११६ गालवचरिते

भागसूचना

षोडशाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

हर्यश्वका दो सौ श्यामकर्ण घोड़े देकर ययातिकन्याके गर्भसे वसुमना नामक पुत्र उत्पन्न करना और गालवका इस कन्याके साथ वहाँसे प्रस्थान

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

हर्यश्वस्त्वब्रवीद् राजा विचिन्त्य बहुधा ततः।
दीर्घमुष्णं च निःश्वस्य प्रजाहेतोर्नृपोत्तमः ॥ १ ॥
उन्नतेषून्नता षट्‌सु सूक्ष्मा सूक्ष्मेषु पञ्चसु।
गम्भीरा त्रिषु गम्भीरेष्वियं रक्ता च पञ्चसु ॥ २ ॥

मूलम्

हर्यश्वस्त्वब्रवीद् राजा विचिन्त्य बहुधा ततः।
दीर्घमुष्णं च निःश्वस्य प्रजाहेतोर्नृपोत्तमः ॥ १ ॥
उन्नतेषून्नता षट्‌सु सूक्ष्मा सूक्ष्मेषु पञ्चसु।
गम्भीरा त्रिषु गम्भीरेष्वियं रक्ता च पञ्चसु ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी कहते हैं— तदनन्तर नृपतिश्रेष्ठ राजा हर्यश्वने उस कन्याके विषयमें बहुत सोच-विचारकर संतानोत्पादनकी इच्छासे गरम-गरम लम्बी साँस खींचकर मुनिसे इस प्रकार कहा—‘द्विजश्रेष्ठ! इस कन्याके छः अंग जो ऊँचे होने चाहिये, ऊँचे हैं। पाँच अंग जो सूक्ष्म होने चाहिये, सूक्ष्म हैं। तीन अंग जो गम्भीर होने चाहिये, गम्भीर हैं तथा इसके पाँच अंग रक्तवर्णके हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

(श्रोण्यौ ललाटमूरू च घ्राणं चेति षडुन्नतम्।
सूक्ष्माण्यङ्‌गुलिपर्वाणि केशरोमनखत्वचः ॥
स्वरः सत्त्वं च नाभिश्च त्रिगम्भीरं प्रचक्षते।
पाणिपादतले रक्ते नेत्रान्तौ च नखानि च॥)

मूलम्

(श्रोण्यौ ललाटमूरू च घ्राणं चेति षडुन्नतम्।
सूक्ष्माण्यङ्‌गुलिपर्वाणि केशरोमनखत्वचः ॥
स्वरः सत्त्वं च नाभिश्च त्रिगम्भीरं प्रचक्षते।
पाणिपादतले रक्ते नेत्रान्तौ च नखानि च॥)

अनुवाद (हिन्दी)

‘दो नितम्ब, दो जाँघें, ललाट और नासिका—ये छः अंग ऊँचे हैं। अंगुलियोंके पर्व, केश, रोम, नख और त्वचा—ये पाँच अंग सूक्ष्म हैं। स्वर, अन्तःकरण तथा नाभि—ये तीन गम्भीर कहे जा सकते हैं तथा हथेली, पैरोंके तलवे, दक्षिण नेत्रप्रान्त, वाम नेत्रप्रान्त तथा नख—ये पाँच अंग रक्तवर्णके हैं।

विश्वास-प्रस्तुतिः

बहुदेवासुरालोका बहुगन्धर्वदर्शना ।
बहुलक्षणसम्पन्ना बहुप्रसवधारिणी ॥ ३ ॥

मूलम्

बहुदेवासुरालोका बहुगन्धर्वदर्शना ।
बहुलक्षणसम्पन्ना बहुप्रसवधारिणी ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘यह बहुत-से देवताओं तथा असुरोंके लिये भी दर्शनीय है। इसे गन्धर्वविद्या (संगीत)-का भी अच्छा ज्ञान है। यह बहुत-से शुभ लक्षणोंद्वारा सुशोभित तथा अनेक संतानोंको जन्म देनेमें समर्थ है॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

समर्थेयं जनयितुं चक्रवर्तिनमात्मजम् ।
ब्रूहि शुल्कं द्विजश्रेष्ठ समीक्ष्य विभवं मम ॥ ४ ॥

मूलम्

समर्थेयं जनयितुं चक्रवर्तिनमात्मजम् ।
ब्रूहि शुल्कं द्विजश्रेष्ठ समीक्ष्य विभवं मम ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विप्रवर! आपकी यह कन्या चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न करनेमें समर्थ है; अतः आप मेरे वैभवको देखते हुए इसके लिये समुचित शुल्क बताइये’॥४॥

मूलम् (वचनम्)

गालव उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एकतः श्यामकर्णानां शतान्यष्टौ प्रयच्छ मे।
हयानां चन्द्रशुभ्राणां देशजानां वपुष्मताम् ॥ ५ ॥
ततस्तव भवित्रीयं पुत्राणां जननी शुभा।
अरणीव हुताशानां योनिरायतलोचना ॥ ६ ॥

मूलम्

एकतः श्यामकर्णानां शतान्यष्टौ प्रयच्छ मे।
हयानां चन्द्रशुभ्राणां देशजानां वपुष्मताम् ॥ ५ ॥
ततस्तव भवित्रीयं पुत्राणां जननी शुभा।
अरणीव हुताशानां योनिरायतलोचना ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गालवने कहा— राजन्! आप मुझे अच्छे देश और अच्छी जातिमें उत्पन्न हृष्ट-पुष्ट अंगोंवाले आठ सौ ऐसे घोड़े प्रदान कीजिये, जो चन्द्रमाके समान उज्ज्वल कान्तिसे विभूषित हों तथा उनके कान एक ओरसे श्यामवर्णके हों। यह शुल्क चुका देनेपर मेरी यह विशाल नेत्रोंवाली शुभलक्षणा कन्या अग्नियोंको प्रकट करनेवाली अरणीकी भाँति आपके तेजस्वी पुत्रोंकी जननी होगी॥५-६॥

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा वचो राजा हर्यश्वः काममोहितः।
उवाच गालवं दीनो राजर्षिर्ऋषिसत्तमम् ॥ ७ ॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा वचो राजा हर्यश्वः काममोहितः।
उवाच गालवं दीनो राजर्षिर्ऋषिसत्तमम् ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी कहते हैं— यह वचन सुनकर काममोहित हुए राजर्षि महाराज हर्यश्व मुनिश्रेष्ठ गालवसे अत्यन्त दीन होकर बोले—॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

द्वे मे शते संनिहिते हयानां यद्विधास्तव।
एष्टव्याः शतशस्त्वन्ये चरन्ति मम वाजिनः ॥ ८ ॥

मूलम्

द्वे मे शते संनिहिते हयानां यद्विधास्तव।
एष्टव्याः शतशस्त्वन्ये चरन्ति मम वाजिनः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! आपको जैसे घोड़े लेने अभीष्ट हैं, वैसे तो मेरे यहाँ इन दिनों दो ही सौ घोड़े मौजूद हैं; किंतु दूसरी जातिके कई सौ घोड़े यहाँ विचरते हैं॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहमेकमपत्यं वै जनयिष्यामि गालव।
अस्यामेतं भवान् कामं सम्पादयतु मे वरम् ॥ ९ ॥

मूलम्

सोऽहमेकमपत्यं वै जनयिष्यामि गालव।
अस्यामेतं भवान् कामं सम्पादयतु मे वरम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः गालव! मैं इस कन्यासे केवल एक संतान उत्पन्न करूँगा। आप मेरे इस श्रेष्ठ मनोरथको पूर्ण करें’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्छ्रुत्वा तु सा कन्या गालवं वाक्यमब्रवीत्।
मम दत्तो वरः कश्चित् केनचिद् ब्रह्मवादिना ॥ १० ॥
प्रसूत्यन्ते प्रसूत्यन्ते कन्यैव त्वं भविष्यसि।
स त्वं ददस्व मां राजे प्रतिगृह्य हयोत्तमान् ॥ ११ ॥

मूलम्

एतच्छ्रुत्वा तु सा कन्या गालवं वाक्यमब्रवीत्।
मम दत्तो वरः कश्चित् केनचिद् ब्रह्मवादिना ॥ १० ॥
प्रसूत्यन्ते प्रसूत्यन्ते कन्यैव त्वं भविष्यसि।
स त्वं ददस्व मां राजे प्रतिगृह्य हयोत्तमान् ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर उस कन्याने महर्षि गालवसे कहा—‘मुने! मुझे किन्हीं वेदवादी महात्माने यह एक वर दिया था कि तुम प्रत्येक प्रसवके अन्तमें फिर कन्या ही हो जाओगी। अतः आप दो सौ उत्तम घोड़े लेकर मुझे राजाको सौंप दें॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नृपेभ्यो हि चतुर्भ्यस्ते पूर्णान्यष्टौ शतानि मे।
भविष्यन्ति तथा पुत्रा मम चत्वार एव च ॥ १२ ॥

मूलम्

नृपेभ्यो हि चतुर्भ्यस्ते पूर्णान्यष्टौ शतानि मे।
भविष्यन्ति तथा पुत्रा मम चत्वार एव च ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘इस प्रकार चार राजाओंसे दो-दो सौ घोड़े लेनेपर आपके आठ सौ घोड़े पूरे हो जायँगे और मेरे भी चार ही पुत्र होंगे॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्रियतामुपसंहारो गुर्वर्थं द्विजसत्तम ।
एषा तावन्मम प्रज्ञा यथा वा मन्यसे द्विज ॥ १३ ॥

मूलम्

क्रियतामुपसंहारो गुर्वर्थं द्विजसत्तम ।
एषा तावन्मम प्रज्ञा यथा वा मन्यसे द्विज ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विप्रवर! इसी तरह आप गुरुदक्षिणाके लिये धनका संग्रह करें, यही मेरी मान्यता है। फिर आप जैसा ठीक समझें, वैसा करें’॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमुक्तस्तु स मुनिः कन्यया गालवस्तदा।
हर्यश्वं पृथिवीपालमिदं वचनमब्रवीत् ॥ १४ ॥

मूलम्

एवमुक्तस्तु स मुनिः कन्यया गालवस्तदा।
हर्यश्वं पृथिवीपालमिदं वचनमब्रवीत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कन्याके ऐसा कहनेपर उस समय गालव मुनिने भूपाल हर्यश्वसे यह बात कही—॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इयं कन्या नरश्रेष्ठ हर्यश्व प्रतिगृह्यताम्।
चतुर्भागेन शुल्कस्य जनयस्वैकमात्मजम् ॥ १५ ॥

मूलम्

इयं कन्या नरश्रेष्ठ हर्यश्व प्रतिगृह्यताम्।
चतुर्भागेन शुल्कस्य जनयस्वैकमात्मजम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरश्रेष्ठ हर्यश्व! नियत शुल्कका चौथाई भाग देकर आप इस कन्याको ग्रहण करें और इसके गर्भसे केवल एक पुत्र उत्पन्न कर लें’॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतिगृह्य स तां कन्यां गालवं प्रतिनन्द्य च।
समये देशकाले च लब्धवान् सुतमीप्सितम् ॥ १६ ॥

मूलम्

प्रतिगृह्य स तां कन्यां गालवं प्रतिनन्द्य च।
समये देशकाले च लब्धवान् सुतमीप्सितम् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब राजाने गालव मुनिका अभिनन्दन करके उस कन्याको ग्रहण किया और उचित देश-कालमें उसके-द्वारा एक मनोवांछित पुत्र प्राप्त किया॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततो वसुमना नाम वसुभ्यो वसुमत्तरः।
वसुप्रख्यो नरपतिः स बभूव वसुप्रदः ॥ १७ ॥

मूलम्

ततो वसुमना नाम वसुभ्यो वसुमत्तरः।
वसुप्रख्यो नरपतिः स बभूव वसुप्रदः ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उनका वह पुत्र वसुमनाके नामसे विख्यात हुआ। वह वसुओंके समान कान्तिमान् तथा उनकी अपेक्षा भी अधिक धन-रत्नोंसे सम्पन्न और धनका खुले हाथ दान करनेवाला नरेश हुआ॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अथ काले पुनर्धीमान् गालवः प्रत्युपस्थितः।
उपसंगम्य चोवाच हर्यश्वं प्रीतमानसम् ॥ १८ ॥

मूलम्

अथ काले पुनर्धीमान् गालवः प्रत्युपस्थितः।
उपसंगम्य चोवाच हर्यश्वं प्रीतमानसम् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् उचित समयपर बुद्धिमान् गालव पुनः वहाँ उपस्थित हुए और प्रसन्नचित्त राजा हर्यश्वसे मिलकर इस प्रकार बोले—॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जातो नृप सुतस्तेऽयं बालो भास्करसंनिभः।
कालो गन्तुं नरश्रेष्ठ भिक्षार्थमपरं नृपम् ॥ १९ ॥

मूलम्

जातो नृप सुतस्तेऽयं बालो भास्करसंनिभः।
कालो गन्तुं नरश्रेष्ठ भिक्षार्थमपरं नृपम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नरश्रेष्ठ नरेश! आपको यह सूर्यके समान तेजस्वी पुत्र प्राप्त हो गया। अब इस कन्याके साथ घोड़ोंकी याचना करनेके लिये दूसरे राजाके यहाँ जानेका अवसर उपस्थित हुआ है’॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हर्यश्वः सत्यवचने स्थितः स्थित्वा च पौरुषे।
दुर्लभत्वाद्धयानां च प्रददौ माधवीं पुनः ॥ २० ॥

मूलम्

हर्यश्वः सत्यवचने स्थितः स्थित्वा च पौरुषे।
दुर्लभत्वाद्धयानां च प्रददौ माधवीं पुनः ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजा हर्यश्व सत्य वचनपर दृढ़ रहनेवाले थे। उन्होंने पुरुषार्थमें समर्थ होकर भी छः सौ श्यामकर्ण घोड़े दुर्लभ होनेके कारण माधवीको पुनः लौटा दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

माधवी च पुनर्दीप्तां परित्यज्य नृपश्रियम्।
कुमारी कामतो भूत्वा गालवं पृष्ठतोऽन्वयात् ॥ २१ ॥

मूलम्

माधवी च पुनर्दीप्तां परित्यज्य नृपश्रियम्।
कुमारी कामतो भूत्वा गालवं पृष्ठतोऽन्वयात् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

माधवी पुनः इच्छानुसार कुमारी होकर अयोध्याकी उज्ज्वल राजलक्ष्मीका परित्याग करके गालव मुनिके पीछे-पीछे चली गयी॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वय्येव तावत् तिष्ठन्तु हया इत्युक्तवान् द्विजः।
प्रययौ कन्यया सार्धं दिवोदासं प्रजेश्वरम् ॥ २२ ॥

मूलम्

त्वय्येव तावत् तिष्ठन्तु हया इत्युक्तवान् द्विजः।
प्रययौ कन्यया सार्धं दिवोदासं प्रजेश्वरम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जाते समय ब्राह्मणने राजा हर्यश्वसे कहा—‘महाराज! आपके दिये हुए दो सौ श्यामकर्ण घोड़े अभी आपके ही पास धरोहरके रूपमें रहें।’ ऐसा कहकर गालव मुनि उस राजकन्याके साथ राजा दिवोदासके यहाँ गये॥२२॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि गालवचरिते षोडशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११६ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें गालवचरित्रविषयक एक सौ सोलहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११६॥

सूचना (हिन्दी)

[दाक्षिणात्य अधिक पाठके २ श्लोक मिलाकर कुल २४ श्लोक हैं।]