११३ गालवचरिते

भागसूचना

त्रयोदशाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

ऋषभ पर्वतके शिखरपर महर्षि गालव और गरुड़की तपस्विनी शाण्डिलीसे भेंट तथा गरुड़ और गालवका गुरुदक्षिणा चुकानेके विषयमें परस्पर विचार

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ऋषभस्य ततः शृङ्गं निपत्य द्विजपक्षिणौ।
शाण्डिलीं ब्राह्मणीं तत्र ददृशाते तपोऽन्विताम् ॥ १ ॥

मूलम्

ऋषभस्य ततः शृङ्गं निपत्य द्विजपक्षिणौ।
शाण्डिलीं ब्राह्मणीं तत्र ददृशाते तपोऽन्विताम् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी कहते हैं— तदनन्तर गालव और गरुड़ने ऋषभ पर्वतके शिखरपर उतरकर वहाँ तपस्विनी शाण्डिली ब्राह्मणीको देखा॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिवाद्य सुपर्णस्तु गालवश्चाभिपूज्य ताम्।
तया च स्वागतेनोक्तौ विष्टरे संनिषीदतुः ॥ २ ॥

मूलम्

अभिवाद्य सुपर्णस्तु गालवश्चाभिपूज्य ताम्।
तया च स्वागतेनोक्तौ विष्टरे संनिषीदतुः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गरुड़ने उसे प्रणाम किया और गालवने उसका आदर-सम्मान किया। तदनन्तर उसने भी उन दोनोंका स्वागत करके उन्हें आसनपर बैठनेके लिये कहा। उसकी आज्ञा पाकर वे दोनों वहाँ आसनपर बैठ गये॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सिद्धमन्नं तया दत्तं बलिमन्त्रोपबृंहितम्।
भुक्त्वा तृप्तावुभौ भूमौ सुप्तौ तावनुमोहितौ ॥ ३ ॥

मूलम्

सिद्धमन्नं तया दत्तं बलिमन्त्रोपबृंहितम्।
भुक्त्वा तृप्तावुभौ भूमौ सुप्तौ तावनुमोहितौ ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तपस्विनीने उन्हें बलिवैश्वदेवसे बचा हुआ अभिमन्त्रित सिद्धान्न अर्पण किया। उसे खाकर वे दोनों तृप्त हो गये और भूमिपर ही सो गये। तत्पश्चात् निद्राने उन्हें अचेत कर दिया॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मुहूर्तात् प्रतिबुद्धस्तु सुपर्णो गमनेप्सया।
अथ भ्रष्टतनूजाङ्गमात्मानं ददृशे खगः ॥ ४ ॥

मूलम्

मुहूर्तात् प्रतिबुद्धस्तु सुपर्णो गमनेप्सया।
अथ भ्रष्टतनूजाङ्गमात्मानं ददृशे खगः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दो ही घड़ीके बाद मनमें वहाँसे जानेकी इच्छा लेकर गरुड़ जाग उठे। उठनेपर उन्होंने अपने शरीरको दोनों पंखोंसे रहित देखा॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मांसपिण्डोपमोऽभूत् स मुखपादान्वितः खगः।
गालवस्तं तथा दृष्ट्वा विमनाः पर्यपृच्छत ॥ ५ ॥

मूलम्

मांसपिण्डोपमोऽभूत् स मुखपादान्वितः खगः।
गालवस्तं तथा दृष्ट्वा विमनाः पर्यपृच्छत ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आकाशचारी गरुड़ मुख और हाथोंसे युक्त होते हुए भी उन पंखोंके बिना मांसके लोंदे-से हो गये। उन्हें उस दशामें देखकर गालवका मन उदास हो गया और उन्होंने पूछा—॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किमिदं भवता प्राप्तमिहागमनजं फलम्।
वासोऽयमिह कालं तु कियन्तं नौ भविष्यति ॥ ६ ॥

मूलम्

किमिदं भवता प्राप्तमिहागमनजं फलम्।
वासोऽयमिह कालं तु कियन्तं नौ भविष्यति ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सखे! तुम्हें यहाँ आनेका यह क्या फल मिला? इस अवस्थामें हम दोनोंको यहाँ कितने समयतक रहना पड़ेगा?॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

किं नु ते मनसा ध्यातमशुभं धर्मदूषणम्।
न ह्ययं भवतः स्वल्पो व्यभिचारो भविष्यति ॥ ७ ॥

मूलम्

किं नु ते मनसा ध्यातमशुभं धर्मदूषणम्।
न ह्ययं भवतः स्वल्पो व्यभिचारो भविष्यति ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘तुमने अपने मनमें कौन-सा अशुभ चिन्तन किया है, जो धर्मको दूषित करनेवाला रहा है। मैं समझता हूँ, तुम्हारे द्वारा यहाँ कोई थोड़ा धर्मविरुद्ध कार्य नहीं हुआ होगा’॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुपर्णोऽथाब्रवीद् विप्रं प्रध्यातं वै मया द्विज।
इमां सिद्धामितो नेतुं तत्र यत्र प्रजापतिः ॥ ८ ॥
यत्र देवो महादेवो यत्र विष्णुः सनातनः।
यत्र धर्मश्च यज्ञश्च तत्रेयं निवसेदिति ॥ ९ ॥

मूलम्

सुपर्णोऽथाब्रवीद् विप्रं प्रध्यातं वै मया द्विज।
इमां सिद्धामितो नेतुं तत्र यत्र प्रजापतिः ॥ ८ ॥
यत्र देवो महादेवो यत्र विष्णुः सनातनः।
यत्र धर्मश्च यज्ञश्च तत्रेयं निवसेदिति ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब गरुड़ने विप्रवर गालवसे कहा—‘ब्रह्मन्! मैंने तो अपने मनमें यही सोचा था कि इस सिद्ध तपस्विनीको वहाँ पहुँचा दूँ, जहाँ प्रजापति ब्रह्मा हैं, जहाँ महादेवजी हैं, जहाँ सनातन भगवान् विष्णु हैं तथा जहाँ धर्म एवं यज्ञ है, वहीं इसे निवास करना चाहिये॥८-९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं भगवतीं याचे प्रणतः प्रियकाम्यया।
मयैतन्नाम प्रध्यातं मनसा शोचता किल ॥ १० ॥

मूलम्

सोऽहं भगवतीं याचे प्रणतः प्रियकाम्यया।
मयैतन्नाम प्रध्यातं मनसा शोचता किल ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः मैं भगवती शाण्डिलीके चरणोंमें पड़कर यह प्रार्थना करता हूँ कि मैंने अपने चिन्तनशील मनके द्वारा आपका प्रिय करनेकी इच्छासे ही यह बात सोची है॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदेवं बहुमानात् ते मयेहानीप्सितं कृतम्।
सुकृतं दुष्कृतं वा त्वं माहात्म्यात् क्षन्तुमर्हसि ॥ ११ ॥

मूलम्

तदेवं बहुमानात् ते मयेहानीप्सितं कृतम्।
सुकृतं दुष्कृतं वा त्वं माहात्म्यात् क्षन्तुमर्हसि ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आपके प्रति विशेष आदरका भाव होनेसे ही मैंने इस स्थानपर ऐसा चिन्तन किया है, जो सम्भवतः आपको अभीष्ट नहीं रहा है। मेरे द्वारा यह पुण्य हुआ हो या पाप, अपने ही माहात्म्यसे आप मेरे इस अपराधको क्षमा कर दें’॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सा तौ तदाब्रवीत् तुष्टा पतगेन्द्रद्विजर्षभौ।
न भेतव्यं सुपर्णोऽसि सुपर्ण त्यज सम्भ्रमम् ॥ १२ ॥

मूलम्

सा तौ तदाब्रवीत् तुष्टा पतगेन्द्रद्विजर्षभौ।
न भेतव्यं सुपर्णोऽसि सुपर्ण त्यज सम्भ्रमम् ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनकर तपस्विनी बहुत संतुष्ट हुई। उसने उस समय पक्षिराज गरुड़ और विप्रवर गालवसे कहा—‘सुपर्ण! तुम्हारे पंख और भी सुन्दर हो जायँगे; अतः तुम्हें भयभीत नहीं होना चाहिये। तुम घबराहट छोड़ो॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निन्दितास्मि त्वया वत्स न च निन्दां क्षमाम्यहम्।
लोकेभ्यः सपदि भ्रश्येद् यो मां निन्देत पापकृत् ॥ १३ ॥

मूलम्

निन्दितास्मि त्वया वत्स न च निन्दां क्षमाम्यहम्।
लोकेभ्यः सपदि भ्रश्येद् यो मां निन्देत पापकृत् ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वत्स! तुमने मेरी निन्दा की है, मैं निन्दा नहीं सहन करती हूँ। जो पापी मेरी निन्दा करेगा, वह पुण्यलोकोंसे तत्काल भ्रष्ट हो जायगा॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

हीनयालक्षणैः सर्वैस्तथानिन्दितया मया ।
आचारं प्रतिगृह्णन्त्या सिद्धिः प्राप्तेयमुत्तमा ॥ १४ ॥

मूलम्

हीनयालक्षणैः सर्वैस्तथानिन्दितया मया ।
आचारं प्रतिगृह्णन्त्या सिद्धिः प्राप्तेयमुत्तमा ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘समस्त अशुभ लक्षणोंसे हीन और अनिन्दित रहकर सदाचारका पालन करते हुए ही मैंने यह उत्तम सिद्धि प्राप्त की है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

आचारः फलते धर्ममाचारः फलते धनम्।
आचाराच्छ्रियमाप्नोति आचारो हन्त्यलक्षणम् ॥ १५ ॥

मूलम्

आचारः फलते धर्ममाचारः फलते धनम्।
आचाराच्छ्रियमाप्नोति आचारो हन्त्यलक्षणम् ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘आचार ही धर्मको सफल बनाता है, आचार ही धनरूपी फल देता है, आचारसे मनुष्यको सम्पत्ति प्राप्त होती है और आचार ही अशुभ लक्षणोंका भी नाश कर देता है॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदायुष्मन् खगपते यथेष्टं गम्यतामितः।
न च ते गर्हणीयाहं गर्हितव्याः स्त्रियः क्वचित् ॥ १६ ॥

मूलम्

तदायुष्मन् खगपते यथेष्टं गम्यतामितः।
न च ते गर्हणीयाहं गर्हितव्याः स्त्रियः क्वचित् ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः आयुष्मन् पक्षिराज! अब तुम यहाँसे अपने अभीष्ट स्थानको जाओ। आजसे तुम्हें मेरी निन्दा नहीं करनी चाहिये। मेरी ही क्यों, कहीं किसी भी स्त्रीकी निन्दा करनी उचित नहीं है॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भवितासि यथापूर्वं बलवीर्यसमन्वितः ।
बभूवतुस्ततस्तस्य पक्षौ द्रविणवत्तरौ ॥ १७ ॥

मूलम्

भवितासि यथापूर्वं बलवीर्यसमन्वितः ।
बभूवतुस्ततस्तस्य पक्षौ द्रविणवत्तरौ ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अब तुम पहलेकी ही भाँति बल और पराक्रमसे सम्पन्न हो जाओगे।’ शाण्डिलीके इतना कहते ही गरुड़की पाँखें पहलेसे भी अधिक शक्तिशाली हो गयीं॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनुज्ञातस्तु शाण्डिल्या यथागतमुपागमत् ।
नैव चासादयामास तथारूपांस्तुरंगमान् ॥ १८ ॥

मूलम्

अनुज्ञातस्तु शाण्डिल्या यथागतमुपागमत् ।
नैव चासादयामास तथारूपांस्तुरंगमान् ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तत्पश्चात् शाण्डिलीकी आज्ञा ले वे जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। वे गालवके बताये अनुसार श्यामकर्ण घोड़े नहीं पा सके॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विश्वामित्रोऽथ तं दृष्ट्वा गालवं चाध्वनि स्थितः।
उवाच वदतां श्रेष्ठो वैनतेयस्य संनिधौ ॥ १९ ॥

मूलम्

विश्वामित्रोऽथ तं दृष्ट्वा गालवं चाध्वनि स्थितः।
उवाच वदतां श्रेष्ठो वैनतेयस्य संनिधौ ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इधर गालवको राहमें आते देख वक्ताओंमें श्रेष्ठ विश्वामित्रजी खड़े हो गये और गरुड़के समीप उनसे इस प्रकार बोले—॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्त्वया स्वयमेवार्थः प्रतिज्ञातो मम द्विज।
तस्य कालोऽपवर्गस्य यथा वा मन्यते भवान् ॥ २० ॥

मूलम्

यस्त्वया स्वयमेवार्थः प्रतिज्ञातो मम द्विज।
तस्य कालोऽपवर्गस्य यथा वा मन्यते भवान् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘ब्रह्मन्! तुमने स्वयं ही जिस धनको देनेकी प्रतिज्ञा की थी, उसे देनेका समय आ गया है। फिर तुम जैसा ठीक समझो, करो॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रतीक्षिष्याम्यहं कालमेतावन्तं तथा परम्।
यथा संसिध्यते विप्र स मार्गस्तु निशाम्यताम् ॥ २१ ॥

मूलम्

प्रतीक्षिष्याम्यहं कालमेतावन्तं तथा परम्।
यथा संसिध्यते विप्र स मार्गस्तु निशाम्यताम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैं इतने ही समयतक और तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगा। ब्रह्मन्! जिस प्रकार तुम्हें सफलता मिल सके, उस मार्गका विचार करो’॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुपर्णोऽथाब्रवीद् दीनं गालवं भृशदुःखितम्।
प्रत्यक्षं खल्विदानीं मे विश्वामित्रो यदुक्तवान् ॥ २२ ॥
तदागच्छ द्विजश्रेष्ठ मन्त्रयिष्याव गालव।
नादत्त्वा गुरवे शक्यं कृत्स्नमर्थं त्वयाऽऽसितुम् ॥ २३ ॥

मूलम्

सुपर्णोऽथाब्रवीद् दीनं गालवं भृशदुःखितम्।
प्रत्यक्षं खल्विदानीं मे विश्वामित्रो यदुक्तवान् ॥ २२ ॥
तदागच्छ द्विजश्रेष्ठ मन्त्रयिष्याव गालव।
नादत्त्वा गुरवे शक्यं कृत्स्नमर्थं त्वयाऽऽसितुम् ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर दीन और अत्यन्त दुःखी हुए गालव मुनिसे गरुड़ने कहा—‘द्विजश्रेष्ठ गालव! विश्वामित्रजीने मेरे सामने जो कुछ कहा है, आओ, उसके विषयमें हम दोनों सलाह करें। तुम्हें अपने गुरुको उनका सारा धन चुकाये बिना चुप नहीं बैठना चाहिये’॥२२-२३॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि गालवचरिते त्रयोदशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११३ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें गालवचरित्रविषयक एक सौ तेरहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११३॥