१०४ मातलिवरान्वेषणे

भागसूचना

चतुरधिकशततमोऽध्यायः

सूचना (हिन्दी)

नारदजीका नागराज आर्यकके सम्मुख सुमुखके साथ मातलिकी कन्याके विवाहका प्रस्ताव एवं मातलिका नारदजी, सुमुख एवं आर्यकके साथ इन्द्रके पास आकर उनके द्वारा सुमुखको दीर्घायु प्रदान कराना तथा सुमुख-गुणकेशी-विवाह

मूलम् (वचनम्)

(कण्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातलेर्वचनं श्रुत्वा नारदो मुनिसत्तमः।

मूलम्

मातलेर्वचनं श्रुत्वा नारदो मुनिसत्तमः।

Misc Detail

अब्रवीन्नागराजानमार्यकं कुरुनन्दन ॥ )

अनुवाद (हिन्दी)

कण्व मुनि कहते हैं— कुरुनन्दन! मातलिकी बात सुनकर मुनिश्रेष्ठ नारदने नागराज आर्यकसे कहा।

मूलम् (वचनम्)

नारद उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

सूतोऽयं मातलिर्नाम शक्रस्य दयितः सुहृत्।
शुचिः शीलगुणोपेतस्तेजस्वी वीर्यवान् बली ॥ १ ॥

मूलम्

सूतोऽयं मातलिर्नाम शक्रस्य दयितः सुहृत्।
शुचिः शीलगुणोपेतस्तेजस्वी वीर्यवान् बली ॥ १ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारदजी बोले— नागराज! ये इन्द्रके प्रिय सखा और सारथि मातलि हैं। इनमें पवित्रता, सुशीलता और समस्त सद्‌गुण भरे हुए हैं। ये तेजस्वी होनेके साथ ही बल-पराक्रमसे सम्पन्न हैं॥१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शक्रस्यायं सखा चैव मन्त्री सारथिरेव च।
अल्पान्तरप्रभावश्च वासवेन रणे रणे ॥ २ ॥

मूलम्

शक्रस्यायं सखा चैव मन्त्री सारथिरेव च।
अल्पान्तरप्रभावश्च वासवेन रणे रणे ॥ २ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रके मित्र, मन्त्री और सारथि सब कुछ यही हैं। प्रत्येक युद्धमें ये इन्द्रके साथ रहते हैं। इनका प्रभाव इन्द्रसे कुछ ही कम है॥२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अयं हरिसहस्रेण युक्तं जैत्रं रथोत्तमम्।
देवासुरेषु युद्धेषु मनसैव नियच्छति ॥ ३ ॥

मूलम्

अयं हरिसहस्रेण युक्तं जैत्रं रथोत्तमम्।
देवासुरेषु युद्धेषु मनसैव नियच्छति ॥ ३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये देवासुर-संग्राममें सहस्र घोड़ोंसे जुते हुए देवराजके विजयशील श्रेष्ठ रथका अपने मानसिक संकल्पसे ही (संचालन और) नियन्त्रण करते हैं॥३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अनेन विजितानश्वैर्दोर्भ्यां जयति वासवः।
अनेन बलभित् पूर्वं प्रहृते प्रहरत्युत ॥ ४ ॥

मूलम्

अनेन विजितानश्वैर्दोर्भ्यां जयति वासवः।
अनेन बलभित् पूर्वं प्रहृते प्रहरत्युत ॥ ४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

ये अपने अश्वोंद्वारा जिन शत्रुओंको जीत लेते हैं, उन्हींको देवराज इन्द्र अपने बाहुबलसे पराजित करते हैं। पहले इनके द्वारा प्रहार हो जानेपर ही बलनाशक इन्द्र शत्रुओंपर प्रहार करते हैं॥४॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अस्य कन्या वरारोहा रूपेणासदृशी भुवि।
सत्यशीलगुणोपेता गुणकेशीति विश्रुता ॥ ५ ॥

मूलम्

अस्य कन्या वरारोहा रूपेणासदृशी भुवि।
सत्यशीलगुणोपेता गुणकेशीति विश्रुता ॥ ५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इनके एक सुन्दरी कन्या है, जिसके रूपकी समानता भूमण्डलमें कहीं नहीं है। उसका नाम है गुणकेशी। वह सत्य, शील और सद्‌गुणोंसे सम्पन्न है॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

तस्यास्य यत्नाच्चरतस्त्रैलोक्यममरद्युते ।
सुमुखो भवतः पौत्रो रोचते दुहितुः पतिः ॥ ६ ॥

मूलम्

तस्यास्य यत्नाच्चरतस्त्रैलोक्यममरद्युते ।
सुमुखो भवतः पौत्रो रोचते दुहितुः पतिः ॥ ६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

देवोपम कान्तिवाले नागराज! ये मातलि बड़े प्रयत्नसे कन्याके लिये वर ढूँढ़नेके निमित्त तीनों लोकोंमें विचरते हुए यहाँ आये हैं। आपका पौत्र सुमुख इन्हें अपनी कन्याका पति होनेयोग्य प्रतीत हुआ है; उसीको इन्होंने पसंद किया है॥६॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यदि ते रोचते सम्यग् भुजगोत्तम मा चिरम्।
क्रियतामार्यक क्षिप्रं बुद्धिः कन्यापरिग्रहे ॥ ७ ॥

मूलम्

यदि ते रोचते सम्यग् भुजगोत्तम मा चिरम्।
क्रियतामार्यक क्षिप्रं बुद्धिः कन्यापरिग्रहे ॥ ७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नागप्रवर आर्यक! यदि आपको भी यह सम्बन्ध भलीभाँति रुचिकर जान पड़े तो शीघ्र ही इनकी पुत्रीको ब्याह लानेका निश्चय कीजिये॥७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

यथा विष्णुकुले लक्ष्मीर्यथा स्वाहा विभावसोः।
कुले तव तथैवास्तु गुणकेशी सुमध्यमा ॥ ८ ॥

मूलम्

यथा विष्णुकुले लक्ष्मीर्यथा स्वाहा विभावसोः।
कुले तव तथैवास्तु गुणकेशी सुमध्यमा ॥ ८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

जैसे भगवान् विष्णुके घरमें लक्ष्मी और अग्निके घरमें स्वाहा शोभा पाती हैं, उसी प्रकार सुन्दरी गुणकेशी तुम्हारे कुलमें प्रतिष्ठित हो॥८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पौत्रस्यार्थे भवांस्तस्माद् गुणकेशीं प्रतीच्छतु।
सदृशीं प्रतिरूपस्य वासवस्य शचीमिव ॥ ९ ॥

मूलम्

पौत्रस्यार्थे भवांस्तस्माद् गुणकेशीं प्रतीच्छतु।
सदृशीं प्रतिरूपस्य वासवस्य शचीमिव ॥ ९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

अतः आप अपने पौत्रके लिये गुणकेशीको स्वीकार करें। जैसे इन्द्रके अनुरूप शची हैं, उसी प्रकार आपके सुयोग्य पौत्रके योग्य गुणकेशी है॥९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पितृहीनमपि ह्येनं गुणतो वरयामहे।
बहुमानाच्च भवतस्तथैवैरावतस्य च ॥ १० ॥
सुमुखस्य गुणैश्चैव शीलशौचदमादिभिः ।

मूलम्

पितृहीनमपि ह्येनं गुणतो वरयामहे।
बहुमानाच्च भवतस्तथैवैरावतस्य च ॥ १० ॥
सुमुखस्य गुणैश्चैव शीलशौचदमादिभिः ।

अनुवाद (हिन्दी)

आपके और ऐरावतके प्रति हमारे हृदयमें विशेष सम्मान है और यह सुमुख भी शील, शौच और इन्द्रियसंयम आदि गुणोंसे सम्पन्न है, इसलिये इसके पितृहीन होनेपर भी हम गुणोंके कारण इसका वरण करते हैं॥१०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

अभिगम्य स्वयं कन्यामयं दातुं समुद्यतः ॥ ११ ॥
मातलिस्तस्य सम्मानं कर्तुमर्हो भवानपि।

मूलम्

अभिगम्य स्वयं कन्यामयं दातुं समुद्यतः ॥ ११ ॥
मातलिस्तस्य सम्मानं कर्तुमर्हो भवानपि।

अनुवाद (हिन्दी)

ये मातलि स्वयं चलकर कन्यादान करनेको उद्यत हैं। आपको भी इनका सम्मान करना चाहिये॥११॥

मूलम् (वचनम्)

कण्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

स तु दीनः प्रहृष्टश्च प्राह नारदमार्यकः ॥ १२ ॥

मूलम्

स तु दीनः प्रहृष्टश्च प्राह नारदमार्यकः ॥ १२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कण्व मुनि कहते हैं— कुरुनन्दन! तब नागराज आर्यक प्रसन्न होकर दीनभावसे बोले—॥१२॥

मूलम् (वचनम्)

आर्यक उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

व्रियमाणे तथा पौत्रे पुत्रे च निधनं गते।
कथमिच्छामि देवर्षे गुणकेशीं स्नुषां प्रति ॥ १३ ॥

मूलम्

व्रियमाणे तथा पौत्रे पुत्रे च निधनं गते।
कथमिच्छामि देवर्षे गुणकेशीं स्नुषां प्रति ॥ १३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

आर्यक पुनः बोले— ‘देवर्षे! मेरा पुत्र मारा गया और पौत्रका भी उसी प्रकार मृत्युने वरण किया है; अतः मैं गुणकेशीको बहू बनानेकी इच्छा कैसे करूँ?॥१३॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

न मे नैतद् बहुमतं महर्षे वचनं तव।
सखा शक्रस्य संयुक्तः कस्यायं नेप्सितो भवेत् ॥ १४ ॥

मूलम्

न मे नैतद् बहुमतं महर्षे वचनं तव।
सखा शक्रस्य संयुक्तः कस्यायं नेप्सितो भवेत् ॥ १४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

महर्षे! मेरी दृष्टिमें आपके इस वचनका कम आदर नहीं है और ये मातलि तो इन्द्रके साथ रहनेवाले उनके सखा हैं; अतः ये किसको प्रिय नहीं लगेंगे?॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

कारणस्य तु दौर्बल्याच्चिन्तयामि महामुने।
अस्य देहकरस्तात मम पुत्रो महाद्युते ॥ १५ ॥
भक्षितो वैनतेयेन दुःखार्तास्तेन वै वयम्।
पुनरेव च तेनोक्तं वैनतेयेन गच्छता।
मासेनान्येन सुमुखं भक्षयिष्य इति प्रभो ॥ १६ ॥
ध्रुवं तथा तद् भविता जानीमस्तस्य निश्चयम्।
तेन हर्षः प्रणष्टो मे सुपर्णवचनेन वै ॥ १७ ॥

मूलम्

कारणस्य तु दौर्बल्याच्चिन्तयामि महामुने।
अस्य देहकरस्तात मम पुत्रो महाद्युते ॥ १५ ॥
भक्षितो वैनतेयेन दुःखार्तास्तेन वै वयम्।
पुनरेव च तेनोक्तं वैनतेयेन गच्छता।
मासेनान्येन सुमुखं भक्षयिष्य इति प्रभो ॥ १६ ॥
ध्रुवं तथा तद् भविता जानीमस्तस्य निश्चयम्।
तेन हर्षः प्रणष्टो मे सुपर्णवचनेन वै ॥ १७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

परंतु माननीय महामुने! कारणकी दुर्बलतासे मैं चिन्तामें पड़ा रहता हूँ। महाद्युते! इस बालकका पिता, जो मेरा पुत्र था, गरुड़का भोजन बन गया। इस दुःखसे हमलोग पीड़ित हैं। प्रभो! जब गरुड़ यहाँसे जाने लगे, तब पुनः यह कहते गये कि दूसरे महीनेमें मैं सुमुखको भी खा जाऊँगा। अवश्य ही ऐसा ही होगा; क्योंकि हम गरुडके निश्चयको जानते हैं। गरुडके उस कथनसे मेरी हँसी-खुशी नष्ट हो गयी है॥१५—१७॥

मूलम् (वचनम्)

कण्व उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातलिस्त्वब्रवीदेनं बुद्धिरत्र कृता मया।
जामातृभावेन वृतः सुमुखस्तव पुत्रजः ॥ १८ ॥

मूलम्

मातलिस्त्वब्रवीदेनं बुद्धिरत्र कृता मया।
जामातृभावेन वृतः सुमुखस्तव पुत्रजः ॥ १८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

कण्व मुनि कहते हैं— राजन्! तब मातलिने आर्यकसे कहा—‘मैंने इस विषयमें एक विचार किया है। यह तो निश्चय ही है कि मैंने आपके पौत्रको जामाताके पदपर वरण कर लिया॥१८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सोऽयं मया च सहितो नारदेन च पन्नगः।
त्रिलोकेशं सुरपतिं गत्वा पश्यतु वासवम् ॥ १९ ॥

मूलम्

सोऽयं मया च सहितो नारदेन च पन्नगः।
त्रिलोकेशं सुरपतिं गत्वा पश्यतु वासवम् ॥ १९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘अतः यह नागकुमार मेरे और नारदजीके साथ त्रिलोकीनाथ देवराज इन्द्रके पास चलकर उनका दर्शन करे॥१९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

शेषेणैवास्य कार्येण प्रज्ञास्याम्यहमायुषः ।
सुपर्णस्य विघाते च प्रयतिष्यामि सत्तम ॥ २० ॥

मूलम्

शेषेणैवास्य कार्येण प्रज्ञास्याम्यहमायुषः ।
सुपर्णस्य विघाते च प्रयतिष्यामि सत्तम ॥ २० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘साधुशिरोमणे! तदनन्तर मैं अवशिष्ट कार्यद्वारा इसकी आयुके विषयमें जानकारी प्राप्त करूँगा और इस बातकी भी चेष्टा करूँगा कि गरुड़ इसे न मार सकें॥२०॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

सुमुखश्च मया सार्धं देवेशमभिगच्छतु।
कार्यसंसाधनार्थाय स्वस्ति तेऽस्तु भुजंगम ॥ २१ ॥

मूलम्

सुमुखश्च मया सार्धं देवेशमभिगच्छतु।
कार्यसंसाधनार्थाय स्वस्ति तेऽस्तु भुजंगम ॥ २१ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘नागराज! आपका कल्याण हो। सुमुख अपने अभीष्ट कार्यकी सिद्धिके लिये मेरे साथ देवराज इन्द्रके पास चले’॥२१॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततस्ते सुमुखं गृह्य सर्व एव महौजसः।
ददृशुः शक्रमासीनं देवराजं महाद्युतिम् ॥ २२ ॥

मूलम्

ततस्ते सुमुखं गृह्य सर्व एव महौजसः।
ददृशुः शक्रमासीनं देवराजं महाद्युतिम् ॥ २२ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तदनन्तर उन सभी महातेजस्वी सज्जनोंने सुमुखको साथ लेकर परम कान्तिमान् देवराज इन्द्रका दर्शन किया, जो स्वर्गके सिंहासनपर विराजमान थे॥२२॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

संगत्या तत्र भगवान् विष्णुरासीच्चतुर्भुजः।
ततस्तत् सर्वमाचख्यौ नारदो मातलिं प्रति ॥ २३ ॥

मूलम्

संगत्या तत्र भगवान् विष्णुरासीच्चतुर्भुजः।
ततस्तत् सर्वमाचख्यौ नारदो मातलिं प्रति ॥ २३ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

दैवयोगसे वहाँ चतुर्भुज भगवान् विष्णु भी उपस्थित थे। तदनन्तर देवर्षि नारदने मातलिसे सम्बन्ध रखनेवाला सारा वृत्तान्त कह सुनाया॥२३॥

मूलम् (वचनम्)

वैशम्पायन उवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ततः पुरंदरं विष्णुरुवाच भुवनेश्वरम्।
अमृतं दीयतामस्मै क्रियताममरैः समः ॥ २४ ॥

मूलम्

ततः पुरंदरं विष्णुरुवाच भुवनेश्वरम्।
अमृतं दीयतामस्मै क्रियताममरैः समः ॥ २४ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

वैशम्पायनजी कहते हैं— जनमेजय! तत्पश्चात् भगवान् विष्णुने लोकेश्वर इन्द्रसे कहा—‘देवराज! तुम सुमुखको अमृत दे दो और इसे देवताओंके समान बना दो॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

मातलिर्नारदश्चैव सुमुखश्चैव वासव ।
लभन्तां भवतः कामात् काममेतं यथेप्सितम् ॥ २५ ॥

मूलम्

मातलिर्नारदश्चैव सुमुखश्चैव वासव ।
लभन्तां भवतः कामात् काममेतं यथेप्सितम् ॥ २५ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

‘वासव! इस प्रकार मातलि, नारद और सुमुख—ये सभी तुमसे इच्छानुसार अमृतका दान पाकर अपना यह अभीष्ट मनोरथ पूर्ण कर लें’॥२५॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

पुरंदरोऽथ संचिन्त्य वैनतेयपराक्रमम् ।
विष्णुमेवाब्रवीदेनं भवानेव ददात्विति ॥ २६ ॥

मूलम्

पुरंदरोऽथ संचिन्त्य वैनतेयपराक्रमम् ।
विष्णुमेवाब्रवीदेनं भवानेव ददात्विति ॥ २६ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब देवराज इन्द्रने गरुडके पराक्रमका विचार करके भगवान् विष्णुसे कहा—‘आप ही इसे उत्तम आयु प्रदान कीजिये’॥२६॥

मूलम् (वचनम्)

विष्णुरुवाच

विश्वास-प्रस्तुतिः

ईशस्त्वं सर्वलोकानां चराणामचराश्च ये।
त्वया दत्तमदत्तं कः कर्तुमुत्सहते विभो ॥ २७ ॥

मूलम्

ईशस्त्वं सर्वलोकानां चराणामचराश्च ये।
त्वया दत्तमदत्तं कः कर्तुमुत्सहते विभो ॥ २७ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

भगवान् विष्णु बोले— प्रभो! तुम सम्पूर्ण जगत्‌में जितने भी चराचर प्राणी हैं, उन सबके ईश्वर हो। तुम्हारी दी हुई आयुको बिना दी हुई करने (मिटाने)-का साहस कौन कर सकता है?॥२७॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

प्रादाच्छक्रस्ततस्तस्मै पन्नगायायुरुत्तमम् ।
न त्वेनममृतप्राशं चकार बलवृत्रहा ॥ २८ ॥

मूलम्

प्रादाच्छक्रस्ततस्तस्मै पन्नगायायुरुत्तमम् ।
न त्वेनममृतप्राशं चकार बलवृत्रहा ॥ २८ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

तब इन्द्रने उस नागको अच्छी आयु प्रदान की, परंतु बलासुर और वृत्रासुरका विनाश करनेवाले इन्द्रने उसे अमृतभोजी नहीं बनाया॥२८॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

लब्ध्वा वरं तु सुमुखः सुमुखः सम्बभूव ह।
कृतदारो यथाकामं जगाम च गृहान् प्रति ॥ २९ ॥

मूलम्

लब्ध्वा वरं तु सुमुखः सुमुखः सम्बभूव ह।
कृतदारो यथाकामं जगाम च गृहान् प्रति ॥ २९ ॥

अनुवाद (हिन्दी)

इन्द्रका वर पाकर सुमुखका मुख प्रसन्नतासे खिल उठा। वह विवाह करके इच्छानुसार अपने घरको चला गया॥२९॥

विश्वास-प्रस्तुतिः

नारदस्त्वार्यकश्चैव कृतकार्यौ मुदा युतौ।
अभिजग्मतुरभ्यर्च्य देवराजं महाद्युतिम् ॥ ३० ॥

मूलम्

नारदस्त्वार्यकश्चैव कृतकार्यौ मुदा युतौ।
अभिजग्मतुरभ्यर्च्य देवराजं महाद्युतिम् ॥ ३० ॥

अनुवाद (हिन्दी)

नारद और आर्यक दोनों ही कृतकृत्य हो महातेजस्वी देवराजकी अर्चना करके प्रसन्नतापूर्वक अपने-अपने स्थानको चले गये॥३०॥

मूलम् (समाप्तिः)

इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि मातलिवरान्वेषणे चतुरधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०४ ॥

मूलम् (वचनम्)

इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें मातलिके द्वारा वरका खोजविषयक एक सौ चारवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०४॥

सूचना (हिन्दी)

[दाक्षिणात्य अधिक पाठका १ श्लोक मिलाकर कुल ३१ श्लोक हैं।]