भागसूचना
सप्ताधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
गालवकी चिन्ता और गरुड़का आकर उन्हें आश्वासन देना
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्तस्तदा तेन विश्वामित्रेण धीमता।
नास्ते न शेते नाहारं कुरुते गालवस्तदा ॥ १ ॥
मूलम्
एवमुक्तस्तदा तेन विश्वामित्रेण धीमता।
नास्ते न शेते नाहारं कुरुते गालवस्तदा ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजीने कहा— राजन्! उस समय परम बुद्धिमान् विश्वामित्रके ऐसा कहनेपर गालव मुनि तबसे न कहीं बैठते, न सोते और न भोजन ही करते थे॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
त्वगस्थिभूतो हरिणश्चिन्ताशोकपरायणः ।
शोचमानोऽतिमात्रं स दह्यमानश्च मन्युना।
गालवो दुःखितो दुःखाद् विललाप सुयोधन ॥ २ ॥
मूलम्
त्वगस्थिभूतो हरिणश्चिन्ताशोकपरायणः ।
शोचमानोऽतिमात्रं स दह्यमानश्च मन्युना।
गालवो दुःखितो दुःखाद् विललाप सुयोधन ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वे चिन्ता और शोकमें डूबे रहनेके कारण पाण्डुवर्णके हो गये। उनके शरीरमें अस्थि-चर्ममात्र ही शेष रह गये थे। सुयोधन! अत्यन्त शोक करते और चिन्ताकी आगमें दग्ध होते हुए दुःखी गालव मुनि दुःखसे विलाप करने लगे—॥२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुतः पुष्टानि मित्राणि कुतोऽर्थाः संचयः कुतः।
हयानां चन्द्रशुभ्राणां शतान्यष्टौ कुतो मम ॥ ३ ॥
मूलम्
कुतः पुष्टानि मित्राणि कुतोऽर्थाः संचयः कुतः।
हयानां चन्द्रशुभ्राणां शतान्यष्टौ कुतो मम ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मेरे ऐसे मित्र कहाँ, जो धनसे पुष्ट हों? मुझे कहाँसे धन प्राप्त होगा? कहाँ मेरे लिये धन संग्रह करके रखा हुआ है? और कहाँसे मुझे चन्द्रमाके समान श्वेतवर्णवाले आठ सौ घोड़े प्राप्त होंगे?॥३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुतो मे भोजने श्रद्धा सुखश्रद्धा कुतश्च मे।
श्रद्धा मे जीवितस्यापि छिन्ना किं जीवितेन मे ॥ ४ ॥
मूलम्
कुतो मे भोजने श्रद्धा सुखश्रद्धा कुतश्च मे।
श्रद्धा मे जीवितस्यापि छिन्ना किं जीवितेन मे ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ऐसी दशामें मुझे भोजनकी रुचि कहाँसे हो? सुख भोगनेकी इच्छा कहाँसे हो? और इस जीवनसे भी मुझे क्या प्रयोजन है? इस जीवनको सुरक्षित रखनेके लिये मेरा जो उत्साह था, वह भी नष्ट हो गया॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं पारे समुद्रस्य पृथिव्या वा परम्परात्।
गत्वाऽऽत्मानं विमुञ्चामि किं फलं जीवितेन मे ॥ ५ ॥
मूलम्
अहं पारे समुद्रस्य पृथिव्या वा परम्परात्।
गत्वाऽऽत्मानं विमुञ्चामि किं फलं जीवितेन मे ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं समुद्रके उस पार अथवा पृथ्वीसे बहुत दूर जाकर इस शरीरको त्याग दूँगा। अब मेरे जीवित रहनेसे क्या लाभ है?॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अधनस्याकृतार्थस्य त्यक्तस्य विविधैः फलैः।
ऋणं धारयमाणस्य कुतः सुखमनीहया ॥ ६ ॥
मूलम्
अधनस्याकृतार्थस्य त्यक्तस्य विविधैः फलैः।
ऋणं धारयमाणस्य कुतः सुखमनीहया ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो निर्धन है, जिसके अभीष्ट मनोरथकी सिद्धि नहीं हुई है तथा जो नाना प्रकारके शुभ कर्मफलोंसे वंचित होकर केवल ऋणका बोझ ढो रहा है, ऐसे मनुष्यको बिना उद्यमके जीवन धारण करनेसे क्या सुख होगा?॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुहृदां हि धनं भुक्त्वा कृत्वा प्रणयमीप्सितम्।
प्रतिकर्तुमशक्तस्य जीवितान्मरणं वरम् ॥ ७ ॥
मूलम्
सुहृदां हि धनं भुक्त्वा कृत्वा प्रणयमीप्सितम्।
प्रतिकर्तुमशक्तस्य जीवितान्मरणं वरम् ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो इच्छानुसार प्रेम-सम्बन्ध स्थापित करके सुहृदोंका धन भोगकर उनका प्रत्युपकार करनेमें असमर्थ हो, उसके जीनेसे मर जाना ही अच्छा है॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
प्रतिश्रुत्य करिष्येति कर्तव्यं तदकुर्वतः।
मिथ्यावचनदग्धस्य इष्टापूर्तं प्रणश्यति ॥ ८ ॥
मूलम्
प्रतिश्रुत्य करिष्येति कर्तव्यं तदकुर्वतः।
मिथ्यावचनदग्धस्य इष्टापूर्तं प्रणश्यति ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जो ‘करूँगा’ ऐसा कहकर किसी कार्यको पूर्ण करनेकी प्रतिज्ञा कर ले, परंतु आगे चलकर उस कर्तव्यका पालन न कर सके, उस असत्यभाषणसे दग्ध हुए पुरुषके ‘इष्ट’ और ‘आपूर्त’ सभी नष्ट हो जाते हैं॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न रूपमनृतस्यास्ति नानृतस्यास्ति संततिः।
नानृतस्याधिपत्यं च कुत एव गतिः शुभा ॥ ९ ॥
मूलम्
न रूपमनृतस्यास्ति नानृतस्यास्ति संततिः।
नानृतस्याधिपत्यं च कुत एव गतिः शुभा ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘सत्यसे शून्य मनुष्यका जीवन नहींके बराबर है। मिथ्यावादीको संतति नहीं प्राप्त होती। झूठेको प्रभुत्व नहीं मिलता, फिर उसे शुभ गति कैसे प्राप्त हो सकती है?॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
कुतः कृतघ्नस्य यशः कुतः स्थानं कुतः सुखम्।
अश्रद्धेयः कृतघ्नो हि कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः ॥ १० ॥
मूलम्
कुतः कृतघ्नस्य यशः कुतः स्थानं कुतः सुखम्।
अश्रद्धेयः कृतघ्नो हि कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘कृतघ्न मनुष्यको सुयश कहाँ? स्थान या प्रतिष्ठा कहाँ और सुख भी कहाँ है? कृतघ्न मानव अविश्वसनीय होता है, उसका कभी उद्धार नहीं होता है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न जीवत्यधनः पापः कुतः पापस्य तन्त्रणम्।
पापो ध्रुवमवाप्नोति विनाशं नाशयन् कृतम् ॥ ११ ॥
मूलम्
न जीवत्यधनः पापः कुतः पापस्य तन्त्रणम्।
पापो ध्रुवमवाप्नोति विनाशं नाशयन् कृतम् ॥ ११ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘निर्धन एवं पापी मनुष्यका जीवन वास्तवमें जीवन नहीं है। पापी मनुष्य अपने कुटुम्बका पोषण भी कैसे कर सकता है? पापात्मा (निर्धन) पुरुष अपने पुण्य कर्मोंका नाश करता हुआ स्वयं भी निश्चय ही नष्ट हो जाता है॥११॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽहं पापः कृतघ्नश्च कृपणश्चानृतोऽपि च।
गुरोर्यः कृतकार्यः संस्तत् करोमि न भाषितम् ॥ १२ ॥
मूलम्
सोऽहं पापः कृतघ्नश्च कृपणश्चानृतोऽपि च।
गुरोर्यः कृतकार्यः संस्तत् करोमि न भाषितम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘मैं पापी, कृतघ्न, कृपण और मिथ्यावादी हूँ, जिसने गुरुसे तो अपना काम करा लिया, परंतु स्वयं जो उन्हें देनेकी प्रतिज्ञा की है, उसकी पूर्ति नहीं कर पा रहा हूँ॥१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सोऽहं प्राणान् विमोक्ष्यामि कृत्वा यत्नमनुत्तमम्।
अर्थिता न मया काचित् कृतपूर्वा दिवौकसाम्।
मानयन्ति च मां सर्वे त्रिदशा यज्ञसंस्तरे ॥ १३ ॥
मूलम्
सोऽहं प्राणान् विमोक्ष्यामि कृत्वा यत्नमनुत्तमम्।
अर्थिता न मया काचित् कृतपूर्वा दिवौकसाम्।
मानयन्ति च मां सर्वे त्रिदशा यज्ञसंस्तरे ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः मैं कोई उत्तम प्रयत्न करके अपने प्राणोंका परित्याग कर दूँगा। मैंने आजसे पहले देवताओंसे भी कभी कोई याचना नहीं की है। सब देवता यज्ञमें मेरा समादर करते हैं॥१३॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अहं तु विबुधश्रेष्ठं देवं त्रिभुवनेश्वरम्।
विष्णुं गच्छाम्यहं कृष्णं गतिं गतिमतां वरम् ॥ १४ ॥
मूलम्
अहं तु विबुधश्रेष्ठं देवं त्रिभुवनेश्वरम्।
विष्णुं गच्छाम्यहं कृष्णं गतिं गतिमतां वरम् ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अब मैं त्रिभुवनके स्वामी एवं जंगम जीवोंके सर्वश्रेष्ठ आश्रय सुरश्रेष्ठ सच्चिदानन्दघन भगवान् विष्णुकी शरणमें जाता हूँ॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
भोगा यस्मात् प्रतिष्ठन्ते व्याप्य सर्वान् सुरासुरान्।
प्रणतो द्रष्टुमिच्छामि कृष्णं योगिनमव्ययम् ॥ १५ ॥
मूलम्
भोगा यस्मात् प्रतिष्ठन्ते व्याप्य सर्वान् सुरासुरान्।
प्रणतो द्रष्टुमिच्छामि कृष्णं योगिनमव्ययम् ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘जिनकी कृपासे समस्त देवताओं और असुरोंको भी यथेष्ट भोग प्राप्त होते हैं, उन्हीं अविनाशी योगी भगवान् विष्णुका मैं प्रणतभावसे दर्शन करना चाहता हूँ’॥१५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
एवमुक्ते सखा तस्य गरुडो विनतात्मजः।
दर्शयामास तं प्राह संहृष्टः प्रियकाम्यया ॥ १६ ॥
मूलम्
एवमुक्ते सखा तस्य गरुडो विनतात्मजः।
दर्शयामास तं प्राह संहृष्टः प्रियकाम्यया ॥ १६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
गालवके इस प्रकार कहनेपर उनके सखा विनतानन्दन गरुड़ने अत्यन्त प्रसन्न होकर उनका प्रिय करनेकी इच्छासे उन्हें दर्शन दिया और इस प्रकार कहा—॥१६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुहृद् भवान् मम मतः सुहृदां च मतः सुहृत्।
ईप्सितेनाभिलाषेण योक्तव्यो विभवे सति ॥ १७ ॥
मूलम्
सुहृद् भवान् मम मतः सुहृदां च मतः सुहृत्।
ईप्सितेनाभिलाषेण योक्तव्यो विभवे सति ॥ १७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘गालव! तुम मेरे प्रिय सुहृद् हो और मेरे सुहृदोंके भी प्रिय सुहृद् हो। सुहृदोंका यह कर्तव्य है कि यदि उनके पास धन-वैभव हो तो वे उसका अपने सुहृद्का अभीष्ट मनोरथ पूर्ण करनेके लिये उपयोग करें॥१७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
विभवश्चास्ति मे विप्र वासवावरजो द्विज।
पूर्वमुक्तस्त्वदर्थं च कृतः कामश्च तेन मे ॥ १८ ॥
मूलम्
विभवश्चास्ति मे विप्र वासवावरजो द्विज।
पूर्वमुक्तस्त्वदर्थं च कृतः कामश्च तेन मे ॥ १८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘ब्रह्मन्! मेरे सबसे बड़े वैभव हैं इन्द्रके छोटे भाई भगवान् विष्णु। मैंने पहले तुम्हारे लिये उनसे निवेदन किया था और उन्होंने मेरी इस प्रार्थनाको स्वीकार करके मेरा मनोरथ पूर्ण किया था॥१८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
स भवानेतु गच्छाव नयिष्ये त्वां यथासुखम्।
देशं पारं पृथिव्या वा गच्छ गालव मा चिरम्॥१९॥
मूलम्
स भवानेतु गच्छाव नयिष्ये त्वां यथासुखम्।
देशं पारं पृथिव्या वा गच्छ गालव मा चिरम्॥१९॥
अनुवाद (हिन्दी)
‘अतः आओ’ हम दोनों चलें। गालव! मैं तुम्हें सुखपूर्वक ऐसे देशमें पहुँचा दूँगा, जो पृथ्वीके अन्तर्गत तथा समुद्रके उस पार है। चलो, विलम्ब न करो’॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि गालवचरिते सप्ताधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०७ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें गालवचरित्रविषयक एक सौ सातवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०७॥