१२१ ययातिस्वर्गभ्रंशे

भागसूचना

एकविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

ययातिका स्वर्गलोकसे पतन और उनके दौहित्रों, पुत्री तथा गालव मुनिका उन्हें पुनः स्वर्गलोकमें पहुँचानेके लिये अपना-अपना पुण्य देनेके लिये उद्यत होना

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ प्रचलितः स्थानादासनाच्च परिच्युतः।
कम्पितेनेव मनसा धर्षितः शोकवह्निना ॥ १ ॥

मूलम्

अथ प्रचलितः स्थानादासनाच्च परिच्युतः।
कम्पितेनेव मनसा धर्षितः शोकवह्निना ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी कहते हैं— राजन्! तत्पश्चात् ययाति अपने सिंहासनसे गिरकर उस स्वर्गीय स्थानसे भी विचलित हो गये। उनका हृदय काँप-सा उठा और शोकाग्नि उन्हें दग्ध करने लगी॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

म्लानस्रग्भ्रष्टविज्ञानः प्रभ्रष्टमुकुटाङ्गदः ।
विघूर्णन् स्रस्तसर्वाङ्गः प्रभ्रष्टाभरणाम्बरः ॥ २ ॥

मूलम्

म्लानस्रग्भ्रष्टविज्ञानः प्रभ्रष्टमुकुटाङ्गदः ।
विघूर्णन् स्रस्तसर्वाङ्गः प्रभ्रष्टाभरणाम्बरः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उन्होंने जो दिव्य कुसुमोंकी माला पहन रखी थी, वह मुरझा गयी। उनकी ज्ञानशक्ति लुप्त होने लगी। मुकुट और बाजूबन्द शरीरसे अलग हो गये। उन्हें चक्कर आने लगा। उनके सारे अंग शिथिल हो गये और वस्त्र तथा आभूषण भी खिसक-खिसककर गिरने लगे॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदृश्यमानस्तान् पश्यन्नपश्यंश्च पुनः पुनः।
शून्यः शून्येन मनसा प्रपतिष्यन् महीतलम् ॥ ३ ॥
किं मया मनसा ध्यातमशुभं धर्मदूषणम्।
येनाहं चलितः स्थानादिति राजा व्यचिन्तयत् ॥ ४ ॥

मूलम्

अदृश्यमानस्तान् पश्यन्नपश्यंश्च पुनः पुनः।
शून्यः शून्येन मनसा प्रपतिष्यन् महीतलम् ॥ ३ ॥
किं मया मनसा ध्यातमशुभं धर्मदूषणम्।
येनाहं चलितः स्थानादिति राजा व्यचिन्तयत् ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे अन्धकारसे आवृत होनेके कारण स्वयं स्वर्गवासियोंको नहीं दिखायी देते थे; परंतु वे उन्हें बार-बार देखते और कभी नहीं भी देख पाते थे। पृथ्वीपर गिरनेसे पहले शून्य-से होकर शून्य हृदयसे राजा यह चिन्ता करने लगे कि मैंने अपने मनसे किस धर्मदूषक अशुभ वस्तुका चिन्तन किया है, जिसके कारण मुझे अपने स्थानसे भ्रष्ट होना पड़ा है॥३-४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ते तु तत्रैव राजानः सिद्धाश्चाप्सरसस्तथा।
अपश्यन्त निरालम्बं तं ययातिं परिच्युतम् ॥ ५ ॥

मूलम्

ते तु तत्रैव राजानः सिद्धाश्चाप्सरसस्तथा।
अपश्यन्त निरालम्बं तं ययातिं परिच्युतम् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

स्वर्गके राजर्षि, सिद्ध और अप्सरा—सभीने स्वर्गसे भ्रष्ट हो अवलम्बशून्य हुए राजा ययातिको देखा॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथैत्य पुरुषः कश्चित् क्षीणपुण्यनिपातकः।
ययातिमब्रवीद् राजन् देवराजस्य शासनात् ॥ ६ ॥

मूलम्

अथैत्य पुरुषः कश्चित् क्षीणपुण्यनिपातकः।
ययातिमब्रवीद् राजन् देवराजस्य शासनात् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इतनेमें ही पुण्यरहित पुरुषोंको स्वर्गसे नीचे गिरानेवाला कोई पुरुष देवराजकी आज्ञासे वहाँ आकर ययातिसे इस प्रकार बोला—॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अतीव मदमत्तस्त्वं न कंचिन्नावमन्यसे।
मानेन भ्रष्टः स्वर्गस्ते नार्हस्त्वं पार्थिवात्मज ॥ ७ ॥

मूलम्

अतीव मदमत्तस्त्वं न कंचिन्नावमन्यसे।
मानेन भ्रष्टः स्वर्गस्ते नार्हस्त्वं पार्थिवात्मज ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘राजपुत्र! तुम अत्यन्त मदमत्त हो और कोई भी ऐसा महान् पुरुष यहाँ नहीं है, जिसका तुम तिरस्कार न करते हो। इस मानके कारण ही तुम अपने स्थानसे गिर रहे हो। अब तुम यहाँ रहनेके योग्य नहीं हो॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न च प्रज्ञायसे गच्छ पतस्वेति तमब्रवीत्।
पतेयं सत्स्विति वचस्त्रिरुक्त्वा नहुषात्मजः ॥ ८ ॥

मूलम्

न च प्रज्ञायसे गच्छ पतस्वेति तमब्रवीत्।
पतेयं सत्स्विति वचस्त्रिरुक्त्वा नहुषात्मजः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुम्हें यहाँ कोई नहीं जानता है; अतः जाओ, नीचे गिरो।’ जब उसने ऐसा कहा, तब नहुषपुत्र ययाति तीन बार ऐसा कहकर नीचे जाने लगे कि मैं सत्पुरुषोंके बीचमें गिरूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पतिष्यंश्चिन्तयामास गतिं गतिमतां वरः।
एतस्मिन्नेव काले तु नैमिषे पार्थिवर्षभान् ॥ ९ ॥
चतुरोऽपश्यत नृपस्तेषां मध्ये पपात ह।

मूलम्

पतिष्यंश्चिन्तयामास गतिं गतिमतां वरः।
एतस्मिन्नेव काले तु नैमिषे पार्थिवर्षभान् ॥ ९ ॥
चतुरोऽपश्यत नृपस्तेषां मध्ये पपात ह।

अनुवाद (हिन्दी)

जंगम प्राणियोंमें श्रेष्ठ ययाति गिरते समय अपनी गतिके विषयमें चिन्ता कर रहे थे। इसी समय उन्होंने नैमिषारण्यमें चार श्रेष्ठ राजाओंको देखा और उन्हींके बीचमें वे गिरने लगे॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतर्दनो वसुमनाः शिबिरौशीनरोऽष्टकः ॥ १० ॥
वाजपेयेन यज्ञेन तर्पयन्ति सुरेश्वरम्।

मूलम्

प्रतर्दनो वसुमनाः शिबिरौशीनरोऽष्टकः ॥ १० ॥
वाजपेयेन यज्ञेन तर्पयन्ति सुरेश्वरम्।

अनुवाद (हिन्दी)

वहाँ प्रतर्दन, वसुमना, औशीनर शिबि तथा अष्टक—ये चार नरेश वाजपेययज्ञके द्वारा देवेश्वर श्रीहरिको तृप्त करते थे॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषामध्वरजं धूमं स्वर्गद्वारमुपस्थितम् ॥ ११ ॥
ययातिरुपजिघ्रन् वै निपपात महीं प्रति।

मूलम्

तेषामध्वरजं धूमं स्वर्गद्वारमुपस्थितम् ॥ ११ ॥
ययातिरुपजिघ्रन् वै निपपात महीं प्रति।

अनुवाद (हिन्दी)

उनके यज्ञका धूम मानो स्वर्गका द्वार बनकर उपस्थित हुआ था। ययाति उसीको सूँघते हुए पृथ्वीकी ओर गिर रहे थे॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भूमौ स्वर्गे च सम्बद्धां नदीं धूममयीमिव।
गङ्गां गामिव गच्छन्तीमालम्ब्य जगतीपतिः ॥ १२ ॥
श्रीमत्स्ववभृथाग्र्येषु चतुर्षु प्रतिबन्धुषु ।
मध्ये निपतितो राजा लोकपालोपमेषु सः ॥ १३ ॥

मूलम्

भूमौ स्वर्गे च सम्बद्धां नदीं धूममयीमिव।
गङ्गां गामिव गच्छन्तीमालम्ब्य जगतीपतिः ॥ १२ ॥
श्रीमत्स्ववभृथाग्र्येषु चतुर्षु प्रतिबन्धुषु ।
मध्ये निपतितो राजा लोकपालोपमेषु सः ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भूतलसे स्वर्गतक धूममयी नदी-सी प्रवाहित हो रही थी, मानो आकाशगंगा भूमिपर जा रही हों। भूपाल ययाति उसी धूमलेखाका अवलम्बन करके लोकपालोंके समान तेजस्वी तथा अवभृथ स्नानसे पवित्र अपने चारों सम्बन्धियोंके बीचमें गिरे॥१२-१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

चतुर्षु हुतकल्पेषु राजसिंहमहाग्निषु ।
पपात मध्ये राजर्षिर्ययातिः पुण्यसंक्षये ॥ १४ ॥

मूलम्

चतुर्षु हुतकल्पेषु राजसिंहमहाग्निषु ।
पपात मध्ये राजर्षिर्ययातिः पुण्यसंक्षये ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे चारों श्रेष्ठ राजा उन चार विशाल अग्नियोंके समान तेजस्वी थे, जो हविष्यकी आहुति पाकर प्रज्वलित हो रहे हों। राजर्षि ययाति अपना पुण्य क्षीण होनेपर उन्हींके मध्यभागमें गिरे॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तमाहुः पार्थिवाः सर्वे दीप्यमानमिव श्रिया।
को भवान् कस्य वा बन्धुर्देशस्य नगरस्य वा ॥ १५ ॥
यक्षो वाप्यथवा देवो गन्धर्वो राक्षसोऽपि वा।
न हि मानुषरूपोऽसि को वार्थः काङ्क्ष्यते त्वया ॥ १६ ॥

मूलम्

तमाहुः पार्थिवाः सर्वे दीप्यमानमिव श्रिया।
को भवान् कस्य वा बन्धुर्देशस्य नगरस्य वा ॥ १५ ॥
यक्षो वाप्यथवा देवो गन्धर्वो राक्षसोऽपि वा।
न हि मानुषरूपोऽसि को वार्थः काङ्क्ष्यते त्वया ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अपनी दिव्य कान्तिसे उद्भासित होनेवाले उन महाराजसे सभी भूपालोंने पूछा—‘आप कौन हैं? किसके भाई-बन्धु हैं तथा किस देश और नगरमें आपका निवास-स्थान है? आप यक्ष हैं या देवता? गन्धर्व हैं या राक्षस? आपका स्वरूप मनुष्यों-जैसा नहीं है। बताइये, आप कौन-सा प्रयोजन सिद्ध करना चाहते हैं’॥१५-१६॥

मूलम् (वचनम्)

ययातिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ययातिरस्मि राजर्षिः क्षीणपुण्यश्च्युतो दिवः।
पतेयं सत्स्विति ध्यायन् भवत्सु पतितस्ततः ॥ १७ ॥

मूलम्

ययातिरस्मि राजर्षिः क्षीणपुण्यश्च्युतो दिवः।
पतेयं सत्स्विति ध्यायन् भवत्सु पतितस्ततः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ययातिने कहा— मैं राजर्षि ययाति हूँ। अपना पुण्य क्षीण होनेके कारण स्वर्गसे नीचे गिर गया हूँ। गिरते समय मेरे मनमें यह चिन्तन चल रहा था कि मैं सत्पुरुषोंके बीचमें गिरूँ। अतः आपलोगोंके बीचमें आ पड़ा हूँ॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

राजान ऊचुः

विश्वास-प्रस्तुतिः

सत्यमेतद् भवतु ते काङ्क्षितं पुरुषर्षभ।
सर्वेषां नः क्रतुफलं धर्मश्च प्रतिगृह्यताम् ॥ १८ ॥

मूलम्

सत्यमेतद् भवतु ते काङ्क्षितं पुरुषर्षभ।
सर्वेषां नः क्रतुफलं धर्मश्च प्रतिगृह्यताम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे राजा बोले— पुरुषशिरोमणे! आपका यह मनोरथ सफल हो। आप हम सब लोगोंके यज्ञोंका फल और धर्म ग्रहण करें॥१८॥

मूलम् (वचनम्)

ययातिरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

नाहं प्रतिग्रहधनो ब्राह्मणः क्षत्रियो ह्यहम्।
न च मे प्रवणा बुद्धिः परपुण्यविनाशने ॥ १९ ॥

मूलम्

नाहं प्रतिग्रहधनो ब्राह्मणः क्षत्रियो ह्यहम्।
न च मे प्रवणा बुद्धिः परपुण्यविनाशने ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ययातिने कहा— प्रतिग्रह ही जिसका धन है, वह ब्राह्मण मैं नहीं हूँ। मैं तो क्षत्रिय हूँ। अतः मेरी बुद्धि पराये पुण्यका (ग्रहण करके उनका पुण्य) क्षय करनेके लिये उद्यत नहीं है॥१९॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिन्नेव काले तु मृगचर्याक्रमागताम्।
माधवीं प्रेक्ष्य राजानस्तेऽभिवाद्येदमब्रुवन् ॥ २० ॥
किमागमनकृत्यं ते किं कुर्मः शासनं तव।
आज्ञाप्या हि वयं सर्वे तव पुत्रास्तपोधने ॥ २१ ॥

मूलम्

एतस्मिन्नेव काले तु मृगचर्याक्रमागताम्।
माधवीं प्रेक्ष्य राजानस्तेऽभिवाद्येदमब्रुवन् ॥ २० ॥
किमागमनकृत्यं ते किं कुर्मः शासनं तव।
आज्ञाप्या हि वयं सर्वे तव पुत्रास्तपोधने ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी कहते हैं— इसी समय उन राजाओंने अपनी माता माधवीको देखा, जो मृगोंकी भाँति उन्हींके साथ विचरती हुई क्रमशः वहाँ आ पहुँची थी। उसे प्रणाम करके राजाओंने इस प्रकार पूछा—‘तपोधने! यहाँ आपके पधारनेका क्या प्रयोजन है? हम आपकी किस आज्ञाका पालन करें? हम सभी आपके पुत्र हैं; अतः हमें आप योग्य सेवाके लिये आज्ञा प्रदान करें’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तेषां तद् भाषितं श्रुत्वा माधवी परया मुदा।
पितरं समुपागच्छद् ययातिं सा ववन्द च ॥ २२ ॥

मूलम्

तेषां तद् भाषितं श्रुत्वा माधवी परया मुदा।
पितरं समुपागच्छद् ययातिं सा ववन्द च ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उनकी ये बातें सुनकर माधवीको बड़ी प्रसन्नता हुई। वह अपने पिता ययातिके पास गयी और उसने उन्हें प्रणाम किया॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स्पृष्ट्वा मूर्धनि तान् पुत्रांस्तापसी वाक्यमब्रवीत्।
दौहित्रास्तव राजेन्द्र मम पुत्रा न ते पराः ॥ २३ ॥

मूलम्

स्पृष्ट्वा मूर्धनि तान् पुत्रांस्तापसी वाक्यमब्रवीत्।
दौहित्रास्तव राजेन्द्र मम पुत्रा न ते पराः ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर तपस्विनी माधवीने उन पुत्रोंके सिरपर हाथ रखकर अपने पितासे कहा—‘राजेन्द्र! ये सभी आपके दौहित्र (नाती) और मेरे पुत्र हैं, पराये नहीं हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमे त्वां तारयिष्यन्ति दृष्टमेतत् पुरातने।
अहं ते दुहिता राजन् माधवी मृगचारिणी ॥ २४ ॥

मूलम्

इमे त्वां तारयिष्यन्ति दृष्टमेतत् पुरातने।
अहं ते दुहिता राजन् माधवी मृगचारिणी ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ये आपको तार देंगे। दौहित्रोंके द्वारा मातामह (नाना)-का यह उद्धार पुरातन वेदशास्त्रमें स्पष्ट देखा गया है। राजन्! मैं आपकी पुत्री माधवी हूँ और इस तपोवनमें मृगोंके समान जीवनचर्या बनाकर विचरती हूँ॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मयाप्युपचितो धर्मस्ततोऽर्धं प्रतिगृह्यताम् ।
यस्माद् राजन् नराः सर्वे अपत्यफलभागिनः ॥ २५ ॥
तस्मादिच्छन्ति दौहित्रान् यथा त्वं वसुधाधिप।

मूलम्

मयाप्युपचितो धर्मस्ततोऽर्धं प्रतिगृह्यताम् ।
यस्माद् राजन् नराः सर्वे अपत्यफलभागिनः ॥ २५ ॥
तस्मादिच्छन्ति दौहित्रान् यथा त्वं वसुधाधिप।

अनुवाद (हिन्दी)

‘पृथ्वीनाथ! मैंने भी महान् धर्मका संचय किया है। उसका आधा भाग आप ग्रहण करें। राजन्! सब मनुष्य अपनी संतानोंके किये हुए सत्कर्मोंके फलके भागी होते हैं। इसीलिये वे दौहित्रोंकी इच्छा करते हैं, जैसे आपने की थी’॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते पार्थिवाः सर्वे शिरसा जननीं तदा ॥ २६ ॥
अभिवाद्य नमस्कृत्य मातामहमथाब्रुवन् ।
उच्चैरनुपमैः स्निग्धैः स्वरैरापूर्य मेदिनीम् ॥ २७ ॥
मातामहं नृपतयस्तारयन्तो दिवश्च्युतम् ।

मूलम्

ततस्ते पार्थिवाः सर्वे शिरसा जननीं तदा ॥ २६ ॥
अभिवाद्य नमस्कृत्य मातामहमथाब्रुवन् ।
उच्चैरनुपमैः स्निग्धैः स्वरैरापूर्य मेदिनीम् ॥ २७ ॥
मातामहं नृपतयस्तारयन्तो दिवश्च्युतम् ।

अनुवाद (हिन्दी)

तब उन सभी राजाओंने अपनी माताके चरणोंमें मस्तक रखकर प्रणाम किया और स्वर्गभ्रष्ट नानाको भी नमस्कार करके अपने उच्च, अनुपम और स्नेहपूर्ण स्वरसे पृथ्वीको प्रतिध्वनित करते हुए उन्हें तारनेके उद्देश्यसे उनसे कुछ कहनेका विचार किया॥२६-२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ तस्मादुपगतो गालवोऽप्याह पार्थिवम्।
तपसो मेऽष्टभागेन स्वर्गमारोहतां भवान् ॥ २८ ॥

मूलम्

अथ तस्मादुपगतो गालवोऽप्याह पार्थिवम्।
तपसो मेऽष्टभागेन स्वर्गमारोहतां भवान् ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी बीचमें उस वनसे गालव मुनि भी वहाँ आ पहुँचे तथा राजासे इस प्रकार बोले—‘महाराज! आप मेरी तपस्याका आठवाँ भाग लेकर उसके बलसे स्वर्गलोकमें पहुँच जायँ’॥२८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि गालवचरिते ययातिस्वर्गभ्रंशे एकविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १२१ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें गालवचरित्रके प्रसंगमें ययातिका स्वर्गलोकसे पतनविषयक एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१२१॥