हें आप जानते हैं। मेरा वह सारा पुण्य सहसा नष्ट कैसे हो गया?॥१२-१३॥
मूलम् (वचनम्)
पितामह उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
बहुवर्षसहस्रान्तं प्रजापालनवर्धितम् ।
अनेकक्रतुदानौघैर्यत् त्वयोपार्जितं फलम् ॥ १४ ॥
तदनेनैव दोषेण क्षीणं येनासि पातितः।
अभिमानेन राजेन्द्र धिक्कृतः स्वर्गवासिभिः ॥ १५ ॥
मूलम्
बहुवर्षसहस्रान्तं प्रजापालनवर्धितम् ।
अनेकक्रतुदानौघैर्यत् त्वयोपार्जितं फलम् ॥ १४ ॥
तदनेनैव दोषेण क्षीणं येनासि पातितः।
अभिमानेन राजेन्द्र धिक्कृतः स्वर्गवासिभिः ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ब्रह्माजी बोले— राजेन्द्र! तुमने कई हजार वर्षोंतक अनेकानेक यज्ञों और दानोंके द्वारा जिस पुण्यफलका उपार्जन किया और प्रजापालनरूपी धर्मके द्वारा जिसे उत्तरोत्तर बढ़ाया, वह सब इस अभिमानरूपी दोषके कारण ही नष्ट हो गया था, जिससे तुम नीचे गिराये गये। तुम्हारे अभिमानके ही कारण स्वर्गलोकके निवासियोंने तुम्हें धिक्कार दिया था॥१४-१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नायं मानेन राजर्षे न बलेन न हिंसया।
न शाठ्येन न मायाभिर्लोको भवति शाश्वतः ॥ १६ ॥
मूलम्
नायं मानेन राजर्षे न बलेन न हिंसया।
न शाठ्येन न मायाभिर्लोको भवति शाश्वतः ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजर्षे! यह पुण्यलोक न अभिमानसे, न बलसे, न हिंसासे, न शठतासे और न भाँति-भाँतिकी मायाओंसे ही सुस्थिर होता है॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नावमान्यास्त्वया राजन्नधमोत्कृष्टमध्यमाः ।
न हि मानप्रदग्धानां कश्चिदस्ति शमः क्वचित् ॥ १७ ॥
मूलम्
नावमान्यास्त्वया राजन्नधमोत्कृष्टमध्यमाः ।
न हि मानप्रदग्धानां कश्चिदस्ति शमः क्वचित् ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
राजन्! तुम्हें ऊँचे, नीचे एवं मध्यम वर्गके लोगोंका कभी अपमान नहीं करना चाहिये। जो लोग अभिमानकी आगमें जल रहे हैं, उनके उस संतापको शान्त करनेका कहीं कोई उपाय नहीं है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पतनारोहणमिदं कथयिष्यन्ति ये नराः।
विषमाण्यपि ते प्राप्तास्तरिष्यन्ति न संशयः ॥ १८ ॥
मूलम्
पतनारोहणमिदं कथयिष्यन्ति ये नराः।
विषमाण्यपि ते प्राप्तास्तरिष्यन्ति न संशयः ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जो मनुष्य तुम्हारे स्वर्गसे गिरने और पुनः आरूढ़ होनेके इस वृत्तान्तको आपसमें कहें-सुनेंगे, वे संकटमें पड़नेपर भी उससे पार हो जायँगे; इसमें संशय नहीं है॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एष दोषोऽभिमानेन पुरा प्राप्तो ययातिना।
निर्बध्नतातिमात्रं च गालवेन महीपते ॥ १९ ॥
मूलम्
एष दोषोऽभिमानेन पुरा प्राप्तो ययातिना।
निर्बध्नतातिमात्रं च गालवेन महीपते ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी कहते हैं— राजन्! इस प्रकार पूर्वकालमें राजा ययाति अपने अभिमानके कारण संकटमें पड़ गये थे और अत्यन्त आग्रह एवं हठके कारण महर्षि गालवको भी महान् क्लेश सहन करना पड़ा था॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
श्रोतव्यं हितकामानां सुहृदां हितमिच्छताम्।
न कर्तव्यो हि निर्बन्धो निर्बन्धो हि क्षयोदयः ॥ २० ॥
मूलम्
श्रोतव्यं हितकामानां सुहृदां हितमिच्छताम्।
न कर्तव्यो हि निर्बन्धो निर्बन्धो हि क्षयोदयः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः तुम्हें तुम्हारे हितकी इच्छा रखनेवाले सुहृदोंकी बात अवश्य सुननी और माननी चाहिये। दुराग्रह कभी नहीं करना चाहिये, क्योंकि वह विनाशके पथपर ले जानेवाला है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तस्मात् त्वमपि गान्धारे मानं क्रोधं च वर्जय।
संधत्स्व पाण्डवैर्वीर संरम्भं त्यज पार्थिव ॥ २१ ॥
मूलम्
तस्मात् त्वमपि गान्धारे मानं क्रोधं च वर्जय।
संधत्स्व पाण्डवैर्वीर संरम्भं त्यज पार्थिव ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
अतः गान्धारीनन्दन! तुम भी अभिमान और क्रोधको त्याग दो। वीर नरेश! तुम पाण्डवोंसे संधि कर लो और क्रोधके आवेशको सदाके लिये छोड़ दो॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
(स भवान् सुहृदां पथ्यं वचो गृह्णातु मानृतम्।
समर्थैर्विग्रहं कृत्वा विषमस्थो भविष्यसि ॥ )
मूलम्
(स भवान् सुहृदां पथ्यं वचो गृह्णातु मानृतम्।
समर्थैर्विग्रहं कृत्वा विषमस्थो भविष्यसि ॥ )
अनुवाद (हिन्दी)
तुम अपने सुहृदोंके हितकर वचन मान लो। असत्य आचरणको न अपनाओ, अन्यथा शक्तिशाली पाण्डवोंके साथ युद्ध ठानकर तुम बड़े भारी संकटमें पड़ जाओगे।
विश्वास-प्रस्तुतिः
ददाति यत् पार्थिव यत् करोति
यद् वा तपस्तप्यति यज्जुहोति।
न तस्य नाशोऽस्ति न चापकर्षो
नान्यस्तदश्नाति स एव कर्ता ॥ २२ ॥
मूलम्
ददाति यत् पार्थिव यत् करोति
यद् वा तपस्तप्यति यज्जुहोति।
न तस्य नाशोऽस्ति न चापकर्षो
नान्यस्तदश्नाति स एव कर्ता ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
भूपाल! मनुष्य जो दान देता है, जो कर्म करता है, जो तपस्यामें प्रवृत्त होता है और जो होम-यज्ञ आदिका अनुष्ठान करता है, उसके इस कर्मका न तो नाश होता है और न उसमें कोई कमी ही होती है। उसके कर्मको दूसरा कोई नहीं भोगता। कर्ता स्वयं ही अपने शुभाशुभ कर्मोंका फल भोगता है॥२२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं महाख्यानमनुत्तमं हितं
बहुश्रुतानां गतरोषरागिणाम् ।
समीक्ष्य लोके बहुधा प्रधारितं
त्रिवर्गदृष्टिः पृथिवीमुपाश्नुते ॥ २३ ॥
मूलम्
इदं महाख्यानमनुत्तमं हितं
बहुश्रुतानां गतरोषरागिणाम् ।
समीक्ष्य लोके बहुधा प्रधारितं
त्रिवर्गदृष्टिः पृथिवीमुपाश्नुते ॥ २३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यह महत्त्वपूर्ण उपाख्यान उन महापुरुषोंका है, जो अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता तथा रोष और रागसे रहित थे। यह सबके लिये परम उत्तम और हितकर है। लोकमें इसपर नाना प्रकारसे विचार करके निश्चित किये हुए सिद्धान्तको अपनाकर धर्म, अर्थ और कामपर दृष्टि रखनेवाला पुरुष इस पृथ्वीका उपभोग करता है॥२३॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि गालवचरिते त्रयोविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२३ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें गालवचरित्रविषयक एक सौ तेईसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२३॥
सूचना (हिन्दी)
[दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल २४ श्लोक हैं।]