१०५ मातलिवरान्वेषणे

भागसूचना

पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

भगवान् विष्णुके द्वारा गरुड़का गर्वभंजन तथा दुर्योधनद्वारा कण्व मुनिके उपदेशकी अवहेलना

मूलम् (वचनम्)

कण्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

गरुडस्तत्र शुश्राव यथावृत्तं महाबलः।
आयुःप्रदानं शक्रेण कृतं नागस्य भारत ॥ १ ॥

मूलम्

गरुडस्तत्र शुश्राव यथावृत्तं महाबलः।
आयुःप्रदानं शक्रेण कृतं नागस्य भारत ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कण्व मुनि कहते हैं— भारत! महाबली गरुड़ने यह सारा वृत्तान्त यथार्थरूपसे सुना कि इन्द्रने सुमुख नागको दीर्घायु प्रदान की है॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पक्षवातेन महता रुद्‌ध्वा त्रिभुवनं खगः।
सुपर्णः परमक्रुद्धो वासवं समुपाद्रवत् ॥ २ ॥

मूलम्

पक्षवातेन महता रुद्‌ध्वा त्रिभुवनं खगः।
सुपर्णः परमक्रुद्धो वासवं समुपाद्रवत् ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

यह सुनते ही आकाशचारी गरुड़ अत्यन्त क्रुद्ध हो अपने पंखोंकी प्रचण्ड वायुसे तीनों लोकोंको कम्पित करते हुए इन्द्रके समीप दौड़े आये॥२॥

मूलम् (वचनम्)

गरुड उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवन् किमवज्ञानाद् वृत्तिः प्रतिहता मम।
कामकारवरं दत्त्वा पुनश्चलितवानसि ॥ ३ ॥

मूलम्

भगवन् किमवज्ञानाद् वृत्तिः प्रतिहता मम।
कामकारवरं दत्त्वा पुनश्चलितवानसि ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गरुड बोले— भगवन्! आपने अवहेलना करके मेरी जीविकामें क्यों बाधा पहुँचायी है? एक बार मुझे इच्छानुसार कार्य करनेका वरदान देकर अब फिर उससे विचलित क्यों हुए हैं?॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

निसर्गात् सर्वभूतानां सर्वभूतेश्वरेण मे।
आहारो विहितो धात्रा किमर्थं वार्यते त्वया ॥ ४ ॥

मूलम्

निसर्गात् सर्वभूतानां सर्वभूतेश्वरेण मे।
आहारो विहितो धात्रा किमर्थं वार्यते त्वया ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

समस्त प्राणियोंके स्वामी विधाताने सम्पूर्ण प्राणियोंकी सृष्टि करते समय मेरा आहार निश्चित कर दिया था। फिर आप किसलिये उसमें बाधा उपस्थित करते हैं?॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

वृतश्चैष महानागः स्थापितः समयश्च मे।
अनेन च मया देव भर्तव्यः प्रसवो महान् ॥ ५ ॥

मूलम्

वृतश्चैष महानागः स्थापितः समयश्च मे।
अनेन च मया देव भर्तव्यः प्रसवो महान् ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देव! मैंने उस महानागको अपने भोजनके लिये चुन लिया था। इसके लिये समय भी निश्चित कर दिया था और उसीके द्वारा मुझे अपने विशाल परिवारका भरण-पोषण करना था॥५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतस्मिंस्तु तथाभूते नान्यं हिंसितुमुत्सहे।
क्रीडसे कामकारेण देवराज यथेच्छकम् ॥ ६ ॥

मूलम्

एतस्मिंस्तु तथाभूते नान्यं हिंसितुमुत्सहे।
क्रीडसे कामकारेण देवराज यथेच्छकम् ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वह नाग जब दीर्घायु हो गया, तब अब मैं उसके बदलेमें दूसरेकी हिंसा नहीं कर सकता। देवराज! आप स्वेच्छाचारको अपनाकर मनमाने खेल कर रहे हैं॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं प्राणान् विमोक्ष्यामि तथा परिजनो मम।
ये च भृत्या मम गृहे प्रीतिमान् भव वासव॥७॥

मूलम्

सोऽहं प्राणान् विमोक्ष्यामि तथा परिजनो मम।
ये च भृत्या मम गृहे प्रीतिमान् भव वासव॥७॥

अनुवाद (हिन्दी)

वासव! अब मैं प्राण त्याग दूँगा। मेरे परिवारमें तथा मेरे घरमें जो भरण-पोषण करनेयोग्य प्राणी हैं, वे भी भोजनके अभावमें प्राण दे देंगे। अब आप अकेले संतुष्ट होइये॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एतच्चैवाहमर्हामि भूयश्च बलवृत्रहन् ।
त्रैलोकस्येश्वरो योऽहं परभृत्यत्वमागतः ॥ ८ ॥

मूलम्

एतच्चैवाहमर्हामि भूयश्च बलवृत्रहन् ।
त्रैलोकस्येश्वरो योऽहं परभृत्यत्वमागतः ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

बल और वृत्रासुरका वध करनेवाले देवराज! मैं इसी व्यवहारके योग्य हूँ; क्योंकि तीनों लोकोंका शासन करनेमें समर्थ होकर भी मैंने दूसरेकी सेवा स्वीकार की है॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्वयि तिष्ठति देवेश न विष्णुः कारणं मम।
त्रैलोक्यराज राज्यं हि त्वयि वासव शाश्वतम् ॥ ९ ॥

मूलम्

त्वयि तिष्ठति देवेश न विष्णुः कारणं मम।
त्रैलोक्यराज राज्यं हि त्वयि वासव शाश्वतम् ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवेश्वर! त्रिलोकीनाथ! आपके रहते भगवान् विष्णु भी मेरी जीविका रोकनेमें कारण नहीं हो सकते; क्योंकि वासव! तीनों लोकोंके राज्यका भार सदा आपके ही ऊपर है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ममापि दक्षस्य सुता जननी कश्यपः पिता।
अहमप्युत्सहे लोकान् समन्ताद् वोढुमञ्जसा ॥ १० ॥

मूलम्

ममापि दक्षस्य सुता जननी कश्यपः पिता।
अहमप्युत्सहे लोकान् समन्ताद् वोढुमञ्जसा ॥ १० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरी माता भी प्रजापति दक्षकी पुत्री हैं। मेरे पिता भी महर्षि कश्यप ही हैं। मैं भी अनायास ही सम्पूर्ण लोकोंका भार वहन कर सकता हूँ॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

असह्यं सर्वभूतानां ममापि विपुलं बलम्।
मयापि सुमहत् कर्म कृतं दैतेयविग्रहे ॥ ११ ॥

मूलम्

असह्यं सर्वभूतानां ममापि विपुलं बलम्।
मयापि सुमहत् कर्म कृतं दैतेयविग्रहे ॥ ११ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मुझमें भी वह विशाल बल है, जिसे समस्त प्राणी एक साथ मिलकर भी सह नहीं सकते। मैंने भी दैत्योंके साथ युद्ध छिड़नेपर महान् पराक्रम प्रकट किया है॥११॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

श्रुतश्रीः श्रुतसेनश्च विवस्वान् रोचनामुखः।
प्रसृतः कालकाक्षश्च मयापि दितिजा हताः ॥ १२ ॥

मूलम्

श्रुतश्रीः श्रुतसेनश्च विवस्वान् रोचनामुखः।
प्रसृतः कालकाक्षश्च मयापि दितिजा हताः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मैंने भी श्रुतश्री, श्रुतसेन, विवस्वान्, रोचनामुख, प्रसृत और कालकाक्ष नामक दैत्योंको मारा है॥१२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यत् तु ध्वजस्थानगतो यत्नात् परिचराम्यहम्।
वहामि चैवानुजं ते तेन मामवमन्यसे ॥ १३ ॥

मूलम्

यत् तु ध्वजस्थानगतो यत्नात् परिचराम्यहम्।
वहामि चैवानुजं ते तेन मामवमन्यसे ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तथापि मैं जो रथकी ध्वजामें रहकर यत्नपूर्वक आपके छोटे भाई (विष्णु)-की सेवा करता और उनको वहन करता हूँ, इसीसे आप मेरी अवहेलना करते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कोऽन्यो भार सहो ह्यस्ति कोऽन्योऽस्ति बलवत्तरः।
मया योऽहं विशिष्टः सन् वहामीमं सबान्धवम् ॥ १४ ॥

मूलम्

कोऽन्यो भार सहो ह्यस्ति कोऽन्योऽस्ति बलवत्तरः।
मया योऽहं विशिष्टः सन् वहामीमं सबान्धवम् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

मेरे सिवा दूसरा कौन है, जो भगवान् विष्णुका महान् भार सह सके? कौन मुझसे अधिक बलवान् है? मैं सबसे विशिष्ट शक्तिशाली होकर भी बन्धु-बान्धवोंसहित इन विष्णुभगवान्‌का भार वहन करता हूँ॥१४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अवज्ञाय तु यत् तेऽहं भोजनाद् व्यपरोपितः।
तेन मे गौरवं नष्टं त्वत्तश्चास्माच्च वासव ॥ १५ ॥

मूलम्

अवज्ञाय तु यत् तेऽहं भोजनाद् व्यपरोपितः।
तेन मे गौरवं नष्टं त्वत्तश्चास्माच्च वासव ॥ १५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वासव! आपने मेरी अवज्ञा करके जो मेरा भोजन छीन लिया है, उसके कारण मेरा सारा गौरव नष्ट हो गया तथा इसमें कारण हुए हैं आप और ये श्रीहरि॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अदित्यां य इमे जाता बलविक्रमशालिनः।
त्वमेषां किल सर्वेषां बलेन बलवत्तरः ॥ १६ ॥

मूलम्

अदित्यां य इमे जाता बलविक्रमशालिनः।
त्वमेषां किल सर्वेषां बलेन बलवत्तरः ॥ १६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

विष्णो! अदितिके गर्भसे जो ये बल और पराक्रमसे सुशोभित देवता उत्पन्न हुए हैं, इन सबमें बलकी दृष्टिसे अधिक शक्तिशाली आप ही हैं॥१६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽहं पक्षैकदेशेन वहामि त्वां गतक्लमः।
विमृश त्वं शनैस्तात को न्वत्र बलवानिति ॥ १७ ॥

मूलम्

सोऽहं पक्षैकदेशेन वहामि त्वां गतक्लमः।
विमृश त्वं शनैस्तात को न्वत्र बलवानिति ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तात! आपको मैं अपनी पाँखके एक देशमें बिठाकर बिना किसी थकावटके ढोता रहता हूँ। धीरेसे आप ही विचार करें कि यहाँ कौन सबसे अधिक बलवान् है?॥१७॥

मूलम् (वचनम्)

कण्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तस्य वचनं श्रुत्वा खगस्योदर्कदारुणम्।
अक्षोभ्यं क्षोभयंस्तार्क्ष्यमुवाच रथचक्रभृत् ॥ १८ ॥
गरुत्मन् मन्यसेऽऽत्मानं बलवन्तं सुदुर्बलम्।
अलमस्मत्समक्षं ते स्तोतुमात्मानमण्डज ॥ १९ ॥

मूलम्

स तस्य वचनं श्रुत्वा खगस्योदर्कदारुणम्।
अक्षोभ्यं क्षोभयंस्तार्क्ष्यमुवाच रथचक्रभृत् ॥ १८ ॥
गरुत्मन् मन्यसेऽऽत्मानं बलवन्तं सुदुर्बलम्।
अलमस्मत्समक्षं ते स्तोतुमात्मानमण्डज ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कण्व मुनि कहते हैं— राजन्! गरुड़की ये बातें भयंकर परिणाम उपस्थित करनेवाली थीं। उन्हें सुनकर रथांगपाणि श्रीविष्णुने किसीसे क्षुब्ध न होनेवाले पक्षिराजको क्षुब्ध करते हुए कहा—‘गरुत्मन्! तुम हो तो अत्यन्त दुर्बल, परंतु अपने-आपको बड़ा भारी बलवान् मानते हो। अण्डज! मेरे सामने फिर कभी अपनी प्रशंसा न करना॥१८-१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

त्रैलोक्यमपि मे कृत्स्नमशक्तं देहधारणे।
अहमेवात्मनाऽऽत्मानं वहामि त्वां च धारये ॥ २० ॥

मूलम्

त्रैलोक्यमपि मे कृत्स्नमशक्तं देहधारणे।
अहमेवात्मनाऽऽत्मानं वहामि त्वां च धारये ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘सारी त्रिलोकी मिलकर भी मेरे शरीरका भार वहन करनेमें असमर्थ है। मैं ही अपने द्वारा अपने-आपको ढोता हूँ और तुमको भी धारण करता हूँ॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

इमं तावन्ममैकं त्वं बाहुं सव्येतरं वह।
यद्येनं धारयस्येकं सफलं ते विकत्थितम् ॥ २१ ॥

मूलम्

इमं तावन्ममैकं त्वं बाहुं सव्येतरं वह।
यद्येनं धारयस्येकं सफलं ते विकत्थितम् ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अच्छा, पहले तुम मेरी केवल दाहिनी भुजाका भार वहन करो। यदि इस एकको ही धारण कर लोगे तो तुम्हारी यह सारी आत्मप्रशंसा सफल समझी जायगी’॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः स भगवांस्तस्य स्कन्धे बाहुं समासजत्।
निपपात स भारार्तो विह्वलो नष्टचेतनः ॥ २२ ॥

मूलम्

ततः स भगवांस्तस्य स्कन्धे बाहुं समासजत्।
निपपात स भारार्तो विह्वलो नष्टचेतनः ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इतना कहकर भगवान् विष्णुने गरुडके कंधेपर अपनी दाहिनी बाँह रख दी। उसके बोझसे पीड़ित एवं विह्वल होकर गरुड़ गिर पड़े। उनकी चेतना भी नष्ट-सी हो गयी॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यावान्‌ हि भारः कृत्स्नायाः पृथिव्याः पर्वतैः सह।
एकस्या देहशाखायास्तावद् भारममन्यत ॥ २३ ॥

मूलम्

यावान्‌ हि भारः कृत्स्नायाः पृथिव्याः पर्वतैः सह।
एकस्या देहशाखायास्तावद् भारममन्यत ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

पर्वतोंसहित सम्पूर्ण पृथ्वीका जितना भार हो सकता है, उतना ही उस एक बाँहका भार है, यह गरुड़को अनुभव हुआ॥२३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न त्वेनं पीडयामास बलेन बलवत्तरः।
ततो हि जीवितं तस्य न व्यनीनशदच्युतः ॥ २४ ॥

मूलम्

न त्वेनं पीडयामास बलेन बलवत्तरः।
ततो हि जीवितं तस्य न व्यनीनशदच्युतः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अत्यन्त बलशाली भगवान् अच्युतने गरुड़को बलपूर्वक दबाया नहीं था; इसीलिये उनके जीवनका नाश नहीं हुआ॥२४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्यात्तास्यः स्रस्तकायश्च विचेता विह्वलः खगः।
मुमोच पत्राणि तदा गुरुभारप्रपीडितः ॥ २५ ॥

मूलम्

व्यात्तास्यः स्रस्तकायश्च विचेता विह्वलः खगः।
मुमोच पत्राणि तदा गुरुभारप्रपीडितः ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस महान् भारसे अत्यन्त पीड़ित हो गरुड़ने मुँह बा दिया। उनका सारा शरीर शिथिल हो गया। उन्होंने अचेत और विह्वल होकर अपने पंख छोड़ दिये॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

स विष्णुं शिरसा पक्षी प्रणम्य विनतासुतः।
विचेता विह्वलो दीनः किंचिद् वचनमब्रवीत् ॥ २६ ॥

मूलम्

स विष्णुं शिरसा पक्षी प्रणम्य विनतासुतः।
विचेता विह्वलो दीनः किंचिद् वचनमब्रवीत् ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर अचेत एवं विह्वल हुए विनतापुत्र पक्षिराज गरुड़ने भगवान् विष्णुके चरणोंमें प्रणाम किया और दीनभावसे कुछ कहा—॥२६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भगवल्लोँकसारस्य सदृशेन वपुष्मता ।
भुजेन स्वैरमुक्तेन निष्पिष्टोऽस्मि महीतले ॥ २७ ॥

मूलम्

भगवल्लोँकसारस्य सदृशेन वपुष्मता ।
भुजेन स्वैरमुक्तेन निष्पिष्टोऽस्मि महीतले ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘भगवन्! संसारके मूर्तिमान् सारतत्त्व-सदृश आपकी इस भुजाके द्वारा, जिसे आपने स्वाभाविक ही मेरे ऊपर रख दिया था, मैं पिसकर पृथ्वीपर गिर गया हूँ॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

क्षन्तुमर्हसि मे देव विह्वलस्याल्पचेतसः।
बलदाहविदग्धस्य पक्षिणो ध्वजवासिनः ॥ २८ ॥

मूलम्

क्षन्तुमर्हसि मे देव विह्वलस्याल्पचेतसः।
बलदाहविदग्धस्य पक्षिणो ध्वजवासिनः ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘देव! मैं आपकी ध्वजामें रहनेवाला एक साधारण पक्षी हूँ। इस समय आपके बल और तेजसे दग्ध होकर व्याकुल और अचेत-सा हो गया हूँ। आप मेरे अपराधको क्षमा करें॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न हि ज्ञातं बलं देव मया ते परमं विभो।
तेन मन्ये ह्यहं वीर्यमात्मनो न समं परैः ॥ २९ ॥

मूलम्

न हि ज्ञातं बलं देव मया ते परमं विभो।
तेन मन्ये ह्यहं वीर्यमात्मनो न समं परैः ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘विभो! मुझे आपके महान् बलका पता नहीं था। देव! इसीसे मैं अपने बल और पराक्रमको दूसरोंके समान ही नहीं, उनसे बहुत बढ़-चढ़कर मानता था’॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततश्चक्रे स भगवान् प्रसादं वै गरुत्मतः।
मैवं भूय इति स्नेहात् तदा चैनमुवाच ह ॥ ३० ॥

मूलम्

ततश्चक्रे स भगवान् प्रसादं वै गरुत्मतः।
मैवं भूय इति स्नेहात् तदा चैनमुवाच ह ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

गरुड़के ऐसा कहनेपर भगवान्‌ने उनपर कृपादृष्टि की और उस समय स्नेहपूर्वक उनसे कहा—‘फिर कभी इस प्रकार घमंड न करना’॥३०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पादाङ्‌गुष्ठेन चिक्षेप सुमुखं गरुडोरसि।
ततःप्रभृति राजेन्द्र सह सर्पेण वर्तते ॥ ३१ ॥

मूलम्

पादाङ्‌गुष्ठेन चिक्षेप सुमुखं गरुडोरसि।
ततःप्रभृति राजेन्द्र सह सर्पेण वर्तते ॥ ३१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजेन्द्र! तत्पश्चात् भगवान्‌ने अपने पैरके अँगूठेसे सुमुख नागको उठाकर गरुड़के वक्षःस्थलपर रख दिया। तभीसे गरुड़ उस सर्पको सदा साथ लिये रहते हैं॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

एवं विष्णुबलाक्रान्तो गर्वनाशमुपागतः ।
गरुडो बलवान् राजन् वैनतेयो महायशाः ॥ ३२ ॥

मूलम्

एवं विष्णुबलाक्रान्तो गर्वनाशमुपागतः ।
गरुडो बलवान् राजन् वैनतेयो महायशाः ॥ ३२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

राजन्! इस प्रकार महायशस्वी बलवान् विनतानन्दन गरुड़ भगवान् विष्णुके बलसे आक्रान्त हो अपना अहंकार छोड़ बैठे॥३२॥

मूलम् (वचनम्)

कण्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

तथा त्वमपि गान्धारे यावत् पाण्डुसुतान् रणे।
नासादयसि तान् वीरांस्तावज्जीवसि पुत्रक ॥ ३३ ॥

मूलम्

तथा त्वमपि गान्धारे यावत् पाण्डुसुतान् रणे।
नासादयसि तान् वीरांस्तावज्जीवसि पुत्रक ॥ ३३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कण्व मुनि कहते हैं— गान्धारीनन्दन वत्स दुर्योधन! इसी तरह तुम भी जबतक रणभूमिमें उन वीर पाण्डवोंको अपने सामने नहीं पाते, तभीतक जीवन धारण करते हो॥३३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

भीमः प्रहरतां श्रेष्ठो वायुपुत्रो महाबलः।
धनंजयश्चेन्द्रसुतो न हन्यातां तु कं रणे ॥ ३४ ॥

मूलम्

भीमः प्रहरतां श्रेष्ठो वायुपुत्रो महाबलः।
धनंजयश्चेन्द्रसुतो न हन्यातां तु कं रणे ॥ ३४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

योद्धाओंमें श्रेष्ठ महाबली भीम वायुके पुत्र हैं। अर्जुन भी इन्द्रके पुत्र हैं। ये दोनों मिलकर युद्धमें किसे नहीं मार डालेंगे?॥३४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

विष्णुर्वायुश्च शक्रश्च धर्मस्तौ चाश्विनावुभौ।
एते देवास्त्वया केन हेतुना वीक्षितुं क्षमाः ॥ ३५ ॥

मूलम्

विष्णुर्वायुश्च शक्रश्च धर्मस्तौ चाश्विनावुभौ।
एते देवास्त्वया केन हेतुना वीक्षितुं क्षमाः ॥ ३५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

धर्मस्वरूप विष्णु, वायु, इन्द्र और वे दोनों अश्विनीकुमार—इतने देवता तुम्हारे विरुद्ध हैं। तुम किस कारणसे इन देवताओंकी ओर देखनेका भी साहस कर सकते हो?॥३५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तदलं ते विरोधेन शमं गच्छ नृपात्मज।
वासुदेवेन तीर्थेन कुलं रक्षितुमर्हसि ॥ ३६ ॥

मूलम्

तदलं ते विरोधेन शमं गच्छ नृपात्मज।
वासुदेवेन तीर्थेन कुलं रक्षितुमर्हसि ॥ ३६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः राजकुमार! इस विरोधसे तुम्हें कुछ मिलनेवाला नहीं है। पाण्डवोंके साथ संधि कर लो। भगवान् श्रीकृष्णको सहायक बनाकर इनके द्वारा तुम्हें अपने कुलकी रक्षा करनी चाहिये॥३६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रत्यक्षदर्शी सर्वस्य नारदोऽयं महातपाः।
माहात्म्यस्य तदा विष्णोः सोऽयं चक्रगदाधरः ॥ ३७ ॥

मूलम्

प्रत्यक्षदर्शी सर्वस्य नारदोऽयं महातपाः।
माहात्म्यस्य तदा विष्णोः सोऽयं चक्रगदाधरः ॥ ३७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन महातपस्वी नारदजीने उस समय भगवान् विष्णुके माहात्म्यको प्रत्यक्ष देखा था। वे चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान् विष्णु ही ये ‘श्रीकृष्ण’ हैं॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

दुर्योधनस्तु तच्छ्रुत्वा निःश्वसन् भृकुटीमुखः।
राधेयमभिसम्प्रेक्ष्य जहास स्वनवत् तदा ॥ ३८ ॥

मूलम्

दुर्योधनस्तु तच्छ्रुत्वा निःश्वसन् भृकुटीमुखः।
राधेयमभिसम्प्रेक्ष्य जहास स्वनवत् तदा ॥ ३८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! कण्वका वह कथन सुनकर दुर्योधनकी भौंहें तन गयीं। वह लम्बी साँस खींचता हुआ राधानन्दन कर्णकी ओर देखकर जोर-जोरसे हँसने लगा॥३८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कदर्थीकृत्य तद् वाक्यमृषेः कण्वस्य दुर्मतिः।
ऊरुं गजकराकारं ताडयन्निदमब्रवीत् ॥ ३९ ॥

मूलम्

कदर्थीकृत्य तद् वाक्यमृषेः कण्वस्य दुर्मतिः।
ऊरुं गजकराकारं ताडयन्निदमब्रवीत् ॥ ३९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

उस दुर्बुद्धिने कण्व मुनिके वचनोंकी अवहेलना करके हाथीकी सूँड़के समान चढ़ाव-उतारवाली अपनी मोटी जाँघपर हाथ पीटकर इस प्रकार कहा—॥३९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथैवेश्वरसृष्टोऽस्मि यद् भावि या च मे गतिः।
तथा महर्षे वर्तामि किं प्रलापः करिष्यति ॥ ४० ॥

मूलम्

यथैवेश्वरसृष्टोऽस्मि यद् भावि या च मे गतिः।
तथा महर्षे वर्तामि किं प्रलापः करिष्यति ॥ ४० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘महर्षे! मुझे ईश्वरने जैसा बनाया है, जो होनहार और जैसी मेरी अवस्था है, उसीके अनुसार मैं बर्ताव करता हूँ। आपलोगोंका यह प्रलाप क्या करेगा?’॥४०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि मातलिवरान्वेषणे पञ्चाधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०५ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें मातलिके द्वारा वरका खोजविषयक एक सौ पाँचवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०५॥