१११ गालवचरिते

भागसूचना

एकादशाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

उत्तर दिशाका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

सुपर्ण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

यस्मादुत्तार्यते पापाद् यस्मान्निःश्रेयसोऽश्नुते ।
अस्मादुत्तारणबलादुत्तरेत्युच्यते द्विज ॥ १ ॥

मूलम्

यस्मादुत्तार्यते पापाद् यस्मान्निःश्रेयसोऽश्नुते ।
अस्मादुत्तारणबलादुत्तरेत्युच्यते द्विज ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गरुड़ कहते हैं— गालव! इस मार्गसे जानेपर मनुष्यका पापसे उद्धार हो जाता है और वह कल्याणमय स्वर्गीय सुखोंका उपभोग करता है; अतः इस उत्तारण (संसारसागरसे पार उतारने)-के बलसे इस दिशाको उत्तरदिशा कहते हैं॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उत्तरस्य हिरण्यस्य परिवापश्च गालव।
मार्गः पश्चिमपूर्वाभ्यां दिग्भ्यां वै मध्यमः स्मृतः ॥ २ ॥

मूलम्

उत्तरस्य हिरण्यस्य परिवापश्च गालव।
मार्गः पश्चिमपूर्वाभ्यां दिग्भ्यां वै मध्यमः स्मृतः ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गालव! यह उत्तर दिशा उत्कृष्ट सुवर्ण आदि निधियोंकी अधिष्ठान है (इसलिये भी इसका नाम उत्तर है)। यह उत्तर मार्ग पश्चिम और पूर्व दिशाओंका मध्यवर्ती बताया गया है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्यां दिशि वरिष्ठायामुत्तरायां द्विजर्षभ।
नासौम्यो नाविधेयात्मा नाधर्मो वसते जनः ॥ ३ ॥

मूलम्

अस्यां दिशि वरिष्ठायामुत्तरायां द्विजर्षभ।
नासौम्यो नाविधेयात्मा नाधर्मो वसते जनः ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजश्रेष्ठ! इस गौरवशालिनी दिशामें ऐसे लोगोंका वास नहीं है, जो सौम्य स्वभावके न हों, जिन्होंने अपने मनको वशमें न किया हो तथा जो धर्मका पालन न करते हों॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र नारायणः कृष्णो जिष्णुश्चैव नरोत्तमः।
बदर्यामाश्रमपदे तथा ब्रह्मा च शाश्वतः ॥ ४ ॥

मूलम्

अत्र नारायणः कृष्णो जिष्णुश्चैव नरोत्तमः।
बदर्यामाश्रमपदे तथा ब्रह्मा च शाश्वतः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी दिशामें बदरिकाश्रमतीर्थ है, जहाँ सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीनारायण, विजयशील नरश्रेष्ठ नर और सनातन ब्रह्माजी निवास करते हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र वै हिमवत्पृष्ठे नित्यमास्ते महेश्वरः।
प्रकृत्या पुरुषः सार्धं युगान्ताग्निसमप्रभः ॥ ५ ॥

मूलम्

अत्र वै हिमवत्पृष्ठे नित्यमास्ते महेश्वरः।
प्रकृत्या पुरुषः सार्धं युगान्ताग्निसमप्रभः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तरमें ही हिमालयके शिखरपर प्रलयकालीन अग्निके समान तेजस्वी अन्तर्यामी भगवान् महेश्वर भगवती उमाके साथ नित्य निवास करते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न स दृश्यो मुनिगणैस्तथा देवैः सवासवैः।
गन्धर्वयक्षसिद्धैर्वा नरनारायणादृते ॥ ६ ॥

मूलम्

न स दृश्यो मुनिगणैस्तथा देवैः सवासवैः।
गन्धर्वयक्षसिद्धैर्वा नरनारायणादृते ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वे भगवान् नर और नारायणके सिवा और किसीकी दृष्टिमें नहीं आते। समस्त मुनिगण, गन्धर्व, यक्ष, सिद्ध अथवा देवताओंसहित इन्द्र भी उनका दर्शन नहीं कर पाते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र विष्णुः सहस्राक्षः सहस्रचरणोऽव्ययः।
सहस्रशिरसः श्रीमानेकः पश्यति मायया ॥ ७ ॥

मूलम्

अत्र विष्णुः सहस्राक्षः सहस्रचरणोऽव्ययः।
सहस्रशिरसः श्रीमानेकः पश्यति मायया ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यहाँ सहस्रों नेत्रों, सहस्रों चरणों और सहस्रों मस्तकोंवाले एकमात्र अविनाशी श्रीमान् भगवान् विष्णु ही उन मायाविशिष्ट महेश्वरका साक्षात्कार करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र राज्येन विप्राणां चन्द्रमाश्चाभ्यषिच्यत।
अत्र गङ्गां महादेवः पतन्तीं गगनाच्च्युताम् ॥ ८ ॥
प्रतिगृह्य ददौ लोके मानुषे ब्रह्मवित्तम।

मूलम्

अत्र राज्येन विप्राणां चन्द्रमाश्चाभ्यषिच्यत।
अत्र गङ्गां महादेवः पतन्तीं गगनाच्च्युताम् ॥ ८ ॥
प्रतिगृह्य ददौ लोके मानुषे ब्रह्मवित्तम।

अनुवाद (हिन्दी)

उत्तर दिशामें ही चन्द्रमाका द्विजराजके पदपर अभिषेक हुआ था। वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ गालव! यहीं आकाशसे गिरती हुई गंगाको महादेवजीने अपने मस्तकपर धारण किया और उन्हें मनुष्यलोकमें छोड़ दिया॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र देव्या तपस्तप्तं महेश्वरपरीप्सया ॥ ९ ॥
अत्र कामश्च रोषश्च शैलश्चोमा च सम्बभुः।

मूलम्

अत्र देव्या तपस्तप्तं महेश्वरपरीप्सया ॥ ९ ॥
अत्र कामश्च रोषश्च शैलश्चोमा च सम्बभुः।

अनुवाद (हिन्दी)

यहीं पार्वतीदेवीने भगवान् महेश्वरको पतिरूपमें प्राप्त करनेके लिये कठोर तपस्या की थी और इसी दिशामें महादेवजीको मोहित करनेके लिये काम प्रकट हुआ। फिर उसके ऊपर भगवान् शंकरका क्रोध हुआ। उस अवसरपर गिरिराज हिमालय और उमा भी वहाँ विद्यमान थीं (इस प्रकार ये सब लोग वहाँ एक ही समयमें प्रकाशित हुए)॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र राक्षसयक्षाणां गन्धर्वाणां च गालव ॥ १० ॥
आधिपत्येन कैलासे धनदोऽप्यभिषेचितः ।
अत्र चैत्ररथं रम्यमत्र वैखानसाश्रमः ॥ ११ ॥

मूलम्

अत्र राक्षसयक्षाणां गन्धर्वाणां च गालव ॥ १० ॥
आधिपत्येन कैलासे धनदोऽप्यभिषेचितः ।
अत्र चैत्ररथं रम्यमत्र वैखानसाश्रमः ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गालव! इसी दिशामें कैलास पर्वतपर राक्षस, यक्ष और गन्धर्वोंका आधिपत्य करनेके लिये धनदाता कुबेरका अभिषेक हुआ था। उत्तर दिशामें ही रमणीय चैत्ररथवन और वैखानस ऋषियोंका आश्रम है॥१०-११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र मन्दाकिनी चैव मन्दरश्च द्विजर्षभ।
अत्र सौगन्धिकवनं नैर्ऋतैरभिरक्ष्यते ॥ १२ ॥

मूलम्

अत्र मन्दाकिनी चैव मन्दरश्च द्विजर्षभ।
अत्र सौगन्धिकवनं नैर्ऋतैरभिरक्ष्यते ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजश्रेष्ठ! यहीं मन्दाकिनी नदी और मन्दराचल हैं। इसी दिशामें राक्षसगण सौगन्धिकवनकी रक्षा करते हैं॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शाद्वलं कदलीस्कन्धमत्र संतानका नगाः।
अत्र संयमनित्यानां सिद्धानां स्वैरचारिणाम् ॥ १३ ॥
विमानान्यनुरूपाणि कामभोग्यानि गालव ।

मूलम्

शाद्वलं कदलीस्कन्धमत्र संतानका नगाः।
अत्र संयमनित्यानां सिद्धानां स्वैरचारिणाम् ॥ १३ ॥
विमानान्यनुरूपाणि कामभोग्यानि गालव ।

अनुवाद (हिन्दी)

यहीं हरी-हरी घासोंसे सुशोभित कदलीवन है और यहीं कल्पवृक्ष शोभा पाते हैं। गालव! इसी दिशामें सदा संयम-नियमका पालन करनेवाले स्वच्छन्दचारी सिद्धोंके इच्छानुसार भोगोंसे सम्पन्न एवं मनोनुकूल विमान विचरते हैं॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र ते ऋषयः सप्त देवी चारुन्धती तथा ॥ १४ ॥
अत्र तिष्ठति वै स्वातिरत्रास्या उदयः स्मृतः।

मूलम्

अत्र ते ऋषयः सप्त देवी चारुन्धती तथा ॥ १४ ॥
अत्र तिष्ठति वै स्वातिरत्रास्या उदयः स्मृतः।

अनुवाद (हिन्दी)

इसी दिशामें अरुन्धतीदेवी और सप्तर्षि प्रकाशित होते हैं। इसीमें स्वाती नक्षत्रका निवास है और यहीं उसका उदय होता है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र यज्ञं समासाद्य ध्रुवं स्थाता पितामहः ॥ १५ ॥
ज्योतींषि चन्द्रसूर्यौ च परिवर्तन्ति नित्यशः।

मूलम्

अत्र यज्ञं समासाद्य ध्रुवं स्थाता पितामहः ॥ १५ ॥
ज्योतींषि चन्द्रसूर्यौ च परिवर्तन्ति नित्यशः।

अनुवाद (हिन्दी)

इसी दिशामें ब्रह्माजी यज्ञानुष्ठानमें प्रवृत्त होकर नियमितरूपसे निवास करते हैं। नक्षत्र, चन्द्रमा तथा सूर्य भी सदा इसीमें परिभ्रमण करते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र गङ्गामहाद्वारं रक्षन्ति द्विजसत्तम ॥ १६ ॥
धामा नाम महात्मानो मुनयः सत्यवादिनः।
न तेषां ज्ञायते मूर्तिर्नाकृतिर्न तपश्चितम् ॥ १७ ॥
परिवर्तसहस्राणि कामभोज्यानि गालव ।

मूलम्

अत्र गङ्गामहाद्वारं रक्षन्ति द्विजसत्तम ॥ १६ ॥
धामा नाम महात्मानो मुनयः सत्यवादिनः।
न तेषां ज्ञायते मूर्तिर्नाकृतिर्न तपश्चितम् ॥ १७ ॥
परिवर्तसहस्राणि कामभोज्यानि गालव ।

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजश्रेष्ठ! इसी दिशामें धाम नामसे प्रसिद्ध सत्यवादी महात्मा मुनि श्रीगंगामहाद्वारकी रक्षा करते हैं। उनकी मूर्ति, आकृति तथा संचित तपस्याका परिमाण किसीको ज्ञात नहीं होता है। गालव! वे सहस्रों युगान्तकालतककी आयु इच्छानुसार भोगते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा यथा प्रविशति तस्मात् परतरं नरः ॥ १८ ॥
तथा तथा द्विजश्रेष्ठ प्रविलीयति गालव।
नैतत् केनचिदन्येन गतपूर्वं द्विजर्षभ ॥ १९ ॥
ऋते नारायणं देवं नरं वा जिष्णुमव्ययम्।
अत्र कैलासमित्युक्तं स्थानमैलविलस्य तत् ॥ २० ॥

मूलम्

यथा यथा प्रविशति तस्मात् परतरं नरः ॥ १८ ॥
तथा तथा द्विजश्रेष्ठ प्रविलीयति गालव।
नैतत् केनचिदन्येन गतपूर्वं द्विजर्षभ ॥ १९ ॥
ऋते नारायणं देवं नरं वा जिष्णुमव्ययम्।
अत्र कैलासमित्युक्तं स्थानमैलविलस्य तत् ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजश्रेष्ठ! मनुष्य ज्यों-ज्यों गंगामहाद्वारसे आगे बढ़ता है, वैसे-ही-वैसे वहाँकी हिमराशिमें गलता जाता है। विप्रवर गालव! साक्षात् भगवान् नारायण तथा विजयशील अविनाशी महात्मा नरको छोड़कर दूसरा कोई मनुष्य पहले कभी गंगामहाद्वारसे आगे नहीं गया है। इसी दिशामें कैलासपर्वत है, जो कुबेरका स्थान बताया गया है॥१८—२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र विद्युत्प्रभा नाम जज्ञिरेऽप्सरसो दश।
अत्र विष्णुपदं नाम क्रमता विष्णुना कृतम् ॥ २१ ॥
त्रिलोकविक्रमे ब्रह्मन्नुत्तरां दिशमाश्रितम् ।
अत्र राज्ञा मरुत्तेन यज्ञेनेष्टं द्विजोत्तम ॥ २२ ॥
उशीरबीजे विप्रर्षे यत्र जाम्बूनदं सरः।

मूलम्

अत्र विद्युत्प्रभा नाम जज्ञिरेऽप्सरसो दश।
अत्र विष्णुपदं नाम क्रमता विष्णुना कृतम् ॥ २१ ॥
त्रिलोकविक्रमे ब्रह्मन्नुत्तरां दिशमाश्रितम् ।
अत्र राज्ञा मरुत्तेन यज्ञेनेष्टं द्विजोत्तम ॥ २२ ॥
उशीरबीजे विप्रर्षे यत्र जाम्बूनदं सरः।

अनुवाद (हिन्दी)

यहीं विद्युत्प्रभा नामसे प्रसिद्ध दस अप्सराएँ उत्पन्न हुई थीं। ब्रह्मन्! त्रिलोकीको नापते समय भगवान् विष्णुने इसी दिशामें अपना चरण रखा था। उत्तर दिशामें भगवान् विष्णुका वह चरणचिह्न (हरिकी पैंड़ी) आज भी मौजूद है। द्विजश्रेष्ठ! ब्रह्मर्षे! उत्तर-दिशाके ही उशीरबीज नामक स्थानमें, जहाँ सुवर्णमय सरोवर है, राजा मरुत्तने यज्ञ किया था॥२१-२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

जीमूतस्यात्र विप्रर्षेरुपतस्थे महात्मनः ॥ २३ ॥
साक्षाद्धैमवतः पुण्यो विमलः कनकाकरः।

मूलम्

जीमूतस्यात्र विप्रर्षेरुपतस्थे महात्मनः ॥ २३ ॥
साक्षाद्धैमवतः पुण्यो विमलः कनकाकरः।

अनुवाद (हिन्दी)

इसी दिशामें ब्रह्मर्षि महात्मा जीमूतके समक्ष हिमालयकी पवित्र एवं निर्मल स्वर्णनिधि (सोनेकी खान) प्रकट हुई थी॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ब्राह्मणेषु च यत् कृत्स्नं स्वन्तं कृत्वा धनं महत्॥२४॥
वव्रे धनं महर्षिः स जैमूतं तद् धनं ततः।

मूलम्

ब्राह्मणेषु च यत् कृत्स्नं स्वन्तं कृत्वा धनं महत्॥२४॥
वव्रे धनं महर्षिः स जैमूतं तद् धनं ततः।

अनुवाद (हिन्दी)

उस सम्पूर्ण विशाल धनराशिको उन्होंने ब्राह्मणोंमें बाँटकर उसका सदुपयोग किया और ब्राह्मणोंसे यह वर माँगा कि यह धन मेरे नामसे प्रसिद्ध हो। इस कारण वह धन ‘जैमूत’ नामसे प्रसिद्ध हुआ॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र नित्यं दिशाम्पालाः सायम्प्रातर्द्विजर्षभ ॥ २५ ॥
कस्य कार्यं किमिति वै परिक्रोशन्ति गालव।

मूलम्

अत्र नित्यं दिशाम्पालाः सायम्प्रातर्द्विजर्षभ ॥ २५ ॥
कस्य कार्यं किमिति वै परिक्रोशन्ति गालव।

अनुवाद (हिन्दी)

विप्रवर गालव! यहाँ प्रतिदिन सबेरे और संध्याके समय सभी दिक्‌पाल एकत्र हो उच्च स्वरसे यह पूछते हैं कि किसको क्या काम है?॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवमेषा द्विजश्रेष्ठ गुणैरन्यैर्दिगुत्तरा ॥ २६ ॥
उत्तरेति परिख्याता सर्वकर्मसु चोत्तरा।

मूलम्

एवमेषा द्विजश्रेष्ठ गुणैरन्यैर्दिगुत्तरा ॥ २६ ॥
उत्तरेति परिख्याता सर्वकर्मसु चोत्तरा।

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजश्रेष्ठ! इन सब कारणोंसे तथा अन्यान्य गुणोंके कारण यह दिशा उत्कृष्ट है और समस्त शुभ कर्मोंके लिये भी यही उत्तम मानी गयी है। इसलिये इसे उत्तर कहते हैं॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एता विस्तरशस्तात तव संकीर्तिता दिशः ॥ २७ ॥
चतस्रः क्रमयोगेन कामाशां गन्तुमिच्छसि।

मूलम्

एता विस्तरशस्तात तव संकीर्तिता दिशः ॥ २७ ॥
चतस्रः क्रमयोगेन कामाशां गन्तुमिच्छसि।

अनुवाद (हिन्दी)

तात! इस प्रकार मैंने क्रमशः चारों दिशाओंका तुम्हारे सामने विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। कहो, किस दिशामें चलना चाहते हो?॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

उद्यतोऽहं द्विजश्रेष्ठ तव दर्शयितुं दिशः।
पृथिवीं चाखिलां ब्रह्मंस्तस्मादारोह मां द्विज ॥ २८ ॥

मूलम्

उद्यतोऽहं द्विजश्रेष्ठ तव दर्शयितुं दिशः।
पृथिवीं चाखिलां ब्रह्मंस्तस्मादारोह मां द्विज ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजश्रेष्ठ! मैं तुम्हें सम्पूर्ण पृथ्वी तथा समस्त दिशाओंका दर्शन करानेके लिये उद्यत हूँ; अतः तुम मेरी पीठपर बैठ जाओ॥२८॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि गालवचरिते एकादशाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १११ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें गालवचरित्रविषयक एक सौ ग्यारहवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१११॥