भागसूचना
द्व्यधिकशततमोऽध्यायः
सूचना (हिन्दी)
सुरभि और उसकी संतानोंके साथ रसातलके सुखका वर्णन
मूलम् (वचनम्)
नारद उवाच
विश्वास-प्रस्तुतिः
इदं रसातलं नाम सप्तमं पृथिवीतलम्।
यत्रास्ते सुरभिर्माता गवाममृतसम्भवा ॥ १ ॥
मूलम्
इदं रसातलं नाम सप्तमं पृथिवीतलम्।
यत्रास्ते सुरभिर्माता गवाममृतसम्भवा ॥ १ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
नारदजी बोले— मातले! यह पृथ्वीका सातवाँ तल है, जिसका नाम रसातल है। यहाँ अमृतसे उत्पन्न हुई गोमाता सुरभि निवास करती हैं॥१॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
क्षरन्ती सततं क्षीरं पृथिवीसारसम्भवम्।
षण्णां रसानां सारेण रसमेकमनुत्तमम् ॥ २ ॥
मूलम्
क्षरन्ती सततं क्षीरं पृथिवीसारसम्भवम्।
षण्णां रसानां सारेण रसमेकमनुत्तमम् ॥ २ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
ये सुरभि पृथ्वीके सारतत्त्वसे प्रकट, छः रसोंके सारभागसे संयुक्त एवं सर्वोत्तम, अनिर्वचनीय एकरसरूप क्षीरको सदा अपने स्तनोंसे प्रवाहित करती रहती हैं॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अमृतेनाभितृप्तस्य सारमुद्गिरतः पुरा ।
पितामहस्य वदनादुदतिष्ठदनिन्दिता ॥ ३ ॥
मूलम्
अमृतेनाभितृप्तस्य सारमुद्गिरतः पुरा ।
पितामहस्य वदनादुदतिष्ठदनिन्दिता ॥ ३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पूर्वकालमें जब ब्रह्मा अमृतपान करके तृप्त हो उसका सारभाग अपने मुखसे निकाल रहे थे, उसी समय उनके मुखसे अनिन्दिता सुरभिका प्रादुर्भाव हुआ था॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
यस्याः क्षीरस्य धाराया निपतन्त्या महीतले।
ह्रदः कृतः क्षीरनिधिः पवित्रं परमुच्यते ॥ ४ ॥
मूलम्
यस्याः क्षीरस्य धाराया निपतन्त्या महीतले।
ह्रदः कृतः क्षीरनिधिः पवित्रं परमुच्यते ॥ ४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
पृथ्वीपर निरन्तर गिरती हुई उस सुरभिके क्षीरकी धारासे एक अनन्त ह्रद बन गया, जिसे ‘क्षीरसागर’ कहते हैं। वह परम पवित्र है॥४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पुष्पितस्येव फेनेन पर्यन्तमनुवेष्टितम् ।
पिबन्तो निवसन्त्यत्र फेनपा मुनिसत्तमाः ॥ ५ ॥
मूलम्
पुष्पितस्येव फेनेन पर्यन्तमनुवेष्टितम् ।
पिबन्तो निवसन्त्यत्र फेनपा मुनिसत्तमाः ॥ ५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
क्षीरसागरसे जो फेन उत्पन्न होता है, वह पुष्पके समान जान पड़ता है। वह फेन क्षीरसमुद्रके तटपर फैला रहता है, जिसे पीते हुए फेनपसंज्ञक बहुत-से मुनिश्रेष्ठ इस रसातलमें निवास करते हैं॥५॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
फेनपा नाम ते ख्याताः फेनाहाराश्च मातले।
उग्रे तपसि वर्तन्ते येषां बिभ्यति देवताः ॥ ६ ॥
मूलम्
फेनपा नाम ते ख्याताः फेनाहाराश्च मातले।
उग्रे तपसि वर्तन्ते येषां बिभ्यति देवताः ॥ ६ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मातले! फेनका आहार करनेके कारण वे महर्षिगण ‘फेनप’ नामसे विख्यात हैं। वे बड़ी कठोर तपस्यामें संलग्न रहते हैं। उनसे देवतालोग भी डरते हैं॥६॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अस्याश्चतस्रो धेन्वोऽन्या दिक्षु सर्वासु मातले।
निवसन्ति दिशां पाल्यो धारयन्त्यो दिशः स्म ताः ॥ ७ ॥
मूलम्
अस्याश्चतस्रो धेन्वोऽन्या दिक्षु सर्वासु मातले।
निवसन्ति दिशां पाल्यो धारयन्त्यो दिशः स्म ताः ॥ ७ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मातले! सुरभिकी पुत्रीस्वरूपा चार अन्य धेनुएँ हैं, जो सब दिशाओंमें निवास करती हैं। वे दिशाओंका धारण-पोषण करनेवाली हैं॥७॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पूर्वां दिशं धारयते सुरूपा नाम सौरभी।
दक्षिणां हंसिका नाम धारयत्यपरां दिशम् ॥ ८ ॥
मूलम्
पूर्वां दिशं धारयते सुरूपा नाम सौरभी।
दक्षिणां हंसिका नाम धारयत्यपरां दिशम् ॥ ८ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुरूपा नामवाली धेनु पूर्वदिशाको धारण करती है तथा उससे भिन्न दक्षिणदिशाका हंसिका नामवाली धेनु धारण-पोषण करती है॥८॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
पश्चिमा वारुणी दिक् च धार्यते वै सुभद्रया।
महानुभावया नित्यं मातले विश्वरूपया ॥ ९ ॥
मूलम्
पश्चिमा वारुणी दिक् च धार्यते वै सुभद्रया।
महानुभावया नित्यं मातले विश्वरूपया ॥ ९ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
मातले! महाप्रभावशालिनी विश्वरूपा सुभद्रा नामवाली सुरभिकन्याके द्वारा वरुणदेवकी पश्चिमदिशा धारण की जाती है॥९॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सर्वकामदुघा नाम धेनुर्धारयते दिशम्।
उत्तरां मातले धर्म्यां तथैलविलसंज्ञिताम् ॥ १० ॥
मूलम्
सर्वकामदुघा नाम धेनुर्धारयते दिशम्।
उत्तरां मातले धर्म्यां तथैलविलसंज्ञिताम् ॥ १० ॥
अनुवाद (हिन्दी)
चौथी धेनुका नाम सर्वकामदुघा है। मातले! वह धर्मयुक्त कुबेरसम्बन्धिनी उत्तरदिशाका धारण-पोषण करती है॥१०॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
आसां तु पयसा मिश्रं पयो निर्मथ्य सागरे।
मन्थानं मन्दरं कृत्वा देवैरसुरसंहितैः ॥ ११ ॥
उद्धृता वारुणी लक्ष्मीरमृतं चापि मातले।
उच्चैःश्रवाश्चाश्वराजो मणिरत्नं च कौस्तुभम् ॥ १२ ॥
मूलम्
आसां तु पयसा मिश्रं पयो निर्मथ्य सागरे।
मन्थानं मन्दरं कृत्वा देवैरसुरसंहितैः ॥ ११ ॥
उद्धृता वारुणी लक्ष्मीरमृतं चापि मातले।
उच्चैःश्रवाश्चाश्वराजो मणिरत्नं च कौस्तुभम् ॥ १२ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
देवसारथे! देवताओंने असुरोंसे मिलकर मन्दराचलको मथानी बनाकर इन्हीं धेनुओंके दूधसे मिश्रित क्षीरसागरकी दुग्धराशिका मन्थन किया और उससे वारुणी, लक्ष्मी एवं अमृतको प्रकट किया। तत्पश्चात् उस समुद्रामन्थनसे अश्वराज उच्चैःश्रवा तथा मणिरत्न कौस्तुभका भी प्रादुर्भाव हुआ था॥११-१२॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
सुधाहारेषु च सुधां स्वधाभोजिषु च स्वधाम्।
अमृतं चामृताशेषु सुरभी क्षरते पयः ॥ १३ ॥
मूलम्
सुधाहारेषु च सुधां स्वधाभोजिषु च स्वधाम्।
अमृतं चामृताशेषु सुरभी क्षरते पयः ॥ १३ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
सुरभि अपने स्तनोंसे जो दूध बहाती है, वह सुधाभोजी लोगोंके लिये सुधा, स्वधाभोजी पितरोंके लिये स्वधा तथा अमृतभोजी देवताओंके लिये अमृतरूप है॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
अत्र गाथा पुरा गीता रसातलनिवासिभिः।
पौराणी श्रूयते लोके गीयते या मनीषिभिः ॥ १४ ॥
मूलम्
अत्र गाथा पुरा गीता रसातलनिवासिभिः।
पौराणी श्रूयते लोके गीयते या मनीषिभिः ॥ १४ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
यहाँ रसातलनिवासियोंने पूर्वकालमें जो पुरातन गाथा गायी थी, वह अब भी लोकमें सुनी जाती है और मनीषी पुरुष उसका गान करते हैं॥१४॥
विश्वास-प्रस्तुतिः
न नागलोके न स्वर्गे न विमाने त्रिविष्टपे।
परिवासः सुखस्तादृग् रसातलतले यथा ॥ १५ ॥
मूलम्
न नागलोके न स्वर्गे न विमाने त्रिविष्टपे।
परिवासः सुखस्तादृग् रसातलतले यथा ॥ १५ ॥
अनुवाद (हिन्दी)
वह गाथा इस प्रकार है—‘नागलोक, स्वर्गलोक तथा स्वर्गलोकके विमानमें निवास करना भी वैसा सुखदायक नहीं होता, जैसा रसातलमें रहनेसे सुख प्राप्त होता है’॥१५॥
मूलम् (समाप्तिः)
इति श्रीमहाभारते उद्योगपर्वणि भगवद्यानपर्वणि मातलिवरान्वेषणे द्व्यधिकशततमोऽध्यायः ॥ १०२ ॥
मूलम् (वचनम्)
इस प्रकार श्रीमहाभारत उद्योगपर्वके अन्तर्गत भगवद्यानपर्वमें मातलिके द्वारा वरका खोजविषयक एक सौ दोवाँ अध्याय पूरा हुआ॥१०२॥