भागसूचना
द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
गरुड़की पीठपर बैठकर पूर्व दिशाकी ओर जाते हुए गालवका उनके वेगसे व्याकुल होना
मूलम् (वचनम्)
गालव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
गरुत्मन् भुजगेन्द्रारे सुपर्ण विनतात्मज।
नय मां तार्क्ष्य पूर्वेण यत्र धर्मस्य चक्षुषी ॥ १ ॥
मूलम्
गरुत्मन् भुजगेन्द्रारे सुपर्ण विनतात्मज।
नय मां तार्क्ष्य पूर्वेण यत्र धर्मस्य चक्षुषी ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गालवने कहा— गरुत्मन्! भुजगराजशत्रो! सुपर्ण! विनतानन्दन! तार्क्ष्य! तुम मुझे पूर्व दिशाकी ओर ले चलो, जहाँ धर्मके नेत्रस्वरूप सूर्य और चन्द्रमा प्रकाशित होते हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वमेतां दिशं गच्छ या पूर्वं परिकीर्तिता।
देवतानां हि सांनिध्यमत्र कीर्तितवानसि ॥ २ ॥
अत्र सत्यं च धर्मश्च त्वया सम्यक् प्रकीर्तितः।
इच्छेयं तु समागन्तुं समस्तैर्दैवतैरहम्।
भूयश्च तान् सुरान् द्रष्टुमिच्छेयमरुणानुज ॥ ३ ॥
मूलम्
पूर्वमेतां दिशं गच्छ या पूर्वं परिकीर्तिता।
देवतानां हि सांनिध्यमत्र कीर्तितवानसि ॥ २ ॥
अत्र सत्यं च धर्मश्च त्वया सम्यक् प्रकीर्तितः।
इच्छेयं तु समागन्तुं समस्तैर्दैवतैरहम्।
भूयश्च तान् सुरान् द्रष्टुमिच्छेयमरुणानुज ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिस दिशाका तुमने सबसे पहले वर्णन किया है, उसी दिशाकी ओर पहले चलो; क्योंकि उस दिशामें तुमने देवताओंका सांनिध्य बताया है तथा वहीं सत्य और धर्मकी स्थितिका भी भलीभाँति प्रतिपादन किया है। अरुणके छोटे भाई गरुड़! मैं सम्पूर्ण देवताओंसे मिलना और पुनः उन सबका दर्शन करना चाहता हूँ॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
तमाह विनतासूनुरारोहस्वेति वै द्विजम्।
आरुरोहाथ स मुनिर्गरुडं गालवस्तदा ॥ ४ ॥
मूलम्
तमाह विनतासूनुरारोहस्वेति वै द्विजम्।
आरुरोहाथ स मुनिर्गरुडं गालवस्तदा ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी कहते हैं— तब विनतानन्दन गरुड़ने विप्रवर गालवसे कहा—‘तुम मेरे ऊपर चढ़ जाओ।’ तब गालव मुनि गरुड़की पीठपर जा बैठे॥४॥
मूलम् (वचनम्)
गालव उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्रममाणस्य ते रूपं दृश्यते पन्नगाशन।
भास्करस्येव पूर्वाह्णे सहस्रांशोर्विवस्वतः ॥ ५ ॥
मूलम्
क्रममाणस्य ते रूपं दृश्यते पन्नगाशन।
भास्करस्येव पूर्वाह्णे सहस्रांशोर्विवस्वतः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गालवने कहा— सर्वभोजी गरुड़! पूर्वाह्णकालमें सहस्र किरणोंसे सुशोभित भुवनभास्कर सूर्यका स्वरूप जैसा दिखायी देता है, आकाशमें उड़ते समय तुम्हारा स्वरूप भी वैसा ही दृष्टिगोचर होता है॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पक्षवातप्रणुन्नानां वृक्षाणामनुगामिनाम् ।
प्रस्थितानामिव समं पश्यामीह गतिं खग ॥ ६ ॥
मूलम्
पक्षवातप्रणुन्नानां वृक्षाणामनुगामिनाम् ।
प्रस्थितानामिव समं पश्यामीह गतिं खग ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
खेचर! तुम्हारे पंखोंकी हवासे उखड़कर ये वृक्ष पीछे-पीछे चले आ रहे हैं। मैं इनकी भी ऐसी तीव्र गति देख रहा हूँ, मानो ये भी हमलोगोंके साथ चलनेके लिये प्रस्थित हुए हों॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
ससागरवनामुर्वीं सशैलवनकाननाम् ।
आकर्षन्निव चाभासि पक्षवातेन खेचर ॥ ७ ॥
मूलम्
ससागरवनामुर्वीं सशैलवनकाननाम् ।
आकर्षन्निव चाभासि पक्षवातेन खेचर ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
आकाशचारी गरुड़! तुम अपने पंखोंके वेगसे उठी हुई वायुद्वारा समुद्रकी जलराशि, पर्वत, वन और काननोंसहित सम्पूर्ण पृथ्वीको अपनी ओर खींचते-से जान पड़ते हो॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
समीननागनक्रं च खमिवारोप्यते जलम्।
वायुना चैव महता पक्षवातेन चानिशम् ॥ ८ ॥
मूलम्
समीननागनक्रं च खमिवारोप्यते जलम्।
वायुना चैव महता पक्षवातेन चानिशम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पाँखोंके हिलानेसे निरन्तर उठती हुई प्रचण्ड वायुके वेगसे मत्स्य, जलहस्ती तथा मगरोंसहित समुद्रका जल तुम्हारे द्वारा मानो आकाशमें उछाल दिया जाता है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तुल्यरूपाननान् मत्स्यांस्तथा तिमितिमिंगिलान् ।
नागाश्वनरवक्त्रांश्च पश्याम्युन्मथितानिव ॥ ९ ॥
मूलम्
तुल्यरूपाननान् मत्स्यांस्तथा तिमितिमिंगिलान् ।
नागाश्वनरवक्त्रांश्च पश्याम्युन्मथितानिव ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
जिनके आकार और मुख एक-से हैं ऐसे मत्स्योंको, तिमि और तिमिंगिलोंको तथा हाथी, घोड़े और मनुष्योंके समान मुखवाले जल-जन्तुओंको मैं उन्मथित हुए-से देखता हूँ॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
महार्णवस्य च रवैः श्रोत्रे मे बधिरे कृते।
न शृणोमि न पश्यामि नात्मनो वेद्मि कारणम् ॥ १० ॥
मूलम्
महार्णवस्य च रवैः श्रोत्रे मे बधिरे कृते।
न शृणोमि न पश्यामि नात्मनो वेद्मि कारणम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
महासागरकी इन भीषण गर्जनाओंने मेरे कान बहरे कर दिये हैं। मैं न तो सुन पाता हूँ, न देख पाता हूँ और न अपने बचावका कोई उपाय ही समझ पाता हूँ॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शनैः स तु भवान् यातु ब्रह्मवध्यामनुस्मरन्।
न दृश्यते रविस्तात न दिशो न च खं खग॥११॥
मूलम्
शनैः स तु भवान् यातु ब्रह्मवध्यामनुस्मरन्।
न दृश्यते रविस्तात न दिशो न च खं खग॥११॥
अनुवाद (हिन्दी)
तात गरुड़! तुमसे कहीं ब्रह्महत्या न हो जाय, इसका ध्यान रखते हुए धीरे-धीरे चलो। मुझे इस समय न तो सूर्य दिखायी देते हैं, न दिशाएँ सूझती हैं और न आकाश ही दृष्टिगोचर होता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तम एव तु पश्यामि शरीरं ते न लक्षये।
मणीव जात्यौ पश्यामि चक्षुषी तेऽहमण्डज ॥ १२ ॥
मूलम्
तम एव तु पश्यामि शरीरं ते न लक्षये।
मणीव जात्यौ पश्यामि चक्षुषी तेऽहमण्डज ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मुझे केवल अन्धकार ही दिखायी देता है। मैं तुम्हारे शरीरको नहीं देख पाता हूँ। अण्डज! तुम्हारी दोनों आँखें मुझे उत्तम जातिकी दो मणियोंके समान चमकती दिखायी देती हैं॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
शरीरं तु न पश्यामि तव चैवात्मनश्च ह।
पदे पदे तु पश्यामि शरीरादग्निमुत्थितम् ॥ १३ ॥
मूलम्
शरीरं तु न पश्यामि तव चैवात्मनश्च ह।
पदे पदे तु पश्यामि शरीरादग्निमुत्थितम् ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैं न तो तुम्हारे शरीरको देखता हूँ और न अपने शरीरको। मुझे पग-पगपर तुम्हारे अंगोंसे आगकी लपटें उठती दिखायी देती हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स मे निर्वाप्य सहसा चक्षुषी शाम्य ते पुनः।
तन्नियच्छ महावेगं गमने विनतात्मज ॥ १४ ॥
मूलम्
स मे निर्वाप्य सहसा चक्षुषी शाम्य ते पुनः।
तन्नियच्छ महावेगं गमने विनतात्मज ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
विनतानन्दन! तुम उस आगको सहसा बुझाकर पुनः अपने दोनों नेत्रोंको भी शान्त करो और तुम्हारी गतिमें जो इतना महान् वेग है, इसे रोको॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न मे प्रयोजनं किंचिद् गमने पन्नगाशन।
संनिवर्त महाभाग न वेगं विषहामि ते ॥ १५ ॥
मूलम्
न मे प्रयोजनं किंचिद् गमने पन्नगाशन।
संनिवर्त महाभाग न वेगं विषहामि ते ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गरुड़ इस यात्रासे मेरा कोई प्रयोजन नहीं है, अतः लौट चलो। महाभाग! मैं तुम्हारे वेगको नहीं सह सकता॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
गुरवे संश्रुतानीह शतान्यष्टौ हि वाजिनाम्।
एकतः श्यामकर्णानां शुभ्राणां चन्द्रवर्चसाम् ॥ १६ ॥
मूलम्
गुरवे संश्रुतानीह शतान्यष्टौ हि वाजिनाम्।
एकतः श्यामकर्णानां शुभ्राणां चन्द्रवर्चसाम् ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मैंने गुरुको ऐसे आठ सौ घोड़े देनेकी प्रतिज्ञा की है, जो चन्द्रमाके समान उज्ज्वल कान्तिसे युक्त हों और जिनके कान एक ओरसे श्याम रंगके हों॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तेषां चैवापवर्गाय मार्गं पश्यामि नाण्डज।
ततोऽयं जीवितत्यागे दृष्टो मार्गो मयाऽऽत्मनः ॥ १७ ॥
मूलम्
तेषां चैवापवर्गाय मार्गं पश्यामि नाण्डज।
ततोऽयं जीवितत्यागे दृष्टो मार्गो मयाऽऽत्मनः ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
किंतु अण्डज! उन घोड़ोंके दिये जानेका कोई मार्ग मुझे नहीं दिखायी देता है। इसीलिये मैंने अपने जीवनके परित्यागका ही मार्ग चुना है॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नैव मेऽस्ति धनं किंचिन्न धनेनान्वितः सुहृत्।
न चार्थेनापि महता शक्यमेतद् व्यपोहितुम् ॥ १८ ॥
मूलम्
नैव मेऽस्ति धनं किंचिन्न धनेनान्वितः सुहृत्।
न चार्थेनापि महता शक्यमेतद् व्यपोहितुम् ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मेरे पास थोड़ा भी धन नहीं है, कोई धनी मित्र भी नहीं है और यह कार्य ऐसा है कि प्रचुर धनराशिका व्यय करनेसे भी सिद्ध नहीं हो सकता॥१८॥
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवं बहु च दीनं च ब्रुवाणं गालवं तदा।
प्रत्युवाच व्रजन्नेव प्रहसन् विनतात्मजः ॥ १९ ॥
मूलम्
एवं बहु च दीनं च ब्रुवाणं गालवं तदा।
प्रत्युवाच व्रजन्नेव प्रहसन् विनतात्मजः ॥ १९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी कहते हैं— इस प्रकार बहुत दीन वचन बोलते हुए महर्षि गालवसे विनतानन्दन गरुड़ने चलते हुए ही हँसकर कहा—॥१९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
नातिप्रज्ञोऽसि विप्रर्षे योऽऽत्मानं त्यक्तुमिच्छसि।
न चापि कृत्रिमः कालः कालो हि परमेश्वरः ॥ २० ॥
मूलम्
नातिप्रज्ञोऽसि विप्रर्षे योऽऽत्मानं त्यक्तुमिच्छसि।
न चापि कृत्रिमः कालः कालो हि परमेश्वरः ॥ २० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्रह्मर्षे! यदि तुम अपने प्राणोंका परित्याग करना चाहते हो तो विशेष बुद्धिमान् नहीं हो; क्योंकि मृत्यु कृत्रिम नहीं होती (उसका अपनी इच्छासे निर्माण नहीं किया जा सकता)। वह तो परमेश्वरका ही स्वरूप है॥२०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
किमहं पूर्वमेवेह भवता नाभिचोदितः।
उपायोऽत्र महानस्ति येनैतदुपपद्यते ॥ २१ ॥
मूलम्
किमहं पूर्वमेवेह भवता नाभिचोदितः।
उपायोऽत्र महानस्ति येनैतदुपपद्यते ॥ २१ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘तुमने पहले ही मुझसे यह बात क्यों नहीं कह दी? मेरी दृष्टिमें एक महान् उपाय है, जिससे यह कार्य सिद्ध हो सकता है॥२१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
तदेष ऋषभो नाम पर्वतः सागरान्तिके।
अत्र विश्रम्य भुक्त्वा च निवर्तिष्याव गालव ॥ २२ ॥
मूलम्
तदेष ऋषभो नाम पर्वतः सागरान्तिके।
अत्र विश्रम्य भुक्त्वा च निवर्तिष्याव गालव ॥ २२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘गालव! समुद्रके निकट यह ऋषभ नामक पर्वत है, जहाँ विश्राम और भोजन करके हम दोनों लौट चलेंगे’॥२२॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि गालवचरिते द्वादशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ ११२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें गालवचरित्रविषयक एक सौ बारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥११२॥