१०९ गालवचरिते

भागसूचना

नवाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

दक्षिणदिशाका वर्णन

मूलम् (वचनम्)

सुपर्ण उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

इयं विवस्वता पूर्वं श्रौतेन विधिना किल।
गुरवे दक्षिणा दत्ता दक्षिणेत्युच्यते च दिक् ॥ १ ॥

मूलम्

इयं विवस्वता पूर्वं श्रौतेन विधिना किल।
गुरवे दक्षिणा दत्ता दक्षिणेत्युच्यते च दिक् ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गरुड़ कहते हैं— गालव! यह प्रसिद्ध है कि पूर्वकालमें भगवान् सूर्यने वेदोक्त विधिके अनुसार यज्ञ करके आचार्य कश्यपको दक्षिणारूपसे इस दिशाका दान किया था, इसीलिये इसे दक्षिण दिशा कहते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र लोकत्रयस्यास्य पितृपक्षः प्रतिष्ठितः।
अत्रोष्मपाणां देवानां निवासः श्रूयते द्विज ॥ २ ॥

मूलम्

अत्र लोकत्रयस्यास्य पितृपक्षः प्रतिष्ठितः।
अत्रोष्मपाणां देवानां निवासः श्रूयते द्विज ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! तीनों लोकोंके पितृगण इसी दिशामें प्रतिष्ठित हैं तथा ‘ऊष्मप’ नामक देवताओंका निवास भी इसी दिशामें सुना जाता है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र विश्वे सदा देवाः पितृभिः सार्धमासते।
इज्यमानाः स्म लोकेषु सम्प्राप्तास्तुल्यभागताम् ॥ ३ ॥

मूलम्

अत्र विश्वे सदा देवाः पितृभिः सार्धमासते।
इज्यमानाः स्म लोकेषु सम्प्राप्तास्तुल्यभागताम् ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पितरोंके साथ विश्वेदेवगण सदा दक्षिण दिशामें ही वास करते हैं। वे समस्त लोकोंमें पूजित हो श्राद्धमें पितरोंके समान ही भाग प्राप्त करते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतद् द्वितीयं देवस्य द्वारमाचक्षते द्विज।
त्रुटिशो लवशश्चापि गण्यते कालनिश्चयः ॥ ४ ॥

मूलम्

एतद् द्वितीयं देवस्य द्वारमाचक्षते द्विज।
त्रुटिशो लवशश्चापि गण्यते कालनिश्चयः ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विप्रवर! विद्वान् पुरुष इस दक्षिण दिशाको धर्म-देवताका दूसरा द्वार कहते हैं। यहीं (चित्रगुप्त आदिके द्वारा) ‘त्रुटि’ और ‘लव’ आदि सूक्ष्म-से-सूक्ष्म कालांशों-पर दृष्टि रखते हुए प्राणियोंकी आयुकी निश्चित गणना की जाती है॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र देवर्षयो नित्यं पितृलोकर्षयस्तथा।
तथा राजर्षयः सर्वे निवसन्ति गतव्यथाः ॥ ५ ॥

मूलम्

अत्र देवर्षयो नित्यं पितृलोकर्षयस्तथा।
तथा राजर्षयः सर्वे निवसन्ति गतव्यथाः ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवर्षि, पितृलोकके ऋषि तथा समस्त राजर्षिगण दुःखरहित हो सदा इसी दिशामें निवास करते हैं॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र धर्मश्च सत्यं च कर्म चात्र निगद्यते।
गतिरेषा द्विजश्रेष्ठ कर्मणामवसायिनाम् ॥ ६ ॥

मूलम्

अत्र धर्मश्च सत्यं च कर्म चात्र निगद्यते।
गतिरेषा द्विजश्रेष्ठ कर्मणामवसायिनाम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजश्रेष्ठ! इसी दिशामें (रहकर चित्रगुप्त आदिके द्वारा धर्मराजके निकट प्राणियोंके) धर्म, सत्य तथा साधारण कर्मोंके विषयमें कहा जाता है। मृत प्राणी तथा उनके कर्म इसी दिशाका आश्रय लेते हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एषा दिक् सा द्विजश्रेष्ठ यां सर्वः प्रतिपद्यते।
वृता त्वनवबोधेन सुखं तेन न गम्यते ॥ ७ ॥

मूलम्

एषा दिक् सा द्विजश्रेष्ठ यां सर्वः प्रतिपद्यते।
वृता त्वनवबोधेन सुखं तेन न गम्यते ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विप्रवर! यह वह दिशा है, जिसमें मृत्युके पश्चात् सभी प्राणियोंको जाना पड़ता है। यह सदा अज्ञानान्धकारसे आवृत रहती है, इसलिये इसमें सुखपूर्वक यात्रा सम्भव नहीं हो पाती है॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नैर्ऋतानां सहस्राणि बहून्यत्र द्विजर्षभ।
सृष्टानि प्रतिकूलानि द्रष्टव्यान्यकृतात्मभिः ॥ ८ ॥

मूलम्

नैर्ऋतानां सहस्राणि बहून्यत्र द्विजर्षभ।
सृष्टानि प्रतिकूलानि द्रष्टव्यान्यकृतात्मभिः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

द्विजश्रेष्ठ! ब्रह्माजीने इस दिशामें प्रतिकूल स्वभाव एवं आचरणवाले सहस्रों राक्षसोंकी सृष्टि की है, जिनका दर्शन अशुद्ध अन्तःकरणवाले पुरुषोंको ही होता है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र मन्दरकुञ्जेषु विप्रर्षिसदनेषु च।
गायन्ति गाथा गन्धर्वाश्चित्तबुद्धिहरा द्विज ॥ ९ ॥

मूलम्

अत्र मन्दरकुञ्जेषु विप्रर्षिसदनेषु च।
गायन्ति गाथा गन्धर्वाश्चित्तबुद्धिहरा द्विज ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! इसी दिशामें गन्धर्वगण मन्दराचलके कुंजों और ब्रह्मर्षियोंके आश्रमोंमें मन और बुद्धिको आकर्षित करनेवाली गाथाओंका गान करते हैं॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र सामानि गाथाभिः श्रुत्वा गीतानि रैवतः।
गतदारो गतामात्यो गतराज्यो वनं गतः ॥ १० ॥

मूलम्

अत्र सामानि गाथाभिः श्रुत्वा गीतानि रैवतः।
गतदारो गतामात्यो गतराज्यो वनं गतः ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पूर्वकालमें यहीं राजा रैवत गाथाओंके रूपमें सामगान सुनते-सुनते अपनी स्त्री, मन्त्री तथा राज्यसे भी वियुक्त हो वनमें चले गये थे1 ॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र सावर्णिना चैव यवक्रीतात्मजेन च।
मर्यादा स्थापिता ब्रह्मन् यां सूर्यो नातिवर्तते ॥ ११ ॥

मूलम्

अत्र सावर्णिना चैव यवक्रीतात्मजेन च।
मर्यादा स्थापिता ब्रह्मन् यां सूर्यो नातिवर्तते ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ब्रह्मन्! इस दिशामें सावर्णि मनु तथा यवक्रीतके पुत्रने सूर्यकी गतिके लिये मर्यादा (सीमा) स्थापित की थी, जिसका सूर्यदेव कभी उल्लंघन नहीं करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र राक्षसराजेन पौलस्त्येन महात्मना।
रावणेन तपश्चीर्त्वा सुरेभ्योऽमरता वृता ॥ १२ ॥

मूलम्

अत्र राक्षसराजेन पौलस्त्येन महात्मना।
रावणेन तपश्चीर्त्वा सुरेभ्योऽमरता वृता ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पुलस्त्यवंशी राक्षसराज महामना रावणने इसी दिशामें तपस्या करके देवताओंसे अवध्य होनेका वरदान प्राप्त किया था॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र वृत्तेन वृत्रोऽपि शक्रशत्रुत्वमीयिवान्।
अत्र सर्वासवः प्राप्ताः पुनर्गच्छन्ति पञ्चधा ॥ १३ ॥

मूलम्

अत्र वृत्तेन वृत्रोऽपि शक्रशत्रुत्वमीयिवान्।
अत्र सर्वासवः प्राप्ताः पुनर्गच्छन्ति पञ्चधा ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इसी दिशामें घटित हुई घटनाके कारण वृत्रासुर देवराज इन्द्रका शत्रु बन बैठा था। दक्षिण दिशामें ही आकर सबके प्राण पुनः (प्राण-अपान आदिके भेदसे) पाँच भागोंमें बँट जाते हैं (अर्थात् प्राणी नूतन देह धारण करते हैं)॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र दुष्कृतकर्माणो नराः पच्यन्ति गालव।
अत्र वैतरणी नाम नदी वितरणैर्वृता ॥ १४ ॥

मूलम्

अत्र दुष्कृतकर्माणो नराः पच्यन्ति गालव।
अत्र वैतरणी नाम नदी वितरणैर्वृता ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गालव! इसी दिशामें पापाचारी मनुष्य नरकोंकी आगमें पकाये जाते हैं। दक्षिणमें ही वह वैतरणी नदी है, जो वैतरणी नरकके अधिकारी पापियोंसे घिरी रहती है॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र गत्वा सुखस्यान्तं दुःखस्यान्तं प्रपद्यते।
अत्रावृत्तो दिनकरः सुरसं क्षरते पयः ॥ १५ ॥
काष्ठां चासाद्य वासिष्ठीं हिममुत्सृजते पुनः।

मूलम्

अत्र गत्वा सुखस्यान्तं दुःखस्यान्तं प्रपद्यते।
अत्रावृत्तो दिनकरः सुरसं क्षरते पयः ॥ १५ ॥
काष्ठां चासाद्य वासिष्ठीं हिममुत्सृजते पुनः।

अनुवाद (हिन्दी)

मनुष्य इसी दिशामें जाकर सुख और दुःखके अन्तको प्राप्त होता है। इसी दक्षिण दिशामें लौटनेपर (अर्थात् उत्तरायणके अन्तिम भागमें पहुँचकर दक्षिणायनके आरम्भमें आनेपर जब कि वर्षा ऋतु रहती है,) सूर्यदेव सुस्वादु जलकी वर्षा करते हैं। फिर वसिष्ठ मुनिके द्वारा सेवित उत्तर दिशामें पहुँचकर (अर्थात् उत्तरायणके प्रारम्भमें जब कि शिशिर ऋतु रहती है,) वे ओले गिराते हैं॥१५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्राहं गालव पुरा क्षुधार्तः परिचिन्तयन् ॥ १६ ॥
लब्धवान् युध्यमानौ द्वौ बृहन्तौ गजकच्छपौ।

मूलम्

अत्राहं गालव पुरा क्षुधार्तः परिचिन्तयन् ॥ १६ ॥
लब्धवान् युध्यमानौ द्वौ बृहन्तौ गजकच्छपौ।

अनुवाद (हिन्दी)

गालव! पूर्वकालकी बात है, मैं भूखसे पीड़ित होकर भारी चिन्तामें पड़ गया था, परंतु इसी दिशामें आनेपर दो विशाल प्राणी—हाथी और कछुआ मेरे हाथ लग गये, जो आपसमें लड़ रहे थे॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र चक्रधनुर्नाम सूर्याज्जातो महानृषिः ॥ १७ ॥
विदुर्यं कपिलं देवं येनार्ताः सगरात्मजाः।

मूलम्

अत्र चक्रधनुर्नाम सूर्याज्जातो महानृषिः ॥ १७ ॥
विदुर्यं कपिलं देवं येनार्ताः सगरात्मजाः।

अनुवाद (हिन्दी)

सूर्यके समान तेजस्वी महर्षि कर्दमसे उत्पन्न हुए ‘चक्रधनु’ नामक महर्षि इसी दिशामें रहते थे, जिन्हें सब लोग ‘कपिलदेव’के नामसे जानते हैं। उन्होंने ही सगरके पुत्रोंको भस्म कर दिया था॥१७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र सिद्धाः शिवा नाम ब्राह्मणा वेदपारगाः ॥ १८ ॥
अधीत्य सकलान् वेदाल्लेँभिरे मोक्षमक्षयम्।

मूलम्

अत्र सिद्धाः शिवा नाम ब्राह्मणा वेदपारगाः ॥ १८ ॥
अधीत्य सकलान् वेदाल्लेँभिरे मोक्षमक्षयम्।

अनुवाद (हिन्दी)

इसी दिशामें ‘शिव’ नामसे प्रसिद्ध कुछ सिद्ध ब्राह्मण रहते थे, जो वेदोंके पारंगत पण्डित थे। उन्होंने सम्पूर्ण वेदोंका अध्ययन करके (तत्त्वज्ञानद्वारा) अक्षय मोक्ष प्राप्त कर लिया॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र भोगवती नाम पुरी वासुकिपालिता ॥ १९ ॥
तक्षकेण च नागेन तथैवैरावतेन च।

मूलम्

अत्र भोगवती नाम पुरी वासुकिपालिता ॥ १९ ॥
तक्षकेण च नागेन तथैवैरावतेन च।

अनुवाद (हिन्दी)

दक्षिणमें ही वासुकिद्वारा पालित तथा तक्षक एवं ऐरावत नागद्वारा सुरक्षित भोगवती नामक पुरी है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अत्र निर्याणकालेऽपि तमः सम्प्राप्यते महत् ॥ २० ॥
अभेद्यं भास्करेणापि स्वयं वा कृष्णवर्त्मना।

मूलम्

अत्र निर्याणकालेऽपि तमः सम्प्राप्यते महत् ॥ २० ॥
अभेद्यं भास्करेणापि स्वयं वा कृष्णवर्त्मना।

अनुवाद (हिन्दी)

मृत्युके पश्चात् इस दिशामें जानेवाले प्राणीको ऐसे घोर अन्धकारका सामना करना पड़ता है, जो साक्षात् अग्नि एवं सूर्यके लिये भी अभेद्य है॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एष तस्यापि ते मार्गः परिचार्यस्य गालव।
ब्रूहि मे यदि गन्तव्यं प्रतीचीं शृणु चापराम् ॥ २१ ॥

मूलम्

एष तस्यापि ते मार्गः परिचार्यस्य गालव।
ब्रूहि मे यदि गन्तव्यं प्रतीचीं शृणु चापराम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गालव! तुम मेरे द्वारा परिचर्या पाने (सेवा ग्रहण करने)-के योग्य हो, अतः तुम्हें यह दक्षिण मार्ग बताया है; यदि इस दिशामें चलना हो तो मुझसे कहो अथवा अब तीसरी पश्चिम दिशाका वर्णन सुनो॥२१॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि गालवचरिते नवाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०९ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें गालवचरित्रविषयक एक सौ नौवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०९॥


  1. एक समय राजा रैवत अपनी पुत्रीके साथ उसके लिये वरका अनुसंधान करने ब्रह्माजीके पास गये थे। वहाँसे लौटते समय उन्होंने मन्दराचलके पुण्य प्रदेशोंमें गन्धर्वोंका सामगान सुना और कुछ देर ठहर गये। वहाँका थोड़ा-सा भी समय मनुष्यलोकके महान् कालके बराबर होता है। राजा जब लौटकर राजधानीमें आये; तब सत्ययुग और त्रेता बीतकर द्वापरका अन्तिम भाग व्यतीत हो रहा था। मन्त्री और परिवारके सभी लोग कालके गालमें जा चुके थे। उन दिनों उनकी राजधानी कुशस्थलीके स्थानपर दिव्य द्वारकापुरीका निर्माण हो चुका था। राजाने अपनी पुत्री रेवतीका विवाह बलरामजीसे कर दिया और स्वयं वे वनमें तपस्या करनेके लिये चले गये। ↩︎